कितना सुन्दर उपवन...!

कितना सुन्दर
   मन का उपवन
      स्नेह भरे भ्रमरों की पाँती
           मधु गुंजार सुनाती है
                सदभावों की 'जुही' हंसकर
                    रुठा मन हुलासाती है
                         सदा चरण का मलय समीरण
                               बाटा करता है 'चन्दन'
                                    मानवता का अमृत पीकर
                                         मन की 'बेला' खिलती है
                                             विनम्रता की खिली 'चांदनी'
                                                  देवों के सिर चढ़ती है
                                                      बसंती-करुणा छलकाकर
                                                           सदा सींचता सुखा मन
                                                               श्वेत मालती पान कराती
                                                                      सत्य अहिंसा का सौरभ कण

 ह्रदय में जोत जलाती
      पवन झकोरा बन सहलाती
            वसुधा-सुधा संग जीवन महकाती
                    उठो जागों आया नया सबेरा
                           बजने लगी मदमाती पैजनी
                                   रजनी-सजनी बन इठलाती
                                         धरती के सूरज का दर्शन करवाती
                                                संदली गोधुली को औचक चौकाती
                                                      प्रहरी-श्रहरी के रूप-रंग से मिलवाती
                                                             हिमगिरी के शिखाओं से तरल-तरंगित
                                                                      ध्वनियाँ अलौकिक आभा फैलाती
                                                                              ओस की बूंदें फ़ैल धरा पर
                                                                                      फसलों को लहलाना सिखलाती...
                                  

बसंत के आगमन के साथ ही पतझड़ के आने की आहट मिल जाती है.मौसम रुखा-रुखा सा होने लगता है.मानव चंचल हो के विविध रंगों में सराबोर होने लगता है.पेड़ों में लगते बौर फागुनी बयार से मिलकर मन बौरा देती है. मेहमानों के आगत के पद्चाप सुनाई देने लगते है.प्रवासी पंछियों के अस्थाई आशियाने बनाने शुरू हो जाते हैं.
इन मदमाती पुरवाईयों का हार्दिक स्वागत और देशवासियों को एक-एक कुंतल बधाइयाँ...!!!

जब घर गिरता है...!

जब दीप जली
           फिजा में शाम ढली
घर में उदासी छाई
          तन में पसीना छूटा
हृदय में हुक उठा
          घरती में हलचल मची
आकाश में गर्जना हुई
          बादलों में तर्जना आई
आज किसी की अग्निपरीक्षा है
          जबाब दिया तपसना ने
जब घर गिरता है...
         ऐसा ही कुछ होता है
सब कुछ डोल जाता है
           तरन्नुम रुक जाती है
तस्वीर नया उभरता है
           पुराने खिजा बिखरते हैं
वायु,पृथ्वी में एक कोलाहल होता है
          औचक द्वंद छिड़ा सितारों में
सवाल उठा मन में
          क्या यहाँ सब गिरवी है
समझने-समझाने में अँधेरी रात है
          एक अवज्ञा में चीत्कार है
क्योकि!दीप ज्योति से खाली है
          प्रकाश की किरने भी कैद हैं
अलबेली सुबह अभी कोसों दूर है
           ऐसे ही पल मन को छलते हैं
जब घर गिरता है....
            बहुतों ने समझे चट्टाने खिसकी हैं
लेकिन अरमाने यहाँ घिसकी हैं...!
            मासूम बच्चों की चीख-पुकार है
दिन ढलते लोग अपने घर को गए
             दीप गए रौशनी लेने
शाम गई शबनम ढूढने
             बेचारे अभागे गए छावं लेने
जब घर गिरता है...
            सब खो जाता है
निगाहें बदल जाती हैं
            पडोसी आँख चुराते है
रिश्ते नाक-भौ बनाते हैं
            भूखे बच्चे बिलख-बिलख रोते हैं
देखने वाले अफ़सोस जताते हैं
           आगे बढ़के दर्द नही सहलाते हैं...!!!
                                                        'डॉ.सुनीता'
नोट- मेरे बालपन में मेरे आँखों के सामने हमारा घर गिरा था.उस वक्त बहुत बड़े तो न थे और न ही इतने समझदार फिर भी इतने तो थे ही कि मौजूदा हालत को पंक्ति बद्ध कर सकूं.यह घटना मेरे मन के कोने में एक कसक की तरह सदैव बैठी रही.मैंने उसी समय टूटे-फूटे शब्दों में लिख रखा था आज आप सबके साथ ज्यों की त्यों साझा कर रही हूँ....





  

आज़ाद भारत के गलियारे में शिक्षा की बुनियादी हकीकत...!


