समालोचन: मैं कहता आँखिन देखी : अनामिका

समालोचन: मैं कहता आँखिन देखी : अनामिका
                    कुछ न कुछ 


घटना दर घटना रोज होते हैं 
सुनसान सड़कों पर बच्चे चिल्लाते हैं 
दूर खड़ी माँ फफ़क-फफ़क कर रोती है
क्रूर सामज में यह हत्या आत्महत्या नहीं होती है.

गम-ए-गुबार क्या था खबर नहीं 
ख्वारि में तन्हा चले थे मंजिल को 
सफर मुकद्श में युहिं सबे दिन गुजर जाएगा 
मेरे मरने के बाद सौगातों की यादें/अरमाने मिटा देना.

राह निकलेगी इसी ख्याल से बैठे-बैठे सदियाँ न बिताना 
कोई रास्ता निकलेगा इसकी उम्मीद नहीं खोवाना 
जमाने के जिल्लतों का क्या ?जलालत में जलने का हुनर रखना 
अपने सरीखे किसी और को खाई के समुन्द्र में न ठेलना.


दिल-ए-नादां का रास्ता सीधा-सीधा है यह याद रखना 
बहकाने के मजू तमाम हैं उनके चिरागों से न डरना 
चमक चाँदनी में भी होती है उसके रोशनी से धोखा न खाना 
सूरज सी तेज समझ सुई में धागे पिरोने का इरादा न करना. 

(अधूरा)
डॉ.सुनीता 
21/07/2012 
8:55

 जब भी मिलतीं  

सरे राह चलते हुए 
जब भी मिल जाती हैं 
अनजान राहों पर भी रिश्तों की अम्बार लगा जाती हैं 
जीवन के कठिन पथ पर अमराई सी मंडराती हुई 
अग्निपथ की अमित कहानी लिखती आगे बढ़ जाती हैं  

जब भी मिलती युगों-युगों के दर्द बहा देती हैं 
सागर के खरे जल से नैनों की गंगा लहरा देती हैं 
हिचकोले लेते भावनाओं पर बज्र सरीखे चट्टानें चिपकाती 
मुस्काती मधुर यामिनी की गीत-गज़ल बन मधुवन में मदमाती 
मोर-मुकुट ताने नाचे मौसम के धुन पर धूल उड़ाती जाती हैं 

जब भी मिल जाती अनहोनी कहानियों की पटकथा लिख देतीं 
बोती नीम-शहद की उम्मीद में दिन-रात एक कर चंचल चकला चलातीं 
चारु लता की चतुराई से चितवन की चमक चुरातीं फिरतीं तितली सी 
मोहक अदा से विदा लेती हर लेती बुद्धि की सुझाती सुमेर की बाते 
धन कुबेर बन फिरतीं बातों से बह्लातीं बकझक में जीवन की हर दुःख बहातीं जातीं हैं 

(अधूरा )

डॉ.सुनीता 
१७/०७/२०१२ 
४:१९ 



      महिला मुद्दे और ब्लॉग

चतुर्थ भाग--

(हम अपने विचार सभी तक पहुंचाने के लिए स्वतंत्र हैं...से आगे पढ़ें )

