लड़की वही जो पिया मन भाए,लड़का वही जो बोरी भर दहेज लाए...

समाज संरचना के दो कंगूरे की तरह लडके और लड़कियां हैं.यह एक दूसरे के साथी,सहयोगी और अर्ध्य अंग के रूप में जाने जाते रहे हैं.यह खम्भा एक अटूट रिश्ते का नाम है.जिससे दो परिवार,संस्कार और संस्कृति का आपस में आदान-प्रदान होता है.एक दौर था जब लोग बेटी का रिश्ता एक पान,फूल और चांदी के एक सिक्के के साथ बड़ी खुशी-खुशी कर दिया करते थे.राजाओं-रजवाडों के दौर में लावलश्कर देने की परम्परा भी देखी जा सकती है.जब सियासत का दौर आया जहाँ सारे फैसले देश-राज्य के बटवारे के साथ रोटी-बेटी का सौदा होने लगा.इसी के साथ खरीद-फरोख्त का कारोबार भी शुरू हुआ.
शादी के साथ ही लड़की का एक और घर बन जाता है.या हो जाता है.किन्तु रुढिवादी सोच के ऊपर कुछ नही है.
लड़की से सारी उम्मीद की जाती है कि वह सर्वगुणसंपन्न हो.पूरे परिवार का ध्यान रखे.यह ठीक है.लेकिन उसी के साथ यह खवाहिश भी जुडी होती है की वह बोरी भर रुपया-पैसा,सोना-चांदी और जर-जमीन भी लाये.यह किस गुण में आता है...?
एक माँ चार बेटियां पैदा करके दिन-रात घुलती रहती है कि कैसे सबका बेडा पार लगेगा.वह चाहे कितनी भी सुशील,सुन्दर गुनी हो जब तक लाखों देने कि कुब्बत न हो तब तक एक माँ की बेटी,एक मजबूर पिता की बेटियां डोली नही बैठ सकती हैं.अगर कोई गलती से बैठ गयी तो फिर खुदा के भरोसे वरना लालची लोग उन्हें मौत के मुह में धकेलने से बाज़ नही आते हैं.इसमें कोई शक नही है कि दयावान लोगों की भी कमी नही है.वही दूसरी तरफ एक माँ काले,कुबड़े,लूले,लंगड़े या फिर अनपढ़-जाहिल,गंवार बेटा पैदा करके भी शेर के मानिंद दहाड़ती रहती है कि उसने कई पठ्ठे पैदा किये हैं.क्यों घी का लड्डू टेढा ही सही लेकिन दाम तो पूरा देगा न..
ऐसा ही कुछ समाज में देखने को भी मिल रहा है.
आज दहेज के रूप में अरबों-खरबों और करोड़ों की सम्पति दी जाने लगी.जितने पढ़े-लिखे लोगों की जमात तैयार हुई,उतनी ही मांग भी बढ़ी.आज उपहार के नाम पर बड़े-बड़े दाव-पेंच खेल जा रहे हैं.अपने रुतबे के नाम पर बोली लगाई जा रही है.गांव-देहात में भी लोगों के दिखावटीपन में एक अलग ही ताव नजर आता है.यह तो वही बात हुई कि दूसरे का लिलार देख अपना माथा फोडना हुआ.
पुरुष कई-कई बच्चों का पिता होकर भी कुंवारा ही बना फिरता है.उसके इस बचलता को कोई बुरा भी नही मानता है.उसके करतूतें,हरकतें और उज्जडता निंदनीय नही हैं,बल्कि प्रोत्साहन पुरुषत्व,अहंकार वो अभिमान-स्वभिमान के तौर पर देखे जाते हैं.एक दिन में एक साथ कई-कई विस्तार बदल सकता है,फिर भी घर का बड़ा और मुखिया होने का गौरव-सम्मान स्वतः बना रहता है.कुछ पुरुष इतने अहमवादी होते हैं कि अपनी ओछी हरकत और कुपमंडूकता को इस कदर सीना तान के सुनाते हैं कि कुछ कहना भी सूरज को दिया दीखाने के बराबर है.सच बेलगाम घोड़े पर लगाम कसना कितना मुश्किल काम है.
एक तरफ ऐसे लोगों की भीड़ है तो वहीं कुछ एक इतने महान हैं की उन्हें देव से ऊपर भी कोई पदवी हो तो वो दिया जाए तो भी कम ही होगा.यह सब मानव की मानसिक विकृति का ही एक नतीजा है.इसी उपज के कारण  परिस्थितियां बनती-बिगड़ती हैं.पूर्वानुमान के दायरे में लिए गए फैसले सही-गलत हो सकते हैं.लेकिन किसी को जानने के बाद भी उसके ठहराव की गारंटी नही दी जा सकती है.
आज पढ़े-लिखें विद्वानों के साये तले फलती-फूलती कुपमंडूकता ही समाज के दुश्मन हैं.इस सबके लिए सिर्फ पुरुष को गलत ठहराना उचित न होगा क्योकि दोनों ही बराबर के गुनहगार हैं.एक लड़की ही माँ,बेटी,पत्नी,सास बनती है.संबोधन के साथ ही स्वभाव में बदलाव किस कोटि में आता है...?
