परिधि से मेल


डॉ.सुनीता 
असिसटेंट प्रोफ़ेसर,नई दिल्ली 
18/12/2012 

रोटी !
पेट के परिधि से मेल नहीं खाता
उदर भूख प्रेम से परे
प्रेणना के गीत
गरीबी के कढ़ाई में खौलते तेल
सरकता,पसीजता रिश्ता
रहम से जीवन बसर करता एक परिंदा 
सागर के लहरों में ज्वालामुखी
जंगल के भीड़ में शरीर
सोहराते बरगद बगुले के शोर
यातना के गर्भ गृह में गाय सी स्त्री
गोल चाँद की परिकल्पना करती
कहन से अलग
तपते सूरज सरीखे बेलती रोटी सी कल्पना
कहाँ खो गयी
वह एक प्रियतमा
जो कभी भूख-भूख से व्याकुल
विरह में भी मुस्कान के गुलाब बेचती
बगुला भगत के भाग्य से बैर ठाने
बैरी सब्जी समय से मेल नहीं खाता
खता यह कि खत्म होते बटुए के भात
भविष्य पर सवाल खड़ा करते
कब्र खोदते
एक कफ़न को तरसते
उस मासूम से पेट की खता क्या ???
कौन बताये भला
उसके परिधि के आस्मां का अंत...!

एक खीझ


डॉ.सुनीता
असिसटेंट प्रोफ़ेसर नई दिल्ली
01/12/2012

मीठी धूप के एहसास में
खोये हुए अनसुने मार्ग पर चले
कांरवा साथ न था
लेकिन
उम्मीद के कई दीपक जल रहे थे
ठोकर मारते जमात को देखते हुए
दर्पण के धूल से उलझ पड़े
शिकवे की कई झाड़ियाँ लगीं
लेकिन
अनूठे जबाबों से चित्त पड़े
चतुराई ने हलके से एक गली पकड़ी
चौराहे से आँख बचाकर भाग खड़े हुए
कहीं कोई एक टुकड़ा गर्मधूप के मांग न लें
लेकिन
उसके इस भगौड़ेपन से वाकिफ
पकड़ लिया जकड़ के बाजुओं के जबड़े में
स्त्री के गाँठ बांधे आंचल के एक कोने में
जब तक जिआ उसे स्नेह के सम्मोहन के मोहपास में
गठिया लिया उस दम तक के लिए
लेकिन
उस एक दरार ने दरख्त के ऊँचाइयों से
झांकते सूरज को सूखे टहनियों में कैद कर लिया
यह कहते हुए
यह अबला के प्यार का बंधन नहीं है
बल्कि वृक्ष के जड़ों में जमे जमीं कि
सख्त पकड़ है
लेकिन
वह अनंत आसमानों में आँख मिचौली
खेलता रहा जीवन के एक हर पड़ाव से
कुछ उलहने देते हुए खीझ उठता है
मेरी फ़िक्र है किसी को
जैसे स्त्री ने चीत्कार किया हो पहली बार
एक पल को
पर्वत,पवन और पानी भी थरथरा उठे


जीवटता को सलाम


22 अप्रैल 2003 को सोनाली मात्र १७ साल की एक सुंदर युवती थीं.एक रात कुछ मनचलों ने उनके उपर तेजाब फेक दिया.जिससे चेहरे के साथ आँख भी जल गये.वह जीवन से हार गयीं.इच्छा मृत्यु की मांग करने लगीं.लेकिन एक दिन ऐसा आया जब वह अपने जीवटता से सारे देश में एक मिसाल बन बैठीं.उनके जले चेहरे बेहद भयावह लगते हैं.पुराने-परचित लम्बें अंतराल के बाद देखें तो उनके लिए पहचानना मुश्किल हो जाता है.उनके इस युद्ध को सलाम करते हुए.उन्हें ही समर्पित..!






डॉ.सुनीता


सहायक प्रोफ़ेसर,नई दिल्ली  
19/11/2012  


4:48



तेजाब के तेज को हर लिया 
हौसलों के ऊँची उड़ान ने 
दम तोड़ दिया व्यवस्था ने 
व्याकुल लोग देखते रहे 
वह निकल पड़ी दुनिया के आकाश में 
आँखों में मोती लिए दर्द के 
हृदय में कसक लिए जन्म के मर्म की
मुस्कुराती संध्या को सुंगंध दे गयी
एक अमर किला की महरानी
झूठे,पापियों और पाखंडियों को लताड़ के
लहू के टुकड़ों को रौंदें हुए आंचल में सम्भाले
अनंत यात्रा के उम्मीद में रात-दिन जली
जख्म को फूल की माल मानकर
मस्तक पर पड़े सिलवटों को झाड़कर
झांकते झुरियों को यातना के गृह में उतारकर
अभिशाप देती,दिला दी एक नये युग को सीख
पल-पल सोखते रक्त को हरा दिया
हौसले से मिशाल का एक इतिहास रच दिया
युगों-युगों से छाये अनहोनी आडम्बरों के बादल
आज बरस पड़े बिन बदली के मूसलाधार
धरा दरक उठी असीम पीड़ा के चीख से...

देह के अनंत आकाश


डॉ.सुनीता
सहायक प्रोफ़ेसर,नयी दिल्ली
15/11/2012

स्त्री देह के अनंत आकाश में
हलचल मचाते तड़पते सपने
भ्रमर करते मानव रूपी भौरे
उलझे-उलझे से उलझन बन उलझाते
भ्रम के बादलों को चीरता एक तन्हा चाँद
घुप्प अन्धेरें में घूमते अस्तित्व तलाश में तारें
भ्रमण को निकले इन तितलियों पर
मंडराते.इतराते.इठलाते इकलौते सवाल
सृजन के सांध्य बेला में गुनते हुए
गगन पर छाये पुष्प पुंज में ढले ये ठलुवे
गुथमगुथ्था किये देह के दर्दिले रेसों में
हौले से पीड़ा के अध्याय लिखते लहू
छलना-ललना के रूप रंग दिखाते
दस्तक देते नन्हे समय भूगोल
प्रत्यक्ष प्रतिकार के शब्द से अनजान
धरा के गोलाई धारण किये शरीर
एक नये आकार-प्रकार लेते जीव से
मचलते रूह में पले ख़्वाब पल-पल देखे
हासिये पर पड़े रोयें रोते-रोते एक रुख लेते
वक्त से पहले रुखसत होते हुए आगे-आगे
चल पड़े उपेक्षा के कटीले व्यंग भरे बाण समेटे
अंधी भूख की अनचाहे उत्कट लालसा
लघु रूप संवारें लक्ष्य भेदते छुवन के आकर्षण
नैनों के कठोर,कुरूप पिपासा को लक्षित कर
निगाह गड़ाए गेहुआं स्वरूप को कनखी से निहारते
टटोलते रक्त मज्जा के बिछुरे रिश्ते
दरकती आहें अरमानों के जठराग्नि में जले
जब-जब देखें देह के अंतर में बाहर भेडिये दिखे
(अधूरी)



भूली-बिसरी यादें




डॉ.सुनीता
सहायक प्रोफ़ेसर,नई दिल्ली
११/११/२०१२
२:४८

धुंधली सी यादें कराह रहीं कानों में
करुणा के सागर बह चले आँखों में
पिछले दरवाजे से खुले कुछ एक पल
ऐसे लगा जैसे बजे पायल की छम
शब्द बोलने लगे भाव खेलने लगे
जब हौले से पलकें खुलीं
घास फूस के बिछावन मिले
बाधी के टूटे-फूटे विस्तर
दूब के तकिये और लाला पानी
ढिबरी की टिम-टिम टहकार
पंक्षियों के मधुर कलरव अपार
मुग्ध मनोहर कोमल पत्तों के झिलमिल हजार
ठूठे से मड़ई सरीखे महलों सा घर
जहां दीमकों का आठों जाम लगे रैनबसेरा
इस भयावह चित्रों में अंधकार के साथी अनेक
चुने तिनके से लगे भीड़ में तब्दील तारें
बरकत के याद में गुजरे एक-एक दिन
हाड़ कंपाते सर्दी को देते मात
मिट्टी के दीपक उजाले बाटें पलछिन
अतीत में बैठे कुछ सुहाने से गीत
इनार के किनारे बैठे बाचें पुरखे-पुरनिए चौपाई
महफ़िल के वो दिन दीखते हैं यादों के जंगल में
रोशनी से नहाये युगों में हम भटक गए
भावना के भोग में भूल बैठे अनमोल कतारें
कतरनों को मोड़-जोड़ करते थे बेंवत
वक्त से पहले हो जाते थे बड़े
सिकुड़ के निहारते चाँद कब हो उजाला
चल देते थे लेके फावड़े,फरहर,फुर्र
त्योहारों के रुनझुन में मगन मन बावरा
कभी-कभी गुनगुना लेते थे मीठे संगीत
सुमन बेचते सपने में नजर आते थे रोज़
राज बन गए हैं वह सुरीले दिन
भूली-बिसरी यादों के दरीचे खुले
अचानक से एक आंचल लहराया
आगोस में समाएं दुआयें दर्पण दिखायें
बल्ब के आगे बठे हैं सब चौंधियाए
आज भी पर्वत के उस सघन छावं में
कुछ चमक रहा दीये सा
किसी अपने के इन्तजार में
लेकिन आवक की खबर नहीं मिली
मीलों फैले मरुस्थल में मन मसोसे है कोई
एक ध्वनि धुन में गुमसुम गोहराती उठी
देखो आ गयी बिजली बेमुराद
मगर दिलों में जमें लाखों गुबार
जग-जग के जाल में जाम उठाये हुए..
(अधूरी)

