जमीन के वगैर अस्तित्व !



२३ फरवरी,२०१२,नई दिल्ली.        
जमीन ऊसर हो या उर्वरक उसमें पौधों को उगते-खिलते देखा है,लेकिन बीना जमीन के पौधों को उगते-बढ़ते हुए पहली बार देख रही हूँ.बाज़ार से उसे खरीद कर लायी थी खाने के लिए लेकिन एक दिन देखा उसमें से अंकुर निकल रहे हैं.मेरा दिल उसे उगते हुए देखकर अधिक प्रफुल्लित होने लगा. जो पौधे सिर्फ खेतों में सुख बदते थे,वे आज घर-आँगन से उठकर लोगों के बेड रूम में पनपने लगे हैं.जहाँ पर किसी प्रकार की सुविधा नहीं है.वहाँ पर भी बीन खाद-पानी के लहलहा रहे हैं.उन्हें दर्द सिर्फ इस बात की है कि इंसानों के मन को आह्लादित कर रहे हैं.अपने को कष्ट देकर सबके होंठों के मुस्कान बने हुए हैं.देखने वालों के लिए प्रशंसा के पात्र भर हैं.दर्शक दीर्घा में बैठकर तालियों की गूंज का लुफ्त उठा रहे हैं.लेकिन उनके अंदर क्या टूट-फुट और मचल रहा है,इसका एहसास किसी को नहीं है.उर्जा के स्रोत,धूप के लिए तरस रहे हैं.कहाँ खुले आसमानों में अलमस्त गगन के नीचे पलक पावडे बिछाए रहने वाले पुष्प आज अपने अतीत को टटोल रहे हैं.पूरी तरह से मौन धारण किये हुए.जैसे कोई योगी अपने को साध रहा हो.कोई मठाधीश अपने मठ की गरिमा की दुहाई देकर उसे बचाए रखने के लिए हर बुराई को अपने तप के भ्रमजाल में उलझा के सुलझाने में प्रयत्नशील हो.वह स्वयं को सान्तवना दे रहे हैं.हृदय को भुलावा देकर संतोष बनाये हुए हैं.उनके विद्रोह और विरोध को कोई नहीं पहचानने वाला है.जीवन की चाह क्या है..उसे सिने में दबाए हुए हैं.देश-दुनिया के परिस्थितियों के थपेड़े में जीवट बने हुए हैं.बिल्कुल देवदारु की तरह जड़वत खड़े हैं.ऊँचे-ऊँचे शिखरों को छूती उनकी नन्हीं-नन्हीं जटाए शिव के जटाधर जैसे लग रहे हैं.उनकी पंखुडियां गंगा के निर्मल धार को सदियों से अपने में समोए हुए हैं.ताकि कभी भूख-प्यास के तड़प के करण दम न तोड़ना पड़े.अनंत काल से गिले-शिकवे से परे दिल में तसल्ली का गुबार दबाए हुए हैं.
 'देखन में छोटा लगे घाव करें गंभीरकी मुद्रा में चोट पर चोट किये जा रहे हैं.बड़ी से बड़ी आंधी-तूफान में भी उनका आत्मविश्वास देखने लायक होता है.अपने स्थान से एक इंच भी नहीं डिगते हैं.तबाही के हजारों मंजर आँखों के सामने से यूँ गुजर जाते हैं जैसे पत्तों में कुछ सरसराहट सी हुई हो.ऐसा प्रतीत होता है कि एक दिन जरुर आएगा जब हम भी आंदोलन पर उतर आयेगें और लोगों को झकझोर के हिला देंगे.उन्हें जता देंगे कि बहुत हो चूका है,सौंदर्य का प्रदर्शन और दिखावे का ढोंग इससे अब हम उब चुके हैं.हम भी कुछ मुकाम रखते हैं.अपने अस्तित्व के पहचान की शाख ऐसे ही नही खोने देंगे.फूलों की लहराती डालियाँ दिलों पर राज़ करती हैं.गुलाब,अमलतास,टेसू,कनैल,गेंदा,चांदनी से लगायत तमाम पुष्पों की अकड़ बरक़रार है.अपने सुगंध के दम पर इंसानों को अपने बस में किये हुए हैं.लेकिन याद रखो हमारी तुलना में तुम कमतर हो क्योंकि हम उंची हवेलियों से लेके झोपड़ी तक अपनी गहरी पैठ बनाये हुए हैं.गरीब का निवाला नमक के साथ  हम ही नजर आते हैं.