विराट लहरों के मानिंद बेकल,बेचैन,बेवश और अशांत,'शेखर'..!


'शेखर' समुन्द्र की विराट लहरों की उमड़ती-घुमड़ती धाराओं के मानिंद बेकल,बेचैन,बेवश और अशांत है.संसार के सारे गुण-अवगुण को अपने अन्दर समाहित करने वाली सागर हमेशा अपने कल-कल में खामोश गीत गाती-गुनगुनाती है.ठीक वैसे ही शेखर दुनिया के दाव-पेंच से अनजान,अज्ञान और अपरचित खुद को व्याकुल पाता है.जाने क्यों उसको यह समाज एक छलावा और रहस्यमई प्रतीत होता है.
पराकाष्टा के हद तक उसकी जिज्ञासा का वाजिब जबाब किसी के पास नहीं है.हरदम,हरपल एक प्रश्न उसका पीछा करती रहती है.जिससे वह बच नही पाता.वह जानना चाहता है कि यह दुनिया क्यों है,किसने बनाई हैं,किस लिए,किसके लिए और उद्देश्य और क्यों है.?
उसके मन में अनगिनत सवाल हैं लेकिन उत्तर कोई नही बता पता की ऐसा क्यों है.
उसके इन उट-पटांग बातों से किसी को कोई मतलब नही है.सच्चाई तो यह है उसके इसी उत्सुकता में जीवन,ज़मीन,समाज और प्रकृति के रहस्य विद्यमान हैं.
हम इस बात से कत्तई इनकार नही कर सकते की बच्चों के मासूम सवालों में अनंत क्रियाएं छुपी होती हैं जिसे हम लोग भी नहीं समझ पाते हैं.
ऐसा ही कुछ शेखर के साथ भी था.उसे अपने उम्र से पहले ही हर उस चीज़ को जानने की बेहद उत्कंठा थी जिसके कारण उसे नित्य-प्रति डांट पड़ते रहते हैं.पिता की फटकार उपहार स्वरूप मिलती सो अलग से.उसके अंतर्मन में एक अजीब सी हलचल थी कि जिस चीज को उससे छिपाई जाती उसे वह प्रयोग के माध्यम से पता लगाने की भरसक कोशिश करता ही रहता. उसने अपने इस चेष्टा को कभी किसी के कहने से गलत मानने के बावजूद भी जुटा रहता.इतना ही नहीं बल्कि दूगुने मेहनत के साथ उसका हल ढूढ़ निकालने का प्रयास तेज़ कर देता था.
'अज्ञेय' के उपन्यास 'शेखर एक जीवनी' का शेखर इन्ही गुणों का खान नजर आता है.
प्रकृति,परिवर्तन,परिवार,प्यार,समाज और सम्मान के सभी पहलू को बखूबी जांचता-परखता है,फिर अपने औचक सवालों की झड़ी से अचम्भित भी करता रहता है.उपमानों के माध्यम से
कथा का संयोजन मन को प्रफुल्लित और एकटक पढ़ने को मजबूर करती है.शशि और शेखर दोनों ही इसके आधारविन्दू हैं.जिनके परिप्रेक्ष्य में ढ़ाचागत बनावट के सहज ही दर्शन होते हैं.
सम्पूर्ण कथा में उत्सुकता के इतने सारे सोपान आते हैं की कहीं से भी बोरियत नहीं महसूस होती है.
संजोये स्मृतियों के स्वर्णिम क्षण बार-बार मन को मोहित करते जाते हैं.जगह-जगह मानवीय भावात्मक वर्णन ध्यान आकर्षित करते हैं.अंत आते-आते जिज्ञासा की पिपासा शांत होने के बजाय कोलाहल मचा देती है.दो भाग में प्रकाशित यह रचना अपने-आप में एक अनूठी कृति है.
                               डॉ.सुनीता

'अमीर खुसरो' की नज़र में 'भारत'

