रंगे-ए-जिंदगी !

          
डॉ.सुनीता 
17/04/2012 नई दिल्ली.

उल्टा तवा के भांति सृष्टि सृजन पलट दिया 
रुमाल फेंककर जिश्म-दर-जिश्म रौंद दिया.

कुकर्म के अदृश्य यातना से तन-वदन उबल पड़ा 
निगाहों के सामने पड़े आईने ने अपना चेहरा दिखा दिया.

उन्मत किरणें जब दस्तक दें दिल के दरवाजे पर 
दिखावा वो शर्म के झूठे अनंत चादर ओढ़ लेना.

आतीं हैं आती रहेंगी ये कान काटने
ये अदाएं ही जीवन में उत्कंठा बढ़ाती हैं.

जिसे सदैव समझा कोख का हिरा 
वक्त के नक्स पे निकला काला पत्थर.

दो रोटी के लानत-मलानत के लाले पड़े हैं 
कोढ़ में खाज सरीखा उठता यह सवाल है.

आरजू के तकसीम होने पर कली का खिलना 
मुरझाये होंठो का हंसना,मौसम का बदलना.

किस्मत के नाम पर किस्मत के मार से जूझते रहे 
जब कन्नी काटकर सब सामने से निकलते रहे.

वादे वफ़ा का दिलासा देकर जहां में घूमाते रहे
अपने ही दामन से किनारा कर गुफ्तगू करते रहे. 

गरीब के बेटी और गरीबी का मजाक उड़ाते रहे 
आजीवन जिसके दम कुर्सियां तोड़ते रहे.

भूले बैठे हैं हकीकत के अपनी औकात को 
गिरी आदमियत से अब खून खौलता है.

जिद के जद्दोजहद से खून सूखने लगा 
तनय की भूख दिन-ब-दिन बढ़ती रही.

दम्भ के सिंहासन पर बैठे-बैठे खींसे निपोरते रहे 
कर्मपथ से दगा कर लोक-परलोक में खाक छानते रहे.

ख़बर लेने की सुध-बुध बिसराये रहे
जब तक अहंकार की पट्टी आँखों पर चढ़ी रही.

रोज़-ब-रोज़ ख्याली पुलाव पकाते रहे 
मिटटी के तन को सोना समझ चुराते-छिपाते रहे.

खून-पसीने के कमाई को खुले हाँथ लुटाते रहे 
नादान बच्चे भूखे पेट सड़कों पर अकुलाते रहे.

खुशी के दिए नैनों में जगमगाते रहे 
उजाले में अंधेरे से ताजिंदगी टकराते रहे.

गजब ढाया अबोले,अदृश्य,अनुगूँज पाप ने 
छुटकारा पाने के लाखों-लाख जुगत लगाते रहे.

गाढ़े का साथी मेरा परछाई मुझसे दूर होता रहा
गाल बजाने की आदत से लाचार फटकार खाते रहे.

गले का हार समझकर सीने से चिपकाए रहे 
सर्प बनकर वह सरेशाम गुल खिलाता रहा.

गिरगिट सरीखे बदलते रंग से चौकते रहे
घर के अंदर दिलों में गाँठ-पर गाँठ पड़ते रहे.

रद्दे अमल से पीछा छुड़ाने की तरकीब लगाते रहे 
जितना भागते रहे उतना ही उसमें रचते-पगते रहे.

लड़कपन से गप्पे लड़ाने में दिन बिताते रहे 
सर आ पड़ी जिम्मेदारियां बगले झांकते रहे.

मौके के तलास में दिल-दिमाग खपाते रहे
जितना उबरने की सोचते उतना ही गहराई में धसते रहे.

जब भी देखा उसे अपने हाल-हालत से जूझते हुए 
घाव हरे हो गए अतीत के पन्ने खोलते हुए.

अनमोल मोती को पत्थर समझ फेकते रहे
जीवन भर घांस छिलते रहे शर्म खाते रहे.

अपनों के नजरों के मरकज का निशाना बनते रहे
आदत से वेबश करवट बदल सपने बुनते रहे.

घुटने न टेकने की सौगंध खाते,आगे बढ़ते रहे 
वे स्वाद घाट-घाट के पानी पीते,राह चलते रहे.

दामन जलाते रहे घर फूंक तमाशा देखते रहे 
निर्लज्जता की चादर लहराते,आगे कदम रखते रहे.

