जीवटता को सलाम


22 अप्रैल 2003 को सोनाली मात्र १७ साल की एक सुंदर युवती थीं.एक रात कुछ मनचलों ने उनके उपर तेजाब फेक दिया.जिससे चेहरे के साथ आँख भी जल गये.वह जीवन से हार गयीं.इच्छा मृत्यु की मांग करने लगीं.लेकिन एक दिन ऐसा आया जब वह अपने जीवटता से सारे देश में एक मिसाल बन बैठीं.उनके जले चेहरे बेहद भयावह लगते हैं.पुराने-परचित लम्बें अंतराल के बाद देखें तो उनके लिए पहचानना मुश्किल हो जाता है.उनके इस युद्ध को सलाम करते हुए.उन्हें ही समर्पित..!






डॉ.सुनीता


सहायक प्रोफ़ेसर,नई दिल्ली  
19/11/2012  


4:48



तेजाब के तेज को हर लिया 
हौसलों के ऊँची उड़ान ने 
दम तोड़ दिया व्यवस्था ने 
व्याकुल लोग देखते रहे 
वह निकल पड़ी दुनिया के आकाश में 
आँखों में मोती लिए दर्द के 
हृदय में कसक लिए जन्म के मर्म की
मुस्कुराती संध्या को सुंगंध दे गयी
एक अमर किला की महरानी
झूठे,पापियों और पाखंडियों को लताड़ के
लहू के टुकड़ों को रौंदें हुए आंचल में सम्भाले
अनंत यात्रा के उम्मीद में रात-दिन जली
जख्म को फूल की माल मानकर
मस्तक पर पड़े सिलवटों को झाड़कर
झांकते झुरियों को यातना के गृह में उतारकर
अभिशाप देती,दिला दी एक नये युग को सीख
पल-पल सोखते रक्त को हरा दिया
हौसले से मिशाल का एक इतिहास रच दिया
युगों-युगों से छाये अनहोनी आडम्बरों के बादल
आज बरस पड़े बिन बदली के मूसलाधार
धरा दरक उठी असीम पीड़ा के चीख से...

देह के अनंत आकाश


डॉ.सुनीता
सहायक प्रोफ़ेसर,नयी दिल्ली
15/11/2012

स्त्री देह के अनंत आकाश में
हलचल मचाते तड़पते सपने
भ्रमर करते मानव रूपी भौरे
उलझे-उलझे से उलझन बन उलझाते
भ्रम के बादलों को चीरता एक तन्हा चाँद
घुप्प अन्धेरें में घूमते अस्तित्व तलाश में तारें
भ्रमण को निकले इन तितलियों पर
मंडराते.इतराते.इठलाते इकलौते सवाल
सृजन के सांध्य बेला में गुनते हुए
गगन पर छाये पुष्प पुंज में ढले ये ठलुवे
गुथमगुथ्था किये देह के दर्दिले रेसों में
हौले से पीड़ा के अध्याय लिखते लहू
छलना-ललना के रूप रंग दिखाते
दस्तक देते नन्हे समय भूगोल
प्रत्यक्ष प्रतिकार के शब्द से अनजान
धरा के गोलाई धारण किये शरीर
एक नये आकार-प्रकार लेते जीव से
मचलते रूह में पले ख़्वाब पल-पल देखे
हासिये पर पड़े रोयें रोते-रोते एक रुख लेते
वक्त से पहले रुखसत होते हुए आगे-आगे
चल पड़े उपेक्षा के कटीले व्यंग भरे बाण समेटे
अंधी भूख की अनचाहे उत्कट लालसा
लघु रूप संवारें लक्ष्य भेदते छुवन के आकर्षण
नैनों के कठोर,कुरूप पिपासा को लक्षित कर
निगाह गड़ाए गेहुआं स्वरूप को कनखी से निहारते
टटोलते रक्त मज्जा के बिछुरे रिश्ते
दरकती आहें अरमानों के जठराग्नि में जले
जब-जब देखें देह के अंतर में बाहर भेडिये दिखे
(अधूरी)



भूली-बिसरी यादें




डॉ.सुनीता
सहायक प्रोफ़ेसर,नई दिल्ली
११/११/२०१२
२:४८

धुंधली सी यादें कराह रहीं कानों में
करुणा के सागर बह चले आँखों में
पिछले दरवाजे से खुले कुछ एक पल
ऐसे लगा जैसे बजे पायल की छम
शब्द बोलने लगे भाव खेलने लगे
जब हौले से पलकें खुलीं
घास फूस के बिछावन मिले
बाधी के टूटे-फूटे विस्तर
दूब के तकिये और लाला पानी
ढिबरी की टिम-टिम टहकार
पंक्षियों के मधुर कलरव अपार
मुग्ध मनोहर कोमल पत्तों के झिलमिल हजार
ठूठे से मड़ई सरीखे महलों सा घर
जहां दीमकों का आठों जाम लगे रैनबसेरा
इस भयावह चित्रों में अंधकार के साथी अनेक
चुने तिनके से लगे भीड़ में तब्दील तारें
बरकत के याद में गुजरे एक-एक दिन
हाड़ कंपाते सर्दी को देते मात
मिट्टी के दीपक उजाले बाटें पलछिन
अतीत में बैठे कुछ सुहाने से गीत
इनार के किनारे बैठे बाचें पुरखे-पुरनिए चौपाई
महफ़िल के वो दिन दीखते हैं यादों के जंगल में
रोशनी से नहाये युगों में हम भटक गए
भावना के भोग में भूल बैठे अनमोल कतारें
कतरनों को मोड़-जोड़ करते थे बेंवत
वक्त से पहले हो जाते थे बड़े
सिकुड़ के निहारते चाँद कब हो उजाला
चल देते थे लेके फावड़े,फरहर,फुर्र
त्योहारों के रुनझुन में मगन मन बावरा
कभी-कभी गुनगुना लेते थे मीठे संगीत
सुमन बेचते सपने में नजर आते थे रोज़
राज बन गए हैं वह सुरीले दिन
भूली-बिसरी यादों के दरीचे खुले
अचानक से एक आंचल लहराया
आगोस में समाएं दुआयें दर्पण दिखायें
बल्ब के आगे बठे हैं सब चौंधियाए
आज भी पर्वत के उस सघन छावं में
कुछ चमक रहा दीये सा
किसी अपने के इन्तजार में
लेकिन आवक की खबर नहीं मिली
मीलों फैले मरुस्थल में मन मसोसे है कोई
एक ध्वनि धुन में गुमसुम गोहराती उठी
देखो आ गयी बिजली बेमुराद
मगर दिलों में जमें लाखों गुबार
जग-जग के जाल में जाम उठाये हुए..
(अधूरी)

 
 




लोकप्रिय पोस्ट्स