मैं स्वयं ब्लॉग के माध्यम से अपने बचपन की एक हृदय विदारक घटना को सबके सामने लाने में सफल रही.ये मेरे गाँव की घटना थी,वहाँ करीब छब्बीस साल पहले एक गरीब परिवार की अशिक्षित,नाबालिक लड़की का बलात्कार हुआ था,जिससे वो गर्भवती हो गयी,समाज के डर से उसकी अशिक्षित माँ ने उसका गर्भ गिराने के लिए उसे पता नहीं कौन सी दवाई दी...जिससे उसकी दर्दनाक मृत्यु हो गयी.
जिस लड़की के साथ ये घटना घटी उसका नाम 'फर्गुदियाथा,जब उसकी मृत्यु हुई तब उसकी उम्र मात्र चौदह या पंद्रह वर्ष थी.
गर्मी में जब स्कूल की छुट्टिया हुआ करती थी तब मामाजी के घर गाँव जाने पर फर्गुदिया से अक्सर मेरी मुलाकात हुआ करती थी,ऐसे ही एक बार जब मैं गाँव गयी तो फर्गुदिया के साथ घटी घटना और उस घटना से हुई उसकी दर्दनाक मृत्यु के बारे में सुना तो मेरे पैरों तले जमीन खिसक गयी,उस समय मेरी भी उम्र पंद्रह,सोलह वर्ष की ही थी,तब से लेकर आज तक मैं फर्गुदिया और उसके साथ घटी घटना को बिलकुल भी नहीं भूली हूँ.
करीब दो साल पहले इस घटना को मैंने कहानी का रूप देकर अपने ब्लॉग पर पोस्ट किया,एक चमत्कारिक परिणाम सामने आया,समाज में हो रहे ऐसे घ्रणित अपराध की शिकार बच्चियों के समर्थन में ब्लॉग और इंटरनेट के माध्यम से विचार आने लगे और ऐसे घ्रणित अपराध की खुले शब्दों में भर्त्सना की गयी.
ब्लॉग के जरिये फर्गुदिया के समर्थन में आवाज़ दूर दूर तक गयी,बाद में मैंने और इंटरनेट से जुड़े मेरे मित्रों ने मिलकर जमीनी स्तर पर फर्गुदिया के लिए कविता पाठ का कार्यक्रम रखकर उसे भावभीनी श्रृद्धांजलि दी.आज फर्गुदिया की दास्तान ब्लॉग के जरिये इंटरनेट की दुनिया के बाहर के लोग भी जान रहें हैं
इसी कड़ी में सुधीश पचौरी लिखते हैं... इस नई दुनिया को संलग्नयानी इंगेज करने के लिए इंटरनेट सर्वोत्तम माध्यम है.इस दशक के अंत तक नई आर्थिकी के तहत तेजी से विकास करने वाले तीन अरब लोग ऑन लाइनआ जायेंगे.
यह तुमुल कोलाहल कलहको सघन शोर में तब्दील करते माध्यम चौकाने से ऊपर बढ़ चुके हैं.
हमारा समाज सदियों से पुरुषसत्तात्मक रहा है.महिलाओं को सारे हुकुक देने की बात होती रही है,लेकिन कहीं-न-कहीं दोमुहेपन से काम लिया जाता रहा है. घर को मंदिर का दर्जा दिया जाता है.यह भी वैसा ही मजाक है जैसे हिंदुओं में औरतों को देवी कह दासी की यंत्रणा दी जाती है.
कागजी पैरहन में एक जीवट स्त्री सच के दुनिया में आजद होकर भी कैद की जिंदगी जीने को बिवश है.
समयांतरमें अंकित विचार असमानता और भेदभाव के भावना को आवाज देती प्रतीत होती है.
“-लडकियां पत्रकारिता में आकर लड़कियां नहीं रहतीं हैं,वे पत्रकार रहतीं हैं.लड़की रहना है तो नौकरी छोड़ दो.दफ्तर की गाड़ी रात में आप लोगों को घर तक क्यों छोड़ें.जैसे बाकी लोगों को गली के मोड तक उतारती है वहीं आपको भी उतारेगी.
कथनी और करनी में फर्क की खाई कभी नहीं पट पाई है.आज बहुत मात्रा में महिलाएं शिक्षित हो गयी हैं.अपने बलबूते काम भी कर रही हैं.अपने दमखम से सबको चकित भी करती रही हैं,लेकिन उनके प्रति शोषण की निगाह में कोई भी विशेष बदलाव न के बराबर ही रहा है.भ्रूण हत्या,बलत्कार,अत्याचार,घरेलू हिंसा और ऐसे ही न जाने कितने अनवरत शोषण निरंतर चल रहे हैं.आधुनिक संसाधनों के विकास से भी रुढ़िवादी और बजबजाती मानसिकता में कोई बदलाव नहीं आया है.ऊपरी स्तर पर यह बदलाव निचले स्तर पर ज्यादा विकृत रूप में दिखाई देता है.
बेटे-बेटी के नाम पर हत्याएं रोज़ हो रही हैं.एक दुधमुहे बच्चे का कत्ल दीवार से सर लड़ा कर मारने जैसे प्रयत्न उत्तरोउत्तर जारी है.राजधानी से लेकर आविवासी इलाके तक इसका कोढ़ मौजूद है.इस तरह के सवाल प्राचीन पत्रकारिता से लेकर आधुनिक मीडिया और अब सोशल मीडिया में प्रमुखता से उठ रही हैं.इस संदर्भ में रमाशंकर यादव 'विद्रोही' जी की कविता सहज ही आकर्षित करती है.
इतिहास में वह पहली औरत कौन थी,
जिसे सबसे पहले जलाया गया,
मैं नहीं जानता,
लेकिन जो भी रही होगी,
मेरी माँ रही होगी.
लेकिन मेरी चिंता यह है कि
भविष्य में वह आखिरी औरत कौन होगी,
जिसे अंत में जलाया जाएगा,
मैं नहीं जनता,
लेकिन जो भी होगी 
मेरी बेटी होगी,
और मैं ये नहीं होने दूंगा.
