'जाने से पहले...!


शहर के भीड़ से
         शोर के चिंघाड से
धुल-धुआँ के अजाब से
          एकाकीपन के नाद से
हृदय के अहलाद से
          मौसम के फरियाद से
दूर कहीं गांव के
          हरियाली के छाँव से
अपना गहरा नाता है
          उसके चंचल-शोख आवाज़ ने
हमें पुकारा है
          दोस्तों बुरा न मानना
आज माँ-बापू ने
          दिल से गोहराया है
मीठी बोली को
          ममता की झोली को
नकार न सके
          उससे मिलने को
धडकने सुनने को
            आज निकल पड़ी हूँ
फिर बात-मुलाकात होगी
           एक साल बाद होगी
नए रुतों के साथ होगी
           एक मिशन होगा
सबका परमिशन भी होगा
           जनता की तान होगी
अंधी व्यवस्था हलकान होगी
           युवाओं के कंधे में जान होगी
उर्जा का अपार स्रोत होगा
            धन-दौलत की बारिश होगी
मुफलिशी की हार होगी
             आम-अवाम खुशहाल होगी
सच्चे दिलों की जीत होगी
              झूठों की हार होगी
हौसलों की गूंज होगी
              फैसलों की भरमार होगी
किसी से किसी को शिकवा-गीला न होगा
              दूरियां मिटेंगी नजदीकियों की बात होगी
ऐसे ही हर दिन और रात होगी
              इन्ही दुवाओं के साथ अगले साल
एक नए स्वरूप में आगज़ होगी
                रोज सब खेलें-कूदें गायें
ऐसे ही दिनों का राज़ होगा
               चलो मैं अब चलती हूँ
वरना देर में अंधेर होगा
              मेरी मुश्किलों से मुतभेड होगी
लोगो परेशान होके नादाँ होगें
              चीख-चीख के हमें ही कोसेंगे
गुबार के पहाड से सीना छिलेंगे
              बस इक पल रुको उसके बाद
फिर कुछ और फ़साने की बात होगी
नोट-
मेरे सभी दोस्तों को आनेवाले साल की हृदय से कोटि-कोटि अग्रिम शुभकामनाये. 
आप सब ज्यादा मत सोचिये.मैं ही बता देती हूँ.दरअसल दूर गगन के पास खबूसूरत वादियों के करीब
मेरा गांव-घर है.जहां जा रही हूँ.वहाँ इतने कागजी विकास के बावजूद बिजली रानी ठीक-ठाक काम नहीं करती है.शायद !इसलिए अब नए साल में ही बात सम्भव हो सकेगी....       

'अपने-सपने के दिन,सब खो गया...'!


              'उलझन'
गम से मेरा गहरा रिश्ता है
           आंसू इसकी परवाज़ है.
दर्द मेरा हमदम है
           वक्त ही जबाब है.
घुटन मेरा घाव है
           सहन इसका इलाज है.
चुभन मेरा दीद है
            जेहन इसका ईद है.
कोई आएगा ये उम्मीद है
            सब बदल जायेगा,ठीक है.
सपने मेरे आँख है
            अपने मेरे पास हैं.
यही इक एहसास है
            जीवन जिससे आसान है.
माटी का भी इक मोल है
           सब कुछ यहाँ अनमोल है.
अधूरी आस,इक प्यास है
           जाने किसकी,क्यों तलास है.?
खुद से ही इक सवाल है.
           दूर-दूर तक क्यों न कोई ढाल है.?
         
                    'कुछ..!सब खो गया'

क्या मिल गया,सब खो गया,
             इक के खातिर कुछ हो गया.
सबकी नज़रों में ढह गया
             पाप-पुन्य के मध्य उलझ गया.
किसकी सुने जो खो गया
             उसकी कहे जो सब छोड़ दिया.
किसे सही ठहराउन बोल जिया
             उसे बुलाउन जो भाग गया.
झूठे दम पर कदम बढ़ाया
             सच पर मुखडा मोड गया.
या फिर चीखूँ,चिल्लाउन
             शिकवा-गीला से परे कैसे तन गया.
गर्दन झुकी,मर्दन बचा गया
              संस्कारी सोच पर पर्दा पड गया.
किस-किस के चक्कर में जाने
               अजब-गजब घनचक्कर में फंस गया.
               
                    'अपने-सपने के दिन'
           
साहस मेरी जननी है
        विद्या मेरी सजनी है.
ज्ञान मेरा गहना है
         उज्जवल मेरा कहना है.
शब्द मेरे साथी हैं
         अभिव्यक्ति मेरे बाराती हैं.
लेखनी मेरी ताकत है
         पाठक मेरे आलोचक हैं.
समालोचक मेरे परवान हैं.
         जिसके दम पर निश्चित उड़ान है.
चलने में भले असमर्थ हूँ
          दौड़ने में सदा समर्थ हूँ.
मन की उर्जा से ओजस्वित हूँ.
          तन से अदभूत प्रफुल्लित हूँ.
साथ न आये,न कोई बैठे मीत
          अपनेपन का मैं एक मनमीत हूँ.    
मैन अपने अकेलेपन की सहेली हूँ
           चढते-उतरते दिनों की पहेली हूँ.
सुनने से बड़े कतराएँ
          बच्चे ठेंगा दिखलायें.
फिर भी मैं मुस्काती हूँ
           नदिया,पवन के संग गाती हूँ.
प्रकृति पर इठलाती हूँ.
           खुद से इतराती हूँ.
कैसे-कसे लोग हैं मिले
            सोच-सोच के मदमाती हूँ.
आओ-बैठो सुनो मुझे
            ऐसे उन्हें रिझाती हूँ.
भोली पंक्षी,चंचल मैना
            भाग-भाग मेरे पास आती हैं.
जीवन से ऐसा कुछ नाता है
            लोगों से एक सच्चा वादा है.
खाओ-पीओ मौज उड़ाओ
            लेकिन किसी को मत रुलाओ.
         
                                                    डॉ.सुनीता



'किस्सा एक रोटी-बेटी का...!