दिन-दुनिया के सच्चे प्रेमी आराधक और शुभचिंतक 'अमीर खुसरो' बहुआयामी व्यक्तिव के स्वामी रहे हैं.
आपका असली नाम 'अबुल हसन यमीनुद्दीन' था.इन्हें 'तूती-ए-हिंद', 'मलिकुश्शोरा'
और 'सुल्तान',तुर्क' के उपनाम से संबोधित किये जाते हैं.652  हिजरी (3मार्च 1253) के आस-पास 'पटियाला'जिला के एटा(उत्तर-प्रदेश)में अवतरित हुए थे.लेकिन इनके जन्म को लेकर विवाद रहा है.कुछ लोगों ने इन्हें दिल्ली की पैदाइश करार दिया है.जो भी हो इस विश्वकवि ने अपने अदभूत प्रतिभा का लोहा कई-कई शासकों के शासनकाल में मनवाया है.
अपने 'गुरु'के अनन्य गायक खुसरो ने भारत देश की एक अलग ही व्याख्या की है.
इतिहास साक्षी है की पूर्वजों ने देश के श्रृंगार में अहम् भूमिका निभाई है.इस सन्दर्भ में खुसरो का योगदान कुछ कम महत्वपूर्ण नहीं है.आपको कई रागों,साजों,बाजों और बाद्य-यंत्रों के खोज कर्ता का श्रेय दिया जाता है.खुसरो ने हमेशा ही खुशदिली से हर उस चीज का स्वागत मन से किया है जो प्रकृति ने सहर्ष दिया है.धरती के स्वर्ग को लेकर कई तरह के उदहारण भी दिए हैं.कुदरती प्रज्ञा के मालिक 'खुसरो' ने भारत के सन्दर्भ में उल्लेख किया है..

'किश्वरे हिंद अस्त बहिश्ते बज़मी'
अर्थात 'भारत को पृथ्वी का स्वर्ग मानते थे'.

'दीं ज़ रसूल आमदाहे काई ज़ मर दीन'
हुब्बेवतन ह्स्तज़ ईमां बयकिन.

स्वर्ग के सन्दर्भ में उन्होंने सात दलीलें दी हैं-

१-अव्वलिश इनस्त कि आदम व् जिनां
चूं ज़ असी खुनगई याफत चुनां.

२-गर न बहिश्ते अस्त हमीं हिंद चिरा
अजपये ताउस जनां गश्त सरा.

३-हुज्जत ईनस्त सुययम गर शके
कामदन मार ज़ बागे फलकी.

४-हुज्जते चहारुम मगर इन्स्त कि चूं
जद कदम आदम ज़ हद हिंद बरुं.

५-हिंद हमा साल कि गुलरुये बुवद
जी बुद व् गुल हमा खुशबू बुवद.

६-बस हमा हाल ज़ख़ुबी बबिही
हिंद बहिश्त अरुत बा सबात रही.

७-गर्चे कि बर निस्बते फिरदोशि निहां
बा हमा  लुत्फिश चूं जिंदा अस्त जहां.

अपने गुरु के लिए इतने बिह्वल रहते थे कि उनके मरने के बाद ही आप से आपकी ज़िन्दगी भी रूठ गयी.ऐसे शिष्य और ज्ञानी गुरु ढूढ़ना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन सा है.
कम से कम आज के आपा-धापी में तो और भी कठिन है.

ज्ञात पलों के अज्ञात चितेरा 'अज्ञेय'