यह नहीं होने देने की पुरजोर आवाज उठती तो हैं लेकिन किसी खोह में जाके दब सी जातीं हैं.जब कहीं कोई सुगबुगाहट होती है तो उसकी भी एक सीमा और क्षमता होती है उसी परिधि के इर्द-गिर्द चक्कर काटतीं निगाहें शून्य में शिखर की तलास करती भटकती रहती हैं .यह प्रयास अनवरत चला आ रहा है.
ब्लॉग को लेकर लोगों के अपने नजरिये हैं.इसे कोई सृजन के खतरे के तौर पर देख रहा है तो कोई इसे वास्तविक मंच के रूप में इस्तमाल कर रहा है.पत्रकार समाज के लोग इसे भड़ास और छपास के दृष्टि से परख रहे हैं.प्रत्येक व्यक्ति के अंदर एक गुबार बहुत समय से दबे हुए अंदाज़ में पल रहा है.
असलम सीबा फहमी के मुताबिक आज के दौर में मीडिया एक जरुरी जरिया है अवाम तक पहुँचने का.आज के समाज का इसके बिना काम नहीं चल सकता है.
इनके बातों में सच्चाई है हम इस बात को सहज ही इनकार नहीं कर सकते हैं.सच यह भी है की आज के मौजूदा दौर में चीजों के देखने-परखने के नजरिये पूरी तरह से पूंजीवाद के गिरफ्त में है.
उदारीकरण के दौर में रियल स्टेट,शिक्षण संस्थान और औद्योगिक संस्थान बड़े विज्ञापनदाताओं के रूप में उभरे हैं.इनके गलत कामों और कानून उल्लंघन को शायद ही किसी अखबार में जगह मिलती है.
राजेंद्र यादव ने हंस, 'जुलाई 2004' के संपादकीय में बड़े ही मज़ेदार तरीक़े सेचुटकियाँ लेते हुएहिंदी साहित्य संसार के प्राय: सभी नए-पुराने समकालीन लेखकों/कवियों के बारे में टिप्पणियाँ की है कि किस प्रकार लोग अपनी छपास की पीड़ा को तमाम तरह के हथकंडों से कम करने की नाकाम कोशिशों में लगे रहते हैं। वे आगे कहते हैं कि दिल्ली जैसी जगह से ही हंस जैसी कम से कम '10 पत्रिकाएँनिकलनी चाहिए। ज़ाहिर हैलेखकों-लेखिकाओं की लंबी कतारें हैं और उन्हें अपनी अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का कोई माध्यम ही नहीं मिल रहा है। ऐसे में जालघर के व्यक्तिगत वेब पृष्ठ और ब्लॉग के अलावा दूसरा बढ़िया रास्ता और कोई नहीं हैं। ब्लॉग के फ़ायदों की सूची यों तो लंबी हैपर कुछ मुख्य बातें ये हैं 
ब्लॉग प्राय: व्यक्तिगत उपयोग हेतु हर एक को मुफ़्त में उपलब्ध है।
ब्लॉग के द्वारा आप किसी भी विषय मेंविश्व की किसी भी (समर्थित) भाषा में अपने विचार प्रकट कर सकते हैंजो जालघर में लोगों के पढ़ने हेतु हमेशा उपलब्ध रहेगा। उदाहरण के लिएयदि आप कहानियाँ लिखते हैंतो एक ब्लॉग कहानियों का प्रारंभ करिएउसमें अपनी कहानियाँ नियमित प्रकाशित करिएबिना किसी झंझट केबिना किसी संपादकीय सहमति या उसकी कैंची के और अगर लोगों को आपकी कहानियों में कुछ तत्व और पठनीयता नज़र आएगीतो वे आपकी ब्लॉग साइट के मुरीद हो जाएँगे और हो सकता है कि आपके ब्लॉग को एंड्रयू सुलिवान के ब्लॉग से भी ज़्यादा पाठक मिल जाएँ।
आपके ब्लॉग पर पाठकों की त्वरित टिप्पणियाँ भी मिलती है जो आपके ब्लॉग की धार को और भी पैना करने में सहायक हो सकती है।
ब्लॉग का उपयोग कंपनियाँ अपनी उत्पादकता बढ़ानेनए विचारों तथा नए आइड़ियाज़ प्राप्त करने में भी कर रही हैंजहाँ कर्मचारी अपने विचारों का आदान-प्रदान बिना किसी झिझक के साथ कर सकते हैं।
अंततः यह कहना सर्वोतम रहेगा.समाज में ढांचागत बदलाव उत्तरोंउत्तर होता रहा है.परिवर्तन का ही नतीजा है जब एक स्त्री अपने बलबूते पर अपनी पहचान बना रही है.उसके संघर्ष निरर्थक नहीं गए हैं.बल्कि अनवरत ही चल रहे हैं.उनको याद रखने के तौर-तरीके भले ही बदल गए हैं.विजय नारायण साही की पंक्तियाँ वह सब कुछ बयां कर रही हैं जो मन के सागर में हिलोरे लेते भाव कहना चाहते हैं.
तुम हमारा जिक्र इतिहास में नहीं पाओगे
क्योंकि हमने अपने को इतिहास के विरुद्ध दे दिया है
छूटी हुई जगह दिखे जहाँ-जहाँ
या दबी हुई चीख का अह्सास हो
समझना हम वहीँ मौजूद हैं
सिसकियों के मध्य मजबूती से जमे पैर किसी धुंधले अंधड से उखड़ने वाले नहीं है.मृत्यु शैय्या से भी जी उठने की जिजीविषा जब तलक रूह में बाकी है इतिहास के सुरम्य कोनों में हम अपने विरुद्ध होते साजिस को नाकाम करने में सदैव सफल रहेंगे.यह अटूट विश्वास का धागा आत्मविश्वास के लौह इरादों से आया है.क्रांति के स्वर जब तक वादियों में गूंजेंगे हम युहीं जियेंगे.जूझते,लड़ते, झगड़ते और अपने हक के लिए संघर्ष करते हुए.अपनी छाप बनाए रखेंगे.    