हम यह कहें कि विकास के पहिये की इबारत शिक्षा के कांधे से होकर ही अपने मंजिल तक पहुंची है तो कमोवेश यह गलत न होगा.हकीकत के जमीन पर भले ही टायें-टायें फिस्स हो क्या फर्क पड़ता है.ऐसी ही स्थिति मैंने अपने प्राइमरी विद्यालय में पढ़ाने के दौरान बेहद करीब से देखा,समझा,परखा और भोगा है.देश के नौनिहालों की चौंधियाती हकीकत एक बुलबुले के मानिंद ही नजर आया.आकडे के आईने में सब कुछ चोखा ही दिखाई देता है.वास्तविकता के धरातल पर एक छलावा के अतिरिक्त कुछ भी नही है.यह स्थिति चिंताजनक तब और लगती है.जब बजट एक झटके में खत्म हो जाता है,लेकिन कब,कैसे,क्यों और किस मद में खर्च किया गया इसका थाह पाना कठिन ही नही बल्कि जलेबियों की तरह उलझा हुआ भी है.जिसका सिरा ढूढते ही नही बनता है.छुटपन के शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने प्राथमिक बजट को 68,710 करोड से बढाकर इसे अब 97,255 करोड कर दिया है.इस सबके बावजूद भी स्थिति 'ढाक के तीन पात' से आगे की नही दिखती है...
देखा-देखी या सुनी-सुनाई बात नही कर रही बल्कि इस हकीकत को झेला भी है.यहाँ अधिकांस शिक्षक बैठकर गप्पवाजी करने में बदस्तूर मशगूल रहते हैं.कुछ एक अपने कर्तव्य के प्रति इतने जागरूक रहते हैं कि उन्हें कई लोगों के हँसी का पात्र बनना पड़ता है.कुछ अपने ही साथ के लोगों कि खिल्ली उड़ाने से भी बाज नही आते हैं.बहुत से अध्यापक इतने महान हैं कि उन्हें बाटे गए कक्षा में उनके कितने विद्यार्थी हैं.वह भी ज्ञानत नही रहता है.हालाकि केवल पंजीकृत बच्चों के संदर्भ में ही कह रहे हैं.रजिस्टर की बातें तो भूल ही जाएँ.वह तो एक समुन्द्र है...यहाँ खाने के मुख और दिखाने के दांत का मामला है.यह उस जगह की विशेष व्यवस्था होती है.इस कदर की चीजों को लापरवाही का नाम दें या फिर घटाटोप नीति की दुहाई दें यह सब समझ के परे है.इसे हम किसी रूप,आकार,प्रकार और ज्ञान का नाम देकर दफ्न कर दें...यह सारी की सारी खुराफाती बातें किस ओर इशारा करती हैं...इस बात को भी परे धकेल के हम उनके मात्रा ज्ञान की बात करें तो सिर शर्म से शर्मिंदा हुए जाता है...
बच्चों के संदर्भ में एक सूत्र है जिसे "सुपबोली" के नाम से जाना जाता है अर्थात सुनना,पढ़ना,बोलना और लिखना सिखाने के लिए है परन्तु कुछ को इसका भी ज्ञान ही नही है बाकी की तो दूर की कौड़ी ही है.यही सब कुछ शहरों के सरकारी स्कूलों में भी बतौर देखा जा सकता है.
ताज्जुब का पारावार तब अधिक बढ़ जाता है कि इन स्कूलों में पिछड़ी,अनुसूचित जनजाति,अनुसूचित जाति और मुश्लिम वर्ग के ही बच्चों के नाम देखने को मिलेगे.लेकिन पढ़ाने वालों के नाम अपने आप में एक अजूबा कह सकते हैं.हर वर्ग के लोग नियुक्त किये गए हैं.किन्तु अपने वर्ग को लेकर इतने संकीर्ण हैं की भद्दे अंदाज़ में इन बच्चों को सम्बोधित करके बुलाते हैं.यह उन पढ़े-लिखे गुरूओं का हाल है जो अपने कुंठा से बाहर नही निकल पाए हैं.पापी पेट के कारण इस जगह को अपनाये हुए हैं.यहाँ मिलने वाले मुँह मांगी सुविधा के भुक्तभोगी बनने के लालसा ने उन्हें टिकाये हुए है.एक सहयोगी शिक्षक थे जो उच्च वर्ग से आते हैं.उनका सपना एक पी सी एस अधिकारी बनने का था,लेकिन मजबूरी में यहाँ आ गए.'वह बड़े ताव के साथ कहते हैं कि जब मैं अपने गांव-घर जाता हूँ तो लोगों से यह बताने में शर्म आती है कि मैं कहाँ पढाता हूँ' आप सब अंदाज़ा लगा सकते हैं की इस मानसिकता से ग्रसित व्यक्ति उन बच्चों के साथ क्या-क्या कर सकता है...      
बच्चों के शिक्षा में सिर्फ लड़कों की बात करें तो भी यह बात बेहद अफ़सोसजनक,दुखद और भौच्चक कर देने वाली ही लगती है.इन्हें रजिस्टर में सौ फीसदी उपस्थित देखा जा सकता है.किन्तु मौजूदा स्थान पर शून्य से आगे कोई अंक नजर नही आएगा.भाषा गत समझ की बात बड़ी दूर है इनको ठीक-ठीक अपना नाम भी लेने नही आता है.परन्तु परीक्षा में अंक अनुमान से कही बढ़कर मिलते हैं.इस कारण उनको कुछ अधिक मगजमारी नही करनी पड़ती है.इस सुविधा ने भी उनका बेडा ही गर्क किया है...
लड़कियों के नजरिये से देखें तो यह अनुपात एक संताप की तरह लगते हैं.वह घर से भले ही समय से हाजिरी के लिए मौजूद हों किन्तु उन्हें बाद में घरों में काम करने के लिए भेज दिया जाता है.अगर कोई ढीठ है तो उसे डंडे के जोर पर भेज के ही दम लिया जाता है.इतना ही नही उन्हें स्कूलों में बन रहे भोजन में एक सहयोगी के तौर पर भी देखा जा सकता है.यदि इसे एक सकरात्मक नजरिये से देखा जाये तो ठीक ही है.उनके गार्जियन को भी इस बात की कुछ खास चिंता नही है.'यह तो बहुत बढियां है.कम से कम कुछ न कुछ सीख तो रही हैं.ससुराल में किसी प्रकार की शिकायत तो न होगी.भविष्य के स्त्री के गुण तो आ ही जायेंगे'.यह उन माता-पिता के विचार हैं जिन्हें अपने बच्ची के ज्ञान से कही अधिक महत्वपूर्ण उनके एक सुघड महिला होने की फ़िक्र ज्यदा हलकान किये हुए है...ऐसी स्थिति में हम किस मुहीम के झंडे को बुलंद किये फिर रहे हैं.
आज के उपभोक्तावादी और भूमंडलीकरण के दौर में लाखों-करोड़ों के दिलों में बैठी अन्धकारता की कालिख भी नही धूल पाई है.फिर जागरूकता की धूप किस राह से अपनी जगह बनाएगी.आखिर आर्थिक बदलाव की लहर किस दरवाजे से पहुंचेगी...
एक लड़की ही भविष्य में एक परिवार की नीव रखती है.इसका हमकदम साथी एक बच्चा ही तो बनता है.यही से एक कुटुंब जन्म लेता है.एक समाज का निर्माण होता है.एक पारिवारिक संस्था का आगाज़ होता है.इसके आगे से एक नए भारत के ईमारत की परिकल्पना साकार रूप लेती देखी जा सकती है.किन्तु इन सब असमानताओं.अभावों,उपेक्षाओं और तिरस्कारों के मध्य में कुछ भी कहना ठीक प्रतीत नही होता है.इन सब के बीच रोजी-रोटी के लाले की खाई अभी तक पट नही पाई है.असमानता के रास्ते बढती व्यवस्थाएं एक  धोखा ही तो हैं... 
जिनके मासूम कंधे अपने किताबों के ढेर रूपी बस्ता को ठीक से नही उठा सकते हैं.उन्हें ही फावड़े के साथ कठोर से कठोर जमीन पर जोर-आजमाइस करते सहज ही देख सकते हैं.लेकिन स्लेट पर एक आडी-तिरछी रेखा खिचने में बुक्का फाड़ के रोने लगते हैं.यह सब परिस्थिति की देन है या हमारी ही कोशिश में वो पैनापन नही है...यह सब एक वातनुकूलित कमरे में बैठकर महसूस करना और समझना मुश्किल है.
देश की महिलाओं को शिक्षा और शिक्षित करने का प्रयास हमेशा से ही होता रहा है.सन १९९१ में यूनिसेफ की सहायता से ''विहार शिक्षा परियोजना' के माध्यम से ग्रामीण महिलाओं को शिक्षित करने पर विशेष जोर दिया जाने का प्रयास किया गया.इसके अतिरिक्त बहुत सी नई-नई योजनाओं को भी क्रियान्वित करने का भरसक कोशिशे की गयी.इन सब के लिए नौवी योजना में परिव्यय रुपये ३५ करोड का था.जो की दसवी योजना में यह १०० करोड का कर दिया गया था.इसे २००२-२००३ से २००७-२००८ तक के लिए एक सुनिश्चित अवधि तक के लिए निर्धारित कर दिया गया.यह कार्यक्रम देश के दस राज्यों के साठ जिलों में लगभग ९००० से ज्यादा गांवों में चलाया जा रहा है.देश भर में भारी संख्या में अशिक्षित महिलाओं को देखते हुए.यह एक उम्मीद की किरण सरीखा है.इतना ही नहीं सरकार द्वारा 'महिला मंडल'के नाम से एक अन्य योजना भी चलाई जा रही है.इसके माध्यम से ग्रामीण स्त्रियों को शिशु पालन,पर्यावरण,स्वास्थ्य,कानून,शिक्षा और पौढ शिक्षा के क्षेत्र की विस्तार से जानकारी दी जाती है.उन्हें कृषि तथा स्वरोजगार से सम्बंधित कार्यों के सम्बन्ध में शिक्षण-प्रशिक्षण देनी की भी व्यवस्था प्राय: देखने.सुनने को मिलती रही है.इसके लिए 'कृषि विकास योजना' की शुरुआत की गयी.इतना ही नही नौवी पंचवर्षीय योजना में स्त्रियों के जागरूकता के लिए श्रीमती दुर्गाबाई देशमुख समिति,स्त्री शिक्षा तथा शिक्षा आयोग और जनार्दन समिति बनाई गयी.सार्वभौमिक विस्तार के नजरिये से यह सब महत्वपूर्ण जान पड़ते हैं.किन्तु हकीकत के मरुभूमि पर वैसे ही हैं जैसे तपते बालू पर एक बूंद पानी का कोई अता-पता नही लग पाता है...
सामाजिक जागृति के लिए एक महिला वर्ग का जागरूक,शिक्षित और समझदार होना बेहद जरुरी है.लेकिन जिस सीमा तक होना चाहिए वो अभी तक सिर्फ एक ख्याली पुलाव ही लगता है.मुझे तो लगता है की यह तयशुदा बात है कि दरवाजों का खुलना हर हाल में होगा.वरना वह दीवार के मानिंद स्थिर,जड़ और कठोर हो जाएँगी.ऐसे में वह दिन दूर नहीं जब उन सब दीवारों को ढहा दिया जायेगा. 
                              क्या कर नहीं सकती अगर शिक्षित हों नारियां                                
                              रण-रंग राज्य सुधर्म रक्षा कर चूँकि सुकुमारियाँ                                
                              भागेगी हमसे सदा,दूर-दूर सारी बुराइयां                                
                              पाती स्त्रियां आदर जहाँ,बनाती है वहीं सीढियाँ...
समाज से निरक्षरता रूपी कोढ़ को समूल नष्ट करने के लिए केंद्र सरकार ने १९८६ में 'साक्षरता मिशन' के अंतर्गत कुछ कार्यों की शुरुआत की थी.जिसके तहत प्रत्येक जनपद में इसे लागू करने का युद्ध स्तर पर काम शुरू किये गए.इसे ही २००३ आते-आते 'सर्वशिक्षा अभियान' के तौर पर प्राइमरी स्कूल को बढ़ावा देने के लिए अचूक हथियार के रूप में प्रयोग किया जाने लगा.जिसमें बच्चियों के शिक्षा को निःशुल्क किया गया है.इस कारण से उनके संख्या में इजाफा हुआ.यह इजाफा भी एक संदेह को जन्म देती है.परन्तु सोचने वाली बात है की आकडे जूटा लेने से उनको शिक्षित भी किया जा सकता है...? सन २००५ में मुलायम सरकार ने राज्य स्तर पर लड़कियों के शिक्षा के लिए २० हजार का अनुदान देने की घोषणा की थी.यह सुविधा किन-किन घरों तक पहुँच पाए इसकी भी पड़ताल की जानी चाहिए थी...
सरकारी फरमान की बनी योजनाये वेशबब चमकीली होती हैं.जबकि दूर-दराज़ स्थानों तक अपनी पकड़ बना पाती हैं..?वही नक्सल प्रभावित जगहों तक जाने में तमाम लोगों की रूहें कांपती हैं.वहाँ तक जाते-जाते इन योजनाओं की चिंदी-चिंदी हो जाती है.जिनका नामोनिशान ढूढना घोर मेहनत-मशक्कत का काम है.यही सब कागज पर सुनहरे अक्षरों में चमचमाती हुई आँखें चौंधिया देती हैं.
जिन्हें तन ढकने के जुगाड की कुब्बत नही है वह भी बुनियादी हकीकत के उतने ही हकदार हैं.आमिरी के साये तले पलती गरीबी के प्रति जिम्मेदारी किसकी है...? 
यह एक लम्बें मंथन का बिंदु है जिसे यूहीं टाल देना कत्तई उचित न होगा... 
जिन-जिन योजनाओं-परियोजनाओं को सिने पर हाँथ रखकर और मूछों पर ताव देकर डंके के जोर पर सुनाते नही अघाते हैं दरअसल में वे सब एक हवा-हवाई ही सावित होते हैं...
आज़ाद भारत के गलियार में झाकने पर एक सुन्दर,सजीव और सपना साफ़-साफ़ नजर आते हैं.जबकि पहुँचने पर रेत के शिवा हाथ कुछ नही लगता है.धूल भी नही...
सच के आईने में तश्वीरे मटमैली हैं इन्हें झाड-पोछ कर अपनी-अपनी हिस्सेदारी निभानी ही होगी.यह दिन कब आएगा...
बनवासी का जीवन जी रहे लोग मुख्यधारा के लोगों के बीच अपनी मौजूदगी दर्ज करा पाएंगे...
शिक्षा के साथ उनके रुदिवादी विचारों से मुक्ति का सबेरा आ पायेगा...
पीढ़ियों-दर-पीढ़ियों चली आ रही उनकी नियति बदलने का हिस्सा ये व्यवस्थाएं बन पाएंगी...  
सवालों के घेरे में बैठकर यह सब एक मुश्किल लगता है.लेकिन बेशक इंसान ही सब कुछ करता है.हमें उम्मीद की एक किरण अपने गिरेबा में जलानी ही होगी...