टाटा-बिरला के घरों के आलीशान पार्टियों की सबसे बड़ी शोभा हम ही हैं.ये कभी भी मत बिसराना कि राजकुमार कह देने से तुम कुंवर नहीं हो जाओगे और ना ही किसी के गोंद में चढ़ जाने से पुत्र बन इठलाने के योग्य हो जाओगे.यह बनने के लिए अपनी एक हैसियत रखनी होती है.जो तुम्हारे पास नहीं है.हाँ ! ये बात दीगर है कि इसकी जानकारी तुमको नहीं हो पाई है.यह मुझे पता हैनहीं तो तुम मुझसे टकराने की गलती कभी न करते.अंगवस्त्रों के बगैर कवच के तृष्णा में उलझे भ्रम का शिकार हो गए हो.अब देखो न मुझे मुँह लगाने वाला भी पसंद करता है.जो ऐसा नही करता है.वह भी अतिथि सत्कार में कमी न रह जाए इस हेतु पुरजोर कोशिश में लग ही जाता है.लेकिन उसे भी मेरे हठधर्मिता का अच्छे से पता चल ही जाता है.'द्रोपदी' के चिर के मानिंद खींचते-खींचते उब जाते हैं.उघाड़ते-उघाड़ते उसके खुद के शरीर शिथिल हो जाते है.परन्तु वह अंग-भंग नही कर पाते हैं.थक हार कर अपने पलकों के चिलमन को गिरा लेते हैं.डबडबाई आँखों से एक टक निहारे जाते हैं कि बोलो! भला अब क्या करें.अंतर इतना ही है कि यहाँ बंसीबजईया का बरदहस्त हासिल नहीं है,जो लज्जा पट को बढ़ाये जा रहा है.वह छलिया मेरे किसी विपदा में काम नही आया है.यह आरोप उस पर सदैव लगेगा.    
शायद तुम भूल रहे हो तुम्हारा प्रयोग पत्थर के बने देवताओं के माथे की शोभा है.जिसे मानवों ने अपने भुलावे के लिए रच/बना रखा है.छल के बल पर दुनिया को अँगुलियों पर नचा रहे विद्वान,पुरोहितों की रखैल हो.उनका जब मन करता है जीवित लोगों के सर पर ताज की तरह सजा देते हैं.खीज आते ही पैरों से रौंद कर नामोनिशान ही मिटा देते हैं.अपने खुद के पहचान के लिए मारे-मारे फिरते हैं.सच तो ये है कि तुम्हे तुम्हारी औकात दिखाते हैं.प्राणियों की दुनिया में हर चीज मतलब के अवसर पर पूजे जाते हैं.वरना लतिया के धकियाये जाते हैं.
बंद अँधेरे कमरों में कृत्रिम रौशनी के उजालों ने सांसों में बदबू भर दिया है.तिस पर सज-धज के आती-जाती नारियों के बनाव श्रृंगार के प्रसाधनों के खुशबुओं ने जीना हराम कर दिया है.विज्ञान के अंधाधुंध अनुसंधानों ने लोगों से प्राकृतिक दूरियां बढ़ा दी हैं.ऐसे माहौल में अब हमारा भी दम घुटने लगा है.किसी अपराध के बगैर कैद किये गए हैं.'बैरम खाकी तरह 'अकबरके सिपहसलार और राजगद्दी का नुमाइंदा/सहयोगी बनने के बाद भी सर कलम किये जाने की दहसत में जी रहे हैं.किसी सूचना का संदेसा दिए बीन ही हमे काले पानी की सजा से रु-ब-रु कराया जा रहा है.यह किसी भी तौर पर न्यायोचित्त नहीं कहा जा सकता है.जो दिन दहाड़े खून-खराब करते हैं.वे खुले इंसानी सांड की तरह सम्पूर्ण विश्व में बिचरण कर रहे हैं.जबकि हमने एक तिनका भी नहीं छुआ है.उसके बावजूद सजा काट रहे हैं.इस घुटन से आज़ादी का दौर कब आएगा.यही सोच-सोच के माथे पर बल पड़ गए हैं.हृदय कल्पना के सागर में गोते लगा रहा है.काश! अटल,इरादों के पक्के,अपने घुन के स्वामी 'परशुरामके फरसे के आगे आ जाते तो बेहतर था.कम से कम 'त्रिशंकुकी तरह धरती और आकाश के मध्य में लटके हुए जीवन तो न गुजारनी पड़ती.