कुछ बदला है...?


आज पढ़ते हैं बांग्ला में लिखी कुछ बेहद भावुक कर देने वाली अभिव्यक्तियाँ और उनके अंदाजे बयां....

पांच कविताएं
कल्याणी ठाकुर
बांग्ला से अनुवाद : जितेन्द्र जितांशु

 *
प्रतिज्ञा

चाँद डूबने के बाद
मरे आदमी
जाग उठते हैं चराचर साथ
नील आकाश की रेखा पार
सुबह के सूरज ने अम्राण कोशिश की
उदय होने की

शान्त रात गुजरने के बाद
जीवन में पाने का विचार
नहीं पाने का हिसाब लगाकर
घूम कर सो जाती हूँ
और दुसरे दिन न जागूं
ऐसी प्रतिज्ञा में
हर रात मैं तकिया भिगोती हूँ
 

*
तंग
सूअर के बच्चों ने
कुत्तों को दौड़ा दिया
हाथी के पीछे
हाथी चुपचाप रास्ते पर चलता
वह एकदम घुमते ही
सूअर के बच्चे समझ गए
विपदा के साथ
उन्हों ने कुत्ते के पट्टे को खींचा
सब चुपचाप हो गए
बस इसी तरह सूअर के बच्चे
अपने पालतू कुत्तों से
हाथी को सदा करते हैं तंग
*
छीटमहल की कन्या

कोई देश नहीं
नहीं कोई पताका मेरी
छब्बीस जनवरी को
कोइ झंडा नहीं फहरता

मैं बांसकटे छीटमहल से आई कन्या
विभाजित बंगाल की सीमा
न पूरब न पश्चिम
खड़ी कहती :
मेरा कोई वोट नहीं
न है कोई राजा
रोटी मां, टूटी मां
उधर धर्म की धौंस
इधर गैर-नागरिक
बीच में मैं

छीटमहल की कन्या बोलती :
मिट्टी को जोड़ दो
खोल दो कांटेदार तार
अन्यथा बना दो बस्ती
हर हाथ में दे दो पताका 
 *
मेकेनिकल

आवेश के
गहरे क्षणों में
किसी ने कहा :
रोओ मत, मेकेनिकल बनो

आत्म-ग्लानि से भर कर
ख़ुद को थप्पड़ मारती कहती :
मेकेनिकल बनो
बी मेकेनिकल ! 
*
जा रही हूँ

छोड़कर जा रही हूँ
यह जल-जंगल
जंगल के लोग
एक वन-पथ छोड़
और दूर कहीं अपने लोगों के पास
मनुष्य बहाते पसीना-खून
सदियों से अवहेलित पितृपुरुष
कुपोषित संतानें
संतानें जो मेरे भाई-बहन
उनके नजदीक
मैं चली जाऊंगी
चार नदियाँ
पांच जनपद छोड़




रचनाओं के लिए सौजन्य : फारूक शाह

रंग कई दर्द एक...!!!


आया है हमारे हिस्से
(हाशिए के धरातल से कुछ कविताएं)
बिना बाड़ का खेत
                                       (गुजराती कविता)                                                                                                               
                              लक्ष्मण परमार
अनुवाद : पारुल सिंह  
भाई, 
मेरा देश 
मतलब बिना बाड़ का खेत
 उसकी चारों ओर  घास बनकर ऊगते हैँ 
पक्षों के वचन अब तो रिश्वत 
और सिफारिशों की झंखाड़ फूट पड़ी है 
भ्रष्टाचार की बालियों पर सिफारिश के दाने पक गये हैं
बिजूका चूपचाप देखा करता है 
वह भी चोर बन गया है 
क्या ? 
उस गांधी की प्रतिमा की तरह स्तब्ध बनकर खड़ा है 
वह उस पर उड़ते हैं
शोषण के पक्षी 
मेरे बैल के मुँह 
पर मुसीका बँधा है 
अब कटाई का समय  गया है
चल भाई चल 
मेहनतकशों को जोतकर काट देते हैं...