नोट--
इस शोध पत्र में उन लोगों के विचार को प्राथमिकता दी गयी है जो आज के नए माध्यमों से सीधे तौर पर जुड़े हुए हैं.
इसके अतिरिक्त इंटरनेट और कुछ पत्र-पत्रिकाओं से भी विषय के सम्बन्धित बिंदु को लिया गया है.




        महिला मुद्दे और ब्लॉग

तृतीय भाग-

(हम वह सीताएं हैं जिन पर राम और रावण दोनों ने बराबर अत्याचार किया है. से आगे पढ़ें...)



शोषण की कहानी पर अभी तक कोई अंकुश नहीं लगा है.मासूम बच्चों के साथ खूंखार भेडिये की तरह टूट पड़ने वालों की जमात मुर्दा दिल लिए समाज में खुल्ले घूम रहे हैं.सच तो यह की एक नारी की दुनिया पेट के भौगोलिक परिधि में ही सिमट के रह जाती है.जो इससे विद्रोह करतीं हैं उसके ऊपर समाज के फतवे की औंधी तलवार लटका के छोड़ दी जाती है.
संचार पत्रों में व्यपार के लिए,विज्ञापन में बाज़ार प्राप्त करने हेतु,फिल्म में पैसे बनाने के लिए,साहित्य में पुरस्कार बटोरने के केन्द्र में महिलाएं,किसान और बिलबिलाते मासूम बचपन को ध्यान में रखा जाता है.जो जितना अधिक धन उगाहने में योगदान देगा उसे उतनी ही लोकप्रियता मिलती है.साहिर लिखते हैं-ये कूचे,ये नीलाम घर बेकसी के.मजरूह फरमाते हैं-हर निगाह उठती है खरीदार की तरह.दिन के उजाले में उजले दिखने वाले चेहरे राते के अँधेरे में भयानक हो जाते हैं.
स्त्रियां विमर्शों के नाम पर लोकप्रियता बटोरने के माध्यम के रूप में इस्तमाल होती हैं.महिलाएं टूटती,तडपती.बिलखती और लड़ती हुई दिख जाती हैं.लेकिन हकीकत के जमीन पर उनके पर कतर दिए गए होते हैं.
इन दिनों मीडिया के रुप-स्वरूप में दिनों-दिन परिवर्तन होने लगे हैं.सोशल मीडिया और न्यू मीडिया ने कहर सा मचा रखा है.गाँव,देहात से लगायत छोटे-छोटे शहरों और महानगरों तक इसके चर्चे हैं.सोशल मीडिया ने आम-आवाम को अभिव्यक्ति का एक बहुत ही बड़ा मंच दिया है.
प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वतंत्र और निहायत स्वछन्द विचारों को वेबाकी से रख रहे हैं.
दुनिया,जहाँ के समस्त मुद्दों पर अपने अच्छे-बुरे अनुभवों को साझा करते देखे जा सकते हैं.
मेरे हिसाब से यह एक नेत्रपुस्तिका,मुपुस्तिका,शब्द पुस्तिका,विचार पुस्तिका,विवरण पुस्तिका,विभेद पुस्तिका,चित्रपुस्तिका और अनलिंगी पुस्तिका  के तौर पर देश-दुनिया में अपनी एक अलग मुकाम बनाने में सफल रही है.
इन साधनों को अपने मन मुताबिक प्रयोग करने वालों की एक लम्बी लाइन है.मल्टीनेशनल कम्पनियों से लेकर उपभोक्ता तक इसके कायल हैं.सत्ता से सरकार तक इसके ताकत से वाकिफ हैं.इसके उदाहरणों की लिस्ट भारी भरकम हैं.
एक शोध के मुताबिक ब्रिटेन में आम चुनाव अभियान के दौरान ६०० राजनीतिक उम्मीदवार ट्विटर से जुड़े थे.इनके अलावा सैकड़ों पत्रकार और पार्टी कार्यकर्ता भी सोशल मीडिया से जुड़े थे.ब्रिटेन की नई संसद के करीब २०० सदस्य ट्विटर पर सक्रीय हैं.इनमें से पांच तो कैबिनेट मंत्री भी है.
वाल स्ट्रीट कब्ज़ा और अन्ना आंदोलन,हुस्नी मुबारक और सालेह सहित गद्दाफी के अतिरिक्त राजशाहों के गद्दी तक इसकी अनुगूँज सुने जा सकते हैं.
धर्म,आस्था और आडम्बर पर कटाक्ष करते लोगों की एक अलग ही जमात है.जो धीरे-धीरे एक फ़ौज का शक्ल इख्तियार करती जा रही है.सोशल मीडिया से खौफ खाती सत्ताएं इसके ताकत के एहसास को पचा नहीं पा रही हैं.इसके मर्केटिंग क्षमता से वाकिफ लोग इसका भरपूर इस्तेमाल कर रहे हैं.
चौपटस्वामी नामक ब्लॉगर की लिखी यह टिप्पणी पढ़िए- “(हमारे यहाँ)धनिया में लीद मिलाने और कालीमिर्च में पीते के बीज मिलाने को सामजिक अनुमोदन है.रिश्वत लेना और देना सामान्य और स्वीकृत परम्परा है.उसे रीती-रिवाज के रूप में मान्यता प्राप्त है.कन्या भ्रूण की हत्या यहं रोजमर का कर्म है और अपने से कमजोर को लतियाना अघोषित धर्म है.गणेश जी को दूध पिलाना हमारी धार्मिक आस्था है.हमारा लड़का हमें गरियाये और जुतियाये हुए भी श्रवणकुमार है,पर पड़ोसी का ठीक-ठाक लड़का भी बिलावजह दुष्ट और बदकार है.
यानी कि सौ फीसदी अभिव्यक्ति की एक सौ एक फीसदी आज़ादी !”  