इस चुभन भरी कंटक से तो सहज ही बच जाते.रोज-रोज कतरा-कतरा मरने से लाख गुना अच्छा है कि एक दिन काम तमाम हो जाये.वह दिन जल्द ही आने वाला है.अति का अंत सुनिश्चित है.जिसे कोई नही टाल सकता है.नियति के क्रुर हांथों में सब कुछ सुरक्षित है.'सावित्रीसरीखा जीगर रखने वाले ही 'सत्यवानको बचा सकते हैं.बने बनाये झूठेलूलेलंगड़ेबहरेकानेकुबड़े कानून के नीयम को चुनौती दे सकते हैं.वरना व्यवस्था के जकड़े सलाखों में बाकी सब तो भरभरा के ढेर ही हो जायेगे.
युगों-युगों के तपे-ताप से तपाये हुए सूरज के किरणों से निकलते प्रकाश से अपने को प्रकाशित करके दिखा देंगे.हमारे गुलामी के दिन लद गए हैं.अब हम स्वछन्द आस्मां के नीचे आज़ाद परिंदे के मानिंद मखमली बिस्तर के पास किसी को नहीं फटकने देंगे.तिनका-तिनका जोड़ के सजाये घरौंदे में पंक्षी किसी को नहीं आने देते है.भूधरा पर पड़े ओस की बूंदों से किसी को नही खेलने देंगे.उस पर हमारा सर्वाधिकार है.जिसे किसी और का नही होने देंगे.जो हमसे टकराएगा उसे हम अपने हरियाली से मरहूम कर ही देंगे.अविकल जीवन के संघर्षों ने हमें यही सिखाया है.इंसान के रूप में बुद्धिहीन लोगों की फ़ौज कतारबद्ध है.जिनके पंक्तियों को छिन्न-भिन्न करना है.वरना ये हमें अपने पैरों के तले यूहीं रौंदते रहेंगे.हमारी चीखें इनके आलीशान मकानों तक नही पहुँच पाती है.कान के पर्दों पर आधुनिक संसाधनों का बेतरतीब कब्ज़ा है.जिनके आगोश में बैठे ये अठखेलियों में मदमस्त हैं.दूर गगन के परिन्दें इनके कैद में तड़फड़ा रहे हैं.लेकिन उनकी निगाह में इनकी तकलीफ नहीं चढ़ती है.बोतल के नशे में धुत्त उन्हें सब कुछ बहुरंगी,खुशहाल और खुबसूरत ही दिख पड़ रहा है.मानवीकरण की दुनिया दिनों-दिन विलुप्त हो रही है.कमोवेश उसके कगार पर खड़ी है.  
अफसोस होता है दरिंदगी को देखकर.'कबीरा खड़ा बाज़ार में,मांगे सबकी खैरकी बातें दूर-दूर तक नजर दौड़ाने पर दिखाई नहीं देती हैं.जब हम विकास के मुद्दे की बात करते हैं.यह सब एक छलावा लगता है.जबकि सभी जन अपने में मशगूल दुनिया को ठीक से चलाये जाने के भुलावे में जी रहे हैं.इनको अभी अच्छे से आभास नहीं है कि हमारी भूमिका कितनी महत्वपूर्ण है.शुद्धस्वच्छ और शीतलता मेरे से ही बरक़रार है.कुछ पोंगापंथी हमें ताप्सी मानकर परहेज करते हैं.घृणा के आँखों से तिरष्कार करते हैं.अपने मन के अंदर बैठे पाप को शब्दों से धो के खुद को पवित्र बताते हैं.जबकि बमुश्किल एक कदम दुरुस्त रखते हैं.उन्हें बुधि-विवेक मुफ्त में मिल गया है.इसलिए शेखी बघारते हैं.ज्ञान के घमंड में चूर हर किसी का अपमान करते हैं.यह भूल जाते हैं कि सृष्टि पर मौजूद कीड़े-मकोड़े से लगायत पेड़-पौधों और पुष्पों का अपना एक अस्तित्व है.उनकी अपनी एक सत्ता है.जिस झुठलाया नहीं जा सकता है.जहाँ काम 'सुईका है वहाँ 'तलवारका कोई औचित्य भले न हो,किन्तु तलवार के स्थान पर सुई का भी कोई मतलब नहीं है.ठीक वैसे ही हर चीजवस्तुप्राणी का अपना एक इतिहास और भूगोल है.जिसे हम नकार नहीं सकते हैं.
डॉ.सुनीता 
           