पूरे देशवासियों को २६ तारीख की अग्रिम हार्दिक शुभकामनाएं...!!!

                                                                                           डॉ.सुनीता     

आज़ाद भारत के गलियारे में शिक्षा की बुनियादी हकीकत...!



हम यह कहें कि विकास के पहिये की इबारत शिक्षा के कांधे से होकर ही अपने मंजिल तक पहुंची है तो कमोवेश यह गलत न होगा.हकीकत के जमीन पर भले ही टायें-टायें फिस्स हो क्या फर्क पड़ता है.ऐसी ही स्थिति मैंने अपने प्राइमरी विद्यालय में पढ़ाने के दौरान बेहद करीब से देखा,समझा,परखा और भोगा है.देश के नौनिहालों की चौंधियाती हकीकत एक बुलबुले के मानिंद ही नजर आया.आकडे के आईने में सब कुछ चोखा ही दिखाई देता है.वास्तविकता के धरातल पर एक छलावा के अतिरिक्त कुछ भी नही है.यह स्थिति चिंताजनक तब और लगती है.जब बजट एक झटके में खत्म हो जाता है,लेकिन कब,कैसे,क्यों और किस मद में खर्च किया गया इसका थाह पाना कठिन ही नही बल्कि जलेबियों की तरह उलझा हुआ भी है.जिसका सिरा ढूढते ही नही बनता है.छुटपन के शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने प्राथमिक बजट को 68,710 करोड से बढाकर इसे अब 97,255 करोड कर दिया है.इस सबके बावजूद भी स्थिति 'ढाक के तीन पात' से आगे की नही दिखती है...
देखा-देखी या सुनी-सुनाई बात नही कर रही बल्कि इस हकीकत को झेला भी है.यहाँ अधिकांस शिक्षक बैठकर गप्पवाजी करने में बदस्तूर मशगूल रहते हैं.कुछ एक अपने कर्तव्य के प्रति इतने जागरूक रहते हैं कि उन्हें कई लोगों के हँसी का पात्र बनना पड़ता है.कुछ अपने ही साथ के लोगों कि खिल्ली उड़ाने से भी बाज नही आते हैं.बहुत से अध्यापक इतने महान हैं कि उन्हें बाटे गए कक्षा में उनके कितने विद्यार्थी हैं.वह भी ज्ञानत नही रहता है.हालाकि केवल पंजीकृत बच्चों के संदर्भ में ही कह रहे हैं.रजिस्टर की बातें तो भूल ही जाएँ.वह तो एक समुन्द्र है...यहाँ खाने के मुख और दिखाने के दांत का मामला है.यह उस जगह की विशेष व्यवस्था होती है.इस कदर की चीजों को लापरवाही का नाम दें या फिर घटाटोप नीति की दुहाई दें यह सब समझ के परे है.इसे हम किसी रूप,आकार,प्रकार और ज्ञान का नाम देकर दफ्न कर दें...यह सारी की सारी खुराफाती बातें किस ओर इशारा करती हैं...इस बात को भी परे धकेल के हम उनके मात्रा ज्ञान की बात करें तो सिर शर्म से शर्मिंदा हुए जाता है...
बच्चों के संदर्भ में एक सूत्र है जिसे "सुपबोली" के नाम से जाना जाता है अर्थात सुनना,पढ़ना,बोलना और लिखना सिखाने के लिए है परन्तु कुछ को इसका भी ज्ञान ही नही है बाकी की तो दूर की कौड़ी ही है.यही सब कुछ शहरों के सरकारी स्कूलों में भी बतौर देखा जा सकता है.
ताज्जुब का पारावार तब अधिक बढ़ जाता है कि इन स्कूलों में पिछड़ी,अनुसूचित जनजाति,अनुसूचित जाति और मुश्लिम वर्ग के ही बच्चों के नाम देखने को मिलेगे.लेकिन पढ़ाने वालों के नाम अपने आप में एक अजूबा कह सकते हैं.हर वर्ग के लोग नियुक्त किये गए हैं.किन्तु अपने वर्ग को लेकर इतने संकीर्ण हैं की भद्दे अंदाज़ में इन बच्चों को सम्बोधित करके बुलाते हैं.यह उन पढ़े-लिखे गुरूओं का हाल है जो अपने कुंठा से बाहर नही निकल पाए हैं.पापी पेट के कारण इस जगह को अपनाये हुए हैं.यहाँ मिलने वाले मुँह मांगी सुविधा के भुक्तभोगी बनने के लालसा ने उन्हें टिकाये हुए है.एक सहयोगी शिक्षक थे जो उच्च वर्ग से आते हैं.उनका सपना एक पी सी एस अधिकारी बनने का था,लेकिन मजबूरी में यहाँ आ गए.'वह बड़े ताव के साथ कहते हैं कि जब मैं अपने गांव-घर जाता हूँ तो लोगों से यह बताने में शर्म आती है कि मैं कहाँ पढाता हूँ' आप सब अंदाज़ा लगा सकते हैं की इस मानसिकता से ग्रसित व्यक्ति उन बच्चों के साथ क्या-क्या कर सकता है...      
बच्चों के शिक्षा में सिर्फ लड़कों की बात करें तो भी यह बात बेहद अफ़सोसजनक,दुखद और भौच्चक कर देने वाली ही लगती है.इन्हें रजिस्टर में सौ फीसदी उपस्थित देखा जा सकता है.किन्तु मौजूदा स्थान पर शून्य से आगे कोई अंक नजर नही आएगा.भाषा गत समझ की बात बड़ी दूर है इनको ठीक-ठीक अपना नाम भी लेने नही आता है.परन्तु परीक्षा में अंक अनुमान से कही बढ़कर मिलते हैं.इस कारण उनको कुछ अधिक मगजमारी नही करनी पड़ती है.इस सुविधा ने भी उनका बेडा ही गर्क किया है...
लड़कियों के नजरिये से देखें तो यह अनुपात एक संताप की तरह लगते हैं.वह घर से भले ही समय से हाजिरी के लिए मौजूद हों किन्तु उन्हें बाद में घरों में काम करने के लिए भेज दिया जाता है.अगर कोई ढीठ है तो उसे डंडे के जोर पर भेज के ही दम लिया जाता है.इतना ही नही उन्हें स्कूलों में बन रहे भोजन में एक सहयोगी के तौर पर भी देखा जा सकता है.यदि इसे एक सकरात्मक नजरिये से देखा जाये तो ठीक ही है.उनके गार्जियन को भी इस बात की कुछ खास चिंता नही है.'यह तो बहुत बढियां है.कम से कम कुछ न कुछ सीख तो रही हैं.ससुराल में किसी प्रकार की शिकायत तो न होगी.भविष्य के स्त्री के गुण तो आ ही जायेंगे'.यह उन माता-पिता के विचार हैं जिन्हें अपने बच्ची के ज्ञान से कही अधिक महत्वपूर्ण उनके एक सुघड महिला होने की फ़िक्र ज्यदा हलकान किये हुए है...ऐसी स्थिति में हम किस मुहीम के झंडे को बुलंद किये फिर रहे हैं.
आज के उपभोक्तावादी और भूमंडलीकरण के दौर में लाखों-करोड़ों के दिलों में बैठी अन्धकारता की कालिख भी नही धूल पाई है.फिर जागरूकता की धूप किस राह से अपनी जगह बनाएगी.आखिर आर्थिक बदलाव की लहर किस दरवाजे से पहुंचेगी...