ससुरी एक बात बता तेरी हिम्मत कैसे हुई मेरे चीजों को हाथ लगाने की हूँ.? एक नम्बर की जाहिल,गंवार,बेहया,कर्मजली,फूहड़,नामुराद बेहूदा कहीं की किसी चीज़ की तमीज़ नहीं है.यह किसी चलचित्र का सम्भाषण नहीं है.बल्कि रोजमर्रा के जीवन की कडुवी,कटु और सच्ची तस्वीर/चेहरा है.इतना ही नहीं लोगों के अंदर जड़ जमाती वेबुनियादी बातें अभिन्न अंग बनती जा रही हैं.शिक्षित समाज होने की बात आये दिन सुनने-पढने को मिलती ही रहती हैं.फिर भी इन शब्दों की आवाजाही(प्रयोग) में कोई कमी नजर नही आती है.
आज के बाद तू यहाँ नजर आई तो तेरी खैरियत नहीं है.धमकी देने के तरीके आज भी वैसे ही हैं.जो कभी(तोहरा के अगिला बार देखली त नीक न होई) गांव-गिरावं के अनपढ़ लोगों के मिथक के रूप में जानी जाती थी.आज वह हर सब लोगों के मुँह की शोभा हैं.
अनगिनत शब्दों की माला से नवाजे जाने के बाद भी यहीं खड़ी है.बाह री माया की मूरत कलेजे पर घात नही लगती है.किस मिटटी की बनी है.जो हारती ही नहीं जब देखो तन के खड़ी हो जाती है.जिसके दम पर जीतती है उसके खातिर भी हार नहीं मानती है.इसे स्त्री की ताकत कहते हैं.कउने मुहूर्त में तोरा के बनावल गयल हउअ..?
बजबजाती मानसिकता से ग्रसित लोग यही कल्पना करते हैं की एक स्त्री अपने ममता के आगे हार मान जाती है.सम्भवत सच्चाई भी यही है.किन्तु निर्णय ले ले की विरोध करके रहेगी तो फिर कोई डिगा भी नहीं सकता है. अक्सर यह उक्ति बार-बार हरबार सुनाई/बताई जाती है कि एक नारी ही नारी की दुश्मन है इस बात से पूर्णतः  इनकार नहीं किया जा सकता है .एक ही व्यक्ति के अनेकों रूप हैं.वह स्त्री हो या पुरुष दोनों ही अपने-अपने मांद में बहरुपिए हैं.इसे भी झुठलाया नहीं जा सकता है.प्रकृति ने जितने स्वरूप दिए हैं,उतने ही भिन्न-भिन्न भूमिका भी दी है.उसी के इर्द-गिर्द मानवीय स्वभाव नाचता रहता है.इसी भावना के हिंडोले में झूलने वाले भ्रम में जीते हैं.इसकी परिणिति यातना के स्तर पर जाकर नारकीय स्थिति तक पहुँच जाती है.   
एक 'जननी' को एक माँ ही तडपाती है.अंतर केवल समय का होता है.जब कोई अपने दौर से गुजर जाता है तो वह उसे भूल जाता है.वह भूल जाती है या भूलने का नाटक करती है.ठीक से कहा नहीं जा सकता है.इसी कारण से भावना पर कठोरता की चादर चढ़ जाती है.जिसे नोच फेकने के लिए एक मजबूत इरादे से भरपूर आदमी की दरकार होती है.इस चंडीय विचारधारा से जी तोड़ मुतभेड के सामने टिक सके.बस उस दौर से लोहा लेने की कुब्बत,जूनून और इच्छा हो तो हर किसी को शर्तिया हराया जा सकेगा.वरना सदियों से घुन की तरह मन-मष्तिष्क पर विराजमान आडम्बरों.पाखंडों,नीतियों,कुरीतियों और अपसंस्कृतियों को समूल नष्ट करना संभव न होगा.
सास-बहु के रूप में स्त्री का चेहरा कितना क्रुर,भयावह और डरावना लगता है.माँ,बहन,बेटी और सहेली के साथ एक अलग ही रिश्ता परवान चढ़ता है.जबकि ननद,जेठानी,देवरानी और पत्नी की भूमिका में कलह,द्वेष,क्रोध,दाजा-हिस्सी और दिखावटीपन अपने पूर्ण सबाब पर होता है.कुलमिलाकर स्त्री का समाज में बहुत तरह के किरदार बनाए गए है.पुरुषों के भी अनेकानेक गिरगिटी रूप भी यूहीं मौजूद है.जिसे प्रकृति ने रचा है.इंसान ने उसे नीयम,कानून,व्यवस्था,प्रथा,धर्म-जाति और वर्ग के हिसाब से पृथक-पृथक किया है.उसी के अनुरूप कार्य को अंजाम देने के लिए दबाब बनाते हैं.इसी से समाज में वर्ग भिन्नता की एक न पटने वाली खाई नज़र आती है.
आश्चर्य और अफसोस तो इस बात का है कि एक ही देश में 'बिरादरी' और 'मरजाद' के नाम पर अलग-अलग पारम्परिक मान्यताओं का प्रचलन है.जिसका पालन न करने की एक वीभत्स सजा है.चार मुख्य धर्मों के आड़ में न जाने कितने उपजातियां निहित है.जिनके बारे में ठीक-ठीक अनुमान लगाना आसान/मुमकिन नहीं है.एक चीज़ और है जो बहुत कचोटती है की सारे बेकार,अनर्गल,बेमतलब और अंधी व्यवस्था मध्य वर्ग के लिए बने हैं.हुक्का-पानी और मरजाद के नाम पर कुछ भी न करने की एक दहसत देखी जा सकती है.इस पैबंद के नाम पर ही मानों उनके खून सुखकर नाड़ीयां बंद होने को हो जाती है.जबकि उच्च और निम्न वर्ग जब चाहे जैसे चाहे अपने को रखा सकता है.पैसे वालों की तूती बोलती है.निम्न लोगों की लम्पटता ध्यान आकर्षण से दूर रखती है.
मानवीय उपलब्धि चाँद के मुहाने तक पहुच गयी है,लेकिन रोटी-बेटी का किस्सा अब भी हिचकोले ही खा रही है.बेटी के नाम पर आज भी कईयों के घरों में मातम सा छा जाता है.वहीं रोटी की जद्दो-जहद और जंग आम-अवाम की उत्तरोंउत्तर जारी है.हम आज भौगोलिक,मंडलीय,जलवायु समृधि के कागज़ी विकास के कई-कई(शिक्षा,व्यवस्था,माहौल )सोपान क्रास करने के दावे के बावजूद हत्या,लुट,पाप,अत्याचार,भ्रष्टाचार और शोषण की मंदगति से पार नहीं हो पाए हैं.
कमोवेश चंद उदाहरणों को छोड़कर उंच-नीच की भावना अब भी इंसान के गले में मोती की तरह शोभायमान है.दिखावटी तौर पर मुख से मिश्री की सुगंध जैसे बोल फूटते हैं,लेकिन वही दूसरे क्षण शराब के बदबूदार बोतल के साथ-साथ नज़र आते हैं.ऐसे अवस्था में फलांग लगाने का सपना बुनना बुरा तो नहीं है.वह कागज के ही पोटली में क्यों न हो.कुछ तो है जिसे दिखाकर अपने हिस्से के पाप पर पर्दा गिरा सकते हैं.कुछ ऐसी ही स्थिति इन दिनों के माहौल में देखने को मिल रही है...!
हजार से लाख,करोड और अब अरब के पायदान पर जाने के बाद भी हमारे पास कोई ठोस,मजबूत और अडिग यंत्र नहीं है जिससे समूचे समाज का कायापलट कर सकें.!बल्कि अपने-अपने उललू सीधा करने के नाम पर निरंतर नैतिक मन को मतभेद में तब्दील किया जाता रहा है.जहाँ शाम की सोंधी खुशबू के साथ लोगों के दिन की शुरुआत होती थी आज सेंट छिडकने के बाद भी बदबू अपने स्थान पर अंगद के पैर के मानिंद टिका रहता है.
सभा,मंचों और बैठकों में बड़ी-बड़ी लछेदार बातें करने वाले लोग अपने-अपने गिरेवांन (घरों)में एक लोमड़ी हैं.किसी की इज्जत करना तो दूर सम्मान करना भी गवारा नहीं करते हैं.जूते-चप्पलों से ऊपर की सोच पर अभिमान का जबरदस्त पहरा है.इसे पिघलाना कठिन है.शंकर की जाटा से एक बार गंगा माँ निकल सकती है.परन्तु इंसान(स्त्री-पुरुष) के अंदर बैठा अहंकार का दानव दावानल मचाने से बाज नहीं आएगा.जिसकी निर्ममता से सम्पूर्ण समाज दोराहे पर खड़ा नजर आता है.
जो भी हो समानता,एकता,विकास के झूठे,दिखावटी और बनावटी सहारे से ही सही देश की छवि बदली तो है.उम्मीद का साथ न छोडने में ही सूरज की सही किरण नजर आएगी.वरना लालच के घटाटोप में सब कुछ गुम हो जायेगा.आँखों देखा,कानों सुना का भी पता नहीं चलेगा कि कब सब कुछ गायब हो गया...!
                                                                                                          डॉ.सुनीता  
    