नोट-

इस रचना में मुहावरों का भरपूर प्रयोग किया गया है.
उम्मीद है,हिंदी के प्रति लगाव रखने वाले इसे सहज ही खोज सकेंगे.
वस्तुतः किस्से,कहानिया,कहावते और मुहावरे यह सब नित्य जीवन के अंग हैं.किसी न किसी रूप में हम सब इनका इस्तेमाल करते ही हैं.

शकीरा और ब्रिटनी के प्रशंसक पीढ़ी राहुल सांस्कृत्यायन को भूली


'भागो मत,बदल डालो'




डॉ.सुनीता 
10 अप्रैल,2011,नई दिल्ली.  

वे कर्मकांडी और पोंगापंडित नहीं थे.यदि होते तो देश में उनके नाम पर भी गढ़ और मठ चल रहे होते.इन गढों और मठों के संचालक अपनी दुकान चलाने के लिए छाती पीट-पीट कर उनको याद कर रहे होते.
उनके महिमा के गुणगान में कोई कसर न छोड़ते.अफ़सोस की राहुल सांस्कृत्यायन ऐसे न थे.जो वह थे,पोंगापंथियों के लिए एक किरकिरी थे.
भारत की नयी पीढ़ी के लिए एक मार्गदर्शक हैं,लेकिन इन्टरनेट, फेसबुकिया की पीढ़ी शकीरा,मैडोना,गागा,ब्रिटनी स्पीयर्स को बखूबी याद रखते हैं.लेकिन इस घुम्मकड़पन के जनक और प्रगतिशील चेतना के नायक राहुल सांस्कृत्यायन,उनकी चेतना के किसी हिस्से में नहीं हैं.
यह एक बड़ा संकट है.यह इस देश और नई पीढ़ी के लिए खतरे का संकेत है.
राहुल सांस्कृत्यायन को कौन नहीं जनता है.वह आजीवन यायावर और घुमक्कड़ बने रहे.पाली और संस्कृत सहित दर्जनों भाषाओं के जानकार थे.
ताजिंदगी ‘हुंकार’ भरते रहे.कभी किसानों के पक्ष में लड़े तो कभी मजदूरों के पक्ष में तन के खड़े रहे.
‘हुंकार’ के सम्पादक के रूप में अपनी अहम भूमिका अदा किये.उन दिनों इसमें एक विज्ञापन छपता था.गुंडों से डरिये’.यह काम करने से इंकार कर दिया क्योंकि इसमें गाँधी को बंडी पहने आग लगाते हुए दिखाया जाता गया था.एक समर्पित देशभक्त के लिए यह असहनीय था.क्योंकि उनके लिए गुंडा कौन लोग थे,अंग्रेज ही थे.
इस पत्रिका के मालिक सहजानंद जी थे.उन्हें ऐसा छापने के लिए मोटी रकम मिलती थी.उन्हें भला ऐसा करने से क्या एतराज होता.परन्तु राहुल ने साफ मना कर दिया.

ऐसे व्यक्तित्व के धनी आज के पत्रकारिता और मीडिया में दूर-दूर तक कोई नहीं है.मौजूदा मीडिया में हुंकार भरने वालों की अकाल सी पड़ गई है.रीढ़हीन और चाटुकार पत्रकारों की जमात अधिक फलफूल रही है.सुख-सुविधा के लिए वे रेंगने के लिए भी तैयार बैठे हैं.
मालिक ही मुकम्मल खबरों पर नजर गडाये रहते हैं.  

वे एक दार्शनिक भी थे और चिन्तक भी.दूरदर्शिता उन्हें घुमक्कड़ीपन और संघर्षों की जमीन से मिली थी.उनके लिए कोई देश पराया नहीं था. खोज और सृजन की भूख ने उन्हें हमेशा देश-दुनिया में घूमने के लिए प्रोत्साहित किया.
वे घूमे,लिखे और खूब लिखे.कभी ‘बोल्गा से गंगा’ की यात्रा किये.कभी ‘साम्यवाद ही क्यों’की जरुरत पर बल दिए.’अथातो घुम्मकड़ जिज्ञासा’ को संजीवनी सरीखा संचित किया.   
 कभी भारत से भूटान गए.कभी रूस से श्रीलंका.कभी अकेले आये कभी खच्चर के पीठ पर ज्ञान लाद कर लाये.
संसार के वे लोग,जो उनमें दिलचस्पी रखते थे,उनकी रचनाओं के माध्यम से दुनिया को जाना-समझा और कल्पना किया.कलम से निकले शब्दों से देश-दुनिया से रु-ब-रु हुए.
राहुल ने कहा है---
मेरी समझ में दुनिया की सर्वश्रेष्ठ वस्तु है घुमक्कड़ी है. घुमक्कड़ से बढ़कर व्यक्ति और समाज का कोई हितकारी नहीं हो सकता.दुनिया दुख में हो चाहे सुख में, सभी समय यदि सहारा पाती है तो घुमक्कड़ों की ही ओर से.प्राकृतिक आदिम मनुष्य परम घुमक्कड़ था.आधुनिक काल में घुमक्कड़ों के काम की बात कहने की आवश्यकता है, क्योंकि लोगों ने घुमक्कड़ों की कृतियों को चुरा के उन्हें गला फाड़फाड़कर अपने नाम से प्रकाशित किया.
जिससे दुनिया जानने लगी कि वस्तुतः तेली के ‘कोल्हू के बैल ही दुनिया  में सब कुछ करते हैं.