इस दिशा में ब्लॉग की भूमिका सर्वोपरी है.ब्लॉग लिखने वालों की बहुत बड़ी तादाद है.इस क्षेत्र में बी.बी.सी से लगायत हर बड़े-छोटे अखबार,पत्रिका और ई-पत्रिका की भूमिका अहम है.इस पर बहुत से नामचीन लेखक भी लिख रहे हैं.रवि रतलामी छींटे और बौछारे के माध्यम से एक नया मंच तैयार किया है.बालेंदु शर्मा वाह मीडिया के द्वारा पत्रकारिता के क्षेत्र में एक नई पहल करते देखे जा सकते हैं.नए लेखक,नए तेवर के दर्शन नित्यप्रति कर सकते हैं.ब्लॉग भी आलकल दिन,सप्ताह और वर्ष के रूप में आने लगे हैं.
ब्लॉगिंग एक ऐसा माध्यम जिसमें लेखक ही संपादक है और वही प्रकाशक भी ऐसा माध्यम जो भौगोलिक सीमाओं से पूरी तरह मुक्त,और राजनैतिकसामाजिक नियंत्रण से लगभग स्वतंत्र है.जहां अभिव्यक्ति न कायदों में बंधने को मजबूर है,न अल कायदा से डरने को.इस माध्यम में न समय की कोई समस्या है,न सर्कुलेशन की कमी,न महीने भर तक पाठकीय प्रतिक्रियाओं का इंतजार करने की जरूरत.त्वरित अभिव्यक्ति,त्वरित प्रसारण,त्वरित प्रतिक्रिया और विश्वव्यापी प्रसार के चलते ब्लॉगिंग अद्वितीय रूप से लोकप्रिय हो गई है.ब्लॉगों की दुनिया पर केंद्रित कंपनी 'टेक्नोरैटी' की ताजा रिपोर्ट (जुलाई २००७) के अनुसार ९.३८ करोड़ ब्लॉगों का ब्यौरा तो उसी के पास उपलब्ध है.ऐसे ब्लॉगों की संख्या भी अच्छी खासी है जो 'टेक्नोरैटी' में पंजीकृत नहीं हैं.समूचे ब्लॉगमंडल का अकार हर छह महीने में दोगुना हो जाता है.सोचिए आज जब आप यह लेख पढ़ रहे हैं,तब अभिव्यक्ति और संचार के इस माध्यम का आकार कितना बड़ा होगा?
इस दुनिया में दखल रखने वालों में नौसिखुओं से लेकर मझे हुए विद्वानों के अपने-अपने ब्लॉग हैं.जिसके द्वारा सभी लोग उन तमाम मुद्दों पर लिख रहे हैं,जो समाज में जड़ जमाए युगों-युगों से मौजूद है.
विद्वानों के अंदाज़ में कहें तो- आइए फिर से अभिव्यक्ति के मुद्दे पर लौटें,जहाँ से हमने बात शुरू की थी.हालाकिं ब्लागिंग की ओर आकर्षित होने के और भी कई कारण हैं लेकिन अधिकांश विशुद्ध,गैर-व्यावसायिक ब्लागरों ने अपने विचारों और रचनात्मकता की अभिव्यक्ति के लिए ही इस मंच को अपनाया.जिन करोड़ों लोगों के
पास आज अपने ब्लॉग हैं,उनमें से कितने पारम्परिक जनसंचार माध्यमों में स्थान पा सकते हैं..?
स्थान की सीमा,रचनाओं के स्तर,मौलिकता,रचनात्मकता.महत्व.सामयिकता आदि कितने ही अनुशासनों में निबद्ध जनसंचार माध्यमों से हर व्यक्ति के विचारों को स्थान देने की अपेक्षा भी नहीं की जा सकती है.लेकिन ब्लागिंग की दुनिया पूरी तरह स्वतंत्र.आत्मनिर्भर और मनमौजी किस्म की रचनात्मकता की दुनिया है.वहाँ आपकी 'भई आज कुछ नहीं लिखेंगे' नामक छोटी सी टिप्पणी का भी उतना ही स्वागत है
जितना की जितेन्द्र चौधरी के ओर वर्डप्रेस पर डाली गई सम्पूर्ण 'रामचरित्र मानस' का.'भड़ास' नामक सामूहिक ब्लॉग के सूत्र वक्य से यह बात स्पस्ट हो जाती है...
"कोई बात गले में अटक गई हो तो उअग्ल दीजिए मन हल्का हो जायेगा."
महिलाओं को ध्यान में रखते हए लिखने वालों कि संख्या अनगिनत है.घर-परिवार को सम्भालते हए भी अपनी मौजूदगी से सबको सम्मोहित करने वाली महिलाओं  की तताद लम्बी है.उनमे से कुछ बेहद चर्चित भी है.अभी कुछ दिन पहले ही २७ को फर्गुदियाग्रुप के महिलाओं ने कम उम्र में होने वाली शादियों उसके के द्वारा मृत्यु को प्राप्त होने वाली महिलाओं पर एक विचार गोष्ठी का आयोजन किया था.यह भी एक ब्लॉग है जो महिलाओं के लिए विशेष तौर पर काम करती हैं.इसकी मुखिया शोभा जी कहती हैं—“इंटरनेट से जुड़ा ब्लोगिंग एक ऐसा माध्यम है जिससे हम घर बैठे देश में ही नहीं विदेश में भी पहुंचा सकतें हैं.मेरे जैसी गृहणी ने जब इंटरनेट की दुनिया में कदम रखा तो ब्लॉग के जरिये जहाँ मुझे समाज का प्रगति करता चेहरा नज़र आया वहीँ कुछ ऐसी झकझोर देने वाली बुराइयाँ भी सामने आयीं जिससे मैं अनभिज्ञ थी.
हमारे आस-पास ऐसा बहुत कुछ घटित हो रहा होता है जिसकी जानकारी प्रिंट मिडिया या इलेक्ट्रोनिक मिडिया तक नहीं पहुंचती है,अगर कोई पहुँचाना भी चाहे तो जरुरी नहीं है की अख़बार के संपादक उसे छापें या न्यूज़ चैनल वाले उसे दिखाएँ,इसके लिए उनकी अपनी कुछ शर्तें और नियम होतें हैं ,ऐसे में ब्लॉग एक ऐसा मंच है जिसके माध्यम से हम अपने विचार सभी तक पहुंचाने के लिए स्वतंत्र हैं. 
शेष अगले भाग में ....


