रोटी !
पेट के परिधि से
मेल नहीं खाता
उदर भूख प्रेम से परे
प्रेणना के गीत
गरीबी के कढ़ाई
में खौलते तेल
सरकता,पसीजता रिश्ता
रहम से जीवन बसर करता एक परिंदा
सागर के लहरों
में ज्वालामुखी
जंगल के भीड़ में
शरीर
सोहराते बरगद
बगुले के शोर
यातना के गर्भ गृह
में गाय सी स्त्री
गोल चाँद की
परिकल्पना करती
कहन से अलग
तपते सूरज सरीखे
बेलती रोटी सी कल्पना
कहाँ खो गयी
वह एक प्रियतमा
जो कभी भूख-भूख
से व्याकुल
विरह में भी
मुस्कान के गुलाब बेचती
बगुला भगत के
भाग्य से बैर ठाने
बैरी सब्जी समय
से मेल नहीं खाता
खता यह कि खत्म
होते बटुए के भात
भविष्य पर सवाल
खड़ा करते
कब्र खोदते
एक कफ़न को तरसते
उस मासूम से पेट
की खता क्या ???
कौन बताये भला
उसके परिधि के
आस्मां का अंत...!