 
 




आदि कवि के याद में


डॉ.सुनीता 
प्रवक्ता,नई दिल्ली 
29/10/2012 

अनमने से उठे चंद सवाल
आकार लेते आकृति के साथ
हौले से बुदबुदाते कुछ एक भाव
भूले-बिसरे क्यों रहते हैं हम आज

अनंत काल में दस्तक दिया था एक ख्याल 
व्यवस्था के झूठे पैरहन से परे रचे
रुख किये सद्ग्रन्थों के अविरल प्रवाह
प्रवीण बेला में अलबेले अनमोल वचन-वाचन

श्रृंगार के सुर से अलग जन-जंगल में पले
पावन सूचित,सुंदर सृजन आपार महिमा अपरम्पार
गढ़ दिया रूपक ऐसा लगे जीवन के अमृतधार
धारण किये धुन में रमे रहे राजरमण से रार

सिलापट्ट पर अंकित अनेकों अनछुए विचार
ब्याहन वाहन के पंक्षी कलरव करने लगे
धरा पर आया कौन ? बूंद लिए सुधा साथ
सुबरण की चिंता छोड़ स्मरण में लगा अंगुलिमाल

यह दिन आया है साल में कितनी बार
बारम्बार वक्त ने लिखे अबोले शब्दों के आकाश
अक्ष प्रश्न लिए खड़े युगों-युगों से पंथ निहार
अब हो चुका समय आये कोई ले नया अवतार

इधर और उधर के बीच



संपादकीय से...!
खरीदें और पढ़ें उम्दा संकलन...
प्रेम भारद्वाज !
 
तुम्हारा लेबनान एक राजनैतिक गुत्थी है, जिसको सुलझाने में सारा संसार लगा है। ऐसी हुकूमत है जिसमें बेहिसाब अमीर भरे हुए हैं। लेकिन मेरा लेबनान नाम है एक दूरदर्शी चिंतन, धधकती भावनाओं का। एक जुनून और उस युवक का जो पहाड़ की तरह सीना ताने खड़ा है।
 