यह सवाल मंथन का है.
उसके साथ एक बात होती है की माथे पर एक ट्रेडमार्क लगा दिया जाता है की वह विवाहित है.जबकि पुरुष के साथ ऐसा नही होता है.यदि इस आड़ में कुछ होता है तो यह भी अपराध से कम नही है.ताजे उदाहरण के रूप में भंवरी देवी को देख सकते हैं.क्या उनके घर-परिवार और पति,बच्चे नही थे...?
सफ़ेद चेहरे के पीछे से किया जा रहा कृत्य भी घीनौना ही है.वह कोई भी कैसे या किसी रूप में क्यों न करे...
आज बेचने-खरीदने के इस माहौल में कब क्या हो जाये कहना सम्भव नही है.आज सब के सब एक मुखौटा चिपकाए घूम रहे हैं.किसी को भी पहचानना टेढ़ी खीर बन चुकी है.सबको अपनी-अपनी आज़ादी की पड़ी है.किसी को भी किसी की कोई चिंता-फिकर ही नही है.सबके सब बहरुपिया बने फिर रहे हैं.आज हाफ पैंटीयों का जमाना है.कपड़ों के फैशन के नाम पर सब गड्ड-मडड है.
यदि इस दहेज का विरोध करते हुए कोई अपना एक कदम बढ़ाता है तो उसका साथ देने वालों के टोटे पड़े हैं.ऐसे में हौसला टूटना लाजमी है.क्योकि एक चने के साथ भाड़े नही फोडे जा सकते हैं.तलवार को गाजर बना के नही चबाया जा सकता है.नदी के मुहाने पर खड़े होकर तैरने का लुफ्त नही उठाया जा सकता है.वैसे ही आग में जले बीना जलन नही महसूस किया जा सकता है.ठीक उसी तरह कोरे-कोरे बातें करने से कुछ नही किया जा सकता है.
मुझे इस बात का बेहद फक्र है कि मेरे दादा जी इस दकियानुसी रिवाज़ से परे फैसले लिया करते थे.जिसे सब सर झुका कर मान लिया करते थे.समय ने पलटा खाया.अब दादाओं का जमना लद गया है.अब तो सिर्फ मतलब का ही बचा रह गया है.हर कोई एक अच्छे अवसर के ताक में बने हुए हैं.
जिनके एक बेटे हैं वह मूछों पर ताव देकर कहते हैं कि तीन बीघा जमीन है कम से कम तीन लाख तो मिलेगा ही.भले ही वह एक अक्षर पढ़ना-लिखना न जनता हो या आवारागर्दी ही क्यों न करता फिरता हो,लेकिन घर का एक ही चिराग जो है.इतनी मोटी रकम तो बनती ही है.
मेरी एक दोस्त है उसके घर में सयुंक्त परिवार है.हर साल कम से कम दो बेटियों की शादी तो होती ही होती है.बेटों की संख्या एक-एक है.चार बहनों के पीछे एक बेटे के साथ ही दहेज का पूरा हिसाब करना जरा मुश्किल है.उसके घर की एक अजीब परम्परा है.वो भी बाबु जी के बनाये हुए वह एक तहसीलदार हैं.अपने घर के बेटियों को जी भर दान-दहेज देकर करते हैं.उन्हें पढ़ाते-लिखाते भी हैं.किन्तु जब अपने बेटों की बारी आती है तब कुछ भी नही मागते है.बल्कि कहते हैं जो आपकी मर्जी दें या न दें लेकिन मेरी बेटी को जरुर देने का कष्ट करें...!
ऐसे लोगों का अकाल है.इक्का-दुक्का से काम बन सकता है...?
अपेक्षाओं,आकाँक्षाओं और उत्कंठाओं के नेपथ्य में मर्म का छुप जाना स्वभाविक है.एक दुल्हन से ये उम्मीदें पाली जातीं हैं कि वह घर कि हर जिम्मेदारी बड़े अच्छे से निभाए और अपने पिया के मन को भी भाये.एक दुल्हे से कोई कुछ भी नही कहता है,बल्कि वह एक खुले शेर और छुट्टे घोड़े की तरह ही बना रहता है.आखिर ऐसा क्योकर है...?समझा के परे है.
जिसने इस जग को रचा-बसा है वही जाने...हम सब इस समाज रूपी मंच के मंचासीन कठपुतली हैं.यह मान लें तो कुछ बुराई नही है.                                                               
                                                                                                          डॉ.सुनीता 





