कई बार देखा




डॉ.सुनीता ०९/०६/२०१२

एक बार नहीं कई बार देखा है
जीवन के पतझड़ में आंसुओं
की
झिलमिल अदभुत रेखा है

चलते-चलाते चौखट तक आती आवाजें
चाक पर रखे मिटटी के धोने सा घुमती
पृथ्वी के धुरी पर चक्कर काटती कुछ याद दिलाती हैं

हम उलझे रहे कर्मपथ के अमराई में
तरुण चांदनी पुकारे जीवन के अंगनाई में
सूरज के किरणे छेड़े मदमाती गीत सुनाएँ समझाती हैं

दौड़ती-धुपती धूल से यह कंचन काया
मोह के बंधन अनमोल अलख जगाते
चिंतन के पट खोले,बोले ऐसे जीवन के गांठे खोले हैं

मानसिकता के ओट से विश्वास के घूँघट पट उघारे
चलते आये भ्रम के बादल को छेड़े बोले
अग्नि के फेरों में जीवन को कैसे-कैसे लपेटे है

बार-बार जल के भी जलन न गई
जंगल के जूनून में जल-जल को मारे-मारे
भटकते-भटकते भाव चिन्ह को युगों-युगों के लिए छोड़ा है
  

स्मृति के पिछले पहर में            
डॉ.सुनीता 
०४/०६/२०१२ नई दिल्ली  

स्मृति के पिछले पहर में 
शहर के शोर से दूर किसी गांव में
नीम-पीपल,जामुन और बरगद के छाँव में 
गलबहियां करते पुरखे-पुरनिए 
बाट जोहती माँ के आँखों में चिंता के बादल घुमड़ते रहे 
अंगड़ाई लेती संध्या सुन्दरी हौले से बोली 
अपने चिलमन के पट खोली,खेली होरी बरजोरी 
धुंध,आंधी और बवंडर उसकी संगी,सखी सहेली-हेली 
अलबेली मतवाली मुस्कानों से मधुर रस टपके 
माधव,मुरकी पकड़े लोरकी गाये,गऊन के पदचाप सुनाये 
भोर-दुपहरी वन-वन डोले वन के बात बनाये 
बहुरिया बछरा देख मन हुलसाए 
अटखेली में गुम सूरज संग सुघड़ सहेली 
खेतों के मेढों पर बैठकर पिता साथ 
हेली-मेली की बातें सुनते बीते दिन और रातें
जीवन के उलझते धागों को सुलझाने की तरकीबें सीखते 
जाने कितने दिन,वर्ष,ऋतुयें गुजर गए 
उस तरह जैसे सीजन में लगते फल 
बदलते दिन के साथ चोला वहन करते 
अरमानों के दिन आँखों में लहलहाते फसलों की तरह 
तिलक लगाएं अब टहल रहे हैं 
आज पिता की उनीदी आँखें कुछ कहतीं हैं 
उनके दर्द खामोश लहरों के तरंग सरीखे बन बैठे  
पिछले पहरे के किसी कोने में अब भी भटक रहे हैं 
यादों के पिटारी में बंद संघर्ष के दिन आज मचलते हुए 
आगे बढ़ आयें हैं घिरे घनघोर बादल से...!

     सृजन की अंगुलियां


सृजन की अंगुलियां सृष्टि का आधार 
सम्पूर्णता का ख्वाब,ख्याल के परवाज़  
तेरे आने की आहट से दिल आबाद
एक किलकारी बिन दुनिया-जहाँ बेजार
जब दस्तक देगा उस दम मौसमे-ए-बहार  
घर-आँगन की मिटटी भी होगी गुलज़ार  
चिड़ियों-चुनमुन की चहक बच्चे के साथ होगी 
मांजी के दर्पण आँखों में उजाले लेकर आज़ाद हैं 
हौले से तन्हाई के अनंत बादल छटने के कगार पर है
दो-धाराएँ एक दिशा में बहने को मजबूर  
ममता के मीठे आँचल में एक ऐसा सरूर है 
संरचना के सौंदर्य से सृष्टि समूल में सुकून है 

         

यह क्या...!


गर्मी से त्रस्त नर-पशु बेकल इधर-उधर 
चहलकदमी करते वेवश खड़े आस लगाये 
ऊँचे-ऊँचे दरख्त आपस में टकराते हुए 
भय की अनूठी कहानी के चित्र खिंच रहे  
उनके ठुठे पड़े डाली पर मतवाली कोयल कुहुंके  
रंग-बिरंगे चिठ्ठे से गाँव गुलज़ार अलमस्त  

उन पर लिखे नाम गुमनामी के कगार पर बदहवास  
अन्न के मालिक भूख से बिलबिलाते बेहाल  
महिमा मौसम की मुक्ति के सागर से अन्मुनाहर  
डॉ.सुनीता 
01/06/2012 नई दिल्ली  

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