महिला,मुद्दे और  ब्लॉग 

द्वितीय भाग
(मात्र चार साल से आगे पढ़ें...)

ब्लॉग परिक्रमा के अनुसार आज ब्लॉग,विश्व की हर भाषा में, हर कल्पनीय विषय मैं लिखे जाने लगे.ब्लॉग को विश्व के आम लोगों में भारी लोकप्रियता तब मिली जब अफ़गानिस्तान पर अमरीकी हमले के दौरान एक अमरीकी सैनिक ने अपने नित्यप्रति के युद्ध अनुभव को ब्लॉग पर नियमित प्रकाशित किया.उसी दौरान एंड्रयू सुलिवान के ब्लॉग पृष्ठ पर आठ लाख से अधिक लोगों की उपस्थिति दर्ज की गई,जो संबंधित विषयों के कई तत्कालीन प्रतिष्ठित प्रकाशनों से कहीं ज़्यादा थी.एंड्रयू अपने ब्लॉग के मुख्य पृष्ठ पर लिखते भी है कि क्रांति महज ब्लॉग में दर्ज होगी.
अब चर्चित ब्लॉगों की संख्या अनगिनत है.इनके मुद्दे घर से बहार,देश से दुनिया तक के विस्तार लिए हुए हैं.
ब्लॉग परिक्रमा के विश्लेषण के मुताबिक हिंदी ब्लोगिंग के शैशव काल ( वर्ष -2003 से 2007के मध्य ) के दौरान जगदीश भाटिया, मसिजीवी,आभा,बोधिसत्व, अविनाश दास,अनुनाद सिंह,शशि सिंह,गौरव सोलंकी,पूर्णिमा वर्मन,अफ़लातून देसाई,अर्जुन स्वरूप,अतुल अरोरा,अशोक कुमार पाण्डेय,अतानु दे,अविजित मुकुल किशोर,बिज़ स्टोन,चंद्रचूदन गोपालाकृष्णन,चारुकेसी रामदुरई,हुसैन,दिलीप डिसूजा,दीनामेहता,डॉ जगदीश व्योम,-स्वामी,जीतेंद्र चौधरी,मार्क ग्लेसर,नितिन पई,पंकज नरूला,प्रत्यक्षा सिन्हा,रमण कौल,रविशंकर श्रीवास्तव,शशि सिंह,विनय जैन,वरुण अग्रवाल,सृजन शिल्पी,सुनील दीपक,नीरज दीवान,श्रीश शर्मा,जय प्रकाश मानस,अनूप भार्गव,शास्त्री जे सी फिलिप,हरिराम,आलोक पुराणिक,समीर लाल समीर,ज्ञान दत्त पाण्डेय,रबिश कुमार,अभय तिवारी,नीलिमा,अनाम दासकाकेश,मनीष कुमार,घुघूती बासूती,उन्मुक्त जैसे उत्साही ब्लोगर हिंदी ब्लोगिंग की सेवा में सर्वाधिक सक्रिय रहे.