'भोर-दुपहरी दिन रैन','मन की टीस' एक 'दिखावा'..!


'मन की टीस'

दर्द के गांव का 
आंसू के छावं का 
गुमशुदगी की आहों को  
किससे करूं बयां 
सब कोई ओढें मुखौटा 
नोचता है पल्लू
किसे बताएं अपना 
किसी कहें अजनबी...!
आहत-आत्मा चीत्कार उठी
मोहित ममता हारी है 
आकांक्षा सब पर भारी है 
लाचारी ने बेचारी बनाया...!
अपने-अपने न रहे 
पराये-पराये ही रहे 
किसकी टीस बड़ी 
किसे अपराधी कहें
किसको दोसी ठहराए...!
 
भोर-दुपहरी दिन रैन...!

रतिया कटे गिन-गिन तरवा 
पतिया लिखत भईन भोर 
बटिया जोहत कटे दुपहरिया   
रैन भये दिलवा में मचत हिलोर 
घरवा से निकली गईन बेटी 
देश के छोड़ी लोगवा छावन विदेश 
रूप निरखत हो गईले नैना पागल 
आंसुओं से बहत लोर  
नोटिया क बतिया बिसराव दिन-रतिया 
याद आवे माई क सुरतिया 
बिलसे ला मनवा हुलसे ला छातिया  
गठिया क बतिया खोल देली होखली कंगाल
इहवां क लोगवा न जाने परेमवा
अपना में मगन गांवें-गनवा 
सुनी-सुनी फट जला कनवा
केहू नईखें देवे वाला तानवा(साथ) 
ताबो नाहि लागत जियरा 
हियरा क बतिया रुलावे दिन-रतिया 
कईसे के जाई अपने देशवा 
विदेशवा में जियवा उदास...!

 'दिखावा'

कोमल-कोमल खुसबू में नहाई 
दूर से ही आँखों को भाई 
मखमली छुवन की अदभूत रानी 
हृदय की अनोखी पटरानी 
उसका भी दिन आने वाला है 
कली-कली मुस्काएगी
लोगों के दिलों पर छाएगी 
जिस दिल में पत्थर होगा 
उनके हांथों में उपहार सोभेगा  
होठों पे मधुर गान रहेगी  
हृदय में ज़मी कडुवाहट छटेगी  
पपड़ी सी बनी भावनाए 
पल भर को उखड़ेंगी 
शाम होते झूठे बंधन में जकडेंगी
मानवता कुछ क्षण को गाएगी 
ख़ुशी के नाम पर चिल्लाएगी 
नये साल के नाम पर 
पंखुडियां-ही-पंखुडियां रौंदी जाएँगी...!
                  डॉ.सुनीता 

'फेसबुक बनाम चेहरे के किताब का नंगापन'