हक की लड़ाई

देखो वह रात रूपी सुन्दरी
      ब्रह्ममान्ड के सरोवर में नहा रही है
मुस्कुराती,सकुचाती,कुछ लजाती सी
       देखो कैसे उतरी है धरा पर
धीरे-धीरे पायल छनकाती
      इस शाम की गोधुली बेला में
तन-मन को रिझा के बुला रही है
      अपने यादों के पहर में खो गयी है
खुद पर इठलाती हुई हमे सुला रही है
       इसके बातों में आके,सितारे झिलमिलाये हैं
सजा-संवार के सपनों के राजकुमार से मिलवा रही है
       ललाट पर सजी ओस की नाजुक बिंदिया
सौंदर्य को निखार के मनमोह रही है
        एक अलग ही शमा जल रही है
तरंगित होकर जीवन को झूला रही है
        सजगता,गम्भीरता का चादर ओढ़े स्वयं
रजनी-सजनी अपनी रूप निहार रही है
        कमर मटकाती ठुमुक-ठुमुक साज बजाती है
हौले-हौले पगडंडी पकडे चली जा रही है
        उषा के इस शांत पहर में अजीब ख़ामोशी छाई है
कहीं दूर आसमान में पौ फटती दिखाई दे रही है
        निकली हैं किरने,भागी,दौड़ी,शोर मचाती
नीरव बन फिर भी शांत नही शोख चंचल हैं
        मिलना चाहती हैं अपने प्रियतम सूरज से
देना चाहती हैं अपने अस्तित्व को एक आधार
        करना चाहती हैं पूरा अपना अरमान
अथाह,गहरी है उसकी सम्बेदना
        सदियों से एक दूसरे के दिलों में लौ जैसी जल रही है
मज़बूरी है परिस्थिति और समय की
       जिससे लड़ न् पाए हम अपने हक की लड़ाई...
                                           डॉ.सुनीता
        