उनकी आँखों में सपना आज तब भी तैर रहा है जब बाजार की खौलती कड़ाही में सपने सुविधाओं की पकौड़ी बनकर प्लेट में सजे हैं। जमाने का रुख मोड़ने का माद्दा, लड़ने का किसी यो(ा सरीखा जज्बा और जोश। जबकि वह उम्र के अंतिम पड़ाव पर हैं-अपनी कई असाध्य बीमारियों के साथ। मगर महपफूज है सच कहने का दुर्लभ साहस। वे खरी-खरी कहते हैं। मगर कबीर नहीं। भीतर उबलता गुस्सा है मगर परशुराम, दुर्वासा नहीं। बहुत कम लिखकर ज्यादा नाम कमाया है लेकिन गुलेरी नहीं। उसकी नाल एक छोटे शहर में गड़ी है। लेकिन बड़े शहर में महंत उनको हाशिए पर नहीं धकेल पाये। मंदिर में किसी बेजान मूर्ति के आगे उन्होंने हाथ नहीं जोड़े, किसी मस्जिद या जिंदा हस्तियों के दरगाह में सिजदा नहीं किया। अब उन्हें कोई नास्तिक या कापिफर कहे तो अपनी बला से। परवाह नहीं। 'देवता' नाराज हो जाए तो भी कोई गम नहीं। वह 'भक्त' नहीं है, किसी देवता या संप्रदाय के। सत्ता नहीं चाहिए। साम्राज्य की कोई आकांक्षा नहीं। लेकिन लड़ाई जारी है-उन तमाम चीज के प्रति ललकार जो मनुष्य और समाज विरोधी है। वह ऐसा शख्स है जो अपने पात्राों के बीच छुपकर साहित्य की दिशा को मोड़ देता है। वह आयोजन करता है। लेकिन मंच पर नहीं दिखाई देता। नेपथ्य का नायक है वह। चिराग रोशन कर खुद अंधेरे में गड़प। वह न देवता है-न दानव। एक अदद इंसान-अपनी सामर्थ्य और सीमा के साथ। खूबियों और खामियों को कंधे पर लादे वह किसी 'जोगी' का भरम पैदा करता है। उसके दोस्त तक दावा नहीं कर पाते कि जिस शख्स के साथ वे पिछले कई दशकों से रहते आए हैं आखिर में है क्या? दुश्मन भी उसे पूरी तरह से नहीं जान पाते। ऐसे में हमारी क्या बिसात कि उन्हें जाने-समझे? सुनते है वे जिद्दी हैं, बेचैन और गुस्सैल भी। मगर संवेदना-सरोकार के सारथी। क्यों न इन्हीं 'टूल्स' के सहारे उसके व्यक्तित्व और कृतित्व के अभेद किले में सेंधमारी कर, भीतर दाखिल हो, यह देखने की कोशिश की जाए कि वहाँ आखिर है क्या? क्या बला है यह 'शख्स' जिसे लोग ज्ञानरंजन कहते हैं और जो पिछले ४० सालों से जबलपुर जैसे छोटे शहर में चिमटा गाड़कर धुनी रमाए बैठे हैं। पता नहीं किसी उद्भट विद्वान ने यह लिखा है या नहीं कि बहुत गंभीर बातें कई बार हल्के ढंग से भी कही जानी चाहिए। इसे कई लोगों ने अपनाया है। कबीर, भवानी प्रसाद मिश्र से लेकर अदम गोंडवी तक इसी तरह हल्के ढंग से गंभीर बातें कहते रहे हैं। चार्ली चैपलिन इसके लोकप्रिय उदाहरण हैं। ज्ञानरंजन की एक खासियत उनका आक्रोश है। यह आक्रोश उनकी कहानियों के पात्राों में भी दिखाई देता है। इन पंक्तियों के लिखते-लिखते सहसा सत्तर दशक के एंग्रीयंगमैन अमिताभ याद आ जाते हैं। कुछ समानताएँ तो बहुत सी असमानताएँ हैं दोनों दिग्गजों में। पिफल्म को हेय मानने वाले कुछ शु(तावादियों के लिए यह तुलना असहज लग सकती है। लेकिन किसी चीज को अलग बड़े कैनवास में देखने में बुराई क्या है? मुझे इस तुलना के लिए मापफ किया जाए, अगर किया जा सकता है तो। वह आंदोलनों के उभरने का दौर था। सत्ता-व्यवस्था के प्रति जनता में नाराजगी थी। दोनों ने ही उस नाराजगी को अपने ढंग से अभिव्यक्त किया। सुधीश पचौरी ने तो केवल स्टारडम के चलते नामवर सिंह को हिन्दी साहित्य का अमिताभ बच्चन कह डाला। मगर ज्ञानरंजन ज्यादा करीब मालूम होते हैं अमिताभ के। बचकानी अंदाज में कहा जाए तो इस प्रकार। दोनों के पिता कवि थे। छायावादी या छायावादोत्तर। दोनों का संबंध इलाहाबाद से। दोनों ने संद्घर्ष के दिनों में ही प्रेम किया और प्रेमिका से विवाह भी। लेकिन जो रेखांकित करने योग्य समानता है वह इनके पात्राों के भीतर का आक्रोश। जमाने से नाराजगी। जो मौजूदा दौर में गलत हो रहा है उसका प्रतिकार। पफर्क यह है कि एंग्रीयंगमैन अमिताभ बच्चन की पिफल्मों के पात्रा के सामने शत्राु का चेहरा सापफ था। ऐसे में उसके लिए मारना और लड़ना आसान था। ज्ञानरंजन के पात्राों के सामने शत्राु का चेहरा स्पष्ट नहीं है। शत्राु एक वर्ग में तब्दील हो गया है-शत्राु वर्ग। एक अदना सा आदमी लड़े तो कैसे और किससे? वह एक शीश महल है जहाँ चारों तरपफ लगे शीशों में शत्राु दिखाई दे रहे हैं।घ्प्रतिबिंबों का माया जाल। कौन असली है, कौन नकली। समझना मुश्किल। असली शत्राु कहाँ छिपा है? इसे पता लगाने को नायक बेचैन है। वह पत्थर तो उछालता है मगर शत्राु चालाक है। उसने खुद को छिपा लिया है। वैसे भी पिफल्म और जीवन में बड़ा पफर्क होता है। एक और बात ध्यान देने वाली है कि अमिताभ अपनी शुरुआती पिफल्मों में एंग्रीयंगमैन बनकर नहीं आये। दस पिफल्मों के बाद उनकी यह छवि बनी। ज्ञानरंजन की भी प्रारंभिक कहानियों में आक्रोश, नपफरत और द्घृणा नहीं है। वह बाद में आया जो 'द्घंटा' 'बहिर्गमन' में दिखाई दिया। लेकिन असल जीवन में अमिताभ एंग्रीमैन नहीं। अलबत्ता एक चतुर व्यक्ति हैं। लेकिन ज्ञानरंजन जो लेखन में हैं, वही जीवन में भी। उतना ही बेचैन, नाराज। आक्रोश से भरे। खरी-खरी कहने वाले। जमाने से दो-दो हाथ करते हुए। ज्ञानरंजन की कहानियों का नायक पिफल्मों की तरह हीरोशिप लिए नहीं है। काव्यशास्त्रा पर खरा उतरने वाला धीरोदत्त नायक भी नहीं। तमाम कहानियों में एक ही व्यक्ति के भिन्न भिन्न रूप हैं-अलग-अलग स्थितियों, हालातों, संबंधों में। ज्ञानरंजन के पात्रा हमारे भीतर कल भी थे, आज भी हैं। भविष्य में भी रहेंगे। उसी तरह बेचैन। आक्रोश से लबरेज। छटपटाहट से भरे। मिसपिफट। नायकत्व विहीन। वे अपने समय के सांचों को न कल तोड़ पा रहे थे, न आज तोड़ पा रहे हैं। रास्ता उनको न कल मिल पा रहा था। न आज मिल पा रहा है। यही यथार्थ है। हर जमाने का सच। बाकी आप विकास के काल्पनिक रथ पर सवार होकर कुछ भी बोल दीजिए। चलिए देखते हैं ऐसा क्या है ज्ञानरंजन की कहानियों में जिसने उनको अपने दौर में अग्रणी तो बनाया ही, आज भी उनकी प्रासंगिकता बनी हुई है। उनकी कहानियों का प्राणतत्व क्या है? बानगी के तौर पर उनकी कुछ चर्चित कहानियों को ही लिया जाए। 'संबंध' दो भाइयों की कहानी है-बीच में है माँ। ये भाई 'राम और श्याम' की जोड़ी नहीं है। न ही 'भाई हो तो ऐसा' वाली ठाठे मारती भावुकता। न ही 'दीवार' सरीखी-'मेरे पास मां है' जैसी रुमानियत। यहाँ यथार्थ की वह सख्त चट्टान है जिससे टकराकर भावुकता दम तोड़ देती है। याद कीजिए प्रेमचंद की 'कपफन' कहानी। भावुकता की छाती पर क्रूर सच्चाई की गड़ी कील। उसकी अगली कड़ी कह सकते हैं 'संबंध' कहानी को। नायक की हालात और मानसिकता इन शब्दों में बयान होती है-''मैं अपने भाई के बारे में यह सोचने के लिए मजबूर हो गया हूँ। उस बेचारे को मर ही जाना चाहिए... वह आत्महत्या कर ले और एक बहुत ही द्घिसटती हुए निर्मम समस्या का अंत हो जाए... अगर वह मर गया तो सब कुछ कितना ढीला और सुखद हो जाएगा... मुमकिन है आज मुझे अमानवीय और क्रूर समझ रहे हों तो यह भी मुमकिन है कि मैं आपको मूर्ख समझूं' निश्चित तौर पर यह एक भयावह स्थिति है। मगर है तो हमारे समय समाज की स्थिति। भाई के मर जाने की कल्पना करने की मजबूरी। संबंध, मौत और मजबूरी। इस त्रिाकोण का एक चौथा कोण भी है। वह है हमारे सत्ता-व्यवस्था का कोण। ऐसी व्यवस्था क्यों है कि एक बेचारगी से दबे व्यक्ति के लिए आत्महत्या ही एक मात्रा विकल्प बचता है। यह आत्महत्या एक हिंसा में तब्दील हो जाती है। सत्ता-व्यवस्था द्वारा जारी हत्या। विदर्भ में किसानों की आत्महत्या को इसी संदर्भ में देखे जाने की जरूरत है-वहाँ लाखों किसानों की आत्महत्या असल में सत्ता-व्यवस्था द्वारा जारी हत्या ही है। मतलब सापफ है पचास साल बाद भी हालात बदले नहीं हैं। यानी अब भी किसी समस्या का अंतिम समाधान है आत्महत्या। अपनी एक बेहद छोटी कहानी 'आत्महत्या' में ज्ञानरंजन इसे ज्यादा स्पष्ट करते हैं-'उसे अनुभव हुआ कि उसका दुख भयंकर है और द्घनीभूत होता जा रहा है। इस संसार में उसका कोई नहीं है और उसे मर जाना चाहिए क्योंकि वह बुरी तरह असपफल हो गया है... भ्रम और टूट गया है... उसका मर जाना ठीक है क्योंकि कोई उसे इस संसार का अत्यधिक पीड़ित व्यक्ति मानने के लिए तैयार नहीं होता। सब उसकी उपेक्षा करते हैं।' अगर किसी लोकतांत्रिाक देश में कोई व्यक्ति ऐसा सोचता है तो क्या उस देश और समाज को धिक्कार नहीं है? लेकिन धिक्कार नहीं है क्योंकि समाज की सोच इस प्रकार की बनती जा रही है-'जुड़ोगे तो भोगोगे। लोगों को पहचानने में अपना वक्त व्यर्थ जाया न करो।' केवल अपना काम करो। यानी सेल्पफ सेंटर्ड बनना। स्वार्थी होना इस समय समाज का चलन है। 'यात्राा' कहानी मृत्यु को एक अलग नजरिये से देखने- समझने की कोशिश मालूम पड़ती है। 'संबंध' कहानी की तरह इस कहानी का नायक अपनी माँ की मृत्यु की खबर से विचलित नहीं होता? उनकी मनःस्थिति सामान्य बनी रहती। संवेदना और यथार्थ का द्वंद्व। पनाह मांगती है भावुकता। सिर उठाती हकीकत। इन कहानी पर कुछ लोगों को दोस्तोवयस्की का प्रभाव या कामू की कहानी 'आउटसाइडर' की याद दिलाती है। लेकिन यह असल में बदल रहे भारतीय समाज का एक ऐसा आईना है जिसमें आज भी कोई व्यक्ति खुद का चेहरा देख सकता है-उसके भीतर कितनी संवेदना और कितना पाखंड। जड़ों से दूर जाने। लालसाओं के अनंत आकाश में उड़ने की आकांक्षा साठ-सत्तर के दशक में कम थी, इन दिनों वह खूब परवान चढ़ रही है। 'बर्हिगमन', जड़ों से कटने और महत्वाकांक्षाओं, सुविधाओं के रेगिस्तान में भटकने की कहानी है। जमीन से दूर होने की कथा। गाँव से कस्बे। कस्बे से महानगर। महानगर से विदेश। और उसके बाद... पता नहीं, इसे वे लोग बेहतर ढंग से बता सकते हैं जो इस तरह की छलांगें मारते हैं... इस बदलाव का जवाब इसके लेखक ज्ञानरंजन कतई नहीं दे सकते क्योंकि वे भी इलाहाबाद से जबलपुर आए तो यहीं होकर रह गए। राजधानी दिल्ली या बगल का शहर नागपुर का आकर्षण भी उन्हें टस से मस नहीं कर सका। 