एक लड़की ही भविष्य में एक परिवार की नीव रखती है.इसका हमकदम साथी एक बच्चा ही तो बनता है.यही से एक कुटुंब जन्म लेता है.एक समाज का निर्माण होता है.एक पारिवारिक संस्था का आगाज़ होता है.इसके आगे से एक नए भारत के ईमारत की परिकल्पना साकार रूप लेती देखी जा सकती है.किन्तु इन सब असमानताओं.अभावों,उपेक्षाओं और तिरस्कारों के मध्य में कुछ भी कहना ठीक प्रतीत नही होता है.इन सब के बीच रोजी-रोटी के लाले की खाई अभी तक पट नही पाई है.असमानता के रास्ते बढती व्यवस्थाएं एक  धोखा ही तो हैं... 
जिनके मासूम कंधे अपने किताबों के ढेर रूपी बस्ता को ठीक से नही उठा सकते हैं.उन्हें ही फावड़े के साथ कठोर से कठोर जमीन पर जोर-आजमाइस करते सहज ही देख सकते हैं.लेकिन स्लेट पर एक आडी-तिरछी रेखा खिचने में बुक्का फाड़ के रोने लगते हैं.यह सब परिस्थिति की देन है या हमारी ही कोशिश में वो पैनापन नही है...यह सब एक वातनुकूलित कमरे में बैठकर महसूस करना और समझना मुश्किल है.
देश की महिलाओं को शिक्षा और शिक्षित करने का प्रयास हमेशा से ही होता रहा है.सन १९९१ में यूनिसेफ की सहायता से ''विहार शिक्षा परियोजना' के माध्यम से ग्रामीण महिलाओं को शिक्षित करने पर विशेष जोर दिया जाने का प्रयास किया गया.इसके अतिरिक्त बहुत सी नई-नई योजनाओं को भी क्रियान्वित करने का भरसक कोशिशे की गयी.इन सब के लिए नौवी योजना में परिव्यय रुपये ३५ करोड का था.जो की दसवी योजना में यह १०० करोड का कर दिया गया था.इसे २००२-२००३ से २००७-२००८ तक के लिए एक सुनिश्चित अवधि तक के लिए निर्धारित कर दिया गया.यह कार्यक्रम देश के दस राज्यों के साठ जिलों में लगभग ९००० से ज्यादा गांवों में चलाया जा रहा है.देश भर में भारी संख्या में अशिक्षित महिलाओं को देखते हुए.यह एक उम्मीद की किरण सरीखा है.इतना ही नहीं सरकार द्वारा 'महिला मंडल'के नाम से एक अन्य योजना भी चलाई जा रही है.इसके माध्यम से ग्रामीण स्त्रियों को शिशु पालन,पर्यावरण,स्वास्थ्य,कानून,शिक्षा और पौढ शिक्षा के क्षेत्र की विस्तार से जानकारी दी जाती है.उन्हें कृषि तथा स्वरोजगार से सम्बंधित कार्यों के सम्बन्ध में शिक्षण-प्रशिक्षण देनी की भी व्यवस्था प्राय: देखने.सुनने को मिलती रही है.इसके लिए 'कृषि विकास योजना' की शुरुआत की गयी.इतना ही नही नौवी पंचवर्षीय योजना में स्त्रियों के जागरूकता के लिए श्रीमती दुर्गाबाई देशमुख समिति,स्त्री शिक्षा तथा शिक्षा आयोग और जनार्दन समिति बनाई गयी.सार्वभौमिक विस्तार के नजरिये से यह सब महत्वपूर्ण जान पड़ते हैं.किन्तु हकीकत के मरुभूमि पर वैसे ही हैं जैसे तपते बालू पर एक बूंद पानी का कोई अता-पता नही लग पाता है...
सामाजिक जागृति के लिए एक महिला वर्ग का जागरूक,शिक्षित और समझदार होना बेहद जरुरी है.लेकिन जिस सीमा तक होना चाहिए वो अभी तक सिर्फ एक ख्याली पुलाव ही लगता है.मुझे तो लगता है की यह तयशुदा बात है कि दरवाजों का खुलना हर हाल में होगा.वरना वह दीवार के मानिंद स्थिर,जड़ और कठोर हो जाएँगी.ऐसे में वह दिन दूर नहीं जब उन सब दीवारों को ढहा दिया जायेगा. 
                              क्या कर नहीं सकती अगर शिक्षित हों नारियां                                
                              रण-रंग राज्य सुधर्म रक्षा कर चूँकि सुकुमारियाँ                                
                              भागेगी हमसे सदा,दूर-दूर सारी बुराइयां                                
                              पाती स्त्रियां आदर जहाँ,बनाती है वहीं सीढियाँ...
समाज से निरक्षरता रूपी कोढ़ को समूल नष्ट करने के लिए केंद्र सरकार ने १९८६ में 'साक्षरता मिशन' के अंतर्गत कुछ कार्यों की शुरुआत की थी.जिसके तहत प्रत्येक जनपद में इसे लागू करने का युद्ध स्तर पर काम शुरू किये गए.इसे ही २००३ आते-आते 'सर्वशिक्षा अभियान' के तौर पर प्राइमरी स्कूल को बढ़ावा देने के लिए अचूक हथियार के रूप में प्रयोग किया जाने लगा.जिसमें बच्चियों के शिक्षा को निःशुल्क किया गया है.इस कारण से उनके संख्या में इजाफा हुआ.यह इजाफा भी एक संदेह को जन्म देती है.परन्तु सोचने वाली बात है की आकडे जूटा लेने से उनको शिक्षित भी किया जा सकता है...? सन २००५ में मुलायम सरकार ने राज्य स्तर पर लड़कियों के शिक्षा के लिए २० हजार का अनुदान देने की घोषणा की थी.यह सुविधा किन-किन घरों तक पहुँच पाए इसकी भी पड़ताल की जानी चाहिए थी...
सरकारी फरमान की बनी योजनाये वेशबब चमकीली होती हैं.जबकि दूर-दराज़ स्थानों तक अपनी पकड़ बना पाती हैं..?वही नक्सल प्रभावित जगहों तक जाने में तमाम लोगों की रूहें कांपती हैं.वहाँ तक जाते-जाते इन योजनाओं की चिंदी-चिंदी हो जाती है.जिनका नामोनिशान ढूढना घोर मेहनत-मशक्कत का काम है.यही सब कागज पर सुनहरे अक्षरों में चमचमाती हुई आँखें चौंधिया देती हैं.
जिन्हें तन ढकने के जुगाड की कुब्बत नही है वह भी बुनियादी हकीकत के उतने ही हकदार हैं.आमिरी के साये तले पलती गरीबी के प्रति जिम्मेदारी किसकी है...? 
यह एक लम्बें मंथन का बिंदु है जिसे यूहीं टाल देना कत्तई उचित न होगा... 
जिन-जिन योजनाओं-परियोजनाओं को सिने पर हाँथ रखकर और मूछों पर ताव देकर डंके के जोर पर सुनाते नही अघाते हैं दरअसल में वे सब एक हवा-हवाई ही सावित होते हैं...
आज़ाद भारत के गलियार में झाकने पर एक सुन्दर,सजीव और सपना साफ़-साफ़ नजर आते हैं.जबकि पहुँचने पर रेत के शिवा हाथ कुछ नही लगता है.धूल भी नही...
सच के आईने में तश्वीरे मटमैली हैं इन्हें झाड-पोछ कर अपनी-अपनी हिस्सेदारी निभानी ही होगी.यह दिन कब आएगा...
बनवासी का जीवन जी रहे लोग मुख्यधारा के लोगों के बीच अपनी मौजूदगी दर्ज करा पाएंगे...
शिक्षा के साथ उनके रुदिवादी विचारों से मुक्ति का सबेरा आ पायेगा...
पीढ़ियों-दर-पीढ़ियों चली आ रही उनकी नियति बदलने का हिस्सा ये व्यवस्थाएं बन पाएंगी...  
सवालों के घेरे में बैठकर यह सब एक मुश्किल लगता है.लेकिन बेशक इंसान ही सब कुछ करता है.हमें उम्मीद की एक किरण अपने गिरेबा में जलानी ही होगी...