लिप्सा में लिप्त अन्यायी मन

     देहरी पर दस्तक देती शाम की सुरमई यादें,अतीत के चिलमन से झांकती बातें हृदय को बांध देती हैं.जब भी झरोखों के पार देखा मन में हलचल बार-बार मची फिर भी मन नही मना उसी को निरखता रहा.काश ये न किया होता,वो न घटा होता तमाम ऐसी बातें बरबस ख्यालों में बसे बैठे हैं.जिनकी छाँव में मन हल्का हो जाता है.लेकिन कभी-कभार उसी के आगोश में समा के दिन-दुनिया से बेखबर भी हो जाता है.परन्तु एक आध बार उसके सुगबुगाहट से व्यथित भी हो जाता है.किसी के लिए ये यादें अनमोल हैं तो किसी के लिए दर्द,जख्म,टीस,तडप, झडप और कसक है.जिसके नाम से ही रूह थर्रा उठता है.फिर भी हम जाने-अनजाने उसी के पास मंडराते रहते हैं.
     इन्ही सपनों के जहान से अपना भी गहरा रिश्ता है.खोज-खबर से परे बेखबर लोगों की पड़ताल आदत सी बन हुई है.हर दिन,हर रात सबके लिए अलग-अलग माहौल ले के आती है.कोई गाता-गुनगुनाता है,कोई सपनों के पंख लगा के उड़ जाना चाहता है,कुछ लोग अपने में ही खोये जहाँ से उठ जाना चाहते हैं.वहीं कुछ इतिहास का हिस्सा बनकर इतराना चाहते हैं.झुग्गी-झोपडियों में दिन बसर करने वालों के आँखों में भी चमक होती है उजाले के साथ गुम हो जाती है.खिड़कियों से झांकता उजाला हकीकत से रु-ब-रु कराता है.जैसे ही सच्चाई से वास्ता पड़ता है.भरभरा के सारे ख़्वाब धरासाही हो जाते हैं.छुटपन में मैंने देखा था एक बच्चे को बिलखते हुए.उसकी चीख आज भी कानों के परदे से चिपके पड़े हैं.जानते हैं क्यों,क्योंकि उसे किसी और ने नही बल्कि अपने ने ही छला था.उसे एक दरिंदे बहेलिये के हांथो बेच दिया था.परिस्थितयां इंसान से सब कुछ करवा लेती है.हम न चाहते हुए भी गुनहगार बन जातें हैं.ऐसा ही उसके साथ भी हुआ.एक बाप ने अपने बाकी के औलादों के भविष्य को सुनहरा बनाने के लिए उसे बेदी पर चढा दिया था.सिला बना के पूजने की लिए दुनिया के बाज़ार में तन्हा छोड़ दिया.दया पात्र बनते-बनते जाने कब वो सब दरिंदा बन बैठे...
     यह घटना सन १९९४ बे की है.परम्परागत सोच से कैद लोग फैसला भी उसी के माकूल लेते हैं.क्षितिज पर दर्ज हलफनामे को नही मानते हैं.वह सिर्फ वह सुनते हैं जो सदियों से चली आ रही रीतियाँ हैं.उसके पार जाके झांकने की जरुरत नही समझते हैं.इन्ही खुम्चों से दो-दो हाँथ करते हुए,कोनों से टकराते हुए,उन लोगों ने भी अपने दिल के टुकड़े को भेंट चढा दी.आस्था के नाम पर कई बार बलि होते न जाने कितनों को हमने अपने निगाहों से देखा है.हृदय को बेधती,चीरती और टटोलती आवाजें आज भी दिन के उजाले में भी डरा जाती हैं. लकलकाती जेठ की दुपहरी में उसके कोमल बाजुओं को थामे हुए.अपने साथ ले जाते हुए.एक पिता की नामाकुल तश्वीर उभरती है.वह एक मजबूर पिता नही है,बल्कि लिप्सा में लिप्त एक अन्यायी है.जो अपने ही हांथों से अपने आसियाने में आग लगाये हुए है.'वह उसे यह बोलकर ले गए की हम तुम्हें सर्कस दिखायेंगे'.
बचपन तो खेल-खिलौने में ही मगन रहता है.उसे दुनिया के शातिर चालबाजियों से क्या लेना देना है.उसके नज़र में पिता सिर्फ पिता है.शायद सभी के लिए घर के लोग अपने सगे और अज़ीज़ होते हैं.सच तो यह है कि उसने कोई तमाशा देखा की नही,बल्कि एक हिस्सा जरुर बना दी गयी.वो तो पता नही...लेकिन खुद जब लौटे तो गांव में एक तमाशाई बन चुके थे.उनके पद्चाप से पहले ही उनकी करनी पहुँच गयी थी.उस चंचल तितली को उन्होंने अब के वाराणसी तब के बनारस में औने-पौने नहीं बल्कि कोरे-कोरे दामों में बेचा था.जिसके बूते अपनी दो माले की मकान खड़ी की.बेटे को जी भर पढाया.उसे काबिल बनाया.लेकिन इस काबिल न बना सके की बुढ़ापे में उनकी ऊँगली थाम सके.
     जिसको अपना मांस और खून का मज्जा पीला कर पाला-पोसा था उसे अपने से अलग करते हुए उनका मन एक बार भी नही थिरका होगा यह सवाल आज भी दिल-दिमांग में कौंधता है...??? उठते-गिरते ज़जबातों के परदे से लहराती यादें अब भी ऑंखें नम कर जातीं हैं.शायद उनके दिल के किसी कोने में महफूज चंदा आज भी उन्हें रातों को तडपती होगी.इसमें जरा भी शक नही है...नून-रोटी से आगे की लालसा और लालच ने सीधे-सादे पिता को एक कस्साई बना के समाज में रख दिया.इसका दोस् किसे के सर मढ़ा जाये.ईश्वर के या इंसान के खुद के बनाये हुए मकडजाल को ठहराया जाये.पूजा,श्रद्धा,आस्था और धर्म के आड़ में कितने कुकर्मों को सरे शाम अंजाम दिए जाते रहे हैं.उस पर आपत्ति के एक भी कुलाचे नही चलते हैं.
     पूँजीवादी मनोवृति ने मानव के सोचने की क्षमता को कैद कर लिया है.इसी के शिकार होकर उन्होंने भी एक घिनौना फैसला ले ही लिया.उपभोक्ता मन ने एक बार भी नही धिक्करा की ,हे ! प्राणी क्या करने जा रहे हो...?
हम पूजा के नाम पर काम तमाम करते हैं.एक बार भी नही झिझकते हैं.फिर अच्छे कर्मों को लेकर इतना भयभीत क्यों रहते हैं.ईश्वर के बनाये नीयम को अपने बुद्धि की दम पर धता बताते हैं.
       मानव कि बलिहारी हो....
जय भोले भंडारी...
                           डॉ.सुनीता 

