मिट्टी का कौर


 मिट्टी का कौर
( तेलुगु कहानी )

जाजुला गौरी
अनुवाद : आर. शान्ता सुंदरी


(यह एक तेलुगु कहानी का हिंदी तर्जुमा है.इसे मेरे पास गुजरात के फारुख शाह जी ने भेजा है.आप सब भी पढ़ें और देखें कैसे बचपन में भोजन की तलब क्या से क्या करवाती है....)


       बचपन से देखती आ रही हूँ । घर में माँ–बाप हमेशा लड़ते झगड़ते ही रहते हैं । वे क्यों लड़ते हैं, क्यों एक दूसरे को गालियाँ देते हैं और फिर आपस में ऐसे बातें करते बैठते हैं जैसे कुछ भी नहीं हुआ, मेरी समझ में तो नहीं आता था ।

       घर में राशन है ? खाने के लिए कुछ है ? बच्चे भूखे पेट सोते हैं या उन्हें खाने को कुछ मिलता है ? ये सब जानने की कोशिश भी करते हो कभी ? बस, अपनी मर्जी चलाते हो । रोज-रोज पीकर आना क्या इतना जरूरी है ? मजूरी करके पैसे कमाओ और सीधे आकर मेरे हाथ में दे दो, वरना यह घर चलाने का काम मुझसे नहीं होगा । रोज-रोज सबको फाके करने पड़ेंगे, हाँ ! – बुझे चूल्हे के सामने बैठकर माँ, बापू से कहती ।

       तेरी तो... क्या बकबक किये जाती है तू ? सारा पैसा लाकर तेरे हाथों में ही तो देता हूँ ! हड्डी-पसली एक हो जाती है, तो एक बूँद क्या पी ली, तू इतना शोर मचाती है ? सारा दिन कमरतोड़ मेहनत करके घर आता हूँ तो खिलाने-पिलाने की धुन नहीं रहती, तुझे ? जब देखो घर, बच्चे, गिरस्ती... बस ! मेरी कोई फिकर नहीं तुझे ? धत्त तेरी की... चिल्लाता हुए बापू गुस्से में बाहर चला जाता ।

       शाम को गया आदमी आधी रात को झूमता, लड़खड़ाता घर वापस आता । पूरे नशे में होता फिर भी माँ को पुकारता, अरी लक्ष्मी ! क्या कर रही है ? जोरों से भूख लगी है, खाना दे... ऐ ! सुनाई देता है कि नहीं... खाना दे... ! और आँख तरेरकर माँ को देखने लगता ।

         अरे तुम रात-बिरात चले आते हो तो कौन तेरी राह देखता बैठा रहेगा इधर ? नशे में धुल लौटा है न ? कितनी बार कहूँ कि पीना छोड़ दो ! शर्म नहीं आती ? माँ बापू को कोसने लग जाती ।

       क्या री, बढ़-चढ़कर बात मत कर, समझी ? मेरी मर्जी... कमाता हूँ, पीता हूँ... तू कौन होती पूछने वाली ? तू अपने मायके से लाई क्या पैसा ? फिर मुँह खोला तो मार डालूँगा... कहते हुए बापू माँ को पीटने लगता ।

     आधी रात को यह शोर सुनकर हम बच्चे जाग जाते, पर डर के मारे चुपचाप लेटे रहते ।

     माँ गालियाँ देती थी और बापू माँ को पीटता था । रोना-धोना, चिल्लाना रातभर चलता रहता था । यह सुन देखकर हमें भी रोना आ जाता, पर मैं और छोटी बहन एक दूसरे की ओर देखते हुए रोते-रोते न जाने कब सो जाती थीं !
       जरा बड़ी हुई तो हमारी तकलीफें थोड़ी-थोड़ी समझ आने लगी । बापू अकेला कमाता है उसमें से थोड़े पैसे शराब में उड़ा देता है । माँ बहुत समझाती कि बच्चे बड़े हो रहे हैं उनकी जरूरतें बढ़ रही हैं, उनके बारे में तो सोचो । एक-दो दिन बापू पीना छोड़ देता पर फिर से शराब की लत उसे नहीं छोड़ती ।

       एक दिन सुबह माँ ने कुछ भी नहीं पकाया । मेरे पेट में चूहे दौड़ रहे थे । धीरे से माँ के पास जाकर बोली, माँ भूख लगी है । कुछ खाने को बना दे न ?

