बहु-भाषी कविताएँ...!!!



आभास मिल गया है

(हाशिए के धरातल से कुछ कविताएं)

हमारा भी सूरज
   (बांग्ला कविता) 
       झुमा मंडल
          अनुवाद : कुसुम बांठिया

आभास मिल रहा है
ज्वलंत सूर्य का
बाबा से जब भी कहा है
'
अपनी बातें बताओ ना,
बचपन की बातें... '
बाबा सुनाते हैं बादलों की बातें :

'
उन्होंने ढाँक रखा था सूरज को
उनके नाखूनों में था सत्ता का विष
थे बड़े बड़े ताकतवर हथियार
और मोटी मोटी सख्त चमड़ी में
लोलुपता का मिश्रण
सूरज को ढाँक रखते थे वे ।'

'
बाबा, तब तो तुमने
सूरज को देखा ही नहीं होगा !'

'
ना, हमारा भी एक सूरज है
उस सूरज में तेज़ी है
वह दरका देता है
मोटी सख्त चमड़ी को
उस सूरज में दीप्ति है
अपनी महिमा से पूर्ण
वह दावा जताता है
वह सूरज प्रखर है
वह छीन लेता है अधिकार...'

'
बाबा, तुम्हारा बादल-दल
विलीन हो गया है
आभास मिल गया है मुझे
ज्वलंत सूर्य का  '



शांति पुरस्कार
( गुजराती कविता )
सत्यम् बारोट
अनुवाद : फ़ारूक शाह



मनुष्य जब तक मनुष्य है
तब तक उसे
शांति पुरस्कार दे देना चाहिए

जिद्दी बालक
घर की गोर खोद डाले, उससे पहले
उसे शांति पुरस्कार दे देना चाहिए

मजदूर का
पसीना सूख जाये, उससे पहले
उसे शांति पुरस्कार दे देना चाहिए

इन्सान
खंजर बन जाये, उससे पहले
उसे शांति पुरस्कार दे देना चाहिए

बच्चा बड़ा आदम बने,  इससे पहले
उसे शांति पुरस्कार दे देना चाहिए

आदमी
आतंक बने, उससे पहले
उसे शांति पुरस्कार दे देना चाहिए

मानव की मानवता
मर जाये, उससे पहले
उसे शांति पुरस्कार दे देना चाहिए

खिलौना
बम बन जाये, उससे पहले
उसे शांति पुरस्कार दे देना चाहिए

बोरियाँ उठाने वाले
उस मजदूर की पीठ
फट जाये, उससे पहले
उसे शांति पुरस्कार दे देना चाहिए

मनुष्य के हृदय का प्रायश्चित
कायमी भूल बन जाये
उससे पहले
उसे शांति पुरस्कार दे देना चाहिए


छीन लेता है
(उर्दू कविता)
वसीम मलिक

दिलों से प्यार, आँखों से उजाला छीन लेता है
सियासी नफरतों का ज़हर क्या-क्या छीन लेता है

जिसे बादल समझकर पूजते आए हैं बरसों से
वो रेगिस्तान है, प्यासों से दरिया छीन लेता है

मियां, हम भी कभी तहजीब की पहचान थे, लेकिन
यह पापी पेट जीने का सलीका छीन लेता है

यह कैसा धर्म का पैगाम है, यह कैसा मज़हब है ?
पड़ोसी से पड़ोसी का रिश्ता जो छीन लेता है

तुम अपनी चौखटों पर मत बिछाना मुन्तज़िर * आँखें
नया हाकिम चरागों से उजाला छीन लेता है

उसे क्या हक़ है ‘ वन्दे मातरम् ‘ की बात करने का
जो एक माँ से बुढ़ापे का सहारा छीन लेता है

( * मुन्तज़िर = राह देखती )


रौशन सच 
(हिन्दी कविता)
 नीरा परमार 

कभी हमारे
करोड़ों करोड़ों नन्हे हाथों ने
छुआ था उजाले को !

