माँ ! मुझे अगरिया को क्यों दी...?

                                           अगरिया के लोकगीत

                                                        फ़ारूक शाह



       गुजरात के अगरिया अर्थात् नमक पकाने वाले श्रमिक. गुजरात में नमक उत्पादन के क्षेत्रों को देखें तो कच्छ का छोटा मरुस्थल मुख्य है. इसके अतिरिक्त पूरे समुद्री पट्टे पर स्थित विभिन्न स्थानों पर नमक पकाया जाता है, यानी कि नमक की खेती होती है. कच्छ के छोटे मरुस्थल में करीब-करीब एक हजार वर्षों से नमक पकाया जाता है. अंग्रेजों से पूर्व लगभग पाँच सौ वर्षों से झाला शासक मरुस्थल में नमक उत्पादन की व्यवस्था संभालते आ रहे थे. बाद में ब्रिटिश शासन ने उस पर कबजा किया था. अगरिया श्रमिक समुदाय की काली मजदूरी और उसके हाशिए में धकेले हुए अस्तित्व की कहानी भी उतना ही पुरानी है. जिसमें पीड़ाओं की कष्टदायी करुण परम्पराएँ छिपी हुई दिखाई देती हैं.

       आजादी के बाद वैयक्तिक साहस के तौर पर नमक पकाने का अधिकार मिला, इसलिए अगरिया कायदे की दृष्टि से स्वायत्त और स्वयं रोजी कमाते उत्पादक माने जाते हैं. पर शुरू से शोषण के जाल में लिपटे इस श्रमिक समुदाय की दशा आखिर तो बंधूआ मजदूर जैसी ही साबित होती है. मरुस्थल के छोर पर स्थित उनके गाँव और घरबार छोड़ मानसुन के चार महीने बाद, अक्टूबर में वे पूरे परिवार के साथ स्थलांतर करते हैं. मरुस्थल के अति विषम और विकट वातावरण में जीवन-मृत्यु का दांव खेलने के लिए निकल पड़ते हैं. अक्टूबर से अप्रैल तक आठ महीने बिताने कर्ज से नमक की काली मजदूरी शुरू करते हैं. और मौसम खत्म होने पर सौदे के अनुसार पहले से तय मूल्य पर कम दाम में व्यापारी को नमक बेचना पड़ता हैँ. कठिन क्रूर महेनत के अंत में ये अर्ध घुमंतू महनतकश लोग नखशिख दास्य, अंतहीन कर्जदारी, कुपोषण और शिक्षा से वंचित रहने की स्थिति के अलावा कुछ भी हासिल नहीं करते. व्यसन और रोग के शिकंजे में फंसकर अकाल मृत्यु के हवाले हो जाते हैं. अगरिया उत्पादक के दर्जे पर होते हुए भी कभी गरीबी से ऊठकर उभर नहीं पाएं हैं. जबकि नमक का व्यापार करने वाले लोगों के यहाँ बंगले बने हैं. यह समग्र स्थिति उद्योग के अमानवीय आयोजन और व्यापार की जटिल गुत्थियों के कारण है.

     इस क्षेत्र की जमीन कमजोर है, पानी की अछत और जलसंचय के लिए बरसात पर आधार. तीन या चार वर्षों में अकाल पड़ता है. उसने इस क्षेत्र के किशान, खेतमजदूर और खेत को लाचार बना दिया है. इसलिए जाड़े का मौसम आते ही सब नमक की मजदूरी में लग जाते हैं. नमक पकाने का व्यवसाय पारिवारिक और श्रम पर आधारित है. देश में सबसे ज्यादा, 70 प्रतिशत, नमक की पैदावार गुजरात में होती है. मरुस्थल के अगरिया की संख्या भी अच्छी खासी 67,166 के करीब मिलती है. नमक के काम के साथ परोक्ष रूप से जुड़े यानी नमक की मजदूरी के साथ जुड़े अगरकर्मियों की संख्या भी 34,937 जितनी है. यह देखते हुए लगता है कि नमक का उद्योग करीब एक लाख से ज्यादा लोगों की रोजी से जुड़ा हुआ है.



     अगरियाओं का यह मरुस्थलीय कार्यक्षेत्र. सौराष्ट्र और कच्छ को अलग करती खाड़ी का पानी जहाँ आगे बढ़ता रुक जाता है, वहाँ से उसकी शुरूआत होती है. राजकोट, कच्छ, सुरेन्द्रनगर, बनासकांठा और पाटण जिले की हदों से सटकर यह प्रदेश 4953 स्केवयर किलोमीटर में फैला हुआ है. उसका इस्तेमाल आज तक दोनों तरफ किनारे आमने-सामने बसे गाँवों के दर्म्यान आने-जाने के लिए होता रहा है. वर्तमान कच्छ का ‘छोटा मरुस्थल’ एक समय समुद्र का उभरकर स्थित हो गया तल ही है. सामान्यत: मरुस्थल का ख्याल ऐसा है कि वहाँ रेत के टीले होते हैं, आंधी होती है, मौसम के अचीते बदलाव होते हैं. पर यह स्थल रेत से बना हुआ नहीं है. यहाँ की जमीन काले कीचड़ की है. एकदम क्षारयुक्त सख्त मिट्टी. जगह जगह पर ऊँचे-नीचे ढालुएँ और गहरे-चौड़े गड्ढे. कहीं भी पेड़-पौधों का नामोनिशान नहीं. जो भी पेड़-पौधे उगते वो किनारे पर उगते. तैयार नमक लेने के लिए गर्मियों में यहाँ क्षारयुक्त सख्त मिट्टी की सतह पर गाड़ियाँ जोरों से दौड़ने लगती हैं.

     कच्छ का यह उद्योग लगभग एक हजार वर्षों से चला आया है, और यह भी हकीकत है कि इस उद्योग ने कम से कम संशाधन एवं नई प्रक्रियाओं को अपनाया है. हाँ, कुछ बदलाव जरूर नज़र आता है. फिर भी उससे मजदूरों की स्थिति और उद्योग की स्थिति में कोई ख़ास परिवर्तन नहीं हुआ. पहले नमक बैलगाडियों में ले जाते थे, आज ट्रकों के मारफत. पहले कूएं से पानी खींचने बैलों के चरसे का इस्तेमाल होता था, अब ओईल इन्जिनइ का. बस, इतनी प्रगति हुई है.



     अगर का काम बहुत ही दुष्कर है. असह्य सर्दियाँ और गर्मियाँ अगरिया की चमड़ी को संवेदनहीन बना देती है. नमक के द्रावण में काम करने से उनके पाँव लोहे जैसे सख्त हो जाते हैं, जिन्हें आग भी न जला सके. रेगिस्तान की उड़ती धूल और नमक के कण उनकी आँखों का तेज कम कर देते हैं. मलेरिया और टीबी के दर्दीओं की यहाँ कमी नहीं होती. मौसम के समय करीब करीब 5000 परिवार यहाँ पर नमक पकाने का काम संभालते हैँ. अभी तक यहाँ पर में बिजली नहीं आई है. जरूरी डाक्टरी इलाज का भी अभाव है. यहाँ पर सब कामचलाऊ होता हैं. पीने के पानी की व्यवस्था कामचलाऊ, अगर के पट्टे कामचलाऊ,  झोंपड़े-छप्पर कामचलाऊ, कूई और कूएं भी कामचलाऊ.

