कुँए में मेंढक
(तेलुगु कहानी)
पुटला हेमलता
अनुवाद : डॉ. जी. वी. रत्नाकर
रेल ने जैसे ही स्टेशन छोड़ा,स्टेशन की भीड़ छंटने लगी. कुली भी अपना-अपना सामान उठाकर बाहर की ओर जाने लगे. चहल-पहल कम हो गई.
श्रीनू अपनी फली की टोकरी लिए प्लेटफ़ॉर्म पर एक कोने में बैठा है. एक हाथ से सिक्के गिन, वह अपनी जेब में डाल रहा है. उसने टोकरी से एक कवर निकाला और सार्व सिक्के उसमें डाल दी. फिर उस कवर को संभालकर रख दिया. वह सोचने लगा – “अभी तक कोटि क्यों नहीं आया ? पंद्रह मिनट के बाद एक पेसेन्ज़र ट्रेन आने वाली है, तब अगर थोड़े रुपये का सौदा कर लूं तो घर में शायद गालियाँ कम खानी पड़े.” और एक बार पैसे के कवर को देखा, उसे संतोष हुआ. पूरा कवर जेब में रख वह तिरुपति एक्सप्रेस में चढ़ गया और “फली ले लो... ताजी ताजी फली ले लो...” – ऐसी आवाज लगाने लगा. एक चार साल का लड़का टोकरी को लालच भरी नज़र से देखने लगा. श्रीनू उस लड़के के मनोभाव को भांप गया और ज्यादा जोर से आवाज लगाने लगा...
“माँ, मुझे भी फली चाहिए...” कहते हुए लड़का रोने लगा. माँ कुछ देर तो मनाती रही, पर आखिर में हारकर उसने श्रीनू को एक रुपये की फली देने को कहा और दस रुपये दिए.
श्रीनू ने फली का पैकेट बांधकर बच्चे को दिया और चिल्लर के लिए जेब में हाथ डाला तो पाया कि सिक्के गायब थे. शायद चोरी हो गए थे. श्रीनू की हालत खराब हो गई. काटो तो खून न निकले. आँखों से आंसू बहने लगे. वह अच्छी तरह जानता था कि रेलवे स्टेशन पर कई जेब-कतरे होते हैं. फिर उसे लगा कि गरीब की जेब भला, कोई क्यों काटेंगा ? पर आज उसे पहली बार यह अहसास हुआ कि गरीब की जेब भी काटी जाती है. रेल से कब उतरा उसे होश न रहा. आंसू पोंछते हुए वह तुर्रा के पेड़ के नीचे बैठ गया. नज़रों के सामने ओबुलम्मा का चेहरा दिखाई देने लगा.
श्रीनू का जन्म कब और कहां हुआ ? पता नहीं. कोई रेलवे स्टेशन पर छोड़ गया था. ओबुलम्मा, जो वडा बेचती थी, उसने बच्चे को पाला-पोषा और नाम रखा ‘श्रीनिवास राव’. लेकिन सभी लोग उसे ‘श्रीनूगाडु’ कहकर बुलाते थे. जब कोई पूछता तो बड़े गर्व से वह अपना नाम ‘श्रीनिवास राव’ बताता. ओबुलम्मा का पच्चीस साल का बेटा बहुत पहले गाँव छोड़कर चला गया था. फिर भी ओबुलम्मा को आशा बंधी रहती थी कि वह एक दिन जरूर लौटकर आएगा. जब श्रीनू दस साल का हो गया तो ओबुलम्मा ने उसे रेल में फली बेचने का काम सौंपा.
पहले तो उसे बहुत अच्छा लगने लगा. लेकिन बाद में सभी मुश्किलों का सामना उसे करना पडा. पहले-पहल तो श्रीनू से बड़े फली बेचने वाले उसे रेल के डिब्बे से जबरदस्ती उतार दिया करते थे. क्योंकि वह उम्र में सबसे छोटा था. और अगर वह सौदा किए बिना घर जाता तो ओबुलम्मा उसे पीटती थी.
धीरे-धीरे
श्रीनू को दुनियादारी की समझ आने लगी. जो औरों पर धाक जमाता है उसी की चलती है.
श्रीनू की हालत कुँए में मेंढक जैसी हो गई. उसकी दुनिया मात्र स्टेशन तक सीमित
होकर रह गई. हर रोज वह रेलवे स्टेशन पर कई तरह के लोगों को देखा करता. विदेशियों
को वह तरह-तरह की वेशभूषा में निहारता रहता.
“अभी पंद्रह
मिनट में ही पेसेन्ज़र ट्रेन आने वाली है, अब तक कितनी कमाई हुई ?” कोटिगाडु ने
पूछा. श्रीनू ने अनसुना कर कोटि से ही प्रश्न किया – “उसकी बहन का गाँव कैसा है ?”
कोटि ने बड़े
उत्साह से झुककर कहा – “ओहो... हैदराबाद ? क्या बताऊँ ? तुम ही अपनी आँखों से
देखना... बड़ी-बड़ी सड़कें, रंग-बिरंगी रोशनियाँ, पूरा यात्रा पर गए हों ऐसा माहौल.
अरे हाँ, तूने कभी रंगीन सोडा पीया है ?” कोटि ने होठों पर जीभ फेरते हुए पूछा.
“नहीं.” श्रीनू
ने जवाब दिया.