आधुनिक विज्ञान में चार्ल्स डारविन का स्थान बहुत ऊँचा है.उसने प्राणियों की उत्पत्ति और मानववंश के विकास पर ही अद्वितीय खोज नहीं की, बल्कि कहना चाहिए कि सभी विज्ञानों को डारविन के प्रकाश में दिशा बदलनी पड़ी.लेकिन, क्या डारविन अपने महान आविष्कारों को कर सकता था, यदि उसने घुमक्कड़ी का व्रत न लिया होता.

आदमी की घुमक्कड़ी ने बहुत बार खून की नदियाँ बहायी है, इसमें संदेह नहीं, और घुमक्कड़ों से हम हरगिज नहीं चाहेंगे,कि वे खून के रास्ते को पकड़ें.किन्तु घुमक्कड़ों के काफिले न आते-जाते तो सुस्त मानव जातियाँ सो जातीं और पशु से ऊपर नहीं उठ पाती.

अमेरिका अधिकतर निर्जन सा पड़ा था.एशिया के कूपमंडूक घुमक्कड़ धर्म की महिमा भूल गए,इसलिए उन्होंने अमेरिका पर अपना झंडी नहीं गाड़ी.दो शताब्दियों पहले तक आस्ट्रेलिया खाली पड़ा था.चीन, भारत को सभ्यता का बड़ा गर्व है,लेकिन इनको इतनी अक्ल नहीं आयी कि जाकर वहाँ अपना झंडा गाड़ आते.

 वह एक बहुभाषाविद थे.उन्होंने बीसवीं सदी में यात्रा की इमारत खड़ी की.इसके माध्यम से साहित्य को एक नयी विधा मिली जिसका श्रेय इन्हें ही जाता है.उन्हें यात्रा साहित्य का पितामह भी कहा जाता है.
जन्म हुआ तो केदारनाथ पाण्डेय थे.उनका जन्म आजमगढ़ के पंदहा गांव में ९ अप्रैल,१८९३ में हुआ था.
विद्रोह की ज्वाला बचपन से ही उनके हदृय में पलती रही.इसी कारण घर छोड़कर साधू बन गए.जब साधू हुए तो रामोदर नाम से जाने गए.वे घुमक्कडी लत से मजबूर थे.एक जगह टिकना उनके स्वभाव में ही नहीं था.
१९३० में बौद्ध धर्म अपनाकर राहुल बन गए.इसी नाम से चर्चित हुए.रहे और हैं.
उनका बाल विवाह हुआ था.बड़े हुए.इसका खुलकर विरोध किये.पहली पत्नी को छोड़कर दिए.
१९३७ में रूस में संस्कृत के अध्यापक बने.लेनिनग्राद स्कूल में पढ़ाये.
रूस में ही एलेना से दूसरी शादी की.
कहा जाता है,वे छत्तीस भाषाओँ के मर्मज्ञ थे.बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे.बहुलतावाद की अपेक्षा विविधता के परिचायक थे.विश्ववाद के समर्थक थे.
आज दुनिया इंटरनेट के माध्यम से ग्लोबल होने का दंभ भरती है.बीन यात्रा किये ही स्थान की व्याख्या करती है.लेकिन उन्होंने अपने ग्यारह नम्बर के गाड़ी से ही कई देशों के भ्रमण किये.
इस दौरान दुनिया में फैले तमाम धरोहरों का साक्षात् दर्शन किये.फिर अपने संस्मरण के माध्यम से लोगों को भी कराये.
इनके अकूत प्रतिभा का प्रमाण पटना ग्रन्थ संग्रहालय में आज भी संचित,सुरक्षित और सहेजी मिलेगी.इनके मुताबिक घुम्मकड़ी मुक्ति और क्षितिज विस्तार का अदभुत मंच है.वह कहते हैं
कमर बाँध लो भावी घुमक्कडों,संसार तुम्हारे स्वागत के लिए बेकरार है.