       जीवन के लिए अति विकट स्थितिओं में अपने अस्तित्व को बेवजह गंवाने के लिए मजबूर अगरिया मरुस्थल के छोर पर स्थित गाँवों में बसते चूंवाळिया एवं तळपदा कोली, दलित, रबारी, देवीपूजक, सिपाई, फकीर, मियाणा जैसी कई अनुसूचित जाति एवं जनजाति, घुमंतू, विमुक्त और हाशिये की जातिओं के लोगों से बना हुआ है. यहाँ का वातावरण अत्यंत ही विषम है. भूखे-प्यासे धूप और ठंड की चरम सीमाएँ झेलते ये लोग, अपने जीवन में थोड़ी सी खुशी लाने, कभी-कभी गीत गाते हैं. इन गीतों में उनकी दारुण दशा और भविष्य के अंधकार की छाया अनिवार्य रूप से दिखाई देती है.

     एक गीत देखें. मजदूरी कर जब भी अगरिया घर वापस लौटता है तब सारा बदन पसीने, धूल और नमक से लथपथ हो गया होता है. अंग अंग थकन से चूर. घर आते अपने पति का अगरिया स्त्री सत्कार करती है, इसमें उसकी वंचित स्थिति तो है ही, साथ-साथ जीवन की गहरी वेदना भी व्यक्त होती है. फिर भी रूखे सूखे ही सही, रोटी के दो टुकड़े देते नमक के डले की उनके मन बहुत ही महिमा है :



सारा परताप गाम-गोढा अगरना
भवनी भांजी भीड़ रे
    गांगडो वा’लो लाज्यो से

पैसानो साबू बजारे मलशे
ऊजळा थई घिरे आवो
    गांगडो वा’लो लाज्यो से


पैसानो रोमाल बजारे मलशे
सोगां मेलीने घिरे आवो
गांगडो वा’लो लाज्यो से

पैसानी छतरी बजारे मलशे
सायां करी घिरे आवो
    गांगडो वा’लो लाज्यो से

चमचमती मोजडी बजारे मलशे
मोजडी पे’री घिरे आवो
    गांगडो वा’लो लाज्यो से

हाड मांस चामडां रणमां गया रंधाई
    मारा कर्मे कायम मंडाई आंधी

       ( सदभाग्य कि अगर के गाँव हैं, जनम भर की तंगदस्ती दूर हो गई, हमें तो डला प्यारा लगता है... पैसे का साबुन बाजार में मिलेंगा, गोरे होकर घर आओ... पैसे का रूमाल बाजार में मिलेंगा, सर पर कलगी रचाकर घर आओ... पैसे की छतरी बाजार में मिलेंगी, छाँव करके घर आओ... चमकती जूती बाजार में मिलेंगी, जूती पहन घर आओ... हाड़-मांस-चमड़ा रेगिस्तान में जल गए, मेरे भाग्य में लिखी है सदा के लिए आंधी... )  

   
 अगरिया स्त्री की उलझन को प्रकट करता दूसरा गीत :

अगरियो अगनानी
माडी, मने अगरियाने शीद आली ?

कूइयुं गळावतो, ने टांपा तणावतो
झीला लेवडावतो दाडी
माडी, मने अगरियाने शीद आली ?

तेल रे न नाखतो, ने धूपेल न नाखतो
दांतिया भांगतो दाडी
माडी, मने अगरियाने शीद आली ?

गांजो रे पीतो, ने दारूये पीतो
इंग्लिश पीतो दाडी
माडी, मने अगरियाने शीद आली ?

सामान उतरावतो, ने सांपरां बंधावतो
सांया करावतो दाडी
माडी, मने अगरियाने शीद आली ?

पावडी रे घोंची, पोडुं रे भांगतो
दंतारो खेंचावतो दाडी
माडी, मने अगरियाने शीद आली ?

मीठुं कढावतो, ने टोपला उतरावतो
गाडियुं भरावतो दाडी
माडी, मने अगरियाने शीद आली ?

आठ आठ महिना काम कराव्युं
मीठुं पाक्युं दोढ़ गाडी
माडी, मने अगरियाने शीद आली ?

     (अगरिया अज्ञानी है. माँ, मुझे अगरिया को क्यों दी ? कूइयाँ (1) खोदता हैं और टांपा (2) खींचता है, पत्थर उठाता वह तो रोज... तेल न डालता सुगंधी न डालता, तोड़ता रोज कंगियाँ... गांजा पीता है और दारू भी पीता है, ईंग्लिश पीता रोज. सामान उतारता और छप्पर बांधता, सायबान करता रोज. पावडी (3) गाड़कर पोडु (4) को तोडता, दंतारा (5) खींचता है रोज. नमक निकालता और टोकरा उतारता, गाडियाँ भरता रोज. आठ आठ महीना काम कराया और नमक पका देढ़ गाड़ी ! माँ, मुझे अगरिया को क्यों दी ?)

     अगर में पति-पत्नी और बच्चे साथ काम करते हैं. इसलिए कूई छानने का काम हो, नमक की क्यारियों में पानी भरने का काम हो, या कूएं कूई में पाले बांधने का काम हो, नमक पक जाने पर टोकरे भर भर उसके ढेर लगाने का और जब ट्रक ट्रेक्टर आए तब उसमें चढ़ाने का काम - सबमें पत्नी पति जितना ही काम करती है. और इसलिए सख्त परिश्रम करके जब कर्ज का हफ्ता चुकाना होता है तब घरखर्ची के पैसे भी दारू और जुए में उड़ा देने वाले अगरिया के प्रति उसे अभाव हो जाता है.

      पूरा जीवन कर्ज उतारने में खतम कर देना है. हड्डियाँ गल जाए ऐसी ठंड और रक्त जल जाए ऐसी गर्मी के बीच अस्तित्व को निचौड़ देने वाले नसीब को टाला नहीं जा सकता, यह बात अगरिया अच्छी तरह जानते हैं. इसलिए वो थकन और दु:ख को भुलाने दारू और जुगार की लत में फंस जाते है. अगरिया लोगों में दारू के व्यसन में कई परिवार बरबाद हो गए हैं. कई सारे लोग टीबी या आंत के रोग अथवा लीवर के रोगों से अकाल मृत्यु के शरण हो जाते हैं. दूषण रूप व्यसन उनके अस्तित्व का शोषण करने में कोई कमी नहीं रखते. यह बात उनके इस प्रकार के गीतों में देखी जा सकती है :



पाटडीना पादरमां दारूडानुं पीठुं
हो वणजारा...