मनोविज्ञान के पृष्टभूमि पर खीचे चित्र का अनूठा,अदभूत और अतुलनीय चित्रण इस कृति में सहज ही देखे जा सकते हैं.ज्ञात पलों के अज्ञात चितेरा 'अज्ञेय' ने तमाम रचनाये की हैं.कहानी,कविता,उपन्यास,पत्र-पत्रिकाओं और तार-सप्तकों का प्रकाशन भी किया है.आपके द्वारा लिखित यह उपन्यास अपने-आप में एकदम अलग और अपनी कथा-परिकल्पना के कारण बेहद मार्मिक और हकीकत की ज़मीन पर आधारित है.विविध पात्रों के माध्यम से व्यक्तित्व के अन्तर्निहित संबंधों का खुलासा बड़ी सरल तरीके से किया है.मानवीय सम्बन्धों में मुक्तता के संदर्भ को बड़ी प्रभावी तरीके से उल्लेखित किया है.'नदी के द्वीप' के मुख्य तीन किरदार हैं.कथा की अगुआ 'रेखा' है जो की विचारों से बहुत ही पौढ़ और सहनशील स्त्री के रूप में सामने आती है.वह भावनात्मक लगाव के अंतर को बखूबी पहचानती है.दया,प्रेम और करुणादिक् शब्दों के भेद को भलि-भांति जानती-समझती और विभेद करती है.यही कारण है कि 'चन्द्र' द्वारा बारम्बार नौकरी दिलाये जाने हेतु कृतज्ञ तो होती है,परन्तु दयावश या भावावेश में स्यंम को उसके एहसानों तले दब के दबती नहीं है.वस्तुतः नज़रअंदाज कर अपने कार्य में लीन रहती है.'चन्द्र' की भावुकता को समझते हुए भी ना समझने की कोशिश निरंतर करती है.ऐसा नहीं की बड़ा आदमी या पैसावाला समझकर स्वार्थवश उसके पीछे ही पड़ जाती है,वरन अपनी पहचान खुद के दम पर बनाने में यकीन करती है.संघर्षरत महिलाओं के लिए प्रेणना के प्रतीक रूप में देखी जा सकती है.जो लोग खुद के सपनों और कर्तव्यों पर यकीन करते हैं वो अपना एक अलग मुकाम बनाने में ही खुद को मुकम्मल समझते हैं.इसी तरह की कुब्बत 'रेखा में भी देखी जा सकती है.'भुवन' एक वैज्ञानिक है.उसके विचार भी उसी के अनुरूप है.गहन चिंतन-मनन और वाकपटुता आसानी से देखे जा सकते हैं.'गौरा' के आकर्षक होने के बावजूद भी वह संयमित रहता है.सदैव मार्गदर्शक की भूमिका निभाने के बाद भी स्यंम को उससे असम्पृक्त बनाये रखता है.लेकिन जैसे ही 'रेखा' के संपर्क में आता है.अपने में होनेवाले परिवर्तन से व्याकुल हो जाता है.अंततः मानसिक पीड़ा,हिचक और संकुचित दायरे को तोड़ते हुए 'गौरा' के समक्ष स्वीकार करता है कि वह 'रेखा' से स्नेह करने लगा है.प्यार के पगडंडी से रिश्ता जोड़ने के अनोखे तरीके देखे जा सकते हैं.इन सबसे अलग 'चन्द्र' 'गौरा' और 'रेखा' दोनों से ही समान ह्रदय भरा व्यवहार करता है.आज के दौर में एक दोस्त दूसरे के साथ इतनी इमानदारी से पेश आये तो यह इस रिश्ते की सबसे बड़ी कामयाबी है.क्योकि आज लोगों के अन्दर छल-कपट और दिखावा का जंगल-राज क्रूरता से देखे जा सकते हैं.जब कोई इन्सान खुद के भावना में ठीक-ठीक अंतर नहीं कर पाता है,तो वह किसी तीसरे का वरण करता है.वैसे ही उपन्यास के अंत में 'चन्द्र' बाबू एक अभिनेत्री से शादी कर लेता है.
इस तरह के प्यार समाज में नित्य-प्रति देखे जा सकते हैं.कुछ लोग अपने संस्कारों की दुहाई देकर रिश्ते खंड-खंड कर देते हैं.वहीँ कुछ व्यक्ति ही दोखेवाजी का जाल फैला कर मुक्ति का मार्ग तलाश लेते हैं.विवाह 'रेखा' भी करती है लेकिन 'रमेश' से करती है.इसमें उन दोनों की शुभकामनायें सन्निहित है.कथा के अंत होते-होते 'गौरा' के धैर्य की जीत उसे प्रासंगिक बना देता है.उसके विस्वास के विजयस्वरूप 'भुवन' उसे मिलता है.जब कोई ठान ले की यह वस्तु या व्यक्ति उसका ही है तो जीत सुनिश्चित है.इसमें(उपन्यास) भी यही देखने को मिला कि समर्पण,धैर्य और अटूट विस्वास को हराना आसान नहीं है.कुल मिलकर उपन्यास सुखांत है.
किसी भी कहानी,किस्सा,कथा और उपन्यास के विषय-वस्तु का सही-सही अंदाजा पाठक पढ़ने के दौरान ही लगा लेता है कि बुनावट का फलक किस तरफ फैलेगा और कहाँ जाके सिमटेगा,लेकिन कसी हुई भाषा,शैली,रोचक परिवेश और प्रतीकों के सटीक प्रयोग से बंधा पाठक पूरी कथा को पढने हेतु मजबूर हो जाता है.यह लेखक की लेखनी की ही जीत है.कौन सा पात्र सबसे अधिक प्रभावित करता है.यह इस बात से ही पता चल जाता है,जब लेखक उसी नाम से पुकारा जाने लगता है.ऐसा ही कमोवेश 'नदी के द्वीप' के सन्दर्भ में भी कहा जा सकता है.उपन्यास के बीच-बीच में अंगेजी कवियों की कवितायेँ,दार्शनिक बातें,बड़ों की बालसुलभ व्यवहार,प्रकृति के बीच उन्मुक्तता और मनुष्य का आपसी द्वेष सभी कुछ पाठकों पर प्रभाव छोड़ते हैं.
मुक्त या स्वछंद होने पर भी 'रेखा' व्यभिचारी नहीं है.वह अपना गौरव जानती है.
"समर्थ प्रकृत चरित्र सभ्यता के पास हुए पालतू चरित्र के नीचे दब जाता है-
व्यक्ति चरित्रहीन हो जाता है.
तब वह सृजन नहीं करता,अलंकरण करता है."
नोट-
यह पुस्तक मुझे M .A . के दौरान पुरस्कार के रूप में मिली थी.उसी समय पढ़ने के बाद जो कुछ लिखा था उसे आप सब सुधि पाठकों के समक्ष आज पोस्ट कर रही हूँ.
उम्मीद है इस पर आप सब अपनी प्रतिक्रिया जरुर देंगे.जो त्रुटी रह गयी है उस तरफ भी ध्यान दिलवाएंगे...