पूरे देशवासियों को २६ तारीख की अग्रिम हार्दिक शुभकामनाएं...!!!

                                                                                           डॉ.सुनीता     

सफ़र,एक सूरत,चंचल मन बन...!

                         सफ़र

मैं अकेली इस डगर में 
          जिन्दगी के इस सफ़र में 
ठोकरों से वास्ता है 
           भीड़ के इस शहर में 
गम वो आंसू हैं मेरे फ़साने 
           वक्त के इस लहर में 
जीवन के स्वप्न-चित्र
           आधे-अधूरे रह गए 
दृष्टि पथ के मध्य में 
           हम!सिर्फ तन्हा रह गए 
अब शिकवा ना है मुझे 
            इन तन्हाइयों के शहर में 
कर्तव्य के वेदी पर 
           जख्म झलकते हैं 
अब!बस दर्द उभरते हैं 
           खिल्लत की राहों से 
जिल्लत की आहों से 
           केवल मर्द गुजरते हैं
सागर के लहरों में 
           निशा के नजरों में 
एक गीत उभरते हैं 
           सिने में दर्द उबलते हैं 
सिर्फ मौसम बदलते हैं
           जब देखा जीवन के रंग में  
एक नवल रूप संवारते हैं
           फिर आगे एक राह निकलती है...!
'मर्द-मतलब बहादुर से है'
नोट-यह रचना मैंने अपने एक दोस्त के जीवन में आये तूफानों को देखकर यकायक लिखा था.
उसे दिया भी फिर दुबारा मुलाकात नही हुई...
                    
                          'एक सूरत'

ये देखो चीथड़ों में लिपटी एक मूरत है
             दिल से रोती होठो से हंसती एक सूरत है
गर्व से फूलती गम से धसती है 
             हँसते-हँसते गाती हैं चलते-चलते ठहर जाती है.
यह सबकी जरुरत है ममता की एक झोली है 
             खाली दामन देखती नही सिर्फ कर्म पर ठनती है.
बनती-संवरती पर पल में ही सब छोड़ दौड़ती है
             करुणा की सागर बन मोती सी बरसती है
कभी-कभी पतीत-पावनी बन लहराती है 
              उसके दमपर दुनिया में जाने कितने मुस्काते हैं 
आवभगत की मांग नही जीवन भर की प्यासी है 
              मधु सी मीठी बोली मिश्री की डली एक कली है
कब छा जाये यह एक अबूझ पहेली है 
              अपना सब सुध-बुध भूल दूसरों में खो जाती है 
एक आवाज पर भौरा बन मंडराती है
              उसे न तन की चिंता न मन की परवाह है
दिन-रैन वेचैन हो भागी-भागी फिरती है 
             अपना घर-आँगन नही पर दरवाजे की शोभा है 
वह गरीब की एक बेटी दो रोटी की भूखी है 
               इसी वास्ते बड़ी भोली ईमानदारी की पुडिया है
बीन शिकवा दौड लगाती है जीवन को बिताए जाती है...

                           'चंचल मन बन'
बिखरती किरणों को 
         सुबह के सूरज को 
झुक-झुक करते सभी सलाम 
         उसके तवज्जों में छिपी एक शैलाब 
ओंसों के बूंदों में रहती तल्लीन 
         मन की शोख चंचलता लिए घुमती 
उमगों के तराने पिए इठलाती 
         मद्धम-मद्धम चलती रात की बदली 
सुबह होने तक मिलती-जुलती 
         राही बन अम्बर के गली नज़रों से 
सूरज को पल-पल ललचाती 
         सपने आशा के दीप बन बहलाते 
होते शाम उम्मीद को समेटती 
          सच रात-दिन की छटा निराली 
मन में अगले जीवन की प्यास जगाती...!
                                        डॉ.सुनीता 
   

  

लड़की वही जो पिया मन भाए,लड़का वही जो बोरी भर दहेज लाए...

