'भोर का तारा,प्रभात का सूरज'



चांदनी रात की शोभा सुबह होने के साथ ही धूमिल होने लगती है.लेकिन भोर का तारा जीवन को नए अंदाज़ के साथ जीने का सीख देती है.इसी के संग जीवन की सुबह पटरी पे दौड़ने लगती है.जहां से संसार को एक नई रोशनी से तारुफ्फ़ कराया जा सकता है.परन्तु नियति के क्रूर हाथों ने संरचना जैसी की है उसके समक्ष सभी नतमस्तक,बेवश,लाचार और अनुतरित हो जाते हैं.
अलग-अलग स्वरूप से परिचित करवाती प्रकृति ने अपने अनेकानेक रहस्य से रु-ब-रु कराया है.यह रहस्य समाज से लेकर साहित्य के हर तबके में मौजूद है.
                                   मंजिल मिलते हैं हजारों इसी ज़माने में
                                   हम जीते-मरते हैं अपने ही आशियाने में 
                                   वह नहीं ढुढते हैं किसी को ज़माने में
                                   जिनके घर होतें हैं खुले आसमानों में. 
र्तव्य की वेदी पर व्यक्ति के कुछ न कुछ कार्य अधूरे रह ही जाते हैं.कभी प्राकृतिक कारणों से तो कभी मानवीय कारणों से अपूर्ण रह जाता है.बचपन की याद,घटना,दुर्घटन दिल-दिमांग से कभी नही जाती है.इसका ताज़ा मिशाल वह एक मासूम है जिसने खेलने-कूदने के दिन में अपने कोमल किन्तु मजबूत कंधे पर पूरे घर-परिवार का बोझ उठाया था.सिर्फ जिम्मेदारी ही नहीं निभाया बल्कि आदर्श भी बन के उभरी थी.उसकी साहस,प्रतिभा और हिम्मत के कारण सभी लोग मनदेवी कहके पुकारते थे.मैं उसे बड़े ही आदर,प्यार के साथ मंजरी कहके बुलाती थी.वह एकमात्र मेरी छुटपन की लंगोटिया सखी है.अपने नाम के अनुरूप रूपवती भी थी.
शराबी-कबाबी पिता ने एक दर्जन बहनें पैदा करके दुनिया में उसके भरोसे छोड़ गये थे.माँ खेतों में मजदूरी करती थी लेकिन सबका पेट भरना नही हो पाता था.रोज़ बिन खाए सोने से बेहतर है कि कुछ किया जाये.जैसी खुराफात रोज़ उसके दिमांग में उपजते थे.बड़ा दिल कड़ा करके बताती थी.देखना एक दिन मैं इस तंगी,जिल्लत और किल्लत से ऊपर उठूंगी.तब यकीं न होता था.समय के साथ-साथ उसकी परिकल्पना एक फैसला में बदल गयी.उसने अपने दादी के झूठे और दकियानूसी शानों-शौकत को गलत ठहराया.उन्होंने अपने बहु-बेटे के नफ़रत की चिंगारी  बच्चों के जीवन को दाव पर लगा कर बुझाई.सारा ज़मीन-जायदाद चाचाओं में बटकर इन्हें घर से बेघर करके अपनी घटिया क्रोध की आग ठंढा की थी.जिसे चुनौती मंजरी ने अपने मेहनत के दम पर अच्छा जीवन जीने का दावा करके दिया था.कोरी बातें ही नहीं सुनाई थी बल्कि उसने करके भी दिखाया.बड़े घराने के नाम पर झूठी खोल को उजाड़ फेककर यह सावित किया था कि हम अनाथ नहीं हैं..समाज की गन्दी विडम्बना तो देखिये.मेहनत-मजदूरी और मजबूरी का खिल्ली उड़ाने से नहीं चुकते हैं.
व्यथा-वेदना और परिस्थिति के भठ्ठी में तपकर जो सीख हासिल होती है.उसे किसी पाठशाला,
पुस्तक और प्रवचन के थोथी आग में जलकर नहीं समझी जा सकती है.इन्सान का उत्साह ही
उसकी ताकत,उर्जा और बल है.ऐसे लोगों के लिए दुनिया में कोई भी चीज दुर्लभ नहीं है.
                                न कर तक़दीर का शिकवा मुकद्दर आजमाये जा,
                                मिलेगी खुद-ब-खुद मंजिल कदम आगे बढ़ाये जा.