जिस तेज़ी से पूरी दुनियां में संचार का आगमन हुआ है उसी के अनुपात में करप्सन भी फैला है.हम सब इस बात से कत्तई इनकार नहीं कर सकते हैं.क्योकि लोकप्रियता के लालसा में लोगों ने अजीबो-गरीब मुद्दों,बाहियात हरकतें और घटिया स्तर के चीजों को हथियार बना के पेश किया,जबकि हकीकत में ऐसा कुछ नहीं है.अब देखिये न एक तरफ सरकार इसके आज़ादी को लेकर भयभीत है.दूसरी तरफ इन दिनों फेसबुक में चोरी और बत्तमीजी का मामला जोरों पर है.सच तो यह है किसी चीज़ की अति नुकसान भी उसी अनुपात में पहूँचाती है.यह क्षति न केवल राष्ट्रीय, मानवीय, नैतिकता, परम्परा, परिवेश, परवरिश और प्रतिभा पर है,बल्कि अपनी संस्कृति,संस्कार और सभ्यता का दोहन भी कह सकते हैं.यह सब एक दिन,अचानक से या फिर तात्कालिक नहीं है वरन इसके परिणाम दूरगामी हैं.
हम जिस गरिमामय समाज के वाशिन्दें है वहाँ के अनुकूल का रहन-सहन बहुत मायने रखता है.बलिहारी हो मौसम का बल्कि बधाई देनी चाहिए.जो माता-पिता अपने संतान के पहनावे से तंग थे उन्हें बड़ी राहत मिली होगी.फैशन,आज़ादी और शोषण के नाम पर नंगा-पूंगा घूमने वाले बेहद नाराज होंगे.लेकिन यह खफगी कुछ दिनों की मेहमान है.जैसे ही दिन बदला-दौर बदला रंग-ढंग ने भी चोला बदला.
अभी जो लोग इन अत्याधुनिक संसाधनों के पुजारी हैं.दूसरी तरफ जो आलोचक हैं वही एक दिन बहुत बड़े प्रसंसक भी होंगें.ऐसा प्रतीत होता है.यह बात पूरी तरह से स्पष्ट है.क्योंकि आने वाले हर दौर को लोग बेहतर ही बताते हैं.जैसे हमारे दादा-दादी के ज़माने अपने-आप में निराले थे.जिसकी बढ़ाई वे लोग बड़े मन और चाव से करते हैं.पिता जी लोग अपने समय को अच्छा बताते हैं.एक दिन ऐसा आयेगा जब हम सब अपने हिस्से के कसीदें पढने से पीछे नहीं हटेंगे.वैसे ही यह नौनिहाल भी अपने छाया को प्रतिछाया ही बताएँगे.
पूरी की पूरी एक पीढ़ी ही स्वतंत्रता के नाम पर विकृत रूप लेती स्वछंदता के कायल हैं.यह संकेत किसी भी तरह से ठीक नहीं कही जा सकती है.दोस्ती के नाम पर फूहड़ मजाक शगल बनता जा रहा है.क्रूरता के हद तक पहुच चुकी मानसिक विकृति बेहद शर्मनाक है.जातिवादिता के नाम पर इंसाफ की दुहाई देने वाले लोग कब भद्दगी पर उतर आते हैं.इसका उन्हें भान भी नहीं हो पाता है.ऐसे ही फटटामार लहजे की शिकार युवा भी हैं.जो अपने को यहाँ के हम सिकंदर हैं की लकवा से ग्रसित हैं.
जब किसी को अपने मन-मुताबिक बादशाहत नहीं मिल पाती तो निम्न स्तर के छिछोरपन पर उतर आते हैं.इन दिनों लोगों में फैली लोकप्रिय फेसबुकिया पापुलेरिटी को एक खतरनाक विमारी कह सकते हैं.इसे गैंग्रीन का बदला रूप कहें तो अनुचित न होगा हैं.जो शरीर,दिल-दिमांग और सोच पर कुंडली मारे बैठी है.इसी प्रसिद्धि के खुराफाती मावज ने चौतरफ़ा गंध फैला दी है.जिसके ज़द में साधारण,सीधा-सच्चा और बेकसूर की जान सांसत में है.कमाल इस बात का है कि सब कुछ जानने के उपरांत भी किसी के कार्य में बालभर भी फर्क नहीं आया है.
थोड़ा आगे बढ़कर गौर करें तो एहसास होता है कि इन नए-नए माध्यमों ने आम इंसान के अंदर उमड़-घुमड़ रहे विचारों को दिशा दी है.नये पल्लवों को पुष्पित होने का मंच मिला है.पंखुड़ियों से निकलकर खुसबू ने बिखरना सीखा है.घोसलों से बाहर की दुनिया के हकीक़त को पहचानने का मार्ग दिया है.अबोध रचनाओं को नकारे जाने के जिल्लत से मुक्ति मिली है.हा...!कुछ मनचलों के फुहड़पना को भी पनाह मिल गया है.कुल मिलाकर देखा जाये तो पांचों अंगुली बराबर नहीं होती है.सकरात्मक और नकारात्मक पहलू से वास्तविक परख होती है. किसके मन में क्या है वो ऐसे ही कुछ जगहों पर उजागर होती हैं.मेरे ख्याल से पत्रकारिता के बदलते स्वरूप के रूप में देखना/आकलन करना गलत न होगा.. 


वस्तुत: इन सुबिधाओं के साथ लोगों ने अपने उललू भी सीधा किया है.एक दूसरे के रचनाओं को अपना बनाकर पेश करने की अदा से ग्रस्त हैं.सब कुछ चुराया जा सकता है.वो भी सीनाजोरी के साथ पहचान,नाम,शोहरत,सीरत,सूरत और सच्चाई को भी कैद कर एक नई शक्ल में बड़ी आसानी से ढाली जा सकती है.इसी का नतीजा है कि इन दिनों लोगों में दहशत सी है.इससे बचने का एक ही रास्ता है कि संभल-संभल के कदम उठाया जाये,फिर उमंग-तरंग के साथ आगे बढ़ने में कोई बुराई नहीं है.
सावधान..!सुरसा ने अपना जबड़ा जी भर फैलाया है.बचो-बचो वरना कुछ भी बचनेवाला नहीं है...!



                                             डॉ सुनीता 

                                                 

नई किरण फूटनेवाली है...! केकरा से कहीं...