आज अधिकांशतः व्यक्ति का एक अपना ब्लॉग है.जहाँ पर वह अपनी हर बात को वेबाकी से कहते दिखाई देते हैं.अपर्णा मनोज,शोभा द्विवेदी,विपिन चौधरी,अंजू शर्मा,सुशीला पूरी ये ऐसे ब्लोगर है जो एक कुशल गृहिणी के साथ-साथ लेखन के क्षेत्र में दखल रखती हैं.
मेरे जाँच-पड़ताल का नतीजा ये रहा है कि २०८ ऐसे ब्लॉग हैं,जो महिलाओं के द्वारा लिखा जा रहा है.यह कोई बड़ी हस्ती नहीं हैं,बल्कि घर-परिवार सम्भालने वाली स्त्रियां हैं.जो अपने दिन-चर्या के कामों से निपटकर देश-दुनिया पर अपने मन के सहज,सरल और चुभती घटनाओं और मुद्दों को साझा करती हैं.हालंकि बहुत सी महिलाएं लिख रही हैं.लेकिन एक गृहिणी होते हुए अपने मौजूदगी का आभास बनाए रखने वालों की संख्या सीमित है.
अंजू शर्मा कहती हैं पहले के लेखक और विद्वतजन के नजर में यह एक बाहियात मंच है.लेकिन मुझे लगता है यह एक ऐसा माध्यम है जहाँ से हम अपनी बात बड़ी ही सहजता और कुशलता से रख सकते हैं. 
विपिन चौधरी कहती हैं यही एक ऐसा स्थान है जहाँ से हम अपने दिल की बात कहते हुए भय नहीं खाते हैं.इसी के माध्यम से बहुत से ऐसे प्रतिभाशाली लोगों से रु-ब-रु होने का अवसर भी मिला है.जो की प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के माध्यम से शायद ही मिल पाते.दूर-दराज के गांवों में महिलाओं के साथ हो रहे अत्याचार की दुर्दांत व्यथा-कथा की जानकारी और जायजा लेने का एक आसान जरिया मिला है.यह फेसबुक और ट्विटर पर भी लागू होता है.
इनके प्रयोग से चीजों को छिपाना बेहद मुश्किल हो चला है.चाह कर भी कोई इससे अपनी गोपनीयता नहीं छिपा सकता है.
वेशक पत्रकारिता ने समाज के ढांचे में आमूलचूल परिवर्तन में महती भूमिका निभाई है.शुरूआती दिनों में पत्रकारिता के जिम्मे देश की आजादी की सबसे
बड़ी चुनौती थी.इसके माध्यम और मिशन दोनों ही परिस्थितियों के अनुकूल थी.
समय के साथ इसमें बहुत सारे बदलाव होते गये. 
कागज़-कलम की पत्रकारिता एक नए कलेवर के साथ लोगों के समक्ष मौजूद है.इलेक्ट्रानिक पत्रकारिता के दखल से सुंदर,सुसज्जित और सरल पत्रकारिता का वर्चश्व बढ़ा है.
इन्टरनेट के आगमन से सम्पूर्ण समाज पर द्रुतगति से एक अलग ही प्रभाव पड़ा है. जिस तेजी से इंटरनेट ने अपने पंख पसारने शुरू किये.इससे आभास होने लगा है कि पत्रकारिता के क्षेत्र में व्यापक बदलाव की लहर एक बवंडर सरीखा साबित होने वाला है.ऐसा ही हुआ नए-नए माध्यमों का प्रभाव क्रांतिकारी अंदाज़ में पड़ा है.
मीडिया के दुनिया में एक नए दस्तक से लोग रु-ब-रु हो रहे हैं जिसके परिप्रेक्ष्य में बहुत से लोग अपनी अहम और सक्रीय भूमिका अदा कर रहे हैं.