गांठे नथी दमड़ी दारू शेनो पीशुं ?
हो वणजारा...

मारां पग केरां कडलां दारूडामां डूल्या
हो वणजारा...

गांठे नथी दमड़ी, दारू शेनो पीशुं ?
हो वणजारा...

मारी केडनो कंदोरो दारूडामां डूल्यो
हो वणजारा...

गांठे नथी दमड़ी, दारू शेनो पीशुं ?
हो वणजारा...

मारा हाथ केरी चूडली दारूडामां डूली
हो वणजारा...

पाटडीना पादरमां दारूडानुं पीठुं
  हो वणजारा...
( पाटडी (6) की सीमा में दारू की दूकान है, हे बनजारे ! गांठ में नहीं दमड़ी, दारू कैसे पिएंगे ? मेरे पाँव के तोड़े दारू में चले गये... मेरी कमर का कंडोरा दारू में चला गया... मेरे हाथ की चूड़ियाँ दारू में चली गई... पाटडी की सीमा  में दारू की दूकान है... दारू कैसे पिएंगे, हे बनजारे ?)

                  *
जुगटियो सरदार
जुगट कोई रमशो नैं रे

जुगट रमतां शुं शुं रे हार्यो
जुगट रमतां मशीन हार्यो
हे पंखा हुधी हार्यो, जुगट कोई रमशो नैं रे...

जुगट रमतां शुं शुं रे हार्यो ?
जुगट रमतां पावडी हार्यो
हे दंतार हुधी हार्यो, जुगट कोई रमशो नैं रे...

जुगट रमतां शुं शुं रे हार्यो ?
जुगट रमतां हप्तो ये हार्यो
हे चूकावा हुधी हार्यो, जुगट कोई रमशो नैं रे...

     (जुआ तो सरदार, जुआ कोई खेलना नहीं ! जुआ खेलते क्या क्या हार गया ? जुआ खेलते मशीन (7) हार गया, पंखे तक मैं तो हारा... जुआ खेलते क्या क्या हार गया ? जुआ खेलते पावडी हार गया, दंतार तक मैं तो हारा... जुआ खेलते क्या क्या हार गया ? जुआ खेलते हफ्ता हार गया, चुकता करना भी मैं तो हारा... जुआ कोई खेलना नहीं !)

     किसी समय भयानक भूकंप के कारण उभर कर जमा हुए कीचड वाला समुद्र तल अगरियाओं की भूमि है. वे खुद को ऐसी भूमि के राजा मानते हैं - 'अगरिया से रणना राजा / मेहनतमां रये ना पाछा...' ( अगरिया मरु स्थल के राजवी हैं, महेनत करने में वे पीछे नहीं रहते... ), पर यह राजा जब बाहर के - व्यवहार के जगत में जाते होगे, तब उन्हें कितने ही कदम पर पीछे खिसक जाना पड़ता होगा, हम तो कल्पना  भी नहीं कर सकते. ऐसी ही कोई विपत्ति का थोड़ा-बहुत ख्याल उनके इस प्रकार के गीतों में देखने को मिलता हैं :

हुं तो खोटो रूपियो लैने रे
रेंगणा लेवा हाली, लेवा हाली
में तो रूपियो फेंइको हाटे रे
रेंगणा लैने वळी, लैने वळी

आवी आवी रे वालुडानी हाटी रे
रेंगणां ढोळी दीआं, दीआं
मारो नानो दियरियो साथे रे
रेंगणां वेणी लीधां, वेणी लीधां

आयां आयां रे सरकारी तेडां
दियरियाने हेरी लीधो, हेरी लीधो
मारां पग केरां कडलां आलुं
दियरियाने छोडी मेलो, छोडी मेलो

तारां कडलां जाशे डूली
दियरियो नैं रे छूटे, नैं रे छूटे
हुं तो खोटो रूपियो लैने रे
रेंगणां लेवा हाली, लेवा हाली

      (मैं तो नकली रूपिया लेकर, बेंगन लेने चली. मैंने रुपया फेंका हाट बाजार में, बेंगन ले के लौटी... आई आई वालुडा की हाट, बेंगन गिरा दिए. मेरा छोटा देवर साथ था, बेंगन चुन लिए... आया आया सरकार का बुलावा, देवर को पकड़ लिया. मेरे पाँव के तोड़े दे दूँ, देवर को छोड़ दो... तेरे तोड़े जाएंगे डूब, देवर नहीं छूटेंगा... मैं तो नकली रुपया लेकर, बेंगन लेने चली.)
     इस समुदाय में बचपन के लिए बहुत सारे प्रश्न हैं. आठ महीना उजाड़ रेगिस्तान में पलता बचपन मन को मार मार के जीता है. शिक्षा का तो प्रश्न मुँह फाड़े खड़ा ही है, साथ ही बच्चों के स्वास्थ्य और भविष्य संबंधी कई सारी बातें चिन्ता का विषय है. दुःख के तूफ़ान से घिरा, अथक श्रम से जूझता यहाँ का बचपन. उसके नसीब में खुशी कैसे हो सकती है ? इस तरह के अभाव की वेदना झेलती एक बच्ची की व्यथा प्रकट करता यह गीत प्रचलित है. जिसमें बच्ची को रेशमी रूमाल चाहिए, पर माँ अपना असामर्थ्य बताती है और रूमाल की जीद छोड़ देने के लिए बच्ची को समझाती है :

ऊगमणी धरतीनो वेपारी आव्यो
लाव्यो कांई रेशमिया रोमाल
माड़ी, मारे रोमाल लेवो

दीकरी, मेली दे रढ रोमालियानी
तुं सो गरीब घरनुं सोरुं
रोमाल तने शीनो लई आलुं...

ओयडो वेसो माड़ी, ओशरी य वेसो
वेसो माड़ी, आपणां घरनो वाडो... माड़ी, मारे...

दीकरी, घरमां नथी शेर बंटी
ने दळवा नथी घंटी... रोमाल तने...

कोठलो वेसो मा, डामचियो वेसो
माडी, वेसो ने रंगत मांची... माड़ी, मारे...

दाडी-दपाडी, ने रोज मजूरी
रोजनुं रळी रळी खावुं
दीकरी, मेली दे तुं रढ तारी... रोमाल तने...