समाज संरचना के दो कंगूरे की तरह लडके और लड़कियां हैं.यह एक दूसरे के साथी,सहयोगी और अर्ध्य अंग के रूप में जाने जाते रहे हैं.यह खम्भा एक अटूट रिश्ते का नाम है.जिससे दो परिवार,संस्कार और संस्कृति का आपस में आदान-प्रदान होता है.एक दौर था जब लोग बेटी का रिश्ता एक पान,फूल और चांदी के एक सिक्के के साथ बड़ी खुशी-खुशी कर दिया करते थे.राजाओं-रजवाडों के दौर में लावलश्कर देने की परम्परा भी देखी जा सकती है.जब सियासत का दौर आया जहाँ सारे फैसले देश-राज्य के बटवारे के साथ रोटी-बेटी का सौदा होने लगा.इसी के साथ खरीद-फरोख्त का कारोबार भी शुरू हुआ.
शादी के साथ ही लड़की का एक और घर बन जाता है.या हो जाता है.किन्तु रुढिवादी सोच के ऊपर कुछ नही है.
लड़की से सारी उम्मीद की जाती है कि वह सर्वगुणसंपन्न हो.पूरे परिवार का ध्यान रखे.यह ठीक है.लेकिन उसी के साथ यह खवाहिश भी जुडी होती है की वह बोरी भर रुपया-पैसा,सोना-चांदी और जर-जमीन भी लाये.यह किस गुण में आता है...?
एक माँ चार बेटियां पैदा करके दिन-रात घुलती रहती है कि कैसे सबका बेडा पार लगेगा.वह चाहे कितनी भी सुशील,सुन्दर गुनी हो जब तक लाखों देने कि कुब्बत न हो तब तक एक माँ की बेटी,एक मजबूर पिता की बेटियां डोली नही बैठ सकती हैं.अगर कोई गलती से बैठ गयी तो फिर खुदा के भरोसे वरना लालची लोग उन्हें मौत के मुह में धकेलने से बाज़ नही आते हैं.इसमें कोई शक नही है कि दयावान लोगों की भी कमी नही है.वही दूसरी तरफ एक माँ काले,कुबड़े,लूले,लंगड़े या फिर अनपढ़-जाहिल,गंवार बेटा पैदा करके भी शेर के मानिंद दहाड़ती रहती है कि उसने कई पठ्ठे पैदा किये हैं.क्यों घी का लड्डू टेढा ही सही लेकिन दाम तो पूरा देगा न..
ऐसा ही कुछ समाज में देखने को भी मिल रहा है.
आज दहेज के रूप में अरबों-खरबों और करोड़ों की सम्पति दी जाने लगी.जितने पढ़े-लिखे लोगों की जमात तैयार हुई,उतनी ही मांग भी बढ़ी.आज उपहार के नाम पर बड़े-बड़े दाव-पेंच खेल जा रहे हैं.अपने रुतबे के नाम पर बोली लगाई जा रही है.गांव-देहात में भी लोगों के दिखावटीपन में एक अलग ही ताव नजर आता है.यह तो वही बात हुई कि दूसरे का लिलार देख अपना माथा फोडना हुआ.
पुरुष कई-कई बच्चों का पिता होकर भी कुंवारा ही बना फिरता है.उसके इस बचलता को कोई बुरा भी नही मानता है.उसके करतूतें,हरकतें और उज्जडता निंदनीय नही हैं,बल्कि प्रोत्साहन पुरुषत्व,अहंकार वो अभिमान-स्वभिमान के तौर पर देखे जाते हैं.एक दिन में एक साथ कई-कई विस्तार बदल सकता है,फिर भी घर का बड़ा और मुखिया होने का गौरव-सम्मान स्वतः बना रहता है.कुछ पुरुष इतने अहमवादी होते हैं कि अपनी ओछी हरकत और कुपमंडूकता को इस कदर सीना तान के सुनाते हैं कि कुछ कहना भी सूरज को दिया दीखाने के बराबर है.सच बेलगाम घोड़े पर लगाम कसना कितना मुश्किल काम है.
एक तरफ ऐसे लोगों की भीड़ है तो वहीं कुछ एक इतने महान हैं की उन्हें देव से ऊपर भी कोई पदवी हो तो वो दिया जाए तो भी कम ही होगा.यह सब मानव की मानसिक विकृति का ही एक नतीजा है.इसी उपज के कारण  परिस्थितियां बनती-बिगड़ती हैं.पूर्वानुमान के दायरे में लिए गए फैसले सही-गलत हो सकते हैं.लेकिन किसी को जानने के बाद भी उसके ठहराव की गारंटी नही दी जा सकती है.
आज पढ़े-लिखें विद्वानों के साये तले फलती-फूलती कुपमंडूकता ही समाज के दुश्मन हैं.इस सबके लिए सिर्फ पुरुष को गलत ठहराना उचित न होगा क्योकि दोनों ही बराबर के गुनहगार हैं.एक लड़की ही माँ,बेटी,पत्नी,सास बनती है.संबोधन के साथ ही स्वभाव में बदलाव किस कोटि में आता है...?
यह सवाल मंथन का है.
उसके साथ एक बात होती है की माथे पर एक ट्रेडमार्क लगा दिया जाता है की वह विवाहित है.जबकि पुरुष के साथ ऐसा नही होता है.यदि इस आड़ में कुछ होता है तो यह भी अपराध से कम नही है.ताजे उदाहरण के रूप में भंवरी देवी को देख सकते हैं.क्या उनके घर-परिवार और पति,बच्चे नही थे...?
सफ़ेद चेहरे के पीछे से किया जा रहा कृत्य भी घीनौना ही है.वह कोई भी कैसे या किसी रूप में क्यों न करे...
आज बेचने-खरीदने के इस माहौल में कब क्या हो जाये कहना सम्भव नही है.आज सब के सब एक मुखौटा चिपकाए घूम रहे हैं.किसी को भी पहचानना टेढ़ी खीर बन चुकी है.सबको अपनी-अपनी आज़ादी की पड़ी है.किसी को भी किसी की कोई चिंता-फिकर ही नही है.सबके सब बहरुपिया बने फिर रहे हैं.आज हाफ पैंटीयों का जमाना है.कपड़ों के फैशन के नाम पर सब गड्ड-मडड है.
यदि इस दहेज का विरोध करते हुए कोई अपना एक कदम बढ़ाता है तो उसका साथ देने वालों के टोटे पड़े हैं.ऐसे में हौसला टूटना लाजमी है.क्योकि एक चने के साथ भाड़े नही फोडे जा सकते हैं.तलवार को गाजर बना के नही चबाया जा सकता है.नदी के मुहाने पर खड़े होकर तैरने का लुफ्त नही उठाया जा सकता है.वैसे ही आग में जले बीना जलन नही महसूस किया जा सकता है.ठीक उसी तरह कोरे-कोरे बातें करने से कुछ नही किया जा सकता है.
मुझे इस बात का बेहद फक्र है कि मेरे दादा जी इस दकियानुसी रिवाज़ से परे फैसले लिया करते थे.जिसे सब सर झुका कर मान लिया करते थे.समय ने पलटा खाया.अब दादाओं का जमना लद गया है.अब तो सिर्फ मतलब का ही बचा रह गया है.हर कोई एक अच्छे अवसर के ताक में बने हुए हैं.
जिनके एक बेटे हैं वह मूछों पर ताव देकर कहते हैं कि तीन बीघा जमीन है कम से कम तीन लाख तो मिलेगा ही.भले ही वह एक अक्षर पढ़ना-लिखना न जनता हो या आवारागर्दी ही क्यों न करता फिरता हो,लेकिन घर का एक ही चिराग जो है.इतनी मोटी रकम तो बनती ही है.
मेरी एक दोस्त है उसके घर में सयुंक्त परिवार है.हर साल कम से कम दो बेटियों की शादी तो होती ही होती है.बेटों की संख्या एक-एक है.चार बहनों के पीछे एक बेटे के साथ ही दहेज का पूरा हिसाब करना जरा मुश्किल है.उसके घर की एक अजीब परम्परा है.वो भी बाबु जी के बनाये हुए वह एक तहसीलदार हैं.अपने घर के बेटियों को जी भर दान-दहेज देकर करते हैं.उन्हें पढ़ाते-लिखाते भी हैं.किन्तु जब अपने बेटों की बारी आती है तब कुछ भी नही मागते है.बल्कि कहते हैं जो आपकी मर्जी दें या न दें लेकिन मेरी बेटी को जरुर देने का कष्ट करें...!
ऐसे लोगों का अकाल है.इक्का-दुक्का से काम बन सकता है...?
अपेक्षाओं,आकाँक्षाओं और उत्कंठाओं के नेपथ्य में मर्म का छुप जाना स्वभाविक है.एक दुल्हन से ये उम्मीदें पाली जातीं हैं कि वह घर कि हर जिम्मेदारी बड़े अच्छे से निभाए और अपने पिया के मन को भी भाये.एक दुल्हे से कोई कुछ भी नही कहता है,बल्कि वह एक खुले शेर और छुट्टे घोड़े की तरह ही बना रहता है.आखिर ऐसा क्योकर है...?समझा के परे है.
जिसने इस जग को रचा-बसा है वही जाने...हम सब इस समाज रूपी मंच के मंचासीन कठपुतली हैं.यह मान लें तो कुछ बुराई नही है.                                                               
                                                                                                          डॉ.सुनीता 





अतीत के चुभन की कहानी,एक किन्नर की जुबानी...!