                 'सदियों से सताई'
यह जो लहर आई है.मन-उमंग में तरंग मचाई है,                 
मिलकर साथ हाथ बाटाओ ऐसी शोर सुनाई है.
                                  गफलत का दौर छटनेवाला है,सच्ची आजादी ने पुकारा है,
                                  चलो कदम बढ़ाओ दुनिया के नुमाइंदों ने ललकारा है.
जनता जाग उठी है,चट्टानों से टकराने की ठानी है,
अब दूर हटो हम अपने-अपने कानून की झंडा टागेंगे.
                                  हम भी कुछ बोलेंगे,सब सुनेगे,आमजन ने ऐसा माना है,
                                  धोखा खाई जनता इस बार न ठगी जा सकेगी ऐसा पहचाना है.
मंडल-कमंडल ने फ़रमाया,सुनो-हमने ऐसा एक नियम बनाया है,
भोली,अंधी जनता ने,अब आँख-कान खोलकर सबको झुठलाया है.
                                  बौखलाए आलाकमान चुप्पी साधे,झंझट से मुह चुराया है,
                                  बचना आसान नहीं क्योकि सदियों से सताई जनता ने दौडाया है.


                 'केकरा से कहीं'
टूट गईल सपना,रुठ गईल निदिया
बुझ गईल अगिया केकरा से कहीं
खेलत रहली गुडिया-गुड्डा,बन गईल दुल्हनिया
दम टुटल-छूटल हमार केकरा से कहीं
माई-बाबु के दुवारा,भईया के अंगना
सुन हो गईल हमारा बीना
बेकल जियरा के हाल केकरा से कहीं
दादी से सुनत रहली किस्सा तमाम
आके ससुरा में घुटल विचार
दर्द के पीड़ा केकरा से कहीं
संघे के सहेलिया,घुमत रहलीं बन के बहेलिया
बट गईल उनकर दीदार
बहें अंसुआ के धार केकरा से कहीं
गांव के खेतवा,दुआर के बाग़-बगिचवा के
खेल होलपतरिया के टीस रह-रह गुने
दिलवा में उठे हुंक केकरा से कहीं
खेलत-कुदत बुनत रहली दुनिया के रीति-नीति
पढब-लिखब बनब हकीम बनली फकीर
इकर चुभन केकरा से कहीं
सुन्दर सेजिया के नाम ठगी गईल जिनगी हमार
बिहसल जियरा के हाल
हाय केकरा से कहीं..
                   'साजिस'                  
निकले थे जिंदगी के लालसा में
मौत से वास्ता पड़ा
निर्मम व्यवस्था के नाम भेंट चढ़ी
धन-लोलुपता ने रौंदा
आशा थी उड़ने की
तमन्ना थी जीने की
पहचान न थी की तोहफे में मिलेगी
यह निष्ठुर सौगात
एक टक निहारते रहे दरो-दीवार
चीखती-चिल्लाती जनता वेवश रही
हुक्क्मरानों ने सियासत के विसात पर
विश्वाश को नोचते रहे
आस को राजनीतिक साजिस के
वेदी पर आहुति दे दी
लहूलुहान भावना चीत्कार उठी
बचा न सकें अपने-अपने अपनों को
समय के क्रूर हाथों ने निढाल कर वेहाल कर दिया.
                                         डॉ.सुनीता










 










 



 















                          

'भोर का तारा,प्रभात का सूरज'