 तमाम कुंठाओं,पाबंदियों और छीटा-कसी के बावजूद वह अनजान घरों में खासकर मुश्लिम घरानों में काम करना शुरू की थी.मेरी सबसे अच्छी दोस्त से नाता तोड़ने का दबाब मुझ पर भी बनाया जाने लगा.बात कुछ नहीं थी.बस जाति-धर्म के नाम पर पोंगापंथियों ने कुछ कानून बनाया था.जिसके तहत हुक्का-पानी बंद कर दिया जाता था.वैसे भी उन्हें कौन मुफ्त में खाने-पेट भरने को कुछ देता ही था.बेहतर है की उन झूठे रस्मों-रिवाजों से कट कर ही रहा जाये.मंजरी ने ऐसा ही किया.उसके इस कदम से भले सब खफा हुए हों लेकिन मैं दिल-ही-दिल में बेहद खुश थी क्योकि उसके ऐसा करने के कारण उसकी छह बहनों का पेट,कपड़ा और ज्ञान की समुचित व्यवस्था जो की जा सकती थी.इस पुन्य से बड़ा कोई दूसरा काम नहीं था.किसी को नंगा-पुंगा संसार में ला देना ही आसान है.ठीक-ठाक जीवन न देना गुनाह है.
                              रेंगते कीड़े से ऊपर है ज़िन्दगी,नंगई में न गुज़ार
                              हौसला से समय का मुख मोड़,बैठ के इंतजार में न गुज़ार.    
मुझे उसके इस कार्य का फक्र तब भी था,आज भी है,भविष्य में भी रहेगा.क्योकि उसने वो किया जो कोई भी नहीं कर पाता था.उस दौर में जब चारोतरफ कुंद मानसिकता का जंगलराज था.ऐसे में मंजरी का कदम बेहद सराहनीय था.यह याद मेरे जेहन में इस कदर बैठा हुआ है कि आज भी रौशन है.
आज तीस साल के बाद मुझे मेरी माँ से खबर मिली है कि उसने अपनी जिम्मेदारियों से निपट ने बाद उसने अपने लिए एक लड़का चुना,शादी की उसके बाद एक बच्चे की माँ भी बन गयी.
यह सब सोचती हूँ तो कल की ही बात लगती है.आज मुझे उसकी बहुत याद आ रही है.लिखने बैठी शब्द ने जैसे साथ ही छोड़ दिया है.कहाँ से शुरू करू,क्या-क्या और कौन-कौन से किस्से बयां  करू समझ में ही नहीं आ रहा है.जो-जो जीवटता पूर्ण काम वो की है यह किसी साधारण व्यक्ति के बस का नहीं है.
                          जरूरतों और हसरतों से भरी है ये जिंदगी 
                          कब,कौन,किसके काम आये ये नहीं मानती है जिंदगी.
                          वक्त आये तो बता देंगे ये कशमकश का हल 
                          ज़रा सब्र से इन्तजार का अभी चख ले फल.
सदियों से चली आ रही मान्यताओं,परम्पराओं,परिस्थितियों,संस्कृतियों और सभ्यताओं को
नजरअंदाज करके कठोर कदम उठाने की बात करना,उठाना और उस काँटों भरी राह पर समाज में चलकर दिखाना आसान नहीं है.
                                     dr.sunita

3 comments:

  1. उत्कृष्ट,बधाई सुनीता !

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  2. व्यथा-वेदना और परिस्थिति के भठ्ठी में तपकर जो सीख हासिल होती है.उसे किसी पाठशाला,
    पुस्तक और प्रवचन के थोथी आग में जलकर नहीं समझी जा सकती है.-----दिल को छू ली .

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  3. i m taking some lines from your 'bhor ka tara , prabhat ka suraj ' for my personal collection. realy these lines are heart touching n telling me some facts about the life .
    Dr. Sunita please continue to give us some precious article and i hope you will give us the best...thanks

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