वक्त की चौखट पर कवितई

डॉ.सुनीता 
सहायक प्रोफ़ेसर, नई दिल्ली
साहित्य की सपनीली दुनिया में मूल्यांकन का स्तर सिमटता जा रहा है...
जब अध्ययन/मूल्यांकन का इरादा की तो कवितई-संसार ने सबसे अधिक सामुद्रिक गहराई का आभास कराया. इस आभासी प्रवृत्ति ने बार-बार सोचने और मंथन को उत्प्रेरित किया...आखिर 'निराला' की 'जुही की कली' में ऐसा क्या नहीं था...? जिसे ‘सरस्वती’ में स्थान देने से संपादक झिझकते रहे/ कतराते रहे...? सवाल शून्य के किसी खोह में ध्वनित है...मुंडे-मुंडे मतिर भिन्ने...
हम केवल २०१२-१३ के परिप्रेक्ष्य में बात करें तो लगभग ५ हजार से अधिक लेखक-लेखिकाएं साहित्य के चित्रपट पर अपना नाम अंकित करवाने में सक्षम रहीं या लालायित हैं...जिनमें से लगभग ३०० के आस-पास के लोगों के साझा संग्रह बाज़ार के हवाले हैं... जिनमें से कुछ पढ़ी जा रहीं हैं, कुछ प्रकाशक के आलमारी में कैद अपनी बारी का इन्तजार कर रही हैं...कश्मीर से कन्याकुमारी तक बात आम है...लगभग ३०५ व्यक्तिगत संग्रह छपे हैं...जिनमें से कुछ पर चर्चा-परिचर्चा भी हुई...कुछ पर वाद-विवाद/चोरी-सीनाजोरी के आरोप लगे...कुछ पठनीय तो कुछ अपठनीय ही रह गए...
मजे की बात यह रही कि अधिकांश लोगों ने पुस्तकें मांगकर/भेंट के माध्यम से या उधार के द्वारा  ही पढ़ीं...कुछ ने खरीदकर पढ़ने की आदत का सिद्दत से अनुपालन किया...फरवरी २०१३ से अब तक कई संग्रह आ गए हैं...उनमें से कुछ की रचनाएं पुरस्कृत भी हुईं तो कुछ पहले से ही पुरस्कार प्राप्त रही अर्थात साहित्य अकादमी के आर्थिक सहयोग के नाम रहीं...
जो सबसे दिलचस्प बात रही वो यह कि कविता बड़े मंच से उतर कर घरों तक और घरों से निकलकर जहाँ-तहां बिखर गयी...’ग्रुपलिज्म के यूथोपिया’ ने रही-सही भूमिका पक्की कर दी...
इन सारे बैठकबाजियों और चक्क्लसों के बीच दिलचस्प मामला यह रहा कि कविता ने अपने को सारे सीमा से परे पाया...मतलब साफ़ है कि- छंद, रस के स्थान पर तुक ने लिया उसके बाद लेख के रूप में तब्दील होती चली...इन्हीं ‘उगलवासियों’ के बीच कुछ लेखकों ने अपनी लेखकीय के ‘ताबुती’ बयानी से औरों से अलग अपना नाम लिखवाने में कामयाब रहे. वस्तुत: कुछ ने तीखी किन्तु अलग तरीके से कलम की धार को पैना बनाये रखा. उसमें प्रांजल धर और मृतुन्जय का नाम सबसे पहले ले सकते हैं क्योंकि इनका ध्यान केवल पुस्तकाकार पर नहीं होती है, बल्कि मृतक होती विधाओं को जिन्दा करने में है.
जहाँ अधिकतर लेखक जीवन में सबसे पहली प्राथमिकता संग्रह को देते हैं उन हालातों में शुभा जी का नाम अपने-आप होंठो पर आ जाता है जिन्होंने आजीवन जमीनी लड़ाई-लड़ी, स्त्री और असमानता के खिलाफ लिखती रहीं ‘पहल’ से लगायत तमाम प्रसिद्ध पत्रिकाओं में छपती रहीं, बावजूद कभी छपास को महत्व न दीं. ऐसे में पश्चिमी साहित्य कर्मियों का याद हो आना लाजमी है. कहते हैं कि विदेशों में एक संग्रह को कई-कई लोग मिलकर लिखते हैं फिर भी कहीं से टूटन, बिखराव या दोहराव नहीं जान पड़ता है.
‘अब के कवि खडोस, जह-तह करत प्रकाश’ की उक्ति भी अब काम नहीं कर रही है बल्कि आज के दौर को देखते हुए कह सकते हैं कि- अब, सब के सब तालाब, नाला में संतुष्टि के तलाशें रसधार’ सृजन के गंगा में डूबने के बजाय साहित्य के निंदा-रस में डूबते जा रहे हैं...
साहित्य की अधिकतर विधाएं सुप्तावस्था में हैं. जिनकी सुध कोई नहीं ले रहा है एक्का-दुक्का को छोड़कर बात करें तो दूर-दूर तक कोई भी नजर नहीं आ रहा है. हा कुछ एक प्रवृत्तियां चहुओर छाई हुईं हैं जिनके आलोक में समस्त साहित्य प्रकाशमान है. ऐसा प्राय: प्रतीत होता है जबकि ‘दिनौनी’ का धुंधलका इतना सघन है कि कुछ साफ़-साफ़ देखने में अक्षम हो गयें हैं.
धीरे-धीरे कविता संघर्ष से निकलकर मॉस-मज्जा/यौन/मांसल और विभत्सता के साथ व्यख्यायित होती जा रही है. असहमति का रास्ता अब दंगल में बदलती जा रही है...शब्दों में आदर्श और हकीकत में लहू साबित हो रही हैं. व्यक्ति का प्रतिबिम्ब उसकी कृति नहीं कुछ और ही होती जा रही है...कसौटी का पैमाना एक प्यादे की शक्ल इख्तियार करती जा रही है...  
...बाकी फिर कभी...