ऐसे ही एक नाम है यशवंत माथुर जी का जो की अपने नयी पुरानी हलचल के माध्यम से नए-से नए और नौसिखुए लेखकों को एक बेहतर मंच देने में लगे हुए हैं.वह कहते हैं-ब्लोगिंग एक ऐसा मंच है जहां आप लेखक,संपादक और पाठक की भूमिका निभाते हैं.एक लेखक के तौर पर मनचाहा लिखने की आज़ादी पाते हैं, संपादक के तौर पर अपने ही लिखे को संशोधित करने और एक से अधिक बार पूर्वावलोकन करने की आज़ादी पाते हैं.वहीं एक पाठक के तौर पर आपको दूसरों के लिखे पर तत्काल प्रतिक्रिया देने और उस पर अपने विचार रखने की भी पूरी आज़ादी होती है.आज लगभग हर विषय पर,हर भाषा मे ब्लोगस उपलब्ध हैं,कुछ के बारे मे हम जानते हैं और कुछ से अभी हम अनजान हैं.यदि भारतीय और विशेष रूप से हिन्दी ब्लोगिंग के संदर्भ मे बात करें तो मेरे विचार से अभी ब्लोगिंग मे बहुत कुछ होना बाकी है.”
यही बहुत कुछ होने का संकेत ही विकास को नए आयाम देते हैं.
हिन्दी ब्लोगिंग पर भी जातीयता,क्षेत्रीयता,
 सांप्रदायिकता और नये तथा तर्कसंगत विचारों को को उभरने से रोकने की मानसिकता जिस तरह से हावी होती जा रही है वह निश्चित तौर पर सामाजिक उत्थान के लिये अच्छा नहीं है.ब्लोगिंग का उदेश्य परिवर्तनकारी दृष्टिकोण को अपनाना,और चेतना जगाने वाला होना चाहिये जबकि इससे भटक कर अधिकांश ब्लोगर्स जहां प्रेम गीतों के रस मे डूब कर वाह-वाह की तालियाँ बटोर रहे हैं वहीं ऐसे ब्लोगर्स को उपेक्षित और तिरस्कृत किया जा रहा है जिनका उद्देश्य वास्तव मे सामाजिक कल्याण है. 
एक सफल ब्लॉग या ब्लॉगर की परिभाषा उस पर आने वाली टिप्पणियों तक सीमित कर दी गयी है जबकि ब्लॉग की सफलता या असफलता का पैमाना उस पर उपलब्ध विषयवस्तु की गुणवत्ता पर आधारित होनी चाहिये.आवश्यकता इस बात की है हम गूगल और वर्डप्रेस द्वारा उपलब्ध कराई जा रही इस मुफ्त की सुविधा का अधिकतम सदुपयोग कर सकें.”
वैश्विक परिदृश्य पर एक नजर दौडाई जाये तो इसके गहराई का थाह सहज ही मिल सके.सर्वोत्कृष्ट कोटि के ब्लॉगों में अपनी पहचान को एक पुख्ता आधार दिया है.जानकीपुल,सृजनगाथा,सबलोग,मोह्हला,नारी,उड़ान अंतर्मन की,नुक्ता चीनी,हमारीवाणी,अपनी माटी जैसे तमाम ब्लॉग और ब्लागर सक्रिय हैं.इन पर लिखे मुद्दे न केवल चर्चा का विषय हैं बल्कि इनको एक नए नजरिये से देखा-परखा भी जाता है.
वरिष्ठ ब्लॉगर अनूप शुक्ला (फुरसतिया) कहते हैं... अभिव्यक्ति की बेचैनी ब्लोगिंग का प्राण तत्व है और तात्कालिकता इसकी मूल प्रवृति है.विचारों की सहज अभिव्यक्ति ही ब्लॉग की ताकत है,यही इसकी कमजोरी भी.इसकी सामर्थ्य है,यही
इसकी सीमा भी.सहजता जहाँ खत्म हुई वहाँ फिर अभिव्यक्ति ब्लागिंग से दूर होती जायेगी.   
कमोवेश यह बातें सही और सत्य प्रतीत होती हैं.अति का अंत सुनिश्चित है.लेकिन स्त्री के संदर्भ में यह बातें वेमानी जान पड़ती हैं.
पाखीके सम्पादकीय में प्रेम भारद्वाज जी लिखते हैं हमारी आज़ादी पर तुलसी दास ने पञ्च सौ साल पहले ही यह कहकर बंदिश लगाई थी-जिमि स्वतंत्र होई बिगरहिं नारीहमने जब भी आज़ादी चाही,उड़ने की कोशिश की,लक्ष्मण रेखा लांघी.हमें बदचलन कहकर रूप से तोड़ने की कोशिश की गयी.सीता की तरह अपहरण कर लिया गया...हम वह सीताएं हैं जिन पर राम और रावण दोनों ने बराबर अत्याचार किया है.

शेष अगले दिन....

लोकप्रिय पोस्ट्स