    (पूरब का ब्यापारी आया है, वह लाया है रेशमी रूमाल, माँ ! मैं तो रूमाल लूंगी... बेटी ! रूमाल की जिद्द छोड़ दे, तू गरीब घर की लड़की है, रूमाल तुझे कैसे दिलाऊँ?... कमरा बेच दो माँ, बरामदा भी बेच दो, बेच दो हमारे घर का बाड़ा, माँ ! मैं तो रूमाल लूंगी... बेटी ! घर में नहीं सेर धान, और पीसने के लिए नहीं चक्की, रूमाल तुझे कैसे दिलाऊँ ?.... कोठार बेच दो माँ ! बिस्तरे की घोड़ी बेच दो, बेच दो रंगीन मचिया, मैं तो रूमाल लूंगी... रोज की दिहाड़ी और रोज की मजदूरी, रोज का कमा कर खाना है हमें, बेटी ! छोड़ दे जिद्द रूमाल की... )  

     अगरिया समुदाय में बगला-बगली के संवाद का एक गीत प्रचलित है. जिसमें उनके हृदयों में बहुत गहरे दबी हुई, मुख्यधारा के जीवन में मिल जाने की आशा, अभिव्यक्त होती है :


ओल्यो दरियो दोटादोट रे
    बगलो पूसे बगलड़ी
तुं च्यांचणे र्यो’तो रात रे
    बगलो पूसे बगलड़ी रे

मारे गामना पटलनी भईबंधी
मारे पटलपणुं लेवुं से
    बगलो पूसे बगलड़ी रे

मारे गामना मुखीनी भईबंधी
मारे मुखीपणुं लेवुं से
    बगलो पूसे बगलड़ी रे


मारे गामना सरपंचनी भईबंधी
मारे सरपंचपणुं लेवुं से
    बगलो पूसे बगलड़ी रे

ओल्यो दरियो दोटादोट रे
    बगलो पूसे बगलड़ी

     (वह समंदर दौड़ता जा रहा है, बगले से बगली पूछ रही है, तू रात कहाँ पर ठहरा था ?... मेरी गाँव के पटेल से भाईबंदी है, मुझे गाँव का पटेल होना है... मेरी गाँव के मुखिया से भाईबंदी है, मुझे गाँव का मुखिया होना है... मेरी गाँव के सरपंच से भाईबंदी है, मुझे गाँव का सरपंच होना है...)

     आठ आठ महीना अथक महेनत के बाद जब नमक तैयार हो जाता है तब उसे गाड़ियों में लादते वक्त मजदूरी काम करने वाले अगरिया, श्रम में उत्साह लाने, गीत गाते हैं. ऐसा एक गीत देखें :


रणना कांठे लीलुड़ी लीमडी रे
लीमड़ीनां लीलां-पीळां पांद रे
जीवणजी ठाकोर, धीमी रे हांको तमारी गाडियुं
    रणना कांठे लीलुड़ी लीमड़ी रे...

सो-सो मजूर वीराने सामटा
टोपलिया करे दोडादोड रे
जीवणजी ठाकोर, धीमी रे हांको तमारी गाडियुं
    रणना कांठे लीलुड़ी लीमड़ी रे...

द्हाडो रे ऊयगो, ने द्हाडो आथम्यो
मजूर तो जुवे तमारी वाट रे
जीवणजी ठाकोर, हाजरी रे वेळाए वे'ला आवजो
    रणना कांठे लीलुड़ी लीमड़ी रे...

शेठ रे जीवणभाई तमने वीनवुं
सरखी पूरजो अमारी हाजरी
जीवणजी ठाकोर, हाजरी रे वेळाए वे'ला आवजो
    रणना कांठे लीलुड़ी लीमड़ी रे...

     (रेगिस्तान के छोर पर नीम का हरा पेड़ आया हुआ है, नीम के हरे और पीले पत्ते, जीवणजी ठाकोर (8) ! धीरे से चलाओ आपकी गाड़ियां... सौ सौ मजदूर भैया को मिले हैं एकसाथ, टोपलिया (9) करते दौड़धूप, जीवणजी ठाकोर ! धीरे से चलाओ आपकी गाड़ियां... दिन उगते और दिन ढलते हैं, मजदूर तो तकते रहते आपकी राह, जीवणजी ठाकोर ! हाजरी के वक्त जल्दी से आ जाना... शेठ जीवणभाई, आपको बिनती हम करते हैं, ठीक से लेना हमारी हाजरी, जीवणजी ठाकोर ! हाजरी के वक्त जल्दी से आ जाना...)

     मजदूरी चुकाने वाले कारकुन जैसे लोगों पर आधारित, नमक के मजदूरों की विवशता का एक चित्र इस गीत में प्रतिबिंबित होता है.

     जगत को स्वादिष्ट भोजन देने के लिए, बिना किसी सुख की अपेक्षा के, बहुत ही क्रूर तरह से अपने अस्तित्व को नष्ट कर देने वाले इन अगरियाओं को पागल मानें कि गुलामी की अदृश्य बेड़ियों से बंधे कैदी ? पर, हँसी-मजाक के समय में अगरिया स्त्रियाँ तो इसे पागलपन मानकर ही गीत गाती हैं  :  


रणमां कूइयुं गाळता रे
    घेलडिया रे अगरिया

पाटामां पगली पाडता रे
    घेलडिया रे अगरिया

कूईमां टांपा खींचता रे
    घेलडिया रे अगरिया

पाटे दंतारो खींचता रे
    घेलडिया रे अगरिया

पाटामां पाळा वाळता रे
    घेलडिया रे अगरिया

पारेवे हंदेहो मोकलावता रे
    घेलडिया रे अगरिया

हो घेला रे अगरिया...

     (मरुस्थल में कूइयाँ खोदते, पागल अगरिया... पट्टे (10) में पगली (11) दबाते, पागल अगरिया... कूई में टांपा खींचते, पागल अगरिया... पट्टे पर दंतारा खींचते, पागल अगरिया... पट्टे में पाला (12) खड़े करते, पागल अगरिया... पंछी के साथ संदेश भेजते, पागल अगरिया)


     कदम कदम पर, जीवन को बचाए रखने के लिए शोषण आश्रित व्यवस्था में मानव सर्जित और कुदरत सर्जित विषमताओं से जूझते इन मनुष्यों को, एकदम नजदीक से देखें तो हमें हमारे मनुष्य होने के प्रति प्रश्न हो जाए ऐसा सम्भव है, और ऐसा भी सवाल हमारे सामने आ सकता है कि जिनका नमक खाया है उनको हम वफादार रहे हैं क्या ?

     अगरिया से मुलाकात और बातचीत के लिए गुजरात के लोकविद्याविद् और इतिहासविद् अरविंद आचार्य (वढवाण, गुजरात) निमित्त बने. और गीत प्राप्त करने में अरविंद आचार्य तथा अंबूभाई पटेल का सहयोग रहा है. इन दोनों स्नेहीजनों तथा खाराघोडा (ता. पाटडी, जि. सुरेन्द्रनगर, गुज.) के अगरिया मित्रों से ये गीत मिले हैं. इस पूरे आकलन के लिए सभी का हार्दिक ऋणस्वीकार.
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* सन्दर्भ नोट :

(1) नमक के लिए नमकीन पानी (ब्राइन) पाने 60 से 80 फूट गहरा खड्डा खोदा जाता है उसे कूई कहते हैं, अब डंकी भी करते हैं (2) अगर के आसपास पत्थर का पाला करते हैं, उसे रस्सी से बांधकर जो आधार रखा जाता है उसे ‘टांपा’ कहा जाता है  (3) फावड़ा (4) करकच नमक (5) पाँचा (6) सुरेन्द्रनगर जिले का, मरुस्थल के किनारे का तालुका (7) पानी खींचने का डीज़ल इन्जिन (8) व्यक्तिनाम (9) टोपला [तसले] उठाने वाले मजदूर (10) नमक पकाने चौकस लम्बाई-चौड़ाई 40 X 40 का पाल बांधा हुआ विस्तार ‘पाटा’ (पट्टा), एक से ज्यादा पट्टों को अगर कहते हैं (11) पट्टे की जमीन या सतह समथल और मजबूत करने के लिए पाँव के दबाव से की जाती क्रिया (१२) अगर के आसपास रक्षा के लिए पत्थर के पाले किये जाते हैं.