'द्घंटा' 'पिता' और 'पफेंस के इधर और उधर' आज के दौर में ज्यादा प्रासंगिक है और ये खुद ज्ञानरंजन के व्यक्तित्व के बेहद करीब हैं। 'द्घंटा' में 'मैं' कुंदन सरकार का बिस्तर-चादर यानी द्घंटा होते हुए भी पेट्रोला में द्घुसपैठ को नकार कर विद्रोह का साहस दिखा रहा है-'मैं' कुंदन सरकार का द्घंटा हो जाने की वजह से दुखी था। मैं अपने को पफुसला रहा था, बेवकूपफ बना रहा था। मैंने निर्णय किया कि जल्दी ही निकाला जाए न उगला जाए वाली स्थिति को तमाम कर देना है।'' कथा नायक में कुछ गैरत बची थी जो वह सहूलियतों-सुविधाओं को छोड़ देता है। आज के जमाने में सुविधाओं के लिए हर कोई द्घंटा बनने को तत्पर है। गली नुक्कड़ों-चौराहों पर खड़े लोगों का हुजूम जैसे आवाजें दे रहा है-'आओ हमें अपना द्घंटा बना लो।' बिकने-बिकाने के इस बाजारू दौर में 'द्घंटा' बनना प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया है। सियासत और साहित्य तो इसका सबसे सटीक उदाहरण है जहाँ अक्सर शिखर की सीढ़ियाँ द्घंटा बनकर ही तय की जाती हैं। 'पफेंस के इधर और उधर' और 'पिता' में कंट्रास्ट है। 'पफेंस के इधर और उधर' बदल रहे जमाने की त्राासदी है। जमाना बदल रहा है। बहुत तेजी के साथ। उधर बड़े और छद्म लोग इधर छोटे और सच्चे लोग। उधर इंडिया। इधर भारत। उधर महंत। इधर संत। उधर सुविधा। इधर संद्घर्ष। संवेदना। उधर दिल्ली। इधर जबलपुर। 'तुमको मुबारक हो महल अटारी, हमको प्यारी है हमारी गलियां' वाला अंदाज। उधर मशीन। इधर दिल। ये अब आपको तय करना है आप पफेंस के इधर रहना पसंद करते हैं या उधर। दो परंपराएँ भारत में बहुत पुरानी है। एक राणाप्रताप की, दूसरा मानसिंह की। राणाप्रताप को संद्घर्ष करना पड़ा-द्घास की रोटियां तक खानी पड़ी। मानसिंह ने वक्त की नजाकत को समझते हुए सत्ता से समझौता कर लिया। संद्घर्ष का रास्ता हमेशा ही कठिन रहा है-आत्मद्घाती, पागलपन भरा। कबीर, द्घनानंद, निराला, उग्र, भुवनेश्वर इसी राह के राही हैं जिन्हें पागल तक समझा गया? आज उन्हें पफूल चढ़ाए जा रहे हैं यह दूसरी बात है, लेकिन बेरहम सच्चाई यह है कि अपने जीवन काल में उन्हें स्वीकृति नहीं मिली। अब बात लेखन नहीं, लेखक की। अपनी कहानियों के पात्राों, विचारों, शब्दों के बीच झांकते ज्ञानरंजन केवल नाम भर नहीं है। एक समुच्चय है कई भावों, चरित्राों और विचारों का। सबसे पहली बात तो यह कि अपनी कहानियों के पात्रा 'मैं' और 'वह' से बहुत अलग नहीं है। वे नेमिचंद जैन के अनुसार 'ज्ञान की कहानियों का संसार बड़ा ही डरावना है।' खुद ज्ञानरंजन की दुनिया बहुत संवेदनशील और सरोकार से भरी है जो एक नए ढंग की संद्घर्षशील सुंदरता को रचती थी। आरंभ में उन पर बेटनीक आंदोलन का प्रभाव रहा होगा। लेकिन अपनी राह उन्होंने खुद बनाई। सबसे पहले यह बात सापफ हो जानी चाहिए कि उनके व्यक्तित्व के प्रमुख अवयव क्या हैं? मेरी तंग समझ के मुताबिक, सच्चाई, विरोध, संवेदना, प्रेम, सरोकार और आक्रोश वे तत्व हैं जिनके रसायन से उनका वजूना बना है। लीक तोड़कर चलने वाले लेखक उनके प्रिय रहे। लिहाजा उन्होंने भी लीक को तोड़ा। लेखन और संपादन में। वार्गसां का कथन हम गति के भ्रम में स्थिर बिंदुओं को ही याद करते हैं। ज्ञानरंजन किसी भ्रम में नहीं रहे। कोई मुगालता नहीं पाला। आठ नंबर प्लेटपफार्म बनना ही मंजूर किया। जो दूर होता है। जहाँ मामूली लोगों के लिए उपेक्षित गाड़ियां आती हैं। वहाँ का यात्राी भी मामूली, गरीब और हाशिये के। ऐसा नहीं वे छलांग लगाकर प्लेटपफार्म आठ से पहले नंबर तक नहीं जा सकते थे। पुल से गुजरकर वहाँ पहुँचने का रास्ता भी उन्हें मालूम था। मगर बात वही है-'उधौ, मन माने की बात।' वे अपनी ही कहानी 'बहिर्गमन' का नायक नहीं होना चाहते थे जो लालसाओं के जाल में पफंस गया। वे एक बार रोजी-रोटी की तलाश में इलाहाबाद से जबलपुर आए तो यही जम गए। रम गए। ध्रुव शुक्ल के शब्दों में 'इसी शहर में नाल गड़ी है मेरी। उन्हें 'पावर' की प्रतीक दिल्ली ने कभी आकर्षित नहीं किया। उन लोगों की परंपरा में रहे जिन्होंने अपना शहर-नगर नहीं छोड़ा। तुलसी ने काशी। गालिब ने दिल्ली। केदारनाथ अग्रवाल ने बांदा। बिस्मिल्ला खान ने बनारस। जार्ज सेपफ़रिस ने नोबल पुरस्कार पाने के बाद आमंत्राणों के बावजूद एथेंस नहीं छोड़ा। ज्ञानरंजन ने भी जबलपुर नहीं छोड़ा। 'मोको कहाँ सिकरी से काम' वाले भाव के साथ। ज्ञान के जेहन में खुद उनके पिता हैं -रामनाथ सुमन। कहीं न कहीं उनसे प्रेरित होकर ही 'पिता' कहानी लिखी। दशकों बाद किरदार बदला। अब वे उस पिता के किरदार में खुद हैं। उसी तरह से मूल्यों की रक्षा के लिए जिद्दी। अड़ियल। ज्ञानरंजन 'कबाड़खाना' लिखते हैं। उनका द्घर भी रद्दी चौराहे के निकट है। आस-पास है भी कबाड़खाने जैसा माहौल। वे मानते भी हैं रचना प्रक्रिया एक भूमिगत कबाड़खाना है। बेटे ने शहर के बीचों-बीच आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित फ्रलैट लिया।घ्आग्रह भी किया 'पिता जी अब आप इसमें रहिये।' मगर नहीं, हैं तो वे पिता ही। आठ नंबर प्लेटपफार्म वाले। जीवन की असुविधाओं को ठेंगा दिखाते हुए। अपने मूल्यों से चिपके। ज्ञानरंजन उन लोगों में हैं जो सपफलता से ज्यादा सार्थकता में यकीन करते हैं। असपफल होते लोग ही बराबर शिखर की तरपफ जाते हैं। सपफलता मारकर सुला देती है। लंपट, अवधूत, बौड़म और लगभग अपराधी समझे जाने वाले लोगों ने ही दुर्लभ रचनाएँ की। जां जेने जैसे दंडित व्यक्ति को ज्यां पाल सार्त्रा ने संत कहा था। जेल में रहने वाले कई कैदियों से ज्ञानरंजन का संपर्क रहा। पत्रा व्यवहार भी। कबीर ने आह्‌वान किया था-'जो द्घर जारो आपनो चले हमारे साथ।' द्घनानंद ने शर्त रख दी-'कविता द्घनानंद की न पढ़ौ, पहचान नहीं एहि खेत की जू'। ज्ञानरंजन हिदायत देते हैं-'कहानी-कविता की दुनिया में वे ही प्रवेश करे जो दूर तक एक धूमिल जिंदगी जीने का हौसला रखते हैं। इस कठिन यात्राा में चमक आएगी और जाएगी। ...यह दुनिया हमारे सपनों के लिए मन मापिफक नहीं है। इसलिए अबरद में रहने के लिए रचनाकार अभिशप्त है।' 'पहल' ज्ञानरंजन के व्यक्तित्व का ही एक अहम हिस्सा है। दूसरी पारी में अपनी रचनाशीलता को इस पत्रिाका के जरिये ही अभिव्यक्ति किया। खुद न लिख दूसरों से लिखवाया। साबित कर दिया कि एक लद्घु पत्रिाका भी आंदोलन का शक्ल अख्तियार कर सकती है। झूठे समय में सबसे कठिन होता है सच कहना। ज्ञानरंजन मानते हैं, 'बिना मुखौटे के कोई सच्चाई प्रकाशित करना कठिन है।' लेकिन वे खुद मुखौटे से दूर रहे। अलबत्ता कई चेहरों से मुखौटों को हटाने का काम जरूर किया। इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा उन्हें। लेकिन इसकी चिंता नहीं। बचपन से लेकर अब तक जो भी लिखा सच लिखा-बेबाक लिखा। किसी कुंदन सरकार का द्घंटा नहीं बने। अपने पैट्रोला में ही जमे रहे-अपने लोगों, अपनी दुनिया के बीच। लेकिन आखिरकार ज्ञानरंजन हैं तो मनुष्य ही-न देवता, न पफरिश्ता। खूबियों-खामियों के बीच तनी रस्सी पर संतुलन बनाने की कोशिश में थरथराते। कभी दायें झुकते, कभी बायें। सवाल 'झुकने' का नहीं। असल चिंता खुद को 'गिरने' से बचाने की है। ज्ञान गिरे तो नहीं। लेकिन संतुलन बनाने के क्रम में उनके दायें-बायें होने से उनके कई मित्रा खपफा हुए। दोस्ताने टूटे। याराने छूटे। ये सब क्योंकर हुआ? ऐसा तो नहीं कि सारी गलतियां दूसरों में ही रही हो-ज्ञानरंजन में न हो-ये संभव नहीं। व्यावहारिक तौर तो कतई नहीं। क्या इस सवाल पर विचार नहीं होना चाहिए कि कमला प्रसाद, नामवर सिंह, आग्नेय या कई दूसरे प्रमुख लोगों से ज्ञानरंजन से दूर क्यों हो गए? साहित्य-प्रतिपक्ष की भूमिका में सार्थक हो सकता है। अगर लेखक युग-सत्य के साथ तीव्रता से मुठभेड़ नहीं करता तो वह मार्मिक सार्थक साहित्य का सृजन नहीं कर सकता। ज्ञानरंजन भी ताउम्र प्रतिपक्ष की ही भूमिका का निर्वहन करते रहे हैं। कहानियों के जरिये यही काम किया, पिफर 'पहल' माध्यम बना। बीच में तीन साल का एक लंबा अंतराल था। अब ज्ञानरंजन पिफर से 'पहल' निकालने जा रहे हैं इस अद्घोषित एलान के साथ 'चूका नहीं हूँ मैं।' यह अंक ज्ञानरंजन पर अंक निकालने की योजना जब मैंने और अपूर्व जोशी ने बनायी तो दो कठिनाइयां थी, पहला-ज्ञानरंजन को इसके लिए तैयार करना, दूसरा उन पर लिखवाना। पहली कठिनाई कापफी जद्दोजहद के बाद दूर हुई। बहुत कहने-सुनने पर वे माने। और जब माने तो दो हिदायतें दी- नंबर एक यह कि 'भारी भरकम विशेषांक निकालने की जरूरत नहीं है, एक दो लेख रस्म अदायगी के तौर पर दे देना।' हमने यह बात नहीं मानी। दूसरी हिदायत-'देखो प्रेम, इस बात का ख्याल रखना कि यह अभिनंदन ग्रंथ नहीं बनने पाये। जिसे जैसा लगे लिखे और तुम उसे निःसंकोच छापना' उनके इस बड़प्पन ने हमारा हौसला बढ़ाया। इस विशेषांक के कुछ लेख ज्ञान मार्गियों को नागवार लग सकता है। खासकर ज्ञानरंजन के परम मित्रा आग्नेय का लेख। खगेन्द्र ठाकुर की बातें। ज्ञानरंजन के दौर के कथाकारों के इस अंक में न लिखने के अपने-अपने कारण थे। लिहाजा उनके पुराने लेख दिए जा रहे हैं क्योंकि उससे ज्ञानरंजन के व्यक्तित्व पर रोशनी पड़ती है। दूसरे कई िदग्गज आलोचक भी न जाने किन समीकरणों के चलते नहीं लिख पाए। बहुत से लेखकगण ऐसे भी हैं जिन्होंने वादा तो किया था लिखने का, मगर ज्ञानरंजन पर लिखना सबके बूते की बात कहाँ है? बहरहाल, यह अंक जैसा भी बन पड़ा है, वह आपके हाथों में है। इसके लिए उन तमाम अग्रजों और मित्राों को श्रेय जाता है जिन्होंने इसे तैयार करने में मदद की। खासकर राजेन्द्र दानी, भारत भारद्वाज, उद्भ्रांत, राजेन्द्र चंद्रकांत राय, भालचंद्र जोशी, गुंजन कुमार, पंकज शर्मा ने कापफी साथ दिया। अंकित ांसिस ने तो मेरे संपादकीय सहयोगी की तरह मदद की। अंक समय पर निकले इसके वास्ते मान सिंह टनवाल ने भी जी जान लगाया। इस विशेषांक के साथ आपकी अदालत में पेश होते हुए आपके पफैसले का इंतजार रहेगा।