      

6 comments:

  1. har shabd aapke satya hai....sahitya samaz or wyakti ka darpan hone ki jagah kuch or me tabdil hote ja rahi...sarahniy vichar..

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    1. अपर्णा जी..!
      आप अपने सुझाव भी दे सकती हैं इससे हमारा मार्गदर्शन भी हो सकेगा...
      सादर...!

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  2. साहित्य की सपनीली दुनिया में मूल्यांकन का स्तर सिमटता जा रहा है. यह सच है. वगरना, इतने कवियों की भरमार होने के बावजूद उल्लेखनीय रचनाओं का कहीं जिक्र नहीं, जो महत्वपूर्ण है, उसकी कहीं पहचान नहीं, ऐसी स्थिति न आती. सिमटते पाठकवर्ग और रचनाओं की भरमार के दौर में ईमानदार मूल्यांकन की सख्त जरूरत है. आपसे उम्मीदें हैं.

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  3. डॉ. सुनिता जी प्रणाम।
    आपने सही विषय पर चर्चा को छेडा है। समय दर समय साहित्य के मूल्य, विषय, प्रस्तुति, शैली... सबकुछ बदल रहा है। वक्त की चौखट पर आपने कविता को कसने की कोशिश की है। किताब रूप में प्रकाशित कविताओं की चर्चा बहुत कम होती है पर कविताएं बहुत लिखी जा रही है। हां उसका स्वरूप किताबों से बदलकर मंचीय, ब्लॉगीय, फेसबुकीय... और न जाने क्या क्या हो गया है। हां उसके स्तर पर प्रश्न चिन्ह निर्माण होता है। वास्तव यह है कि आकार छोटा होने से कई कवि लिख रहे हैं पर उसे मांझने से कतरा रहे हैं। कविता या अन्य किसी भी साहित्य लेखन प्रकार को बडे प्यार से तराशा-मांझा जाए तो मूल्यवान बन जाता है। साहित्यिक तिकडमबाजी, गुठबाजी और उठापठक होती रहेगी, उसे रोका नहीं जा सकता। बस लिखने वालों को अपना नजरियां बदल कर इन स्थितियों से बिना कतराए, ऐसे वातावरण का आनंद लेते लिखना चाहिए।

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  4. wah wah bada hi achha likha hai aapne thanks
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