सन्दर्भ पुस्तक :

* Salt : Tecnology and Manufacture by Kapilram H. Vakil,
    Pub. Dhrangadhra State (Gujarat). 1924.
* मीठा उद्योग : समस्याओ अने उकेल (रिपोर्ट) - अरविन्द आचार्य
* खारापाटना मायाळुं मानवी : मीठा उद्योगना भावि विकासनी रूपरेखा - अरविन्द आचार्य,
  प्रका. राजेश आचार्य, वढवाण शहेर (गुजरात). 1984.



वक्त की चौखट पर कवितई

डॉ.सुनीता 
सहायक प्रोफ़ेसर, नई दिल्ली
साहित्य की सपनीली दुनिया में मूल्यांकन का स्तर सिमटता जा रहा है...
जब अध्ययन/मूल्यांकन का इरादा की तो कवितई-संसार ने सबसे अधिक सामुद्रिक गहराई का आभास कराया. इस आभासी प्रवृत्ति ने बार-बार सोचने और मंथन को उत्प्रेरित किया...आखिर 'निराला' की 'जुही की कली' में ऐसा क्या नहीं था...? जिसे ‘सरस्वती’ में स्थान देने से संपादक झिझकते रहे/ कतराते रहे...? सवाल शून्य के किसी खोह में ध्वनित है...मुंडे-मुंडे मतिर भिन्ने...
हम केवल २०१२-१३ के परिप्रेक्ष्य में बात करें तो लगभग ५ हजार से अधिक लेखक-लेखिकाएं साहित्य के चित्रपट पर अपना नाम अंकित करवाने में सक्षम रहीं या लालायित हैं...जिनमें से लगभग ३०० के आस-पास के लोगों के साझा संग्रह बाज़ार के हवाले हैं... जिनमें से कुछ पढ़ी जा रहीं हैं, कुछ प्रकाशक के आलमारी में कैद अपनी बारी का इन्तजार कर रही हैं...कश्मीर से कन्याकुमारी तक बात आम है...लगभग ३०५ व्यक्तिगत संग्रह छपे हैं...जिनमें से कुछ पर चर्चा-परिचर्चा भी हुई...कुछ पर वाद-विवाद/चोरी-सीनाजोरी के आरोप लगे...कुछ पठनीय तो कुछ अपठनीय ही रह गए...
मजे की बात यह रही कि अधिकांश लोगों ने पुस्तकें मांगकर/भेंट के माध्यम से या उधार के द्वारा  ही पढ़ीं...कुछ ने खरीदकर पढ़ने की आदत का सिद्दत से अनुपालन किया...फरवरी २०१३ से अब तक कई संग्रह आ गए हैं...उनमें से कुछ की रचनाएं पुरस्कृत भी हुईं तो कुछ पहले से ही पुरस्कार प्राप्त रही अर्थात साहित्य अकादमी के आर्थिक सहयोग के नाम रहीं...
जो सबसे दिलचस्प बात रही वो यह कि कविता बड़े मंच से उतर कर घरों तक और घरों से निकलकर जहाँ-तहां बिखर गयी...’ग्रुपलिज्म के यूथोपिया’ ने रही-सही भूमिका पक्की कर दी...
इन सारे बैठकबाजियों और चक्क्लसों के बीच दिलचस्प मामला यह रहा कि कविता ने अपने को सारे सीमा से परे पाया...मतलब साफ़ है कि- छंद, रस के स्थान पर तुक ने लिया उसके बाद लेख के रूप में तब्दील होती चली...इन्हीं ‘उगलवासियों’ के बीच कुछ लेखकों ने अपनी लेखकीय के ‘ताबुती’ बयानी से औरों से अलग अपना नाम लिखवाने में कामयाब रहे. वस्तुत: कुछ ने तीखी किन्तु अलग तरीके से कलम की धार को पैना बनाये रखा. उसमें प्रांजल धर और मृतुन्जय का नाम सबसे पहले ले सकते हैं क्योंकि इनका ध्यान केवल पुस्तकाकार पर नहीं होती है, बल्कि मृतक होती विधाओं को जिन्दा करने में है.
जहाँ अधिकतर लेखक जीवन में सबसे पहली प्राथमिकता संग्रह को देते हैं उन हालातों में शुभा जी का नाम अपने-आप होंठो पर आ जाता है जिन्होंने आजीवन जमीनी लड़ाई-लड़ी, स्त्री और असमानता के खिलाफ लिखती रहीं ‘पहल’ से लगायत तमाम प्रसिद्ध पत्रिकाओं में छपती रहीं, बावजूद कभी छपास को महत्व न दीं. ऐसे में पश्चिमी साहित्य कर्मियों का याद हो आना लाजमी है. कहते हैं कि विदेशों में एक संग्रह को कई-कई लोग मिलकर लिखते हैं फिर भी कहीं से टूटन, बिखराव या दोहराव नहीं जान पड़ता है.
‘अब के कवि खडोस, जह-तह करत प्रकाश’ की उक्ति भी अब काम नहीं कर रही है बल्कि आज के दौर को देखते हुए कह सकते हैं कि- अब, सब के सब तालाब, नाला में संतुष्टि के तलाशें रसधार’ सृजन के गंगा में डूबने के बजाय साहित्य के निंदा-रस में डूबते जा रहे हैं...
साहित्य की अधिकतर विधाएं सुप्तावस्था में हैं. जिनकी सुध कोई नहीं ले रहा है एक्का-दुक्का को छोड़कर बात करें तो दूर-दूर तक कोई भी नजर नहीं आ रहा है. हा कुछ एक प्रवृत्तियां चहुओर छाई हुईं हैं जिनके आलोक में समस्त साहित्य प्रकाशमान है. ऐसा प्राय: प्रतीत होता है जबकि ‘दिनौनी’ का धुंधलका इतना सघन है कि कुछ साफ़-साफ़ देखने में अक्षम हो गयें हैं.
धीरे-धीरे कविता संघर्ष से निकलकर मॉस-मज्जा/यौन/मांसल और विभत्सता के साथ व्यख्यायित होती जा रही है. असहमति का रास्ता अब दंगल में बदलती जा रही है...शब्दों में आदर्श और हकीकत में लहू साबित हो रही हैं. व्यक्ति का प्रतिबिम्ब उसकी कृति नहीं कुछ और ही होती जा रही है...कसौटी का पैमाना एक प्यादे की शक्ल इख्तियार करती जा रही है...  
...बाकी फिर कभी...