चांदनी रात की शोभा सुबह होने के साथ ही धूमिल होने लगती है.लेकिन भोर का तारा जीवन को नए अंदाज़ के साथ जीने का सीख देती है.इसी के संग जीवन की सुबह पटरी पे दौड़ने लगती है.जहां से संसार को एक नई रोशनी से तारुफ्फ़ कराया जा सकता है.परन्तु नियति के क्रूर हाथों ने संरचना जैसी की है उसके समक्ष सभी नतमस्तक,बेवश,लाचार और अनुतरित हो जाते हैं.
अलग-अलग स्वरूप से परिचित करवाती प्रकृति ने अपने अनेकानेक रहस्य से रु-ब-रु कराया है.यह रहस्य समाज से लेकर साहित्य के हर तबके में मौजूद है.
                                   मंजिल मिलते हैं हजारों इसी ज़माने में
                                   हम जीते-मरते हैं अपने ही आशियाने में 
                                   वह नहीं ढुढते हैं किसी को ज़माने में
                                   जिनके घर होतें हैं खुले आसमानों में. 
र्तव्य की वेदी पर व्यक्ति के कुछ न कुछ कार्य अधूरे रह ही जाते हैं.कभी प्राकृतिक कारणों से तो कभी मानवीय कारणों से अपूर्ण रह जाता है.बचपन की याद,घटना,दुर्घटन दिल-दिमांग से कभी नही जाती है.इसका ताज़ा मिशाल वह एक मासूम है जिसने खेलने-कूदने के दिन में अपने कोमल किन्तु मजबूत कंधे पर पूरे घर-परिवार का बोझ उठाया था.सिर्फ जिम्मेदारी ही नहीं निभाया बल्कि आदर्श भी बन के उभरी थी.उसकी साहस,प्रतिभा और हिम्मत के कारण सभी लोग मनदेवी कहके पुकारते थे.मैं उसे बड़े ही आदर,प्यार के साथ मंजरी कहके बुलाती थी.वह एकमात्र मेरी छुटपन की लंगोटिया सखी है.अपने नाम के अनुरूप रूपवती भी थी.
शराबी-कबाबी पिता ने एक दर्जन बहनें पैदा करके दुनिया में उसके भरोसे छोड़ गये थे.माँ खेतों में मजदूरी करती थी लेकिन सबका पेट भरना नही हो पाता था.रोज़ बिन खाए सोने से बेहतर है कि कुछ किया जाये.जैसी खुराफात रोज़ उसके दिमांग में उपजते थे.बड़ा दिल कड़ा करके बताती थी.देखना एक दिन मैं इस तंगी,जिल्लत और किल्लत से ऊपर उठूंगी.तब यकीं न होता था.समय के साथ-साथ उसकी परिकल्पना एक फैसला में बदल गयी.उसने अपने दादी के झूठे और दकियानूसी शानों-शौकत को गलत ठहराया.उन्होंने अपने बहु-बेटे के नफ़रत की चिंगारी  बच्चों के जीवन को दाव पर लगा कर बुझाई.सारा ज़मीन-जायदाद चाचाओं में बटकर इन्हें घर से बेघर करके अपनी घटिया क्रोध की आग ठंढा की थी.जिसे चुनौती मंजरी ने अपने मेहनत के दम पर अच्छा जीवन जीने का दावा करके दिया था.कोरी बातें ही नहीं सुनाई थी बल्कि उसने करके भी दिखाया.बड़े घराने के नाम पर झूठी खोल को उजाड़ फेककर यह सावित किया था कि हम अनाथ नहीं हैं..समाज की गन्दी विडम्बना तो देखिये.मेहनत-मजदूरी और मजबूरी का खिल्ली उड़ाने से नहीं चुकते हैं.
व्यथा-वेदना और परिस्थिति के भठ्ठी में तपकर जो सीख हासिल होती है.उसे किसी पाठशाला,
पुस्तक और प्रवचन के थोथी आग में जलकर नहीं समझी जा सकती है.इन्सान का उत्साह ही
उसकी ताकत,उर्जा और बल है.ऐसे लोगों के लिए दुनिया में कोई भी चीज दुर्लभ नहीं है.
                                न कर तक़दीर का शिकवा मुकद्दर आजमाये जा,
                                मिलेगी खुद-ब-खुद मंजिल कदम आगे बढ़ाये जा.
 तमाम कुंठाओं,पाबंदियों और छीटा-कसी के बावजूद वह अनजान घरों में खासकर मुश्लिम घरानों में काम करना शुरू की थी.मेरी सबसे अच्छी दोस्त से नाता तोड़ने का दबाब मुझ पर भी बनाया जाने लगा.बात कुछ नहीं थी.बस जाति-धर्म के नाम पर पोंगापंथियों ने कुछ कानून बनाया था.जिसके तहत हुक्का-पानी बंद कर दिया जाता था.वैसे भी उन्हें कौन मुफ्त में खाने-पेट भरने को कुछ देता ही था.बेहतर है की उन झूठे रस्मों-रिवाजों से कट कर ही रहा जाये.मंजरी ने ऐसा ही किया.उसके इस कदम से भले सब खफा हुए हों लेकिन मैं दिल-ही-दिल में बेहद खुश थी क्योकि उसके ऐसा करने के कारण उसकी छह बहनों का पेट,कपड़ा और ज्ञान की समुचित व्यवस्था जो की जा सकती थी.इस पुन्य से बड़ा कोई दूसरा काम नहीं था.किसी को नंगा-पुंगा संसार में ला देना ही आसान है.ठीक-ठाक जीवन न देना गुनाह है.
                              रेंगते कीड़े से ऊपर है ज़िन्दगी,नंगई में न गुज़ार
                              हौसला से समय का मुख मोड़,बैठ के इंतजार में न गुज़ार.    
मुझे उसके इस कार्य का फक्र तब भी था,आज भी है,भविष्य में भी रहेगा.क्योकि उसने वो किया जो कोई भी नहीं कर पाता था.उस दौर में जब चारोतरफ कुंद मानसिकता का जंगलराज था.ऐसे में मंजरी का कदम बेहद सराहनीय था.यह याद मेरे जेहन में इस कदर बैठा हुआ है कि आज भी रौशन है.
आज तीस साल के बाद मुझे मेरी माँ से खबर मिली है कि उसने अपनी जिम्मेदारियों से निपट ने बाद उसने अपने लिए एक लड़का चुना,शादी की उसके बाद एक बच्चे की माँ भी बन गयी.
यह सब सोचती हूँ तो कल की ही बात लगती है.आज मुझे उसकी बहुत याद आ रही है.लिखने बैठी शब्द ने जैसे साथ ही छोड़ दिया है.कहाँ से शुरू करू,क्या-क्या और कौन-कौन से किस्से बयां  करू समझ में ही नहीं आ रहा है.जो-जो जीवटता पूर्ण काम वो की है यह किसी साधारण व्यक्ति के बस का नहीं है.
                          जरूरतों और हसरतों से भरी है ये जिंदगी 
                          कब,कौन,किसके काम आये ये नहीं मानती है जिंदगी.
                          वक्त आये तो बता देंगे ये कशमकश का हल 
                          ज़रा सब्र से इन्तजार का अभी चख ले फल.
सदियों से चली आ रही मान्यताओं,परम्पराओं,परिस्थितियों,संस्कृतियों और सभ्यताओं को
नजरअंदाज करके कठोर कदम उठाने की बात करना,उठाना और उस काँटों भरी राह पर समाज में चलकर दिखाना आसान नहीं है.
                                     dr.sunita

जीवन रंग-विरंगी यादों की फुलवारी


हर किसी के ज़िन्दगी के एक-एक क्षण सुखद नहीं होते हैं.
जीवन तमाम उतर-चड़ाव के समागम का ही नाम है.
हा! कुछ एक अपवादों को छोड़कर कहा जा सकता है कि जीवन रंग-विरंगी अनुभवों का एक जिन्दा तस्वीर है.
दुनिया में सबको सब कुछ मिलाना जरा मुश्किल है.
जिन्हें आराम से सब-कुछ मिल जाता है तो वह उसकी कदर नहीं करते हैं.
ऐसे बहुत सारे लोग हैं जिन्हें माँ की गोद-पिता का प्यार और भाई की झिड़की,बहन की फटकार नही मिली है.
जिन लोगों को मिली उन सबने अपने स्टेटस के नाम पर कुर्बान कर दिया.
 बनते-बिगड़ते,संवरते,सुधरते और मिलते-बिछड़ते रिश्तों के इन्ही भावनाओं की झलक इन पंक्तियों में सहज ही देखे जा सकते हैं.  
        चिराग..!
तू मेरी काया मैं तेरी छाया
हाय! हमने कैसा यह जीवन पाया.
        जिसको पाकर अपना सुध-बुध खोया 
         उसने ही मुझे छल कर दोहराहे पर पहुचाया.
दोनों की है चाह अनोखी,ईश की अविरल माया
जब-जब देखा उसको अपने रग-रग में समाया.
         ह्रदय ने पुलकित होकर हुँक लगाया
         किस्मत की लकीरों ने दुनिया में तुझे-मुझ से मिलाया.
घर की दीवारे नाच उठी देख मुखड़ा सलोना
आज चिराग जला दो कोना-कोना चिल्लाया.
         कंचन की कसौटी ममता का आंचल गाया 
         आज न जा तू बस मेरी गोदी का तू एक छाया.
                 चला गया..!
दो पल रहे उदास एक पल ख़ुशी रही 
इक बेवफा से अपनी बड़ी दोस्ती रही.
           उसको गुरुर था हुस्न पर मुझको मान था इश्क़ पर 
           अनकही दिवार अपने बीच शादियों खड़ी रही.
अब ख़तम हो रही है एक मुलाकात की घडी 
शायद फिर कभी मिलेंगे अगर ज़िन्दगी रही.
            तेरे जजबात,ख्यालात और पाकीजगी का शुक्रिया 
            बिखरें हैं तो क्या हुआ उम्मीदे-ए-दामन यूहीं सजी रही.
इस नामुराद शहर से वो चला गया है लेकिन,
उसकी शोख सरगोशी सदियों यादों में बसी रही.
               नशेमन-यार का संदेसा जब तक न मिला 
               गिले-शिकवे और अश्कों की चिलमन आँखों में जमी रही.
जब तक वह हमारे दरवाजे का शोभा रहा 
उस दम तक घर रोशनी में नहाई रही.
                चला गया चमन छोड़ कर सियासत के लिए 
                जाने क्यों हर तरफ सन्नाटा की सी विखरी रही.                
        