भूतपूर्व में घटित घटनाये जब याद आती हैं मन को द्रवित कर जाती हैं.मुझे भी आज एक कहानी,हिस्सा जो मेरे जीवन का सबसे अलग,जुदा पर ह्रदय से जुड़ा हुआ है.जो की अक्सर कचोटती रहती है.वह सहस ही याद आ गयी है,जिसने मेरी आँखें गीली कर दी.आज जब मैं अपने डायरी के एक-एक पन्ने पलट रही थी उसी में से एक ऐसा अतीत आँखों से टकराया कि बस माजी अपने आप वर्त्तमान हो उठा.यह पल एक किन्नर से जुड़ा हुआ है.आप सबको यह बात अजीब लग सकती है.किन्तु मेरे लिए यह आज भी किसी गंभीर पहेली से कम नहीं है.जिसका उत्तर कभी न ढूढ सकी कि आखिर यह क्यों कर है...?
यह घटना सन २००० हजार के गर्मी के दिनों की है.उस समय मैं बी.ए.के प्रथम साल में थी.परीक्षाएं चल रही थीं.घर में किसी के पास कोई विशेष काम न था.लेकिन उन दिनों मेरे घर बहुत समय के बाद एक नन्हीं कली मुस्काई थी.जिसकी किलकारी से पूरा परिवार आह्लादित और प्रफुल्लित था.मैं उसको लेकर कुछ अधिक ही भावुक थी.आज भी हूँ...
शहर का तो मुझे पता नहीं लेकिन गावों में उन दिनों और आज भी बधाइयाँ गाने के लिए हिजड़े आते हैं.उन्हें हिजड़े कहकर लोग बड़ा लुफ्त लेते हैं.उनके नाच-गाने को एक सगुन के तौर पर देखा जाता है.जिसे क्या बच्चे, क्या बूढ़े सभी अपने अंदाज में मजा लेते देखे जा सकते हैं.परन्तु उस सगुन के पीछे छिपे कशिश को कोई भांप नहीं पाता है.उनके सजे,संवारे रूप-सौंदर्य के नेपथ्य में सूनेपन की एक गहरी खाई विद्यमान है.जिसे देखने,सुनने वाले समझ नहीं पाते हैं.बल्कि आनंद उठाने वालों के नजर और नजरिये दोनों ही मजाकिया के साथ-साथ घृणा की तरह होती है.इस जाति को लोग किस तराजू में तौलते हैं.यह देखने का मेरा पहला अनुभव मेरे भतीजी के साथ जुड़ा है.जिसे मैने अपने बेहद करीब से देखा,सुना और महसूस किया.जिसकी अनुगूंज आज भी कानों में गूंजते हैं.उनके गानों के बोलों की नहीं बल्कि उनके दर्द के जो मैंने बात करके शिद्दत से महसूस की थी...
उन किन्नरों में एक सीमा नाम की किन्नर थी जो की कद-काठी से लंबी थी.वदन से छरहरी खूबसूरत काया की मल्लिका थी.नैन-नक्श कटीले थे.वह कहीं से भी मुझे एक हिजड़ा नहीं लगी.यह देखते ही मैंने अपनी भाभी से कहा की वह उनसे पूछ की यह ऐसे क्यों कर रही है.तब उन्होंने झट से कहा कुछ तो कुदरत ने नाइंसाफी की होगी वरना सौक से कोई भी समाज में उपेक्षित जीवन जीने को अभ्यस्त नहीं होता है.इतना सुनते ही मैंने अपने भाभी पर जोर दिया की कृपया इससे पूंछे की उनके साथ क्या हुआ था.उस वक्त मुझे जोर की  डाट तो पड़ी लेकिन कुछ देर अनुरोध करने और शक्ल बनाने के बाद भाभी मान गयी थीं.
जब नाचने-गाने का कार्यक्रम खत्म हो गया तब उन्होंने उन लोगों को बैठने का आग्रह किया.जिसे उन लोगों ने  सहश्र ही स्वीकार कर लिया था.यदि मैं भूल न रही हूँ/गलत न होऊ तो वह तब तक घर के आँगन से बहार कदम नही ले जाती हैं.जब तक उन्हें उनके मन मुताबिक नेग नहीं मिल जाता है.हा!उनके अंदर एक चीज और देखी जा सकती है वह है व्यक्ति के पूंजी और औकात के अनुसार ही अपनी मांग रखने की उनकी एक परम्परा.इसे परम्परा इसलिए बोल रही हूँ क्योकि जो दे सकता है वह उसी से अपने उपहार स्वरूप मांग को रखती हैं या रखते है.या ऐसे कह सकते हैं की जिद पर अड् जाती हैं.
प्यार से बिठा करके उन्हें इज्जत के साथ नाश्ता-पानी खिलाया-पिलाया गया.इस बीच हँसी-ठिठोली भी चलती रही.बातो ही बातों में मैं सीमा जी के पास चिपक के बैठ गयी.उन सबकी बातें गौर से सुनने लगी.जो वह बता रही थी.उनके व्यक्तिगत अनुभव चौकाने वाली और रौंगटे खड़ी कर देने वाली थीं.
वह कहती हैं...!
मेरी शादी हुई थी.जब मैं ठीक से अपने को संभाल नहीं सकती थी.उस उम्र में किसी की हो गयी थी.या कर दी गयी थी.मुझे बताया जाता था की तुम्हारा घर-परिवार बहुत संपन्न और खुशहाल है.तुम बहुत सुखी रहोगी.सुन-सुन कर मन के किसी कोने में फक्र का एहसास होता था.जैसा की समाज में लड़की का अपना घर ससुराल ही बताया जाता है.वही सब मुझे भी सुनाया जाता था.लेकिन वास्तविकता तो यह है कि उनकी अपनी कोई जमीन ही नहीं है.बचपन में माँ-बापू के साये तले उछलते-कूदते कैसे बीत जाता है पता ही नहीं चल पाता है.जवानी पति के घर जाकर उन सबकी सेवा करके उनका प्यार,सम्मान और आत्मविश्वास पाने के ललक में कटती है. जवानी का ही दूसरा हिस्सा बच्चे पैदा करने और उनकी परवरिश में घुलते,चिंता करते निकल जाती हैं.वहीं बुढ़ापा बच्चों के झिडकी के तले घुटते-घुटते अतीत से लिपटे अपने आप से झगड़ते और मृत्यु का इन्तजार करते-करते तिल-तिल के गुजरती है.
उनका नाम दीपक था.वह एक बड़े अच्छे इंसान थे.वह सरकारी नौकरी करते थे.मेरा गांव जौनपुर में है.वहीं पास के एक गांव में मेरी शादी हुई थी.जब मैं बड़ी हो गयी.तब मेरा गवना का दिन रखा गया.उसमें मेरे पति को भी बुलाया गया था.यह गांव-दिहात की संस्कृति और एक चली आ रही परम्परा है.ससुराल में पहले दिन ही मेरे पति ने मुझे कुछ अपशब्द कहे.जिसे जहर नहीं अमृत समझकर मैं पी गयी.लेकिन कब तक छुपा सकते थे.एक न एक दिन तो राज़ से पर्दा उठाना ही था,सो आज ही क्यों न उघड जाए.काफी किच-किच और झिक-झिक के बाद अपलक रात गुजर गयी.ऐसे ही एक-एक दिन सरकता रहा.ससुराल से मायके आने-जाने के रिवायती फेरे भी लगे.इतना ही नहीं कुल आठ सालों तक हम एक दूसरे के साथ रहे.बेझिझक बीन शिकवा-शिकायत किये.
उनके अच्छाई के छावं तले कब इतने साल गुजर गए पता ही नहीं चला.
यह दिन मुझे नहीं देखना पडता अगर मेरे पति तक ही यह बात रहती.एक स्त्री की पहचान और अस्मिता उसके माँ बने बीना अधूरा है.इसी एक सवाल ने घर में बवाल कर दिया.सासु माँ के मांग के आगे मजबूर मेरे पति ने उन्हें बड़े प्यार से समझाते हुए सारी बाते बता दी.जिस नाजों-अंदाज़ में उन्होंने अपनी बात माँ से कही वह आज भी दिल के एक अन्तः में सुरक्षित है...
वह बोले माँ!"सीमा एक पूर्ण नारी नहीं है.लेकिन वह मेरी अर्धांग्नी है.मेरे जीते जी मेरी साया है.उसे कोई कुछ कहे यह मेरा अपमान है.आप समझ रही हैं न.इसे नियति का लेखा मानकर इस कटु किन्तु कडुवी सच्चाई को कबूल कर लीजिए.शायद यह मेरे नसीब का ही कोई कर्ज है.जिसे आज मुझे फ़र्ज़ के तौर पर निभाना है."
उस दिन के बाद माँ की निगाह बदल गयी.मेरे तरफ इस तरह से देखती थी जैसे मैं कोई बहुत बड़ी अपराधी हूँ.
जो भी हो पति का सहारा घर में सुकून से रहने का संबल देता है.यही मेरे साथ भी हो रहा था.
किसी काम से जब उन्हें बाहार जाना होता था तब वह सबको बड़े प्यार से बोल के जाते थे कि मेरे न रहने यानि की अनुपस्थिति में सीमा का ख्याल रखा जाये.ऐसा होता भी था.परन्तु भाग्य का लिखा टाला नहीं जा सकता है.इस बार उनके बाहार जाने पर वह हुआ जिसकी कल्पना मैंने कभी नहीं किया था.वो हुआ जो क्रुर नियति ने निर्धारित कर रखी थी.मुझे घर में किन्नरों को बुला कर उनके हाथ में सौप दिया गया.मैं ख़ामोशी के शिवा कोई प्रतिरोध या कोई सवाल-जबाब जैसा कुछ न कर सकीं.क्योकि माँ ने विविध तरीके से मुझे डाटा,फटकारा और लताड़ा कि किसी की खुशी को मातम में बदलने का मुझे कोई हक वो अधिकार नही है.उनके इन शब्दबाणों से ह्रदय छलनी हो गया.दिल-दिमांग में हलचल मच गया.सच में एक नेक इंसान के साथ मैं ठीक नही कर रही हूँ.
मुझे अपने स्वार्थी होने का एहसास काटने को दौडी.ऐसे ही कुछ एक कठोर,कडुवी और हकीकत से पूर्ण वक्तव्यों ने मोह की दिशा ही बदल दी.
घर से बेघर होने के बाद मैं टूट-टूट करके फुट-फुट रोई थी.लेकिन उस चीत्कार को सुनने वाला कोई न था.परन्तु जैसे ही मेरे पति घर आये उन्होंने मुझे पुकारा.किसी के पास कोई जबाब न था.यह बात मेरी माँ ने मुझे खुद बताई.वह भी खूब रोई थीं,हम दोनों माँ-बेटी जी भर रोये थे.शायद यह आखिरी मुलाकात थी.अगले जमन का पता नहीं.मुझे मेरी वही माँ-बापू फिर मिले यही कामना है.जो कर्तव्य यह हिजडा के दाग ने न निभाने दिया वह हो सकता है.अगले जन्म में कर सकूँ.यह हृदय की सुभेक्षा है.
मुझे हेरते-हेरते मेरे पति आये थे.लेकिन मैंने ही उनसे मिलने से इंकार कर दिया था.क्योकि एक माँ के ममता से वादा किया था जिसे तोड़ न सकी.अब उनके जीवन में क्या चल रहा है,या हो रहा है.मुझे कुछ मालूम नहीं है.बस दिल से बरबस यह दुआ जरुर निकलती है कि वह जहाँ रहे सदा खुशहाल ही रहें.ऐसे इंसान धरती जहान में बहुत ही कम हैं.ये सब बताते हुए उनके (सीमा)आँखों से आंसू गिर रहे थे.
वह लोग अपना नेग लेकर चली गयी.जाते-जाते पूरा माहौल गमगीन कर गयी थीं.जो हँसी-ठिठोली थी वह अब हर एक के होंठो पर सवाल छोड़ गयी थी.जिसका जबाब देना मानव के बूते की बात न थी.कुदरत ने हर एक जीव को समाज में अपना एक मुकाम दिया हैं.उनका अपना एक अस्तित्व है.लेकिन इस मानवीय रूप में उपेक्षित,कुंठित,निरादृत और तिरष्कृत प्रजाति को लोग किस-किस निगाह से देखते हैं...?
अभी तक इनके उत्थान के लिए कोई ठोस प्रयास क्यों नहीं किये गए ?यह बिन्दुं सोचने,चिंतन-मनन करने  और अवलोकन करने का हैं.देर से ही सही इस पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए.विज्ञानं के इतने खोज-बीन शोध के बावजूद यह प्रसंग अनुत्तरित क्यों है...?
हम अपने शिक्षित होने का दावा करते हैं.लेकिन अपने सुशिक्षित होने का कोई प्रमाण भी देते हैं.उनको स्कूल में सबके साथ पढ़ने-लिखने और सर उठा के जीने का हुनर दिया जाना चाहिए.इस संदर्भ में पुरजोर आवाज़ बुलंद करने का दौर कब आएगा..?उस दिन से लेकर आज तक मैं उधेड़-बुन में उलझी हुई हूँ.कोई रास्ता नही सुझता की क्या करें...?इस विराट सवाल के सामने सारे विवेक-बुद्धि धरे के धरे रह जाते हैं......
                                                                डॉ.सुनीता