स्थिरता
(पंजाबी कविता)
सिमरजीत सिमी
अनुवाद : फारूक शाह

यूं उदास न हो
एरे मन के मीत !
ढह जाएगी
ये जात-पांत की दीवारें
उखड जाएगी जड़ से

तू खुश हो कि हमें
हटाना है मंजिल के रास्तों से
काँटों को
मिटाना है जीवन के पन्नों से
कुप्रथाओं को

वो सब करना
आया है हमारे हिस्से
फिर यह उदासी क्यों ?
हमें उदासी नहीं
जरूरत है स्थिरता की

किसान
(कन्नड कविता)
महादेवी कणवी

युगों युगों की
शृंखलाओं से बंधा हुआ
कर्ज़ की बेड़ियों से जकड़ा हुआ
मौत के मुँह में पड़ता
मालिक को पालकर मरता
देश का प्राण
यह किसान...

जली हुई भावनाओं में
सूखी हुई इच्छाओं में
मरे हुए सपनों में
मरघट बना हुआ
कौर के लिए तरसता
दूसरों के पेट भरने वाला
देश का प्राण
यह किसान...

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(* कवयित्री द्वारा अनूदित )
अपनी मिट्टी
(मलयालम कविता)
के. के. एस. दास
अनुवाद : गीता एन. पी.


नरक की छाती फाड़कर
एक चिनगारी – कंटीले पौधे के फूल
फेंक देता हूँ
अपने बपौती धर्मशास्त्रों के सर पर
पीढ़ियों के सीमा–पत्थरों को तोड़
पितृभूमि के ह्रदय में
मैं जन्म लेता हूँ
आर्य भारत के भी पार
अनार्य गोत्रजों का अहुरा मकान –

उस मिट्टी पर खड़ा हूँ
जहां से आदिम गोत्रजों का
घरौंदा छीना गया था

मुस्कराती खोपड़ियों
बोलती हड्डियों के साथ
सह गोत्रजों के कारागार की और
भाग जाता हूँ मैं
चोट चोटों को चूमती हैं
जंजीरों के दागों का बसन्त
‘पाण’1 के पुराने गीतों में
खेतों के पुले 2 गीतों में
महरों की कहावतों में
समूह नर्तन करता है

कालकूट पी जिन्होंने काल को जीता है
उनकी कविता बिजली की है
एक ही जनता
एक ही राष्ट्र
एक ही राष्ट्रीयता
जातिहीन जातियाँ
वेदहीन मानवों !
अनात्म समर्पित मृत्यु
स्वतंत्रता का संस्कार है

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1.  केरल की गायक जाति – धुनिया
2.  एक अनुसूचित जाति


चुप हो जा
(उर्दू कविता)
शकील क़ादरी


चुप हो जा, तू चुप हो जा, तू चुप हो जा !
तू लाल है किसका ? चुप हो जा, तू चुप हो जा !

आग के शोले बात बताते है सच्ची
परियों वाले देश सिधारी है अम्मी
कौन सुनाए तुझको लोरी, चुप हो जा... सो... जा...

बाबा तेरे पूरा हफ़्ता जागे थे
लेकिन अब वो गहेरी नींद में सोए हैं
सोए हैं वो नींद में गहेरी, चुप हो जा, सो... जा...

हाथ में उनके महेंदी रची और ना हल्दी
वक़्त से पहले बहनों ने भी रुख्सत ली
देख डगर है सूनी सूनी, चुप हो जा, सो... जा...

कल तू जवाँ होकर सब बीती बातें जाने
तेरे बिछड़े भाई कहीं तुझको मिल जाए
रात भी है आँसू में डूबी, चुप हो जा, सो... जा...

डूबा सूरज अगले दिन फिर निकलेगा
चंदा मामा सामने तेरे हंस देगा
थोड़ी रात रही है बाक़ी, चुप हो जा, सो... जा...

चुप हो जा, तू चुप हो जा, तू चुप हो जा !
तू लाल है किसका ? चुप हो जा, तू चुप हो जा !