      

सूखी पंखुड़ियाँ

कहानी- सूखी पंखुड़ियाँ
लेखक- अमरनाथ अमर (दूरदर्शन केन्द्र में कार्यक्रम अधिकारी )


हाल-फ़िलहाल में कई सारी कहानियाँ पढ़ी हूँ, साथ ही समीक्षा भी लिखी हूँ. कल भी अचानक से एक कहानी हाथ लगी. पढ़ना शुरू की, कब अंत हुआ एहसास ही न हुआ. कहानी इतनी सहज, सधी हुई भाषा-शैली में थी कि पूछिए मत..कलेवर में जीवन के कच्चे-पक्के अनुभव बड़े ही बारीकी से समाहित हैं. वक्त किसी के लिए नहीं ठहरता है. हम भले ही वक्त के लिए जीवन के प्लेटफार्म पर सदियों खड़े रहें...परिवर्तन की गति तेज होती है...विनाश की घड़ी दबे पाँव दस्तक देती है...और अपने साथ सब कुछ धड़ल्ले से बहा ले जाती है... मनोवैज्ञानिकता की बारीक़ चित्रण-चिंतन समुचित कहानी के कलेवर में सहज ही रचा-बसा है. यह मन:मंथन इस कहानी की जान है.
जब जीवन में हरियाली, बसंत,  सावन,  झूला,  झरने,  झील,  खुश्बू,  तमाम तरह की रंगीनियाँ मौजूद हों तो हम चीजों को अनदेखा करते हुए कभी-कभी किसी के भावना का खून कर देते हैं तो कभी-कभी खुद का दामन बचाते-बचाते सामने वाले को लहुलुहान कर देते हैं तो कभी-कभी उस जख्म से निकलते खून को खुद के अंग से बहता महसूस करते हैं...जब ऐसा होता तब तक समय का पहिया तेजी से आगे बढ़ चूका होता है या फिर मौके हाथ से रेत की मानिंद फिसल चुके होते हैं...हमें अचरज होता है और हम खुद से उलझते हुए सवाल कर बैठते हैं कि ऐसा भी होता है कि जीवन के उत्कर्ष में चोर दरवाजे से प्रवेश करते पावस,  पठार,  रेगिस्तान और सिक्तता को भाँप ही नहीं पाते हैं...
पूरी कहानी एक ही घटना-क्रम से आगे बढ़ती है...लेकिन साथ में जो नन्हें-नन्हें पड़ाव आते हैं वो समाज में व्याप्त अनेकानेक त्रासदियों/ बीमारियों / और भौंडेपन को सहजता से उजागर करते ही एक प्रेम कहानी के स्थान पर यथार्थ से टकराते हुए... हकीकत के आईना का धुल झाड़ते हुए...बीच-बीच में आए झाड़-झंखाड को बुहारते हुए, बेहद पठनीय/ सहज/ प्रवाहमय/ ओजपूर्ण/ और ताप-तपन से सराबोर कर देती है...कहीं-कहीं दिल्ली के बैठकबाजियों की कलई खोलती चुटीले व्यंग्य का विधान रचती मालूम पड़ती है तो कहीं-कहीं स्त्री अस्तित्व के सूक्ष्म सवाल को संवेदना के धरातल पर लाकर छोड़ती देती है...

सबसे ख़ास बात यह है कि कहानी का शीर्षक (सूखी पंखुड़ियाँ) जितनी बार कहानी में आता है उतनी बार नए जीवन- व्याख्या को जाहिर करता है. सूखते जीवन/ समाप्त होती संवेदना/ गायब होते रिश्तों के मिठास/ मानवीयता/ इंसानियत/ सरोकार/ सहृदयता और निर्जनता के मध्य सज्जनता को बेनकाब करती हुई कई सारे सवाल मंथन को मस्तिष्क में उड़ेल देती है... बहुतेरे भावबोध को व्यक्त करते हुए बिषय-बिंदु पर ठहरने/ ठिठकने और सोचने को मजबूर करती प्रतीत होती हैं... “उसमें जो गुलाब की सूखी पंखुड़ियाँ थीं, उसका क्या अर्थ है ?... फिर भाविका कहती है- आखिर गुलाब की इन पंखुड़ियों में ऐसा क्या था, जिसे देख मैं इतना उद्विग्न हो उठी... उलझती हुई अपने-आप से बतियाती है- आखिर गुलाब की इन सूखी पंखुड़ियों ,में ऐसा क्या था, जिसे मैं स्वीकार नहीं कर पाई ? बहुत सरे अर्थ के साथ ये सूखी पंखुड़ियाँ...” ऐसे ही बार-बार आकार मन को विचलित और भावना से भर देने वाले सूखे पंखुड़ी आँखों में पानी, हृदय में मंथन और जुबान पर सवाल छोड़ जाते हैं.
जीवन के चक्की में पिसते हुए अपने लिए किसी के पास वक्त कहाँ है लेकिन जरा ठहर कर देखें/ पीछे मुड़कर देखें तो बहुत कुछ है जिस पर हमारी निगाह नहीं जाती है, बाद में हाथ मलते हैं या जख्म को नासूर की तरह पालते हैं. दर्द और कसक के अनछुए पहलुओं को सहलाते हुए बड़ी ही चतुराई से व्यक्ति के नब्ज को पकड़ती हुई आगे बढ़ती है...
कहानी का सबसे रोचक और चिंतनीय पक्ष है बीच-बीच में सूत्रधार की तरह कविता के कहन/ गहन/ बुनाई/ रचाई और विस्तार की बातें ध्यान खींचती हैं. “...कविताओं के अर्थ को समझना कठिन न था, लेकिन गुलाब की इन सूखी पंखुड़ियों को समझने में मैं असमर्थ थी. और फिर कविता के अर्थ को आत्मसात करने वाली मैं इन सूखी पंखुड़ियों के अर्थ को स्वीकार करने में स्वयं को असमर्थ पा रही थी” नायिका की यही असमर्थता ही कहानी को सार्थकता की ओर उन्मुख करती चली जाती है. आभास होता है कि लेखक कह नहीं रहा है बल्कि नायक/नायिका जबरन कहलवाने को विवश कर रहे हैं... लगता है जैसे कविता किसी घायल प्रेम-प्रेमिका की नहीं बल्कि कविता के बिम्ब/प्रतीक और उपमान की बात की जा रही है...कहानी पढ़ते हुए कभी निर्मल वर्मा के ‘परिन्दें’ की लतिका दस्तक देती है तो कभी प्रसाद की ‘मधुलिका’ या ‘रत्ना’ छम से पास आती हैं... तो कभी चूडियाँ खनकाती धर्मवीर की घायल / उपेक्षित नायिका मानस पटल में काली छाया की तरह उभरती है या मँडराते बादलों के मध्य दमकती/ तडकती दामिनी की भांति लपलपाती भाल लिए खुद सुभद्रा आ रही हैं या फिर महादेवी...एक नए कलेवर धारण किये बढ़ी चली आ रही हों... “इस कविता के अर्थ को, भाव को मैंने न जाने कितनी तरह से, किस-किस दृष्टि से और किस-किस अभिव्यक्ति से देखा..” कभी-कभी संत्रास की चरम सीमा महसूस होती है..सब होता है लेकिन बड़े मीठे अंदाज में होता है...कहानी एक बार भी टूटती हुई नहीं लगती है फिर भी कभी-कभी अंदर तक विचलित कर जाती है कि कास कुछ और भी होता...
मौजूदा कहानी कलेवर के मुताबिक कहानी बेहद ही प्रभावशाली लगी. कहीं एक कथनीयता को छोड़कर सब कुछ बेहद जीवंत /सटीक और सामयिक बन पड़ा है...
कहानी की एक और सफलता है स्थानीय भाषा का कुभाषा में परिवर्तित होने से आने वाली दिक्कते जाहिर हुई है लेखक लिखता है कि- “किस तरह लोग दिल्ली में हिंदी और उर्दू को विकृत कर देते हैं. नमस्कार को नमश्कार बोलते हैं. ग़ज़ल को गजल बोलने में कोई झिझक नहीं. सागर को साग़र बोल देंगे...” इतना ही नहीं हिंदी साहित्य के दिगज्ज भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराये हुए हैं. अपने ही मूल रचना के साथ अज्ञेय से लेकर अमृता प्रीतम/ हजारीप्रसाद/ साथ ही और बहुतेरे अनाम से सूक्ष्म अभिव्यक्ति के तहत मौजूद हैं. साहित्यिक विधाएं अपने स्वरूप में साक्षत हो आतीं है.यह कहानी जब हाथ लगी थी तभी एक लाइन पढ़ने के बाद की मेरी प्रतिक्रिया थी कि- “खंडहर बता रहा है कि ईमारत बुलंद रही होगी” अब अनुमान लगा लीजिए की कहानी का भविष्य/ईमारत और लेखक की ईमानदार सृजनशीलता समानांतर चलती है. आहत मार्मिकता की अनूठी कहानी है. “..हवा का कोई झोंका आए और उड़ा ले जाए गुलाब की इन सूखी पंखुड़ियों को और दे जाए ढेर सारी भावनाओं और स्नेह के साथ एक बार फिर इनकी जगह किसी किताब के पन्नों के बीच ताज़ा गुलाब की लाल-लाल पंखुड़ियाँ और नीचे लिखा एक नाम- ‘उत्कर्ष’ ” यही कोमल इच्छा हर उस मानवीय प्राणी के सदिच्छा जैसी है जिसे हर कोई किसी न किसी रूप-स्वरूप और उपक्रम में हासिल करना ही चाहते हैं...