अपने हृदय के अंतर्विरोध से सदैव जूझते रहे,ज्ञान के तलाश में आजीवन भटकते रहे.विभिन्न धर्मों को समय-समय पर अपनाते रहे.जैन धर्म,बौद्ध धर्म,पुनर्जन्म,मार्क्सवाद से लगायत सत्तालोलुपता पर कटाक्ष भी किया. उसमें सन्निहित खामियों पर बेबाक टिप्पणी करके सर पर मुसीबत को गाहे-बगाहे दावत भी देते रहे.

उनके विरोध का अंदाज यायावरी होता था.अपने इस प्रवृति से लाचार कहीं भी कभी न ठहर सके.
१९३२ में यात्राओं का जो सिलसिला शुरू हुआ,वह मरते दम तक निरंतर जारी रहा.१९४० में जेल की हवा खाते हुए भी कलम की धार बनाये रहे.उनके स्मृतियों को याद करते हुए.

दरख्त !


दरख्तों के साये से डर लगता है

चिमनी सी ऊँची मीनारों से तकते 

अस्मा के आगे-आगे बारात ले निकलते  

ऐसे में परछाई पकड़ने की जीद है 

छाये से छिलके बने जिस्म 

जादुई जंगम से झुलसे हुए 

चीड़ चारु से मिली चाँदनी 

तारों से लिपटे मधु रागनी 

छेड़ हृदय के बीन मतवाली 

काली घटा से घिरते बादल 

जुगनू सी मँडराती किरणे

संदली संध्या सूर सुनाये 

सृजन सम्भव सार्थक बनाये 

सौम्य सुधा सुगंध न सुलभ

पतझड़ पात हिलोरे लेते 

पवित्र हवा के नैन पट खोले 

द्विगुडित दिगम्बर दृष्टि सृष्टि डोले 

कलरव कुंज के मुंज मधुर धुन 

अबिरल बहत नीर निधि लूटे 

लाला लट कलि कोविद कुल 

कलियन कनक कान शोभे 

कुंडल कुंचित कुपित कराल 

व्याल बिष अमृत धारा में घोले.


            ०९/०४/२०१२ 


                 डॉ. सुनीता 

बदलते चेहरे और उभरते रूप


     मानवीयकरण का तब्दील होना मशीनीकरण में 


अब वह समय आ गया है जब हमें अपने इतिहास के स्वर्ण झरोखे से बाहर निकलकर हकीकत की ओर अपनी दृष्टि दौड़नी होगी.यदि सम्पूर्ण मीडिया समाज पर एक नजर दौडाएं तो गहराई से महसूस होता है कि आज के मीडिया ने भले ही न जाने कितने सारे स्वरूप धारण कर लिए हैं,लेकिन इसकी भूमिका को लेकर सवालिया निशान अब भी बरकार हैं.मौजूदा दौर में चौंधियाती ख़बरें सुकून नहीं दहसत पैदा करती हैं.

नए-नए दौर से गुजरते हुए पत्रकारिता ने लोगों को विशेष तौर पर आकर्षित किया है.इस आकर्षण के मोहपाश में बंधे हुए लोग खींचे चले आये.मीडिया क्षेत्र के लोक लुभावने दृश्यों ने सबको अपना दीवाना सा बना लिया.यह दीवानगी इस कदर बढ़ी की लोग अपने कर्तव्य,जबाबदेही और पारदर्शिता से ही विमुख होते चले गए.

इलेक्ट्रानिक मीडिया के दस्तक और दखल से इसमें एक अलग ही तेवर के दर्शन हुए.जहाँ पैसा,पावर,रुतबा और रसुक का बोलवाला हुआ.जिसने पत्रकारिता को एक अलग ही रूप से नवाजा है.हर रोज विकसित हो रहे नये-नये संसाधनों ने क्रांतिकारी परिवर्तन की दिशा में मजबूती से कदम रखने का प्रयास किया है.किन्तु अपने वस्तु-स्थिति पर कायम न रह सका.

न्यू मीडिया ने आते ही सबको अपने चंगुल में बांध लिया.दुनिया को अँगुलियों पर नचाने लगा.यह कहें तो सम्भवतः गलत नही होगा,क्योंकि जितनी सुविधाएँ बनाई गयी हैं,उतनी ही स्थिति भयावह बनती गयी है.