'आने के बाद','जब चली गयी','अनदेखा','आघात''एक-एक करके'...!


           'आने के बाद'
देखा एक भयानक ख्वाब
धरती डोल रही,अम्बर पट खोल रही
लोग मदिरा में मदमस्त हैं
नये साल के बहाने पस्त हैं
आधुनिकता में सराबोर हैं
विदेशी भाषा-बोली का राज है
देशी संस्कृति की हासिये पर आज है
उत्सव के नाम पर ताम-झाम है
करते बवाल सरेआम है
बोलने पर आँख दिखाते
टोकने पर जान से मारते है
सबको क्या हो गया है
बुधि-विवेक जैसे खो गया है...!

'जब चली गयी'

जब वह गई दिल के सारे जज़बात ले गई
एहसास छोड़ धड़कने साथ ले गई
जब कभी फुरसत से तन्हाई में बैठते है
तेरे कुरबत की ख्वाहिश तडपाती है
बेवश हैं हम,लाचार तुम भी कम नहीं
पर!जुदाई के नाम से जलते हैं अरमान
एक तलब थी तुम कब जान बनी ?
इल्म न हुआ कब रूह से रूह एक हुई
तडप की आग ने जूझना सिखा दिया
मिलन की आस ने एक नया रास्ता दिखा दिया
किस मोड पर राहें टकराएँ,कैसे मिलेंगे पता नहीं
तेरे संग बीते लम्हों के साये में जिन्दा ख्वाब रहेंगे
बिछड़ने से बिखरती नहीं यादों के क्षण
जब भी मिलते हैं एक दुनिया रौशनी से जलने लगती है
लेकिन हमारे मिलने से अब कुढने लगी है इक दुनिया...
                  'अनदेखा'
प्रकृति की ये एक रचना अनोखी है
इसके बिन जीवन की कल्पना अधूरी है
अति से खत्म एक पल में सारी जिंदगानी
पानी से ही जीवन की अबिरल कहानी है
काट रहे हैं वृक्ष फिर भी उम्मीद करते है
इंच-इंच के फेर में तोड़ रहे खुद की डाली
अभी के खातिर कल को झुठला रहे हैं
खुद को देखते रहे बहुतों की छीनकर दाना-पानी
कितने मरहले हैं लेकिन सो रहे हैं बेच कर निशानी..
                   'आघात'
जो गली चौबारे कभी मेरे अपने थे
अब क्यों पराया से हैं
शदियों से जो अनजान,अजनबी थे
वो क्यों अपने से हैं
खास कोई बात नहीं,ऐसी कोई राज़ नहीं
फिर भी...
ऐसा क्यों एक सवाल है
जिसका सुझता कोई क्यों जबाब नहीं है
अब वो गलियों से गुजरते हैं बेगानों से
कौन सी रात,ऐसी बरसात हुई
जो अपनों के बीच बैठकर भी पहचान नहीं
किस बात की चोट है
जिसका इलाज एक रोग है
मुसाफिर हैं सब यहाँ
फिर ऐसे ख़ामोशी क्यों
जितना ढूँढा उतनी ही गहरी बात हुई
चलते-चलते भटक गए
इन चक्करों में उल्टा लटक गए
अंदर-बहार देखा घाव पर घाव मिले
मरहम की जगह एक छलाव जो आघात लगे ...
                    'एक-एक करके'
एक राज़ जो लबों से खेल रही है
एक आस जो दिलों से मिल रही है
एक विश्वास जो ह्रदय से जोड़ रही है
एक प्यार जो अपने को टटोल रही है
एक सपना जो अपना-अपना हिस्सा मांग रही है
एक ममता जो आँचल से लिपट रही है
एक मोती जो आँखों से छलक रही है
एक बादल जो काजल बन झलक रही है
एक पगड़ी जो दृढता से ललाट पर चमक रही है
एक क्षमता जो प्रतिभा से बढकर लड़ रही है
एक जीवटता जो कटूता को छाट रही है
एक लक्ष्य जो सागर को ताड़ रही है
एक भक्षक है जो रक्षक निगल रहा है
एक कलयुग जो सतयुग का बीन बजा रहा है
एक बिह्ववल ह्रदय जो मदमस्त हो गा रहा है
एक झोपड़ी जो खुशियों के झूठे हिंडोले में झूल रहा है.
एक चिराग का नाम देकर बेटा-बेटी में जो बाट रहा है
एक अंत हुआ है जो विद्रोह की बिगुल बजी रही है
एक पाखंड है जो से देश बदल रहा है
एक आडम्बर है जो अब अम्बर से खेल रहा है
एक भडंगी जो अपने बूते पर सबको तराजू में तोल रहा है
                                 डॉ.सुनीता








































लोकप्रिय पोस्ट्स