दौरों का दौर


चुनावी भीड़ में जोश सबाब पर है 
देखना अब क्या जबाब मिलता है 
आस्तीन के मुठ से निकलते वोट 
हृदय को चिरते हुए घाव भूले नही हैं.. 

              कल तक तुम एक हठी राजा थे 
              हम आज प्रजा के सच्चे स्वामी हैं 
              बन्दुक के नोक पर लोगे अपना हक 
              जोर है बाजुओं में रोक के जताना है.. 

वक्त के सिला पर सब सुरक्षित है 
दिल के चोट को मरहम की तलास है 
आये हैं,मदाड़ी बनके,उन्हें झुठलाना है 
दर्पण से,खुद के चेहरे का नकाब हटाना है..

              सियासत के खुनी रंग को मिटाना है 
              अतीत के झुरमुट से चंद लम्हें चुराना है 
              उनके साये में भविष्य नया बनाना है 
              कोई रोक न पायेगा ऐसा तीर चलाना है..

अपने अधिकारों के दम पर 
जीवन की दिशा घुमानी है  
बहुत बन चुके फरियादी
अब हक के बुलंदी की परचम फहरानी है..

             दूर हटो ये लालच के पहरुओं 
             हमें खुद को आजमाना है 
             रो-रो के सिसक-सिसक के नही
             हँसते-गाते काटों में फूलों की राह बनानी है.. 

झूठे वादों के झूले चुके हिंडोले 
छल के मग पर बहुत चल चूक 
खुद के बूते अपनों को मुकाम दिलाना है 
कंधे-से कंधे मिलाके हर बोझ उठानी है..
                               डॉ.सुनीता 

गाते-लहराते सपनीले यादों की बातें...!!!

            'मीत'

आंसू अपने गहरे मीत हैं
   तन्हाई के खूबसूरत मनप्रीत हैं
         गम-खुशी में आते-जाते हैं
             बीन कहे दर्द को झलकाते हैं...
अपने छत्र-छाया में सबको नहलाते हैं
    बचपन के किलकारी में मदहोश बनाते हैं
         जवानी में बहका के बेहोश कर इठलाते हैं
              माँ की ममता से लिपट दुनिया भूलाते हैं...
गहर में गहन के साथी बन मुस्काते हैं
      अतीत-वर्तमान के पहलू में इतराते हैं
            दामन से उलझ उलझन को सुलझाते हैं
                  बाप के कंधे पर बैठ जहाँ में परचम फहराते हैं...

