परिधि से मेल


डॉ.सुनीता 
असिसटेंट प्रोफ़ेसर,नई दिल्ली 
18/12/2012 

रोटी !
पेट के परिधि से मेल नहीं खाता
उदर भूख प्रेम से परे
प्रेणना के गीत
गरीबी के कढ़ाई में खौलते तेल
सरकता,पसीजता रिश्ता
रहम से जीवन बसर करता एक परिंदा 
सागर के लहरों में ज्वालामुखी
जंगल के भीड़ में शरीर
सोहराते बरगद बगुले के शोर
यातना के गर्भ गृह में गाय सी स्त्री
गोल चाँद की परिकल्पना करती
कहन से अलग
तपते सूरज सरीखे बेलती रोटी सी कल्पना
कहाँ खो गयी
वह एक प्रियतमा
जो कभी भूख-भूख से व्याकुल
विरह में भी मुस्कान के गुलाब बेचती
बगुला भगत के भाग्य से बैर ठाने
बैरी सब्जी समय से मेल नहीं खाता
खता यह कि खत्म होते बटुए के भात
भविष्य पर सवाल खड़ा करते
कब्र खोदते
एक कफ़न को तरसते
उस मासूम से पेट की खता क्या ???
कौन बताये भला
उसके परिधि के आस्मां का अंत...!

एक खीझ


डॉ.सुनीता
असिसटेंट प्रोफ़ेसर नई दिल्ली
01/12/2012

मीठी धूप के एहसास में
खोये हुए अनसुने मार्ग पर चले
कांरवा साथ न था
लेकिन
उम्मीद के कई दीपक जल रहे थे
ठोकर मारते जमात को देखते हुए
दर्पण के धूल से उलझ पड़े
शिकवे की कई झाड़ियाँ लगीं
लेकिन
अनूठे जबाबों से चित्त पड़े
चतुराई ने हलके से एक गली पकड़ी
चौराहे से आँख बचाकर भाग खड़े हुए
कहीं कोई एक टुकड़ा गर्मधूप के मांग न लें
लेकिन
उसके इस भगौड़ेपन से वाकिफ
पकड़ लिया जकड़ के बाजुओं के जबड़े में
स्त्री के गाँठ बांधे आंचल के एक कोने में
जब तक जिआ उसे स्नेह के सम्मोहन के मोहपास में
गठिया लिया उस दम तक के लिए
लेकिन
उस एक दरार ने दरख्त के ऊँचाइयों से
झांकते सूरज को सूखे टहनियों में कैद कर लिया
यह कहते हुए
यह अबला के प्यार का बंधन नहीं है
बल्कि वृक्ष के जड़ों में जमे जमीं कि
सख्त पकड़ है
लेकिन
वह अनंत आसमानों में आँख मिचौली
खेलता रहा जीवन के एक हर पड़ाव से
कुछ उलहने देते हुए खीझ उठता है
मेरी फ़िक्र है किसी को
जैसे स्त्री ने चीत्कार किया हो पहली बार
एक पल को
पर्वत,पवन और पानी भी थरथरा उठे


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