'तमाचा का तमाशा'


अक्सर घर-परिवार में भी ऐसी परिस्थितियां आती हैं जब हम बहुत ही आक्रोशित और गुस्से में होते हैं.हम अपने बड़े-बूढों के फैसलों से कुंठित और बौखलाए हुए होते हैं,जी में आता है क्या न  कर डालें,लेकिन उनपर झल्लाने,पैर पटकने और खामोश हो जाने के आलावा कुछ दूसरा उपाय नहीं सुझता है.कभी-कभी ऐसा समय भी आता है जब बिना गलती के सजा भी भुगतनी पड़ती है.कुछ एक बार ऐसी स्थिति भी आती है जब कक्षा में गलती कोई एक करता है,किन्तु दंड का भागीदार सबको बनना पड़ता है.उस समय 'गुरु'/'अध्यापक' से नाराज होकर लत्तम-घुस्सम पर उतर आते हैं..?
जब हम अपने नाते-रिश्तेदारों के यहाँ होते हैं तो कुछ पाबंदियों को झेलना पड़ता है.
उस अवस्था में घर की शांति भंग कर ताले तोड़ निकल पड़ने की साजिश करते हैं.?
शायद नहीं;फिर किसी को मारके हम क्या हाशिल/सावित कर लेंगे..?
विरोध करने का सबको अधिकार है.लेकिन अपने संस्कारों,सभ्यताओं और संस्कृतियों पर कुठाराघात करके किसकी समृद्धि होगी..?
सोचने वाली बात है कि विरोध का रूप इतना उदंड,भयावह और आक्रामक क्यों होता जा रहा है.?
जब एक पैसा,दो पैसा का जमाना था तब भी महंगाई थी.
जब हजार-दो हजार का दौर आया तब भी महंगाई नही गई.
जो लोग दो सौ रूपये में घर चलाते थे.आज वो दो हजार में में भी तंगी से परेशान है.पूरे परिवार के तन ढकने की जुगत करने में असफल और ठगा सा महसूस कर रहे हैं.
जिसे पहले चार हजार तनखाह मिलती थी आज उसे चालीस हजार मिल रहा है.ऐसे में भी किल्लत की लकीर नही पट रही है.
उस ज़माने में भी नौकरी के लिए लाइन लगती थी,अब भी लगती है.
'तीन बुलाये तेरह आये,रो-रो विपदा सुनाये' 
हम सब विकास के चाहे जितने दौर-पड़ाव से गुजर लें अनियंत्रित जनसँख्या के सामने बौने ही साबित होंगे.इस तरह के उत्श्रन्खलता में आकर उट-पटांग,उलूल-जुलूल और अभद्र व्यहार से क्या दिखाना चाहते हैं..?
अपने-अपने मांद में त्रस्त-प्रस्त और भ्रष्ट तो सभी हैं.फिर किसको-किसको सजा देंगे...
किस-किस पर तमाचा मार-मार के तमाशा बनते रहेंगे..
आखिर क्या-कुछ हल हो पायेगा...