कोई आता है




मद्धम एक गूंज सुनाई देती है
चौक देखती चौखट से छिप बोली
खोलो झोली एक अनोखी मीठी बोली
देखो धरा पर हौले-हौले से कोई बढ़ आता है

सौंदर्य से भरा पंख फैलाये सूरज निकला
पीछे लगे बहेलिये पंथ निहारने
कब आये गोल-मटोल चिकना फल
मन में मुस्काएं तरकीब बनायें-बिगाडें

पवन डोलाए डलिया दर्पण शर्माए
सुनों हे खग-मृग कौन देश के राजा
आवे बजावत बजा घन-घन घम-धाम
धनुष तृष्णा का साथ,हाथ दिए बज्राशन

भोर वैभव को बटोरते तारे गण
अगडित अंगों के रंगों से सजे-धजे रथ पर सवार
लावण्य बिखेरते बंधू-मंधू के मधु लुटाते
मंथर-मंथर वायु के लय पर ललित ललाम दिखाते

लहू-बहु के रूप में मधुबन की मुरली-सुरीली
सुहावन-भावन भवन सुझाते उलझे जीवन के तार सुलझाते
सोये भय,भौरे के भाग्य को भोग-जोग के रोग बताते-हटाते
बटोर वरुण के तरुण रूप में खोये प्रिय के तलास में निकसे-विकसे...

(अधूरी )
 डॉ.सुनीता
०६/१०/२०१२
९:३२ सुबह
 

पौधे कुछ कहते हैं


'मेट्रो उजाला' के अक्तूबर माह अंक में छपी एक अभिव्यक्ति पृष्ठ संख्या ६५...!


सुनों गौर से पौधे कुछ कहते हैं 
आँखों में एक दुनिया बसाए 
मासूम बच्चे से मचलते 
खिलौनों से खेलने को तरसते हैं  
नील गगन के नीचे निरछ्ल विचरते 
बचपन-जवानी के चक्करों से दूर 
चिमनियों से जलते-बुझते हैं 
दर्द के दरख्त जह-तह फैले पड़े 
काफिलों ने लुट लिया जमी  
जुबा से खामोश गाय से सिसकते हैं.

शर्म से शर्मीले दुल्हन जैसे बैठे 
तन-मन मसोसे ममता को तरसते 
तड़पते आँखों से रक्त रिसते रहते 
रहम के लिए हरवक्त निगाहें आसमा पर गड़ाए 
रश्म अदा करते मनुष्यता से खुन्नस खाए घूमते 
गुबार का अम्बार लिए किसी जासूस के तलाश में भटकते 
जह-तह आशियाना बनाए अस्तित्व की अबूझ लड़ाई लड़ते हैं.

कर्म के बोझ से बोझिल बदन बहकते 
बार-बार व्यथा-कथा को मौन में ही कुछ कहते
मुक्त हृदय से मुक्ति का मार्ग दिखाते 
मर्म से गहरे जुड़े दर्द को दफ्न किये 
दवा के आस में तारों जड़े नीले रंग को कोसते 
पीले चमकीले रौशनी से पल-प्रतिपल नहाये 
जीवन को जीते,जीत के यत्न में प्रत्यनशील 
मुरझाए डालियों के डंठलों से डंक मारते सर्फ सरीखे लगते हैं. 