14 comments:

  1. sahi likha hai aap ne, samaj jaane kab samjhega...

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  2. दहेज समाज का ऐसा कोढ़ है जो इतनी आधुनिकता और वैज्ञानिकता वाद के युग मे भी खतम होता नहीं दीखता।बल्कि संपन्नता और शिक्षा के बढ़ते जाने के साथ ही यह रोग भी बढ़ता जा रहा है।
    अपने परंपरावादी बुज़ुर्गों को हम कुछ कह नहीं सकते क्योंकि उनमे से अधिकांश नहीं समझेंगे इसलिए बेहतर होगा यदि देश का युवा वर्ग इस बुराई को समाप्त करने के लिए कमर कस कर तैयार हो।
    लड़का हो या लड़की दोनों ही अगर दहेज रहित विवाह का दृढ़ और अडिग संकल्प कर लें तो ही यह समस्या हल हो सकती है।


    सादर

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  3. दहेज़ आधुनिक समाज का दानव है आपने बहुत सुंदर लिखा है......

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  4. उम्‍मीद ... लालच ... पता नहीं क्‍या क्‍या.

    बहुत प्रभावशाली लेखन, धन्‍यवाद.

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  5. बहुत सटीक लेख है आपका...
    वैसे लड़कियों को दहेज देना भी इस कुरीति को बढ़ावा देता है..
    मगर समाज में ये बीमारी गहरे पैठ चुकी है..
    खोद खोद कर निकालनी होगी..
    शुक्रिया अच्छे लेख के लिए.

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  6. "कोई अपना एक कदम बढ़ाता है तो उसका साथ देने वालों के टोटे पड़े हैं" इतना बेबाक सच हम सब टोटे में आते हैं प्रतिक्रिया से ज्यादा साठ नहीं देंगे . क्रिया मुश्किल है , नहीं तो आप या और लोग इस विषय पर आगे कैसे लिखेंगे ???? अति सुन्दर पक्तियां ,

    वाह बहुत उम्दा . आपकी रचना पढ़वाने के लिए धन्यवाद शुभकामनायें

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  7. दहेज प्रथा के खिलाफ सटीक और प्रसंसनीय लेख

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  8. हम सब अपने कुंद मानसिकता के गुलाम हैं.उसके हाथों के खिलौने हैं.इसी की देन यह प्रथाएं भी हैं.इस जहान के दो सुन्दर प्राणी मानव और मानवीयता है.इसके बीना सब कुछ खाली-खाली है.दो अनमोल रिश्तों के बीच भेदभाव के स्वरूप की संरचना प्रकृति ने तो किया है लेकिन उसे क्रुर हमने बनाया है.
    आगे बढ़ाने के होड ने एकाकी परिवार की नीव रखी है.आधुनिकता के मार ने पलायनवादी प्रवृति को सिंचित किया है.उपभोकातावादी मनह: स्थिति ने अंधा बना दिया.मानव गुडों-दुर्गुडों का पुतला है.समय रहते हर परिस्थिति पर काबू पाया जा सकता है.
    हमें आशावादी निगाहों से आसमान की तरफ देखनी चाहिए.जहाँ से सब कुछ नीले के वजाये धवल ही नजर आएगा.यही एक इबारत होगी.
    पड़े-लिखे होने का कुछ तो मतलब निकले...
    परिवर्तन की लहर एक दिन जरुर दस्तक देगी यही उम्मीद की जानी चाहिए...!
    आप सबको अपने अमूल्य विचारों से अवगत करने हेतु ह्रदय से धन्यवाद...!

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  9. थोडा सा पढने का मन लेकर शुरु किया...विषय के वशीभूत होकर पूरा पढना पडा....बहुत सुन्दर...सुनीता जी...

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  10. बढ़िया अभिव्यक्ति......... ....बिलकुल जागरूपता विस्तृत करने वाला लेख....

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