हमें खबर भी नहीं हुई –
कब किसी ढाबे
किसी ठेले
किसी गलियाती मालकिन की
रसोई में
जूठन धोतेधोते
उम्र के संग वह रौशन सच
मटमैला पड़ गया

कभी ताजा छीले भुट्टे–सी सुगंध बन
जगमगाहट आती थी सपने में
किस्सा था, बीत गया

अब तो
साँचों में मोम ढालते
बीड़ियाँ लपेटते
चूड़ियाँ बनाते –
सूरज को खोंस दिया है


सिर्फ़ तुम
   (उडिया कविता)
बासुदेव सुनानी
अनुवाद : फारूक शाह

मैं जहाँ था
अब भी वहीं हूँ
मेरे अभाव
मेरी गरीबी
मेरी मज़बूरियाँ
मेरी रोजमर्रा की मेहनत
मेरी भक्ति
मेरा जीवन जीने का तरीक़ा
सब कुछ वैसे का वैसा ही है
दिन ब दिन
तुम्हारे कहने से कुछ बदलता है
तो वह हैं
तुम्हारे आदर्श
तुम्हारे कायदे-कानून

तुम वही हो
जिसने ईश्वर और मेरे बीच
खाई खोदी है

तुम वही हो  
जिसने भोले इन्सानों के हृदय में
छुआछूत के बीज बोये हैं

तुम वही हो  
जिसने अपनी संस्कृति छोड़ने के लिए
मुझे विवश किया है

तुम वही हो
जिसने मंदिर मस्जिद गिरजे से
मुझे खदेड़ा है  


तुम !
मेरे जीवन
मेरी परम्परा
मेरी अशिक्षा
मेरी गरीबी
मेरी इस बदहाली के लिए
सिर्फ़ तुम, सिर्फ़ तुम ही जिम्मेदार हो
तुम !

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(* अनुवाद-सहयोग : कार्तिकेश्वर बेहेरा)



काला इतवार
(मलयालम कविता)
डॉ. एल. तोमसकुट्टी
अनुवाद : डॉ. एल. एस. विश्वंभरन

आग लगी जबान उठाके
बच्चे ने मुझसे पूछा :
जब यह मुल्क जल रहा है
तू क्या ख़ाक कर रहा है ?

तेरा सर किसी भी पल
कट सकता है
किसी भी मोड़ पर
तेरी जान छीनी जा सकती है
जब पूरा नगर जल रहा है
तू क्या ख़ाक कर रहा है ?

गर्भ में शरण लेते मनीषी
वल्मीक में जा छिपते तार्किक
तू कम से कम अपने रुदन को
बाहर निकाल

भूत की ओर तेज बहती गंगा
लाशों की प्यासी होकर
अपने दुखान्त के लिए
पासा फेंकने पर
भुने दिलों में चुभाये जाते
त्रिशूल की नोक
मेरे लिए शगुन बन जाती है

सरयू के संग्राम-बिन्दु पर
संस्कृति के खँडहर
खीझ है मुझे करने को हस्ताक्षर
हाथ ढोने को नहीं पानी
और नहीं थाली
मैं भी बन रहा हूँ एक काला दाग


वह मुखौटों वाला
(हिन्दी कविता)
रजनी अनुरागी 

वह हर कहीं नज़र आता है
वह सर्वव्यापक है, सर्वज्ञाता है
वह हमेशा किसी भी सभा की अग्रिम कतार में
नज़र आता है
वह पेंडुलम की भांति जोर जोर से सिर हिलाता है
जैसे वक्ता का मन्तव्य सिर्फ़ उसी को समझ आता है
बाकी के दांए-बांय से निकल जाता है..

वह व्याख्यान देता है जन पर
आख्यान लिखता है जन मन पर
लेकिन वह अक्सर सत्ता के गलियारों में
चक्कर लगाया पाया जाता है
पकडे जाने पर निरीह चेहरा बनाकर खींसे निपोर कर कहता है
‘आमजन की बात पहुंचाने आया था ‘
वह दलाल है सत्ता का
पहुंचाकर वह जन की बात अपने को खूब उठाता है
वह वाममंचों के साथ दक्षिणपंथी मंचों पर
विरुद्धों का सामंजस्य बैठाता है
उसकी भाषा और कथ्य में गहरा अंतर्विरोध है
पूंजीवाद को गरियाते गरियाते
उसका हलक सूख जाता है
पर अमेरिका जाने जाने के लिए हर तिकड़म भिड़ाता है
वह अभिधा की शक्ति पहचानता  है
तभी तो हर बात व्यंजना में करता पाया जाता है

सब पहचानते हैँ उसे
वह पहचानते जाने से भय खाता है
वह हर बार नए मुखौटों में नज़र आता है
वह एक आंख से आंसू गिराता है
दूसरी से कांइयापन साफ़ नज़र आता है
वह मात दे सकता है किसी भी अभिनेता को
लेकिन अभिनय का बैस्ट अवार्ड लेने से कतराता है

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