डॉ.सुनीता
सहायक प्रोफ़ेसर,नई दिल्ली






कुछ बदला है...?


आज पढ़ते हैं बांग्ला में लिखी कुछ बेहद भावुक कर देने वाली अभिव्यक्तियाँ और उनके अंदाजे बयां....

पांच कविताएं
कल्याणी ठाकुर
बांग्ला से अनुवाद : जितेन्द्र जितांशु

 *
प्रतिज्ञा

चाँद डूबने के बाद
मरे आदमी
जाग उठते हैं चराचर साथ
नील आकाश की रेखा पार
सुबह के सूरज ने अम्राण कोशिश की
उदय होने की

शान्त रात गुजरने के बाद
जीवन में पाने का विचार
नहीं पाने का हिसाब लगाकर
घूम कर सो जाती हूँ
और दुसरे दिन न जागूं
ऐसी प्रतिज्ञा में
हर रात मैं तकिया भिगोती हूँ
 

*
तंग
सूअर के बच्चों ने
कुत्तों को दौड़ा दिया
हाथी के पीछे
हाथी चुपचाप रास्ते पर चलता
वह एकदम घुमते ही
सूअर के बच्चे समझ गए
विपदा के साथ
उन्हों ने कुत्ते के पट्टे को खींचा
सब चुपचाप हो गए
बस इसी तरह सूअर के बच्चे
अपने पालतू कुत्तों से
हाथी को सदा करते हैं तंग
*
छीटमहल की कन्या

कोई देश नहीं
नहीं कोई पताका मेरी
छब्बीस जनवरी को
कोइ झंडा नहीं फहरता

मैं बांसकटे छीटमहल से आई कन्या
विभाजित बंगाल की सीमा
न पूरब न पश्चिम
खड़ी कहती :
मेरा कोई वोट नहीं
न है कोई राजा
रोटी मां, टूटी मां
उधर धर्म की धौंस
इधर गैर-नागरिक
बीच में मैं

छीटमहल की कन्या बोलती :
मिट्टी को जोड़ दो
खोल दो कांटेदार तार
अन्यथा बना दो बस्ती
हर हाथ में दे दो पताका 
 *
मेकेनिकल

आवेश के
गहरे क्षणों में
किसी ने कहा :
रोओ मत, मेकेनिकल बनो

आत्म-ग्लानि से भर कर
ख़ुद को थप्पड़ मारती कहती :
मेकेनिकल बनो
बी मेकेनिकल ! 
*
जा रही हूँ

छोड़कर जा रही हूँ
यह जल-जंगल
जंगल के लोग
एक वन-पथ छोड़
और दूर कहीं अपने लोगों के पास
मनुष्य बहाते पसीना-खून
सदियों से अवहेलित पितृपुरुष
कुपोषित संतानें
संतानें जो मेरे भाई-बहन
उनके नजदीक
मैं चली जाऊंगी
चार नदियाँ
पांच जनपद छोड़




रचनाओं के लिए सौजन्य : फारूक शाह

रंग कई दर्द एक...!!!


आया है हमारे हिस्से
(हाशिए के धरातल से कुछ कविताएं)
बिना बाड़ का खेत
                                       (गुजराती कविता)                                                                                                               
                              लक्ष्मण परमार
अनुवाद : पारुल सिंह  
भाई, 
मेरा देश 
मतलब बिना बाड़ का खेत
 उसकी चारों ओर  घास बनकर ऊगते हैँ 
पक्षों के वचन अब तो रिश्वत 
और सिफारिशों की झंखाड़ फूट पड़ी है 
भ्रष्टाचार की बालियों पर सिफारिश के दाने पक गये हैं
बिजूका चूपचाप देखा करता है 
वह भी चोर बन गया है 
क्या ? 
उस गांधी की प्रतिमा की तरह स्तब्ध बनकर खड़ा है 
वह उस पर उड़ते हैं
शोषण के पक्षी 
मेरे बैल के मुँह 
पर मुसीका बँधा है 
अब कटाई का समय  गया है
चल भाई चल 
मेहनतकशों को जोतकर काट देते हैं...