सर्वप्रथम किसी आविष्कार को लेकर जितनी उत्सुकता होती है उससे कहीं अधिक उसके द्वारा होने वाले दुष्परिणामों से लोग भय खाते हैं.जबकि उसकी जरुरत से खुद को कोई भी अलग नही रख पाते हैं.
पीढ़ियों के अंतराल हों चाहे न हों सबके सब इन माध्यमों के मकड़जाल में बंधे हुए हैं.जिसका प्रभाव सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही सहज रूप में देखे जा सकते हैं.

जिस तेजी से जनसंचार के क्षेत्र में नई प्रौद्योगिकी ने अपना कदम बढ़ाया है.उससे चहुतरफा सूचना-क्रान्ति की लहर देखी जा सकती है.इस स्थिति ने जो माहौल पैदा किया है उससे हम सब मशीनी दुनिया में तब्दील होते जा रहे हैं.हमारी मानसिकता और दिल-दिमांग मशीनों के गुलाम बनते जा रहे हैं.एक तरह से कह सकते हैं कि मशीनों का आंशिक रूप से मानवीकरण हो गया है.जिससे इन निर्जीव वस्तुओं में निर्लिप्त होकर इंसान धीरे-धीरे मशीनीकरण में परिवर्तित हो रहा है.यह कोई अतिश्योंक्ति नहीं है.हम २४ घंटे में २० घंटे मशीनों के साथ गुजारते हैं.इसका प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है.

संचार के परम्परागत परिभाषा और परिपाटी तेजी से बदले हैं.उसे परिवर्तित करने का श्रेय न्यू माध्यमों को दिया जा सकता है.लेकिन यह विचारणीय है कि इनके प्रभाव कितने सही हैं.आज अपने उम्र से बढ़कर बच्चे बातें करने लगे हैं.इन साधनों के शिकार सर्वाधिक यही हो रहे हैं.उनके मासूम बचपन हंसी-ठिठोली के स्थान पर तिकडम,साजिश और कालाबाजारी के समीकरण बनाने में व्यतीत हो रहे हैं.इसका साफ मतलब है हम अपने भविष्य को खोखला और कंडम कर रहे हैं.

सूचना के बढ़ते तकनीकी माध्यमों ने बहुत बढ़ी भूमिका निभाई है.आज रोज-ब-रोज मीडिया के नए रूप पल-प्रतिपल देखे जा सकते हैं.जिससे व्यापक स्तर पर बदलाब की बातें हो रही हैं.वह व्यवसाय में चली आ रही नीतियों में परिवर्तन की हो,शिक्षा से लगायत अनुसंधान को एक नए स्वरूप से विभूषित करने की बात हो,खेल से लेकर मनोरंजन तक में नए सिरे से उलट फेर करने की बात हो या फिर मानवीय मनोस्थिति में सुधार की ही बात क्यों न हो इस दिशा में काम किये जा रहे हैं.लेकिन सिर्फ कागजों में वास्तविकता में झोल ही झोल है.

इस दिशा में कुछ माध्यमों ने अपना एक अलग रोल अदा किया है.आजकल प्रचलन में आये ब्लॉग, फेसबुक, ट्विट्टर ,ई बुक, लिंक्ड आदि ऐसे तमाम साधन हैं जिनके दस्तक ने लोगों को एक अलग ही संस्थाओं से परिचित कराया है.

इन माध्यमों से नारी विमर्श के आयामों,दलित विमर्श के कारणों,गंगा के अपवित्रता पर मंथन और देश बचाने से लेकर रोटी-बेटी सहित जानवरों की सुरक्षा की बातें भी सहज ही उठाई जा रही हैं.

हालाकि मेल करने की शुरुआत अमेरिका में १९६९ में सरकारी,कार्यालयी देख-रेख के मद्देनजर शुरू की गयी थी.लेकिन इसने लोगों के अंदर अपनी एक मुकाम बना ली और गहरी पैठ के साथ आगे बढ़ी.

एक समय था जब प्रिंट मीडिया के द्वारा ही हम अपनी बात कह सकते थे या फिर अपने डायरी के पन्नों में दर्ज करके संतुष्ट हो जाते थे.किन्तु इन संसाधनों के आ जाने से सबको एक ऐसा मंच मिला है.जहाँ से वे अपनी बात,जज्बात,ख्याल को बड़ी बेबाकी से एक-दूसरे से बाँट सकते हैं.यहाँ पर न तो किसी से दुत्कारे जाने की टीस है और ना ही किसी के द्वारा अपमानित किये जाने की खीझ ही देखी जा सकती है.इसके आवक ने लोगों के अंदर एक आत्मविश्वास का संचार किया है. जिन्हें कोई दूसरा माध्यम नहीं मिला उन्होंने इसे अपनाकर अपने आप को साधुवाद प्रदान की है.कुछ एक अपवादों को छोड़कर.