“अरे श्रीनू,
तू वरंगल तक पेसेन्ज़र ट्रेन में फली तो बेच सकता है ना ?” कोटि ने पूछा.
“रहने दे !
ओबुलम्मा नहीं मानेंगी. वह राक्षसनी है.” श्री ने हताशा भरे स्वर में कहा और
कोटिगाडु की ओर देखने लगा.
वह बडबडाने लगा
– “मुझे बचपन से ही शहर पसंद है. जब से पैदा हुआ हूँ, इस गाँव को छोड़, कोई दूसरा
गाँव ही नहीं देखा !”
उसका चेहरा
देखकर कोतिगाडु को हँसी आ गई. वह कहने लगा – “मैं तो पेसेन्ज़र ट्रेन में कई बार
वरंगल जाता हूँ. एक घंटे का तो सफ़र है. इस दौरान हम आराम से फली बेच सकते हैं.
बहुत ही मज़ा आता है.”
धन... धन... की
आवाज करती ट्रेन आ गई.
“श्रीनू, देखो
तुम औरतों के डिब्बे में चले जाओ ! मैं जनरल डिब्बे में जाता हूँ.” कोटि ने कहा.
पूरा दिन
श्रीनू बहुत ही उदास रहा. खाना भी ठीक से नहीं खाया. खाट पर लेटकर वह आसमान की ओर
देखता रहा. सांझ से ही ओबुलम्मा श्रीनू के व्यवहार को देख रही थी.
“श्रीनू, बेटा क्या
बात है ?” उसने पूछा. श्रीनू एक मिनट रुका, फिर जवाब - “मां, मैं भी कोटि के साथ वरंगल तक फली बेचने
जाया करूंगा. हमें बहुत नफ़ा होगा.” बोलते समय उसकी आंखें उलझन के कारण विस्फारित
हो गई.
ओबुलम्मा को
हंसी आ गई. श्रीनू के सिर पर हाथ रखते वह बोली – “बेटा, तुम छोटे हो, नादाँ हो –
इसलिए मैंने तुम्हें आज तक कहीं दूर जाने नहीं दिया. वैसे भी मैं एक बेटा खो चुकी
हूँ. अब तुमको खोना नहीं चाहती. मैं कठोर भले ही लगूं, लेकिन मेरे हृदय में भी दया
और ममता है. कोटि के साथ तुम्हें जरूर जाने दूँगी. ठीक लगे तो रोज जाना वरना
नहीं.”
अविश्वास की
दृष्टि से श्रीनू ने माँ को देखा. खुशी के मारे वह सो न पाया. रातभर वह सपने देखता
रहा कि वह वरंगल तक फली बेचकर आता है... और ढेर सारे रुपये ओबुलम्मा के हाथ में रख
देता है...
“बेटा...
संभालकर कोटि के साथ जाना.” पानी भरने जाती ओबुलम्मा ने कहा.
कोतिगाडु के
साथ श्रीनू उत्साह से चल पड़ा. जिस ट्रेन में वे जा रहे थे उसने आलेर स्टेशन छोड़ा.
कोटि दूसरे डिब्बे में था. श्रीनू तो फूला न समा रहा था. दरवाजे पर खड़ा-खड़ा बाहर
के पेड़, बिजली के खम्भे देख रहा था. वहां पर दो शराबी आपस में गाली-गलौच कर रहे
थे.
श्रीनू यथार्थ
भूमि को छोड़ कल्पना-लोक में विचरण करने लगा. उसके पीछे जो शराबी थे वे मारपीट पर
उतर आए. एक के पाँव की मार श्रीनू की पीठ पर लगी. उसने उठने की कोशिश की. तभी एक
शराबी उस पर आ पड़ा. श्रीनू डिब्बे से बाहर उछलकर गिर गया. उसका सिर धडाम से एक
पत्थर के साथ टकराया. सिर से खून बहने लगा. उसने बलपूर्वक आंखें खोली. तेज रफ़्तार
से जाती ट्रेन, अपनी ओर घूरते यात्रियों की आंखें और खुले आकाश के अलावा दूसरा कुछ
न दिखाई दिया. उसकी पलकें हमेशा के लिए बंद हो गई.
ओबुलम्मा कुँए
से पानी निकाल रही थी. देखा तो पानी में मेंढक था. उसने मेंढक को बाल्टी में ही
रहने दिया. तभी कोतिगाडु, श्रीनू के मरने की खबर लेकर आया. कोटि के मुख की उदासी
देख ओबुलम्मा उसकी ओर भागी. बाल्टी का मेंढक आश्चर्य से चारों ओर देख रहा था. वह
मेंढक, जो कुँए में ही पैदा हुआ था, बड़ा हुआ था और कुआं ही जिसकी दुनिया थी. पर आज
उसे चारों ओर का दृश्य विचित्र लगाने लगा. उसके लिए यह दुनिया नयी थी. वह कभी सोच
भी नहीं सकता था कि बाहर की दुनिया इतनी बड़ी हो सकती है. सृष्टि के रमणीय वातावरण
को देखने वह अचानक ही उछला, पर गलती से वापस कुँए में ही जा गिरा. उसने देखा, नीचे
गोल-गोल घुमता पानी था... ऊपर प्लैट जैसा आसमान.
नोट-कहानी और चित्र गुजरात से फारुख शाह जी ने भेजे हैं...
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