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(* फसादात में सभी रिश्तेदार गँवा बैठने वाले बच्चे के लिये लोरी )
बुधिया के नाम 
    (गुजराती कविता ) 
    किसन सोसा 
   
अनुवाद :  फारूक शाह

बुधिया 1 दौड़ रहा है 
आधी चड्ढ़ी पहने 
फटे हुए तलुओं के साथ 
ज़िन्दगी की लम्बी... काली... सड़क पर... 
ठंड धूप बरसात में 
शहरों कस्बों 
गांवों गलियों में 
धीरे धीरे कटता हुआ 
'
चन्द्रनहींरोटी तक पहुंचनेपहुँचने के लिए 
रोज की आपाधापी से भरी 
लगातार दौड़ 
बुधिया दौड़ रहा है 
बहुत पीछे छूट जाते हैं 
स्कूल 
   
खेलकूद 
    
फूल... 
पंसुलियों के पिंजरे में हांफता 
तड़फड़ाता रेत कंकर में 
बीडी बनाते हुए 
कप-रकाबी धोते हुए
हमाली करते हुए
स्टेशन… बाज़ार… रेगिस्तान में भटकते हुए  
तिखारे तिखारे सुलगताबिखरताछिलता... 
ज़िन्दगी की शिवाकाशी में 
बुधिया दौड़ रहा है 

---------
1.     उड़िसा में  चारपाँच साल के बच्चे बुधिया ने 60 ने कि.मिकी
मैरेथोन दौड़ में विक्रम स्थापित किया. – एक समाचार. 

 

इको फ्रेंडली हस्तनिर्मित कागज बेचती लड़कियाँ
(हिन्दी कविता)
रंजना जायसवाल

कपड़ों की बेकार कतरनों से बना है
बिलकुल प्रदूषण-मुक्त
और सस्ता भी है यह कागज, मैडम !


बहुत मेहनत से बनाती हैं
हमारी गरीब माएं इसे
यह हमारी दाल-रोटी है
लुग्गा-कपड़ा है, मैडम !
इस पर लिखेगा आपका बच्चा
पढ़-लिखकर बड़ा आदमी बनेगा
हम तो पढ़-लिख नहीं पाए, मैडम !

मुँह अँधेरे ही निकलना पड़ता है बोरा लेकर
बदबूदार कचरे के ढेर से चुनने
कपड़ों की चिन्दियाँ
गिड़गिड़ाना पड़ता है कंजूस दर्जियों के आगे
सहना पड़ता है कईयों के अश्लील ईशारे
इन्हीं सब में निकल जाता है पूरा दिन

घर पर झाडू-पोंछा,बर्तन-भांडी
पकाना-खिलाना भी तो करना पड़ता है, मैडम !
कब जाएँ स्कूल
कैसे बनें ‘भारत की बेटी’ ?
पढ़ाई जरूरी है समझती हैं हम भी
पर रोटी से भी क्या ज्यादा जरूरी है, मैडम ?



·     रचनाओं के लिए सौजन्य : फारूक शाह

बहु-भाषी कविताएँ...!!!



आभास मिल गया है

(हाशिए के धरातल से कुछ कविताएं)

हमारा भी सूरज
   (बांग्ला कविता) 
       झुमा मंडल
          अनुवाद : कुसुम बांठिया

आभास मिल रहा है
ज्वलंत सूर्य का
बाबा से जब भी कहा है
'
अपनी बातें बताओ ना,
बचपन की बातें... '
बाबा सुनाते हैं बादलों की बातें :

'
उन्होंने ढाँक रखा था सूरज को
उनके नाखूनों में था सत्ता का विष
थे बड़े बड़े ताकतवर हथियार
और मोटी मोटी सख्त चमड़ी में
लोलुपता का मिश्रण
सूरज को ढाँक रखते थे वे ।'

'
बाबा, तब तो तुमने
सूरज को देखा ही नहीं होगा !'