कंप्यूटर ने सूचना के क्षेत्र जो विस्फोट किया था.उसे न्यू मीडिया ने परवान चढ़ाया है.जिसके विस्फोटक हमले से कोई भी नहीं बच पाया है.इसके वजह से पत्रों के प्रकाशन और पत्रकारिता से लगायत मीडिया के सभी माध्यमों को एक नया रंग, रूप और कलेवर प्राप्त हुआ है.

शुरुआती दौर में इसे एक 'यंत्र' के तौर ही उपयोग में लाया जाता रहा.लेकिन धीरे-धीरे इसने रोजमर्रा के जीवन का अभिन्न हिस्सा का स्थान ले लिया.व्यक्ति के सुबह होने से लेकर नींद के आगोश में जाने तक लोग प्राय: प्रयोग करते हैं.

एक तरह से अपने लत्त के चपेटे में लेकर सबको कैद सा कर लिया.तमाम विरोध करने के बावजूद भी इसके गुलाम बने बैठे हैं.इस 'यंत्र' ने अब अपना एक अलग ही धाक बना ली है.अपितु अब यह एक यंत्र मात्र नहीं है,बल्कि मीडिया के ही एक रूप में ढल गया है.नित्य प्रति विस्तार धारण कर रहा है.

बेब-पत्रकारिता के पदापर्ण से एक अलग ही हलचल पैदा हुई.यह समूचे विश्व के लिए एक नई चीज है.जिसने सबको प्रभावित किया है.यह एक नए आयाम के जागरण का गवाह है.दुष्कर से दुष्कर कार्य को भी बेहद आसान बना दिया है.छपाई से लेकर शुद्धता तक को इसने प्रभावित किया है.

वस्तुत: सदियों से चली आ रही परिपाटी को बदलना ही तो सबसे महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसी रास्ते से कायाकल्प की लहर प्रवेश करेगी.

छटते धुंध का मुखविर बनाना भी एक रोचकता और गौरव की बात है.उस स्थान पर यह अधिक मूल्यवान हो जाता है जहाँ से देश-दुनिया को बदला जा सकता है. संचार एक ऐसा साधन है जो लोगों के बीच में अपनी मजबूत पहचान रखती है. आजादी की लड़ाई से लगायत स्वतंत्रता के बजते बीन की साक्षी पत्रकारिता ही रही है.इसके आयाम ने बहुत ही विस्तार ले लिया है.लगातार वृहद होते स्वरूप ने ही मीडिया विशेषज्ञों को मंथन के लिए उकसाया है.

विश्व भर की तमाम खबरें घर बैठे उपलब्ध हैं.आज सब कुछ 'आन लाइन' मिल रहा है.अच्छी-बुरी,बेहतर,संजीदा,सुन्दर, भद्दा और डरावना से लेकर एक-एक चीज पलक झपकते हाजिर हो जाता है.एक तरफ हमें मानसिक जद्दोजहद से मुक्ति मिली है. दूसरी तरफ समझ,चिंतन और निर्णय लेने की क्षमता में घुन लग गया है.जिसने बुरी तरह से लोगों को प्रभावित किया है.

यहाँ से प्रिंट मीडिया की सूचनाएं भी आसानी से ली जा सकती है.'मुठ्ठी में कर लो दुनिया' के तर्ज पर लोगों ने 'हथेली पर दूब' उगाना शुरू कर दिया है.इन्टरनेट की सुलभता ने सब कुछ सुलभ कर दिया है.इस सहूलियत ने बहुतों को नक्कारा भी बनाया है.इस बात से हम मुख नहीं मोड़ सकते हैं.
कमोवेश सब कुछ मशीनों के हांथो में चला गया है.इलेक्ट्रोनिक रिपोर्टिंग, एडिटिंग, टाइपसेटिंग,डिजाइनिंग,प्रिंटिंग,ड्राफ्टिंग और प्रूफरीडिंग आदि जैसे बहुतेरे कामों को इन संसाधनों ने सर्वसुलभ कर दिया है.

ब्लोगिंग के समृधि ने इसे और अधिक प्रचारित,प्रसारित और वृहद कर दिया है.जो कुछ रह गया उस कसर को ई नेट्वर्किंग ने पूरी कर दी है.ग्लोबल इम्पैक्ट ने सबके सोचने-समझने के नजरिये में व्यापक तब्दीली की है.