                  माँ..!
जब-जब हंसा दुनिया ने ठहाका लगाया
मैं चीखा दरो-दिवार ने रोष जताया.
            जब गमसुम होकर एकटकी लगाई 
            सबने अजब-गजब की दौड़ लगाई.
जब अकड़ के सीना ताने चला 
घमंडी कहकर मजाक उड़ाया.
              जब दर्द से दहाड़ कर सर टकराया 
              पीड़ा के मर्म से माँ ने शोक मनाया.
                                     डॉ.सुनीता 

भावना के तृप्ति का विराट फलक कहानी...!

मानव अपने मानसिक उलझन,परेशानी और भावना की तृप्ति का साझा अनुभवों को बाट के करता रहा हैं.यह कटु सच्चाई सृष्टि में शदियों से व्याप्त रही है.इन अनुभवों का आदान-प्रदान,घटना परिस्थिति से अभिन्न रूप में जुड़ा हुआ है. छोटी-छोटी घटनाओं को मार्मिक सम्बेदना,अनुभूति और समय विशेष से जोड़कर सहज ही समझने और अभिव्यक्त होने वाली विधा एक कथा के रूप में आकार पाती रही है.हिन्दी साहित्य में इसे कहानी के रूप में जाना-पहचाना जाता है.जैसे-जैसे समाज का दायरा बढ़ा,बदला और विस्तृत हुआ है.वैसे-वैसे ही किस्सा,कहानी और कथा का स्वरूप भी बदला है.जीवन के उतार-चढ़ाव की सजीव प्रस्तुति इसमें बड़े ही अनोखे तरीके से देखे जा सकते हैं.मानव विकास के साथ ही इसका विकास भी जुड़ा हुआ है.यदि सामानांतर दृष्टी से इसे एक दूसरे का परिपूरक कहा जाए तो कमोवेश अतिश्योंक्ति न होगी.आपसी सुख-दुःख के चित्रण का सीधा सम्बन्ध कहानी से है.
कथा लेखन का विशुद्ध मानदंड प्रकृति,सौन्दर्य,पशु-पक्षी,फूल-पौधे के अतिरिक्त सभ्यता,संस्कृति और मानवीय हरकतों से गुथित है.इतिहास को खंगाला जाए तो ज्ञात होता है कि हिन्दी के पहले संस्कृत,पाली और अपभ्रंश में भी कथाओं का प्रचुर प्रभाव रहा है.संस्कृत के वेद-वेदांगों में पौराणिक कथाओं का वरण स्पष्ट देखा जा सकता है.वहीँ पाली के लोककथाएं,जातक कथाएं अमूमन धर्म और लोकभावना से अत्यधिक उत्प्रेरित हैं.आधार स्तम्भ के रूप में 'रामायण','महाभारत',' श्रीमदभागवतगीता',और 'रामचरित्र मानस' को टटोला जा सकता है.जिसके कथा के साथ न जाने कितने लघु कथाएं संपृक्त हैं.समस्त भारत वर्ष में कहानी का शुरुआती रूप वैदिक काल से मौजूद रहा है.इसका सूत्रपात संस्कृत के अनुवादों से हुआ माना जाता है.इसमें 'बेताल-पचीसी' सर्वप्रमुख है.
उसके बाद 'चारण' तथा चारणेत्तर कवियों के 'रासों' के चरित्र काव्यों में कथातत्व की प्रधानता देखी जा सकती है.इनमें पंक्षियों के कलरव के साथ कथा के बहुरंगी सोपान के दर्शन होते हैं.इसके आलावा प्रेमाख्यानक परम्परा के अगुआ कवियों ने 'मधुमालती','चंदायन' और 'मृगावती' के रूप में एक अलग प्रेम कथा की शुरुआत देखी जा सकती है.जिसमें पंक्षियों को कुशल सन्देशवाहक के रूप में जिवंत चित्रण है.विरह और मिलन के गवाह यह अबोध पक्षी बिन बोले ही बहुत कुछ प्रेणना के बोल-बोल जाते हैं.एकदम अलग रुप में 'चौरासी वैष्णव की वार्ता' है.एक स्वप्न के वार्तालाप को किस्सा के रूप में वर्णित किया गया है.कहा जा सकता है कि कहानी के आरम्भिक दौर में धार्मिक,दैविक और संयोगात्मकता को प्रमुखता से देखा जा सकता है.
वस्तुतः हिन्दी साहित्य में कहानी का उत्थान १९वी.शताव्दी में हुआ.इस दौरान राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत विवरणात्मक शैली को सहज ही देखा जा सकता है.मनोरंजन के फलक पर नजर दौड़ाने के पश्चात् ज्ञात होता है कि सामाजिक,राजनीतिक,आर्थिक और धार्मिक आदि कहानियों में चरित्र की प्रधानता सरल रूप में देखी जा सकती है.साहित्य में साहित्य के इतिहास का विभाजन एक महत्वपूर्ण पड़ाव है.हिन्दी में कहानी के प्रारम्भ विकास और चर्चा का पूर्ण श्रेय 'द्विवेदी युग' को जाता है. सन १९०० में एक मासिक प्रत्रिका 'सरस्वती' का प्रकाशन हुआ.जो पहले कहानियां अंग्रेजी और संस्कृत के आधार पर लिखी जाती थीं.उसमें बदलाव होने लगा था. शैन:-शैन: जन साधारण के घटनाओं को आधार बनाया जाने लगा.जीवन के आप-धापी के संघर्ष को एक प्रेणना के रूप में व्याख्यायित किया जाने लगा.कपोल-कल्पना की दुनिया 'जयशंकर प्रसाद', और जासूसी वो तिलिस्म यानि 'चंद्रधर शर्मा गुलेरी' से निकल कर हकीकत के धरातल पर उतर कर यथार्थवादी 'प्रेमचंद' के रचनाओं का दौर आया.लम्बे समय तक लेखनी का यही रूप जारी रहा.परन्तु शीध्र ही कहानियों के बुनावट में विविधता उत्पन्न हुई.इस रचनात्मक हलचल से चरित्र प्रधान,वातावरण आधारित क्रिया-कलाप पर निर्भर और हास्य-व्यंग्य प्रधान कहानियों का एक नया कलेवर अवतरित हुआ.