              'बोल'
बोल कपोल के कंचन काया
       ममता की है गहरी छाया
रूप-सरूप के विकट माया
       चंद-छंद के अदभुत साया
राग-विराग की महिमा भारी
        पंच-प्रपंच के उत्कट न्यारी

                  'सूरज के बहाने'
अक्सर यूहीं बैठे-बैठे उलझ जाती हूँ
      कभी-कभी सोचती हूँ काश पंख होते
            उड़ जाते गिन आते गगन के तारे
                नाप आते आसमा के दिन-पहर
                     नील गगन के छाँव तले उठती तरंगे चुनती
                          बुनते सपने रंग-रंगीले जैसे नवरंग
                               उड़ जाती छोड़ धरा को छू लेती सूरज को
                                    उसके हांथों को सहलाती और गले लगाती
                                         ललाट चूम कर एक बचकानी सवाल पूछती
                                               तु सदियों से तपता,जलता,कुढता क्यों है..?
मेरा दावा है वो घबराएगा फिर मुझपर चिल्लाएगा  
       तुमको किसने छल के बल पर तपिस सिखाई
             सुनते ही झल्ला के आँखें तीखी दिखलाएगा
                    मुझे दो उसका अता-पता मैं उसे लपेटूंगी
                           वाग्जालों में उलझा के अकड निकालूंगी
                                 तेरे टूटे-विखरे तारों को समेट के मिलवाउंगी
                                       जो हमे डराने आयेंगे उन्हें गाने-तराने सिखाएंगे
                                             हे दूर के वाशिंदे...अब मान भी जाओ
                                                  अपने निर्मम तेज को छोड़ शीतल बन लहरोंओ...!
                                                                                             डॉ.सुनीता 

अनुत्तरित...,कोताहियों का सिला...!!!

     कोताहियों का सिला
                  
हमारी कोताहियों का सिला है
    ये प्रचंड धूप जो हमें मिला है
उजाड रहे हैं बाग़-बगीचे
    प्रकृति रुष्ट है हम सबसे
टूट रही हैं सारी वर्जनाएं
     बिगड रही है भविष्य की सम्भावनाएं
आज तो फिर भी ठीक है
     कल की चिंता सता रही है
हमारी करनी हमें ही सिखा रही है
      करुण-क्रंदन से प्रकृति जगा रही है
छाया में पले बढ़े हैं फिर भी अनजान
      स्वार्थ में अंधे हो करते हैं मनमान
अपने किये की ये सजा है
      नीर बीन जीवन में क्या मजा है
तब भी चेत नही रहे हैं हम
      एक-एक इंच जोड़ रहे हैं हम...!!!
                                                               
                                                                   अनुत्तरित...

                                                       दलित देश के ललित श्रृंगार हैं
                                                       दौलत-वैभव,जग में आपार है
                                                       फिर क्यों ?
                                                       सौतेला व्यवहार है
                   
                                                       अवसर के होड़ में खड़े हाशिए पर तमाम हैं
                                                       आते-जाते दौर में उठती बातें आम हैं
                                                       फिर क्यों ?
                                                       झोली में आती उपेक्षा के कतार हैं

                                                       धर्म,जाति-पाति,प्रान्त के नाम पर
                                                       काट-बाँट रहे हिस्से हजार हैं
                                                       फिर क्यों ?
                                                       नित्य-प्रति हमी पर होता अत्याचार है
                                                     
                                                       किसको मिला,क्या ओहदा,कौन यहाँ क्या है?
                                                       जिसे बयां करते लोग अपने अनुसार हैं
                                                       फिर क्यों ?
                                                       विराम न लगा,जो दुर्व्यवहार है

                                                       चिंता-चिंतन के उठते मुद्दे रोज़ हैं
                                                       निर्णय लेते कूपमंडूक,गढते झूठे मिथक आज है
                                                       फिर क्यों न ?
                                                       कचोटे ये सवाल जो बने नासूर हैं...!!!
                                                                                                            डॉ.सुनीता

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