मीडिया में ध्वनि,शब्दचित्र,धुआ,लेखन,कागज और करतूत को देखने के तौर-तरीके बदल गए हैं,ये सारी की सारी देन इन्ही की है.माना की इसकी खोज इंसान ने अपने सहयोग के लिए किया था.परन्तु स्थिति बदल गयी है.इसलिए इसका स्थान भी बदल गया है.
                        डॉ.सुनीता
                        अध्यापन      
                                            ०४/०४/२०१२  

अमर कृतियों का ‘निर्मल’ संसार




हिंदी साहित्य के विराट सागर में अपने रचनाओं से हलचल पैदा करने वाले निर्मल वर्मा ३ अप्रेल १९२९ को शिमला के हसीं वादियों में अवतरित हुए थे.५ अक्तूबर २००५ को अपनी कलम समेट कर इस दुनिया से विदा ले लिया था. अपने लिखे शब्दों से अब भी मौजूद हैं.उनकी अभिव्यक्तियाँ एक जिन्दा मिसाल हैं.आज उनका जन्म दिवस है.उनके रचनाओं के आलोक में समर्पित है हृदय की कोमल संवेदनाएं...!
इसमें उनके हर उस रचना का जिक्र है जो उन्होंने अपने साहित्यिक जीवन काल में लिखा था.आप सब उसे पहचाने और बताएं यहाँ कौन-कौन सी कृतियाँ अपनी मौजूदगी दर्शा रही हैं...


सृजन के अस्तित्व से धरा पर वे दिन आयें हैं
परिन्दें चहचहा के दूसरी दुनिया को सुना रहे थे.

     उभरते स्वर से हवा में बसंत लहरा रहे थे
     वादियाँ गा रही थीं मायादर्पण के अलोक में.

एक चिथड़ा सुख में जीवन का मर्म सन्निहित है
एक अनुगूँज गांव के लाल टीन की छत से आती है.

      अतीत के डयोढ़ी पर पिछले गर्मियों में गुजारे थे
      अब वहाँ कौवे और कालापानी की बातें होती हैं.

सुखा पड़ते ही तड़प उठते किसानों के दर्द
बीच बहस में,चीड़ों पर चाँदनी से दस्तक देते हैं.

    दिल में लगे आग के गुबार से इंसानों के जंगल जल रहे हैं
    धुंध से उठती धुन ने शताब्दी के ढलते वर्षों से आवाज दी.

कला का जोखिम उठाने वाला वहिष्कृत किया जाता है
घुटन के चुभन से सीढियों पर सिगरेट जलाता है.  

      नम आँखों से निहारते हैं भारत और यूरोप
      ले चला है प्रतिभूमि के क्षेत्र से एक जलती साड़ी.

ढलान से उतारते हुए ऊँचाइयों का संदेस दिया
मीठी-मीठी यादों के पाती से गुलदस्ता पेश किया.
         
      रात का रिपोर्टर अपनी पोटली समेट कर
      जीवन के अंतिम अरण्य पर निकल पड़ा है...!

                                  डॉ.सुनीता 
                             ०३/०४/२०१२ 

अमर कृतियों का ‘निर्मल’ संसार


हिंदी साहित्य के विराट सागर में अपने रचनाओं से हलचल पैदा करने वाले निर्मल वर्मा ३ अप्रेल १९२९ को शिमला के हसीं वादियों में अवतरित हुए थे.५ अक्तूबर २००५ को अपनी कलम समेट कर इस दुनिया से विदा ले लिया था. अपने लिखे शब्दों से अब भी मौजूद हैं.उनकी अभिव्यक्तियाँ एक जिन्दा मिसाल हैं.आज उनका जन्म दिवस है.उनके रचनाओं के आलोक में समर्पित है हृदय की कोमल संवेदनाएं...!
इसमें उनके हर उस रचना का जिक्र है जो उन्होंने अपने साहित्यिक जीवन काल में लिखा था.आप सब उसे पहचाने और बताएं यहाँ कौन-कौन सी कृतियाँ अपनी मौजूदगी दर्शा रही हैं...


सृजन के अस्तित्व से धरा पर वे दिन आयें हैं
परिन्दें चहचहा के दूसरी दुनिया को सुना रहे थे.

     उभरते स्वर से हवा में बसंत लहरा रहे थे
     वादियाँ गा रही थीं मायादर्पण के अलोक में.