डॉ.सुनीता 
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर,नई दिल्ली 

सितम्बर अंक के मेट्रो उजाला में प्रकाशित.पेज 69 
जलते भावों की ज्वाला

डॉ.सुनीता 

सृष्टि सृजन से वृहद फैला अनंत आकाश
झिलमिलाते तारों के अगड़ित गुच्छ में लिपटे
पुष्पक विमान पर खड़ी मन की संवेदनाएं
चाँद सरीखे शीतलता चेहरे की चमक बन  
ढूंढे खुद को नदियों की कलकल ध्वनि सुनते
बजते धुन सजाते जीवन की हरियाली
सुमधुर सदा देती हवाओं की मदमस्त अदा निराली
प्रतिध्वनित होती चलती बल खाती घडियां
घटित घटनाओं की घूँघट डारे डर जगाए
लड़ियाँ पिरोती आदमकद की अंगड़ाई
अनंत आशाओं के दीप सजाएँ खड़े
तकते बादलों के घुमड़ते झुण्ड चिढ़ाये
नरमुंड,जीवों में तलासते मीन से छटपटाये
धरा पर उगे स्नेह के फल बूंद-बूंद बिन कुम्भिलाये
अन्न के पुंज से पृथ्वी के आँचल सनेह सजे  
दुलहिन दीपोत्सव मनाये गायें राग मल्हार
मृदुल उमंग से महिमा मन की मानहु न माने
वारि-वारि गोहराते गर्जन के घने बादल
केश से उलझे-सुलझे केचुआ बन सिमटे
समुद्र के खारे खुराक से इह लीला लिपटे
सूरज की तेज किरणें करती बरजोरी
बोरी बोली मीठी बोली कोयल की कु-कु
ताउम्र तपती धरा धीरज धरे धमके
धूल-धुसरित धुंध में धन की उत्कट मय बरसे
तड़पते झूलते,झुराते होंठों की कसम खाते
खुराक लिए फिरते स्वछंद चंद मोती के धागे
ममता के छाँव से मरहूम गदेलों की बरातें
दिनरात इतिहास के खंडहरों में अवशेष तलाशें
लाशों से पड़े मनुष्यता को झकझोरे झाग उड़ाये 
भूखे उदर की पीड़ा मिटाने से लेकर
जर,जंगल,जमीन एक किये फिरते फकीर
कंचन,कामिनी,काया की अदभूत माया रही
भू-धरा उगलती हीरा,मोती,सोना और जवाहरात
मेघ के घमंड ने घनघोर घन बरसाए
घर के अंग-भंग भुवन बनाये भूरि भरी भूमि गाये
खिलौने को तड़फड़ाते बच्चे सा नैन रक्त चुवाये
ओरी से चुते लोरी में मन तृष्णा भरमाये
रूठे गले की प्यास बढ़ती जाए सिहरन बन
सावन के इन्तजार में सदियों से कजरी के गीत संजोये
बोये धान,धानी चुनर के आस आँखों में शर्माए
समस्या के आग में जलते भावों की ज्वाला
जब्त जज्बों में जबरदस्ती घुस उधम मचाये
थरथराते बदन के थाप से सिली-सिली आती हवाएं
हवनकुण्ड में होम होतीं अमूल्य क्रियाएँ
इन्हीं छोरों में युग-युगान्तर के रहस्य बड़े पड़े हैं
दरकतीं दीवारें दमन की गाथा लिखने को विवश
आकुल-व्याकुल जिह्वा के जुगत में बीते जुग  
आत्मलघता से लघुता का अहसास बढ़ते
बहते पानी के धाराओं में धीरज के धीर तलास
तल्ख़ यादों के साये में गुंजती आवाजें
टटोलते टप-टप के टाप,टापू में कहीं खोये
खुन्नस में चूर यातना के कपाट,कपोल-कल्पना निकले
समयपट्ट पर अंकित रेखाएं अतीत के द्वार दिखाए
दर्पण के मानिंद सच के मुखड़े को सांच बताएं
भविष्य हो रहे वर्तमान को रेखांकित कर चकित कर जाए
चुभन के सुर स्वर्ग-नर्क के भेद बताये
जताए जपते जन्म की युद्ध से जुड़वाए
बिजली सी कौंधती उन्मत्त भावनाएं भावीपन पैदा करें.


'मेट्रो उजाला' के नए अंक में प्रकाशित लेख जिसे विशेष पुरस्कार के लिए चुना गया है.आप सब भी पढ़ें और लिखे पर आलोचना आमंत्रित है ...!
किसी मित्र को पढ़ने में दिक्कत लगे तो वह जूम करके पढ़ सकते हैं.




           सब कुछ भुला देना


ज़िद पर अडना बच्चे के मानिंद आसान है
मुश्किल है उसकी तरह सब कुछ भुला देना
टूट जाए खिलौना तो छलक पड़तीं हैं आँखें
पल में भुला देते हैं उनकी एहसासें
हँसतें हैं होंठ से चाँद सा रोते हैं दिलों से सूरज सरीखा
जब कोई झूठे से कह दे ए नहीं तेरी शादें
हम सोचते हैं मुस्तकबिल की जोड़ते हैं पाई-पाई
वो रौशन होते हैं इक-इक पल के लिए
पलकों के मोती छुपाये महफ़िल से निकलते हैं गुनगुनाते
ख्वाहिशों के जंगल को जमीन में दफन किये बीज से
बाजारी दुनिया में टहलते हैं बेतकल्लुफ़
गम के गुबार को उड़ा देते हैं गुब्बारे के संग
गुमसुम खुशी को खिला के घोल देते हैं गुलाबों में
रंजिशों के साजो ओ सामान को समुद्र में उछाल देते हैं
मुस्कुराते चिलमनों से चमन चहकाते निकल जाते,गगन की यात्रा करते
बेकाबू हालात को हलक से नीचे न उतरने दे विषकंठ बन
तारों के सैर करते ख़्वाबों के नीले आसमान में छपक-छैयां करते
पंक्षी के पंखों से हांथो की डोर बनाते दूर-दूर फैले बदलों को समेटे
सिकुड़ते सिलवटों के सीलन सीते काई लगे बवंडर को बटोरते
वक्त के नज़ाकत को नजरों में कैद करते फासलों को फसल करते
कलम करते पुष्पों के पुलकित पुराणों में परलोक ढूंढते
ढोते बोझ को उल्कापिंड के अग्नि में समर्पित कर स्वर्ग की राह बनाते
कड़ी मेहनत के बूते बूंदों को टक्कर देते कहते कर्म करों करुना का प्रचार नहीं
आत्मबोध से बुद्ध के समाधि तक बिचरते उपदेशों के सागर को हिलोर-हिलोरते
हुडदंग के धूल उड़ाते धवल चादरों में लिपटे उमंग के सुगंध में खो जाते
सांसों के तार पर ताल ठोकते ठिठकते ठहराव को ठेलते-ठेलते ठिकाने लगाते.


डॉ.सुनीता 
०५/०७/२००६  
(यादों के जेहन में ठहरे ज़ज़बात डायरी की पन्नों से )
http://lekhakmanch.com/?p=4320 




'लेखक मंच' में प्रकाशित रचना का लिंक,उसमें प्रकाशित एक रचना आप सब से साझा कर रही हूँ.
सादर !

अस्थायी

अख़बारों के चंद पन्नों में सिमटी जिंदगियों में
ताजेपन सा कुछ भी नहीं
रात के पड़े खाने सुबह की तरह
रोते-बिलखते मासूम चेहरे पल के मेहमाँ
गाते-गुनगुनाते मुखड़े होंठो की चुभन
एक क्षण के पश्‍चात ढल जाते हैं रात्रि सरीखे
चंद चर्चाओं के बाज़ार क्षणिक गरम, तवे से
छपाक-छपाक की भड़ास क्षण में गायब
रेत पर गिरे बूंदों के अस्तित्व के मानिंद
बरखा-बहार और मधुवन की मधुर ध्वनि
धड़कनों में शोर मचाते खलबली अभी-अभी
करवट के साथ पन्ने पलटते दृश्य और दृष्टि बदले सभी
परिवर्तित परिवेश की पुकार सुनाई देती कभी-कभी
सुमधुर योजनाओं की ललकार दिखाई देती चहुओर
न रुकने वाली वक्त की सुइयाँ टीम-टीम कर लुप्त होतीं
एक चेहरा उभरता है प्रेयसी के जुल्फों में कैद
चितवन की चंचलता चहक उठती
नयेपन का अंदाज़ पलक झपकने के साथ
बुलबुले से अस्तित्ववि‍हीन हो जाता
खबरों की दुनिया में निरंतर गहमागहमी बनी रहती
निरुउत्तर प्रजा पल्लवित पुण्य बनी हुई
लेकिन भू धरा थमने के जगह डोलती रहती
थिरकती साँसों के लय पर वायु नृत्य करते
नटते, रिझते और रिझाते रम्भाने लगते
पात्र में रखे पानी सा मटमैला और फीका बन जाते
दिखने में धवल और स्वच्छ लगते
भागते, दौड़ते कल्पना के सागर में छलांग लगाते
छलकते आँसू रंगीन चित्रों के गुजरते ही सूख जाते
चिथड़े-चिथड़े सुख की तलाश में निकल पड़ते एक और लम्‍बी यात्रा पर
नंगे, खुले और खुरदरे पैरों के निशान जह-तह बिखरे पड़े
उनकी आवाज़ाही का कोई स्थायी प्रमाण नहीं
नर-शरीर की तरह अस्थायी, क्षणभंगुर और जुगनू की तरह
यहाँ सब कुछ सिमटा हुआ है बिखरे तौर पर
ढेर में तब्दील होते मलबा सा नहीं
बल्कि सपनों के कलेजे पर बिछे फूलों के कतारों की तरह
एक-एक कतरन से तैयार वस्त्र सा सुसज्जित, आकर्षक किन्तु अस्थायी

             इधर पधारे

डॉ.सुनीता 
२९/०७/२०१२ नई दिल्ली 
रात ११:५५ 

खुद पर व्यंग करते हए.कुछ और ही कह बैठे जिसका मतलब समझने की जरुरत आन पड़ी है.