'
ना, हमारा भी एक सूरज है
उस सूरज में तेज़ी है
वह दरका देता है
मोटी सख्त चमड़ी को
उस सूरज में दीप्ति है
अपनी महिमा से पूर्ण
वह दावा जताता है
वह सूरज प्रखर है
वह छीन लेता है अधिकार...'

'
बाबा, तुम्हारा बादल-दल
विलीन हो गया है
आभास मिल गया है मुझे
ज्वलंत सूर्य का  '



शांति पुरस्कार
( गुजराती कविता )
सत्यम् बारोट
अनुवाद : फ़ारूक शाह



मनुष्य जब तक मनुष्य है
तब तक उसे
शांति पुरस्कार दे देना चाहिए

जिद्दी बालक
घर की गोर खोद डाले, उससे पहले
उसे शांति पुरस्कार दे देना चाहिए

मजदूर का
पसीना सूख जाये, उससे पहले
उसे शांति पुरस्कार दे देना चाहिए

इन्सान
खंजर बन जाये, उससे पहले
उसे शांति पुरस्कार दे देना चाहिए

बच्चा बड़ा आदम बने,  इससे पहले
उसे शांति पुरस्कार दे देना चाहिए

आदमी
आतंक बने, उससे पहले
उसे शांति पुरस्कार दे देना चाहिए

मानव की मानवता
मर जाये, उससे पहले
उसे शांति पुरस्कार दे देना चाहिए

खिलौना
बम बन जाये, उससे पहले
उसे शांति पुरस्कार दे देना चाहिए

बोरियाँ उठाने वाले
उस मजदूर की पीठ
फट जाये, उससे पहले
उसे शांति पुरस्कार दे देना चाहिए

मनुष्य के हृदय का प्रायश्चित
कायमी भूल बन जाये
उससे पहले
उसे शांति पुरस्कार दे देना चाहिए


छीन लेता है
(उर्दू कविता)
वसीम मलिक

दिलों से प्यार, आँखों से उजाला छीन लेता है
सियासी नफरतों का ज़हर क्या-क्या छीन लेता है

जिसे बादल समझकर पूजते आए हैं बरसों से
वो रेगिस्तान है, प्यासों से दरिया छीन लेता है

मियां, हम भी कभी तहजीब की पहचान थे, लेकिन
यह पापी पेट जीने का सलीका छीन लेता है

यह कैसा धर्म का पैगाम है, यह कैसा मज़हब है ?
पड़ोसी से पड़ोसी का रिश्ता जो छीन लेता है

तुम अपनी चौखटों पर मत बिछाना मुन्तज़िर * आँखें
नया हाकिम चरागों से उजाला छीन लेता है

उसे क्या हक़ है ‘ वन्दे मातरम् ‘ की बात करने का
जो एक माँ से बुढ़ापे का सहारा छीन लेता है

( * मुन्तज़िर = राह देखती )


रौशन सच 
(हिन्दी कविता)
 नीरा परमार 

कभी हमारे
करोड़ों करोड़ों नन्हे हाथों ने
छुआ था उजाले को !

हमें खबर भी नहीं हुई –
कब किसी ढाबे
किसी ठेले
किसी गलियाती मालकिन की
रसोई में
जूठन धोतेधोते
उम्र के संग वह रौशन सच
मटमैला पड़ गया

कभी ताजा छीले भुट्टे–सी सुगंध बन
जगमगाहट आती थी सपने में
किस्सा था, बीत गया

अब तो
साँचों में मोम ढालते
बीड़ियाँ लपेटते
चूड़ियाँ बनाते –
सूरज को खोंस दिया है


सिर्फ़ तुम
   (उडिया कविता)
बासुदेव सुनानी
अनुवाद : फारूक शाह

मैं जहाँ था
अब भी वहीं हूँ
मेरे अभाव
मेरी गरीबी
मेरी मज़बूरियाँ
मेरी रोजमर्रा की मेहनत
मेरी भक्ति
मेरा जीवन जीने का तरीक़ा
सब कुछ वैसे का वैसा ही है
दिन ब दिन
तुम्हारे कहने से कुछ बदलता है
तो वह हैं
तुम्हारे आदर्श
तुम्हारे कायदे-कानून