एक चिथड़ा सुख में जीवन का मर्म सन्निहित है
एक अनुगूँज गांव के लाल टीन की छत से आती है.

      अतीत के डयोढ़ी पर पिछले गर्मियों में गुजारे थे
      अब वहाँ कौवे और कालापानी की बातें होती हैं.

सुखा पड़ते ही तड़प उठते किसानों के दर्द
बीच बहस में,चीड़ों पर चाँदनी से दस्तक देते हैं.

    दिल में लगे आग के गुबार से इंसानों के जंगल जल रहे हैं
    धुंध से उठती धुन ने शताब्दी के ढलते वर्षों से आवाज दी.

कला का जोखिम उठाने वाला वहिष्कृत किया जाता है
घुटन के चुभन से सीढियों पर सिगरेट जलाता है.  

      नम आँखों से निहारते हैं भारत और यूरोप
      ले चला है प्रतिभूमि के क्षेत्र से एक जलती साड़ी.

ढलान से उतारते हुए ऊँचाइयों का संदेस दिया
मीठी-मीठी यादों के पाती से गुलदस्ता पेश किया.
         
      रात का रिपोर्टर अपनी पोटली समेट कर
      जीवन के अंतिम अरण्य पर निकल पड़ा है...!

                                  डॉ.सुनीता 
                             ०३/०४/२०१२ 

महादेवी वर्मा !! अर्पित भावना

भूले-विसरे चित्र के झरोखे से झांकती अचानक से स्मृतियों में छा गई.छायावाद के वृहत्रयी की सकुशल स्तंभ की एक बेजोड लेखिका महादेवी वर्मा जिन्होंने अपने रचनाओं से एक लहर ला दिया था.पथ से उठते भाव को सागर के उछाल लेते धाराओं से रु-ब-रु करवाया था.आज उनका जन्म दिवस है.उनकी रचनाओं को याद करते हुए पावन चरणों में चंद भाव में लिपटे शब्दों की एक माला अर्पित करती हूँ...


२६/०३/२०१२ 

मैं एक स्त्री हूँ
नारीवाद की अगुआ बनू ये ख्वाहिश रखती हूँ

अपने हृदय में पलते घावों में देश का दर्द देखती हूँ
जिधर नजर जाती है उधर ही मानवीयता शर्मशार है

स्वार्थ में अंधे व्यवस्था के नाम पर भेद-भाव गहरे हैं
पुरुष-प्रकृति का चोट अकाट्य है जिसके चुभन का इलाज नहीं है

साड़ी के आँचल में दूध की नदिया बहती है
वहाँ जीव-जंतु अपनी पूर्णता को प्राप्त करते हैं

घीसू के घिसटन में अब भी अबोध बालक अकुलाते हैं
ऊँची-ऊँची हवेलियों में दाने-दाने को तरस जाते हैं

नाक के नीचे बैठ कर शराब उड़ाई जाती है
एक रोटी के लिए बच्चे की बोटी-बोटी की जाती हैं

गिल्लू की हरकते बदस्तूर जारी हैं 
ख्यालों में ही रह गए हैं कटते जंगल भूखो मर रहे हैं

टिमटिमाती आँखों की रौशनी प्रदूषण में खो गई है
पीपल के विराट पौधे अब नदारत हैं

शिकारियों की संख्या अबाधगति से बढ़ी है
समपर्ण की बातें धुँआ-धुँआ हो चुकी हैं 

अतीत के चलचित्र में कोई देखता ही नहीं
आधुनिकता के अकूत विकास ने निगल लिया है

संस्कृतियाँ अपने होने की गवाही नहीं बन पा रही हैं
सभ्यताएं समस्याओं को सुलझाने में नाकाम हैं

किस-किस की उलाहना दें
आपके पदचिन्हों की निशानियाँ धुंधली पड़ रही हैं

सजते आँचल उधड़ के नीले आसमान में उड़ रहे हैं
नंगे वदन से दुनिया नंगई पर उतर आई है 

कास यादों की परछाइयों से मुस्कुराती आ जातीं 
एक बार अपने अपलक नैनों से निरेख जातीं 

सब कुछ धुंध के धमक में खो सा गया है
स्मृतियों से तकती आहटें उलझन बन रही हैं

चार स्ताम्भें बिम्बों के लक्षणा में नहीं दिखतीं 
छंदों के बंद ऐसे खुल गए हैं जैसे डोर से पतंग 

मतंग मानव मदमस्त है रसों के भाव विभत्स हो गए हैं 
नर भक्षण करते-करते आदिम युग में लौट रहे हैं   

                             डॉ.सुनीता 

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