मिल जा मेरे बाप
कहाँ चले गए आप
हेर-हेर के हो गए परेशान
किस मृत्यु के चिरनिद्रा के हो गए शिकार
खाकर भंग या पीकर रम
पड़ गए कौन से दुनिया के भ्रम में
चकला घर से कदम बहक गए हैं ?
या चौबारे के चौपाल से लहक गए हैं
लम्पटता की हद है भाई !
माँगा आलू लाये गुड़
समझ न आये मंत्री-तंत्री के गुण
गलबहियां डाले फिरते हो आज
काम न काज बने हुए हैं दुश्मन अनाज
कल मारेंगे घुमाके शब्दों के चार लात
निकल जायेंगे पेट में पैठे सारे भात
चक्रव्यूह रचते खुद फंसे कुचक्र के जाल
बाले तेरे लाल के चित्त से न उतरे हाल
चौसर खेलते मियां स्वर्ग सिधारे
आप क्यों अपनी जीवन लीला ले इधर पधारे...

समालोचन: मैं कहता आँखिन देखी : अनामिका

समालोचन: मैं कहता आँखिन देखी : अनामिका
                    कुछ न कुछ 


घटना दर घटना रोज होते हैं 
सुनसान सड़कों पर बच्चे चिल्लाते हैं 
दूर खड़ी माँ फफ़क-फफ़क कर रोती है
क्रूर सामज में यह हत्या आत्महत्या नहीं होती है.

गम-ए-गुबार क्या था खबर नहीं 
ख्वारि में तन्हा चले थे मंजिल को 
सफर मुकद्श में युहिं सबे दिन गुजर जाएगा 
मेरे मरने के बाद सौगातों की यादें/अरमाने मिटा देना.

राह निकलेगी इसी ख्याल से बैठे-बैठे सदियाँ न बिताना 
कोई रास्ता निकलेगा इसकी उम्मीद नहीं खोवाना 
जमाने के जिल्लतों का क्या ?जलालत में जलने का हुनर रखना 
अपने सरीखे किसी और को खाई के समुन्द्र में न ठेलना.


दिल-ए-नादां का रास्ता सीधा-सीधा है यह याद रखना 
बहकाने के मजू तमाम हैं उनके चिरागों से न डरना 
चमक चाँदनी में भी होती है उसके रोशनी से धोखा न खाना 
सूरज सी तेज समझ सुई में धागे पिरोने का इरादा न करना. 

(अधूरा)
डॉ.सुनीता 
21/07/2012 
8:55

 जब भी मिलतीं  

सरे राह चलते हुए 
जब भी मिल जाती हैं 
अनजान राहों पर भी रिश्तों की अम्बार लगा जाती हैं 
जीवन के कठिन पथ पर अमराई सी मंडराती हुई 
अग्निपथ की अमित कहानी लिखती आगे बढ़ जाती हैं  

जब भी मिलती युगों-युगों के दर्द बहा देती हैं 
सागर के खरे जल से नैनों की गंगा लहरा देती हैं 
हिचकोले लेते भावनाओं पर बज्र सरीखे चट्टानें चिपकाती 
मुस्काती मधुर यामिनी की गीत-गज़ल बन मधुवन में मदमाती 
मोर-मुकुट ताने नाचे मौसम के धुन पर धूल उड़ाती जाती हैं 

जब भी मिल जाती अनहोनी कहानियों की पटकथा लिख देतीं 
बोती नीम-शहद की उम्मीद में दिन-रात एक कर चंचल चकला चलातीं 
चारु लता की चतुराई से चितवन की चमक चुरातीं फिरतीं तितली सी 
मोहक अदा से विदा लेती हर लेती बुद्धि की सुझाती सुमेर की बाते 
धन कुबेर बन फिरतीं बातों से बह्लातीं बकझक में जीवन की हर दुःख बहातीं जातीं हैं 

(अधूरा )

डॉ.सुनीता 
१७/०७/२०१२ 
४:१९ 



      महिला मुद्दे और ब्लॉग

चतुर्थ भाग--

(हम अपने विचार सभी तक पहुंचाने के लिए स्वतंत्र हैं...से आगे पढ़ें )