विवरण के फलस्वरूप देखा जाए तो 'प्रेमचंद' ने जहाँ कल्पना और यथार्थ को अपना लेखकीय हथियार बनाया.वहीँ 'जयशंकर प्रसाद' ने विषय-विस्तार करके परिष्कृत शैली को परिपुष्ट करने के साथ ही कहनी में रोचकता और दार्शनिकता का परिचय पाठक से करवाया.समयांतराल के बाद कहानियों में एक सूक्ष्म उदेश्य ही देखने को रह गए.व्यक्ति के अंतरद्वन्द और प्रतीकों को एक केंद्र विन्दु के रूप में 'अज्ञेय','जैनेन्द्र', और 'इलाचंद्र जोशी' ने वर्णित किया.कहानियों में भी एक प्रगतिशीलता दिखाई देती है.जो की पूर्णतः समाजवादी यथार्थ का विराट फलक है.नवीनता के द्वयोतक के रूप में अमृतराय,भैरवप्रसाद,विष्णु प्रभाकर,रांगेय राघव,उषा देवी,प्रभाकर माचवे,और चन्द्रकिरण का नाम लिया जा सकता है.नजर दौड़ाने पर महसूस होता है कि लगभग सन १९६० में हिन्दी साहित्य में कटु यथार्थता संलिष्टता के साथ दिखाई देने लगा.इससे कथानक में त्रास उत्पन्न हो गया.किन्तु नई सम्बेदना और वस्तुस्थिति मूलरूप से कहानी को बचाती नजर आती है.हिन्दी के पहली कहनी से लेकर आज तक कहानी के कथन को लेकर ऊहा-पोह की स्थिति सदैव बनी रही है.'पंडित किशोरीलाल गोस्वामी'के प्रथम कहानी 'इंदुमती' को मौलिक कहानी का दर्जा दिया गया है.तत्पश्चात 'गोस्वामी'जी की ही 'गुलबहार', 'मास्टर भगवानदास' का 'प्लेग की चुड़ैल',रामचंद्र शुक्ल' का 'ग्यारह वर्ष का समय', पंडित गिरजादत्त वाजपेयी' का 'पंडित और पंडितानी' और 'बंग महिला' की 'दुलाईवाली' कहानिया एक -एक करके प्रकाशन में आई.इसके आलावा भी बहुत सी उंदा कहानियां लिखीं गयी और प्रकाशित हुई.
गाँव और नगर को तुलनात्मक नजरिये से परखते हुए,नई सोच और दृष्टि के मुताबिक तमाम किस्से-कहानियां लिखी गयी.इनमें वैविध्य पाया जाता है.जिस तरह से समाज की परिस्थिति बनती गयी उसी के अनूकुल कहानियां भी लिखी जाती रहीं हैं.एक तरफ चीन के आक्रमण,दूसरी तरफ से रूस के मार्क्स के विचारों की प्रभावकारिता की व्यापकता कहानियों में स्पष्ट देखी जा सकती है.
उच्च मानवतावाद के सूर ने तेजी पकड़ी.जहाँ से आदर्शवाद का नारा जोर पकड़ा.निम्नवर्ग की समस्या को बड़ी ही संजीदगी से उठाया जाने लगा.जातिवादिता के नारे बुलंद किये जाने लगे.इससे परम्परागत रीति परिवर्तन के दर्शन हुये.सामानांतर दौर में दुःख,दर्द,गरीबी,भूख हड़ताल,असुरक्षा,सेक्स और झूठे मानवीय मूल्यों का मूल्यांकन जांचती-परखती नजरिये से किया जाने लगा.अंधी दौड़ की कायल जनता के वेग को एक नये अंदाज में देखा जाने लगा.
मौजूदा कहानी का सत्य यह है कि आज के कहनी में छोटी-छोटी अनुभूतियों को बड़ा करके पाठक के समक्ष परोसा जा रहा है.क्योंकि इसने अभिव्यक्ति का रूप धर लिया है.इसमें ऐसा लगता है कि सैकड़ों कथा,घटनाये,विविध मोड़ों और क्षणों को प्रासंगिकता का स्थान देकर फैलाया गया है.अस्तित्ववादी परिवेश को आधार बनाकर ग्रामीण,आंचलिक वर्गीकरण को अमलीजामा पहनाया गया है.
जिस प्रकार से परिवार में पीढ़ियों के अन्तराल का व्यापक प्रभाव दृष्टिगत होता है ठीक वैसे ही साहित्य में दिग्दर्शित होता है.समाज से साहित्य किसी भी तरह अलग नहीं है.जो बदलव यहाँ देखे जाते हैं वही रचना में भी देखे जाते रहे हैं.यही कारण है कि आज कि कहानी पहले कि कहानी से कोसों दूर है.लेकिन इसे गलत नहीं ठहराया जा सकता है.क्योंकि बदलव ही सृजन को नये रूप-रंग से सुसज्जित करने में कारगर है. 
डॉ.सुनीता 

लोकप्रिय पोस्ट्स