       माँ ने कहा जरा ठहर जा बेटी ! भैया को दूकान भेजा है, चावल खरीदकर लाते ही खाना बना दूँगी ।

            आज सुबह से मेरा जी कुछ ठीक नहीं था । चक्कर आने लगा । भैया की राह देखते-देखते मैं थक गई । वह अभी तक नहीं आया तो मैं फिर माँ के पास गई और मचलकर बोली, पैसा ही दे दो माँ, कुछ खरीदकर खा लूंगी । भूख मुझसे बर्दाश्त नहीं हो रही है ।

       हाय मेरी बच्ची ! बस जरा सी देर और बर्दाश्त कर ले । सुबह खाओ तो रात के लिए कुछ नहीं बचता और रात को खाने पर सुबह सब खाली हो जाता है । मैं क्या करूँ बोलो, बेटी ? जो पैसे थे सब तेरे भैया को दे दिए । तेरा बापू भी खाली पेट काम पर चला गया, सुबह-सुबह । इस जलती धूप में न जाने कैसे काम करता होगा ? एक हफ्ते से काम भी नहीं मिल रहा है, इसी से और परेशानी बढ़ गई है। बापू के पास जितने पैसे थे, सब मुझे देकर गया है । बस कुछ देर और... वह देख तेरा भाई आ रहा है, इतना कहकर माँ चूल्हे के पास गई । मुझसे भूख बर्दाश्त नहीं हो रही थी... पेट में जलन सी होने लगी। मटके से पानी लेकर पिया और दरवाजे के पास चली गई । सूरज सर पर आ चुका था । धूप तेज थी । तेज धूप में खड़े रहने से मुझे चक्कर आते हैं । तो वहाँ से चलकर सामने के पेड़ के नीचे चली गई ।

       पेड़ के नीचे, साए में जरा सी ठंडक महसूस हुई, लेकिन पेट के अंदर भूख की आग भभक रही थी । पेड़ के नीचे बैठकर मिट्टी में उँगली से आड़ी-तिरछी लकीरें खींचती रही । पर भूख की आग पल-पल बढ़ने लगी । मैंने इधर-उधर नज़र डाली कि कहीं कोई मुझे देख तो नहीं रहा है ? फिर जब तसल्ली हुई तो मिट्टी हाथ में लेकर उसे छाना । कंकड़ और पत्थर के टुकड़े अलग हो गए और महीन मिट्टी हाथों में रह गई । उसे सूँघकर देखा । मिट्टी की बू बड़ी अच्छी लगी । बस एक ही झटके में उसे मुँह में डाल लिया । जब तक भूख जरा कम न होती मैं मिट्टी छानकर खाती रही । कुछ देर बाद भूख कुछ कुछ मिटी । मैं चुपचाप चलकर घर के अंदर गई । घर पहुँचकर देखा तो चावल लगभग पक चुका था । माँ, भाई और बहन चूल्हे के पास बैठकर इन्तजार कर रहे थे । पर मैं मटके के पास जाकर लोटे भर पानी को गटगट पी गई और माँ के पास जाकर जमीन पर लेट गई । खाने के लिए अब तक इतना शोर मचाने वाली मैं चुपचाप जाकर लेट गई, यह देखकर माँ, भाई और बहन हैरान रह गए । मुझे यह भी पता नहीं था कि बाद में क्या हुआ... मैं गहरी नींद में डूब गई । शायद वे तीनों इन्तजार करते ही रह गए कि अभी उठेगी और खाना माँगेगी ।

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1 comment:

  1. बेहद मर्मस्पर्शी कहानी

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