मैं स्वयं ब्लॉग के माध्यम से अपने बचपन की एक हृदय विदारक घटना को सबके सामने लाने में सफल रही.ये मेरे गाँव की घटना थी,वहाँ करीब छब्बीस साल पहले एक गरीब परिवार की अशिक्षित,नाबालिक लड़की का बलात्कार हुआ था,जिससे वो गर्भवती हो गयी,समाज के डर से उसकी अशिक्षित माँ ने उसका गर्भ गिराने के लिए उसे पता नहीं कौन सी दवाई दी...जिससे उसकी दर्दनाक मृत्यु हो गयी.
जिस लड़की के साथ ये घटना घटी उसका नाम 'फर्गुदियाथा,जब उसकी मृत्यु हुई तब उसकी उम्र मात्र चौदह या पंद्रह वर्ष थी.
गर्मी में जब स्कूल की छुट्टिया हुआ करती थी तब मामाजी के घर गाँव जाने पर फर्गुदिया से अक्सर मेरी मुलाकात हुआ करती थी,ऐसे ही एक बार जब मैं गाँव गयी तो फर्गुदिया के साथ घटी घटना और उस घटना से हुई उसकी दर्दनाक मृत्यु के बारे में सुना तो मेरे पैरों तले जमीन खिसक गयी,उस समय मेरी भी उम्र पंद्रह,सोलह वर्ष की ही थी,तब से लेकर आज तक मैं फर्गुदिया और उसके साथ घटी घटना को बिलकुल भी नहीं भूली हूँ.
करीब दो साल पहले इस घटना को मैंने कहानी का रूप देकर अपने ब्लॉग पर पोस्ट किया,एक चमत्कारिक परिणाम सामने आया,समाज में हो रहे ऐसे घ्रणित अपराध की शिकार बच्चियों के समर्थन में ब्लॉग और इंटरनेट के माध्यम से विचार आने लगे और ऐसे घ्रणित अपराध की खुले शब्दों में भर्त्सना की गयी.
ब्लॉग के जरिये फर्गुदिया के समर्थन में आवाज़ दूर दूर तक गयी,बाद में मैंने और इंटरनेट से जुड़े मेरे मित्रों ने मिलकर जमीनी स्तर पर फर्गुदिया के लिए कविता पाठ का कार्यक्रम रखकर उसे भावभीनी श्रृद्धांजलि दी.आज फर्गुदिया की दास्तान ब्लॉग के जरिये इंटरनेट की दुनिया के बाहर के लोग भी जान रहें हैं
इसी कड़ी में सुधीश पचौरी लिखते हैं... इस नई दुनिया को संलग्नयानी इंगेज करने के लिए इंटरनेट सर्वोत्तम माध्यम है.इस दशक के अंत तक नई आर्थिकी के तहत तेजी से विकास करने वाले तीन अरब लोग ऑन लाइनआ जायेंगे.
यह तुमुल कोलाहल कलहको सघन शोर में तब्दील करते माध्यम चौकाने से ऊपर बढ़ चुके हैं.
हमारा समाज सदियों से पुरुषसत्तात्मक रहा है.महिलाओं को सारे हुकुक देने की बात होती रही है,लेकिन कहीं-न-कहीं दोमुहेपन से काम लिया जाता रहा है. घर को मंदिर का दर्जा दिया जाता है.यह भी वैसा ही मजाक है जैसे हिंदुओं में औरतों को देवी कह दासी की यंत्रणा दी जाती है.
कागजी पैरहन में एक जीवट स्त्री सच के दुनिया में आजद होकर भी कैद की जिंदगी जीने को बिवश है.
समयांतरमें अंकित विचार असमानता और भेदभाव के भावना को आवाज देती प्रतीत होती है.
“-लडकियां पत्रकारिता में आकर लड़कियां नहीं रहतीं हैं,वे पत्रकार रहतीं हैं.लड़की रहना है तो नौकरी छोड़ दो.दफ्तर की गाड़ी रात में आप लोगों को घर तक क्यों छोड़ें.जैसे बाकी लोगों को गली के मोड तक उतारती है वहीं आपको भी उतारेगी.
कथनी और करनी में फर्क की खाई कभी नहीं पट पाई है.आज बहुत मात्रा में महिलाएं शिक्षित हो गयी हैं.अपने बलबूते काम भी कर रही हैं.अपने दमखम से सबको चकित भी करती रही हैं,लेकिन उनके प्रति शोषण की निगाह में कोई भी विशेष बदलाव न के बराबर ही रहा है.भ्रूण हत्या,बलत्कार,अत्याचार,घरेलू हिंसा और ऐसे ही न जाने कितने अनवरत शोषण निरंतर चल रहे हैं.आधुनिक संसाधनों के विकास से भी रुढ़िवादी और बजबजाती मानसिकता में कोई बदलाव नहीं आया है.ऊपरी स्तर पर यह बदलाव निचले स्तर पर ज्यादा विकृत रूप में दिखाई देता है.
बेटे-बेटी के नाम पर हत्याएं रोज़ हो रही हैं.एक दुधमुहे बच्चे का कत्ल दीवार से सर लड़ा कर मारने जैसे प्रयत्न उत्तरोउत्तर जारी है.राजधानी से लेकर आविवासी इलाके तक इसका कोढ़ मौजूद है.इस तरह के सवाल प्राचीन पत्रकारिता से लेकर आधुनिक मीडिया और अब सोशल मीडिया में प्रमुखता से उठ रही हैं.इस संदर्भ में रमाशंकर यादव 'विद्रोही' जी की कविता सहज ही आकर्षित करती है.
इतिहास में वह पहली औरत कौन थी,
जिसे सबसे पहले जलाया गया,
मैं नहीं जानता,
लेकिन जो भी रही होगी,
मेरी माँ रही होगी.
लेकिन मेरी चिंता यह है कि
भविष्य में वह आखिरी औरत कौन होगी,
जिसे अंत में जलाया जाएगा,
मैं नहीं जनता,
लेकिन जो भी होगी 
मेरी बेटी होगी,
और मैं ये नहीं होने दूंगा.
यह नहीं होने देने की पुरजोर आवाज उठती तो हैं लेकिन किसी खोह में जाके दब सी जातीं हैं.जब कहीं कोई सुगबुगाहट होती है तो उसकी भी एक सीमा और क्षमता होती है उसी परिधि के इर्द-गिर्द चक्कर काटतीं निगाहें शून्य में शिखर की तलास करती भटकती रहती हैं .यह प्रयास अनवरत चला आ रहा है.
ब्लॉग को लेकर लोगों के अपने नजरिये हैं.इसे कोई सृजन के खतरे के तौर पर देख रहा है तो कोई इसे वास्तविक मंच के रूप में इस्तमाल कर रहा है.पत्रकार समाज के लोग इसे भड़ास और छपास के दृष्टि से परख रहे हैं.प्रत्येक व्यक्ति के अंदर एक गुबार बहुत समय से दबे हुए अंदाज़ में पल रहा है.
असलम सीबा फहमी के मुताबिक आज के दौर में मीडिया एक जरुरी जरिया है अवाम तक पहुँचने का.आज के समाज का इसके बिना काम नहीं चल सकता है.
इनके बातों में सच्चाई है हम इस बात को सहज ही इनकार नहीं कर सकते हैं.सच यह भी है की आज के मौजूदा दौर में चीजों के देखने-परखने के नजरिये पूरी तरह से पूंजीवाद के गिरफ्त में है.
उदारीकरण के दौर में रियल स्टेट,शिक्षण संस्थान और औद्योगिक संस्थान बड़े विज्ञापनदाताओं के रूप में उभरे हैं.इनके गलत कामों और कानून उल्लंघन को शायद ही किसी अखबार में जगह मिलती है.
राजेंद्र यादव ने हंस, 'जुलाई 2004' के संपादकीय में बड़े ही मज़ेदार तरीक़े सेचुटकियाँ लेते हुएहिंदी साहित्य संसार के प्राय: सभी नए-पुराने समकालीन लेखकों/कवियों के बारे में टिप्पणियाँ की है कि किस प्रकार लोग अपनी छपास की पीड़ा को तमाम तरह के हथकंडों से कम करने की नाकाम कोशिशों में लगे रहते हैं। वे आगे कहते हैं कि दिल्ली जैसी जगह से ही हंस जैसी कम से कम '10 पत्रिकाएँनिकलनी चाहिए। ज़ाहिर हैलेखकों-लेखिकाओं की लंबी कतारें हैं और उन्हें अपनी अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का कोई माध्यम ही नहीं मिल रहा है। ऐसे में जालघर के व्यक्तिगत वेब पृष्ठ और ब्लॉग के अलावा दूसरा बढ़िया रास्ता और कोई नहीं हैं। ब्लॉग के फ़ायदों की सूची यों तो लंबी हैपर कुछ मुख्य बातें ये हैं 
ब्लॉग प्राय: व्यक्तिगत उपयोग हेतु हर एक को मुफ़्त में उपलब्ध है।
ब्लॉग के द्वारा आप किसी भी विषय मेंविश्व की किसी भी (समर्थित) भाषा में अपने विचार प्रकट कर सकते हैंजो जालघर में लोगों के पढ़ने हेतु हमेशा उपलब्ध रहेगा। उदाहरण के लिएयदि आप कहानियाँ लिखते हैंतो एक ब्लॉग कहानियों का प्रारंभ करिएउसमें अपनी कहानियाँ नियमित प्रकाशित करिएबिना किसी झंझट केबिना किसी संपादकीय सहमति या उसकी कैंची के और अगर लोगों को आपकी कहानियों में कुछ तत्व और पठनीयता नज़र आएगीतो वे आपकी ब्लॉग साइट के मुरीद हो जाएँगे और हो सकता है कि आपके ब्लॉग को एंड्रयू सुलिवान के ब्लॉग से भी ज़्यादा पाठक मिल जाएँ।
आपके ब्लॉग पर पाठकों की त्वरित टिप्पणियाँ भी मिलती है जो आपके ब्लॉग की धार को और भी पैना करने में सहायक हो सकती है।
ब्लॉग का उपयोग कंपनियाँ अपनी उत्पादकता बढ़ानेनए विचारों तथा नए आइड़ियाज़ प्राप्त करने में भी कर रही हैंजहाँ कर्मचारी अपने विचारों का आदान-प्रदान बिना किसी झिझक के साथ कर सकते हैं।
अंततः यह कहना सर्वोतम रहेगा.समाज में ढांचागत बदलाव उत्तरोंउत्तर होता रहा है.परिवर्तन का ही नतीजा है जब एक स्त्री अपने बलबूते पर अपनी पहचान बना रही है.उसके संघर्ष निरर्थक नहीं गए हैं.बल्कि अनवरत ही चल रहे हैं.उनको याद रखने के तौर-तरीके भले ही बदल गए हैं.विजय नारायण साही की पंक्तियाँ वह सब कुछ बयां कर रही हैं जो मन के सागर में हिलोरे लेते भाव कहना चाहते हैं.
तुम हमारा जिक्र इतिहास में नहीं पाओगे
क्योंकि हमने अपने को इतिहास के विरुद्ध दे दिया है
छूटी हुई जगह दिखे जहाँ-जहाँ
या दबी हुई चीख का अह्सास हो
समझना हम वहीँ मौजूद हैं
सिसकियों के मध्य मजबूती से जमे पैर किसी धुंधले अंधड से उखड़ने वाले नहीं है.मृत्यु शैय्या से भी जी उठने की जिजीविषा जब तलक रूह में बाकी है इतिहास के सुरम्य कोनों में हम अपने विरुद्ध होते साजिस को नाकाम करने में सदैव सफल रहेंगे.यह अटूट विश्वास का धागा आत्मविश्वास के लौह इरादों से आया है.क्रांति के स्वर जब तक वादियों में गूंजेंगे हम युहीं जियेंगे.जूझते,लड़ते, झगड़ते और अपने हक के लिए संघर्ष करते हुए.अपनी छाप बनाए रखेंगे.    

नोट--
इस शोध पत्र में उन लोगों के विचार को प्राथमिकता दी गयी है जो आज के नए माध्यमों से सीधे तौर पर जुड़े हुए हैं.
इसके अतिरिक्त इंटरनेट और कुछ पत्र-पत्रिकाओं से भी विषय के सम्बन्धित बिंदु को लिया गया है.



लोकप्रिय पोस्ट्स