स्थिरता
(पंजाबी कविता)
सिमरजीत सिमी
अनुवाद : फारूक शाह

यूं उदास न हो
एरे मन के मीत !
ढह जाएगी
ये जात-पांत की दीवारें
उखड जाएगी जड़ से

तू खुश हो कि हमें
हटाना है मंजिल के रास्तों से
काँटों को
मिटाना है जीवन के पन्नों से
कुप्रथाओं को

वो सब करना
आया है हमारे हिस्से
फिर यह उदासी क्यों ?
हमें उदासी नहीं
जरूरत है स्थिरता की

किसान
(कन्नड कविता)
महादेवी कणवी

युगों युगों की
शृंखलाओं से बंधा हुआ
कर्ज़ की बेड़ियों से जकड़ा हुआ
मौत के मुँह में पड़ता
मालिक को पालकर मरता
देश का प्राण
यह किसान...

जली हुई भावनाओं में
सूखी हुई इच्छाओं में
मरे हुए सपनों में
मरघट बना हुआ
कौर के लिए तरसता
दूसरों के पेट भरने वाला
देश का प्राण
यह किसान...

-----------------------------
(* कवयित्री द्वारा अनूदित )
अपनी मिट्टी
(मलयालम कविता)
के. के. एस. दास
अनुवाद : गीता एन. पी.


नरक की छाती फाड़कर
एक चिनगारी – कंटीले पौधे के फूल
फेंक देता हूँ
अपने बपौती धर्मशास्त्रों के सर पर
पीढ़ियों के सीमा–पत्थरों को तोड़
पितृभूमि के ह्रदय में
मैं जन्म लेता हूँ
आर्य भारत के भी पार
अनार्य गोत्रजों का अहुरा मकान –

उस मिट्टी पर खड़ा हूँ
जहां से आदिम गोत्रजों का
घरौंदा छीना गया था

मुस्कराती खोपड़ियों
बोलती हड्डियों के साथ
सह गोत्रजों के कारागार की और
भाग जाता हूँ मैं
चोट चोटों को चूमती हैं
जंजीरों के दागों का बसन्त
‘पाण’1 के पुराने गीतों में
खेतों के पुले 2 गीतों में
महरों की कहावतों में
समूह नर्तन करता है

कालकूट पी जिन्होंने काल को जीता है
उनकी कविता बिजली की है
एक ही जनता
एक ही राष्ट्र
एक ही राष्ट्रीयता
जातिहीन जातियाँ
वेदहीन मानवों !
अनात्म समर्पित मृत्यु
स्वतंत्रता का संस्कार है

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1.  केरल की गायक जाति – धुनिया
2.  एक अनुसूचित जाति


चुप हो जा
(उर्दू कविता)
शकील क़ादरी


चुप हो जा, तू चुप हो जा, तू चुप हो जा !
तू लाल है किसका ? चुप हो जा, तू चुप हो जा !

आग के शोले बात बताते है सच्ची
परियों वाले देश सिधारी है अम्मी
कौन सुनाए तुझको लोरी, चुप हो जा... सो... जा...

बाबा तेरे पूरा हफ़्ता जागे थे
लेकिन अब वो गहेरी नींद में सोए हैं
सोए हैं वो नींद में गहेरी, चुप हो जा, सो... जा...

हाथ में उनके महेंदी रची और ना हल्दी
वक़्त से पहले बहनों ने भी रुख्सत ली
देख डगर है सूनी सूनी, चुप हो जा, सो... जा...

कल तू जवाँ होकर सब बीती बातें जाने
तेरे बिछड़े भाई कहीं तुझको मिल जाए
रात भी है आँसू में डूबी, चुप हो जा, सो... जा...

डूबा सूरज अगले दिन फिर निकलेगा
चंदा मामा सामने तेरे हंस देगा
थोड़ी रात रही है बाक़ी, चुप हो जा, सो... जा...

चुप हो जा, तू चुप हो जा, तू चुप हो जा !
तू लाल है किसका ? चुप हो जा, तू चुप हो जा !

-----------------------------
(* फसादात में सभी रिश्तेदार गँवा बैठने वाले बच्चे के लिये लोरी )
बुधिया के नाम 
    (गुजराती कविता ) 
    किसन सोसा 
   
अनुवाद :  फारूक शाह

बुधिया 1 दौड़ रहा है 
आधी चड्ढ़ी पहने 
फटे हुए तलुओं के साथ 
ज़िन्दगी की लम्बी... काली... सड़क पर... 
ठंड धूप बरसात में 
शहरों कस्बों 
गांवों गलियों में 
धीरे धीरे कटता हुआ 
'
चन्द्रनहींरोटी तक पहुंचनेपहुँचने के लिए 
रोज की आपाधापी से भरी 
लगातार दौड़ 
बुधिया दौड़ रहा है 
बहुत पीछे छूट जाते हैं 
स्कूल 
   
खेलकूद 
    
फूल... 
पंसुलियों के पिंजरे में हांफता 
तड़फड़ाता रेत कंकर में 
बीडी बनाते हुए 
कप-रकाबी धोते हुए
हमाली करते हुए
स्टेशन… बाज़ार… रेगिस्तान में भटकते हुए  
तिखारे तिखारे सुलगताबिखरताछिलता... 
ज़िन्दगी की शिवाकाशी में 
बुधिया दौड़ रहा है 

---------
1.     उड़िसा में  चारपाँच साल के बच्चे बुधिया ने 60 ने कि.मिकी
मैरेथोन दौड़ में विक्रम स्थापित किया. – एक समाचार. 

 

इको फ्रेंडली हस्तनिर्मित कागज बेचती लड़कियाँ
(हिन्दी कविता)
रंजना जायसवाल

कपड़ों की बेकार कतरनों से बना है
बिलकुल प्रदूषण-मुक्त
और सस्ता भी है यह कागज, मैडम !


बहुत मेहनत से बनाती हैं
हमारी गरीब माएं इसे
यह हमारी दाल-रोटी है
लुग्गा-कपड़ा है, मैडम !
इस पर लिखेगा आपका बच्चा
पढ़-लिखकर बड़ा आदमी बनेगा
हम तो पढ़-लिख नहीं पाए, मैडम !

मुँह अँधेरे ही निकलना पड़ता है बोरा लेकर
बदबूदार कचरे के ढेर से चुनने
कपड़ों की चिन्दियाँ
गिड़गिड़ाना पड़ता है कंजूस दर्जियों के आगे
सहना पड़ता है कईयों के अश्लील ईशारे
इन्हीं सब में निकल जाता है पूरा दिन

घर पर झाडू-पोंछा,बर्तन-भांडी
पकाना-खिलाना भी तो करना पड़ता है, मैडम !
कब जाएँ स्कूल
कैसे बनें ‘भारत की बेटी’ ?
पढ़ाई जरूरी है समझती हैं हम भी
पर रोटी से भी क्या ज्यादा जरूरी है, मैडम ?



·     रचनाओं के लिए सौजन्य : फारूक शाह

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