तुम वही हो
जिसने ईश्वर और मेरे बीच
खाई खोदी है

तुम वही हो  
जिसने भोले इन्सानों के हृदय में
छुआछूत के बीज बोये हैं

तुम वही हो  
जिसने अपनी संस्कृति छोड़ने के लिए
मुझे विवश किया है

तुम वही हो
जिसने मंदिर मस्जिद गिरजे से
मुझे खदेड़ा है  


तुम !
मेरे जीवन
मेरी परम्परा
मेरी अशिक्षा
मेरी गरीबी
मेरी इस बदहाली के लिए
सिर्फ़ तुम, सिर्फ़ तुम ही जिम्मेदार हो
तुम !

------------------------
(* अनुवाद-सहयोग : कार्तिकेश्वर बेहेरा)



काला इतवार
(मलयालम कविता)
डॉ. एल. तोमसकुट्टी
अनुवाद : डॉ. एल. एस. विश्वंभरन

आग लगी जबान उठाके
बच्चे ने मुझसे पूछा :
जब यह मुल्क जल रहा है
तू क्या ख़ाक कर रहा है ?

तेरा सर किसी भी पल
कट सकता है
किसी भी मोड़ पर
तेरी जान छीनी जा सकती है
जब पूरा नगर जल रहा है
तू क्या ख़ाक कर रहा है ?

गर्भ में शरण लेते मनीषी
वल्मीक में जा छिपते तार्किक
तू कम से कम अपने रुदन को
बाहर निकाल

भूत की ओर तेज बहती गंगा
लाशों की प्यासी होकर
अपने दुखान्त के लिए
पासा फेंकने पर
भुने दिलों में चुभाये जाते
त्रिशूल की नोक
मेरे लिए शगुन बन जाती है

सरयू के संग्राम-बिन्दु पर
संस्कृति के खँडहर
खीझ है मुझे करने को हस्ताक्षर
हाथ ढोने को नहीं पानी
और नहीं थाली
मैं भी बन रहा हूँ एक काला दाग


वह मुखौटों वाला
(हिन्दी कविता)
रजनी अनुरागी 

वह हर कहीं नज़र आता है
वह सर्वव्यापक है, सर्वज्ञाता है
वह हमेशा किसी भी सभा की अग्रिम कतार में
नज़र आता है
वह पेंडुलम की भांति जोर जोर से सिर हिलाता है
जैसे वक्ता का मन्तव्य सिर्फ़ उसी को समझ आता है
बाकी के दांए-बांय से निकल जाता है..

वह व्याख्यान देता है जन पर
आख्यान लिखता है जन मन पर
लेकिन वह अक्सर सत्ता के गलियारों में
चक्कर लगाया पाया जाता है
पकडे जाने पर निरीह चेहरा बनाकर खींसे निपोर कर कहता है
‘आमजन की बात पहुंचाने आया था ‘
वह दलाल है सत्ता का
पहुंचाकर वह जन की बात अपने को खूब उठाता है
वह वाममंचों के साथ दक्षिणपंथी मंचों पर
विरुद्धों का सामंजस्य बैठाता है
उसकी भाषा और कथ्य में गहरा अंतर्विरोध है
पूंजीवाद को गरियाते गरियाते
उसका हलक सूख जाता है
पर अमेरिका जाने जाने के लिए हर तिकड़म भिड़ाता है
वह अभिधा की शक्ति पहचानता  है
तभी तो हर बात व्यंजना में करता पाया जाता है

सब पहचानते हैँ उसे
वह पहचानते जाने से भय खाता है
वह हर बार नए मुखौटों में नज़र आता है
वह एक आंख से आंसू गिराता है
दूसरी से कांइयापन साफ़ नज़र आता है
वह मात दे सकता है किसी भी अभिनेता को
लेकिन अभिनय का बैस्ट अवार्ड लेने से कतराता है

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