'शब्द' हैं 'शब्दों' का क्या !



जहाँ में आके,
सबको पाके,क्या सोचें हम,
क्या करें वो ..?
किसी को राह बतलाएं.
मंजिल के लिए उकसायें 
या फिर उसे दबाएँ
कर्म के सहारे. 
जीवन पथ पर 
आगे बढ़ाना सिखलाएँ,
पर वो नहीं मानता 
न ही समझाता है.
वो...
विमुख हो गया है इन्सान
अपने कर्म से धर्म से 
नहीं मानता,कर्म के मर्म को
मनमाना ही करता. 
जूनून है उसको 
हड़पने की 
सनक है हथियाने की 
रार ठाने बैठा है 
सब कुछ अपने में
समाहित करने को 
सरियाने को वो...
इसको,उसको,सबको,
तैयार है बरगलाने को  को
इसीलिए व्याकुल है 
बेचैन है हर वक़्त हर व्यक्ति 
चाहता है अपनों को,अपने कौम को,
लूटना खसोटना,हथियाना
क्योंकि..
हम..!
सारी दुनिया  
हैं लालची
उसमे कूट-कूट के 
भरा है 
स्वार्थ,दिखावा,सेवा,
संस्कार,प्यार और सम्मान
उसमें है संपृक्त 
काम,मोह,माया,
एश्वर्य,सत्ता,झूठी मर्यादा 
और संप्रभुता की 
जहाँ-जहाँ जाता वो..
मूल्याकन में अपने को कम पाता 
औरों के अपेक्षा 
निन्यान बे के फेर ने 
सिखलाये
जोड़-तोड़ 
और गला घोट निति 
इसमे लीन मानव ने 
कर दिया दरकिनार 
मानवता को 
सम्बेदना और अखंडता को
भागम-भाग में शामिल 
छोड़ दिया नैतिकता 
पकड़ रह भौतिकता 
विस्मृत कर दिया 
वो..
कैसे आया है 
धरती पर क्यों,किसलिए
पाया है..
तन 
ऐसे कैसे यहाँ आया है
जिसने उसको भेजा 
किसने उसको यहाँ बुलाया 
सुभेक्षा 
अंतर्गत रहने को 
मानवीयता फ़ैलाने को 
पर  वो ...
उसे धिक्कारता 
करता उसका तिरस्कार 
वह पहुचना चाहता है
वहां,जहाँ कोई नहीं पंहुचा 
उस चरम,चाँद पर 
है घटाटोप अँधेरा 
रोके खड़ी है राह
भौतिकता से पहले 
नैतिकता के साथ
ले जाती है अपने पास,
वहां अपने साथ
जहाँ शून्य हो जाता है व्यक्ति 
रह जाती हैं यादें,सपने
कर्तव्य मध्य में 
एक संकल्प,विकल्प के साथ 
हम नहीं करेंगे 
भक्षण,गौ,मानव और काला धन
पालन करेंगे 
आदर्श,निर्देश का 
जो अवनीय,अनिकेत,अवमूल्य 
झलकती है 
हमीं बनेंगे 
सर्वश्रेठ..
अखंडता का विस्तार 
होगी धरणी सुचितामय
जिससे आयेगी अविरल धारा
स्नेह,सम्मान,संस्कृति और संपूर्णता
सभ्यता की..
कोई न होगा  
नंगा,भूखा  
अनपढ़,गवार  
सबके घर आएगी  
श्रदा,विश्वास 
यश अपार..
अभी करना है 
हमें कितना इन्तजार
कोई बतलाये क्या हो पायेगा 
ऐसा संसार में....???????
                              ..सुनीता...
                      (चोर की तलाश...)
नोट-- यह कविता मैंने अपने कक्षा ६(१९९४) में पढने के दौरान स्कूल में हुई प्रतियोगिता में एक प्रतिभागी के रूप में लिखा था इस पर मुझे पुरस्कार भी (गुरु राम किशोर शर्मा 'बेहद' के हाथों)मिला था.एक चांदी का पेन जो एक बार इलाहाबाद यात्रा के समय चोरी हो गयी,जिसने चुराई वो कितना ऊचा उठा मुझे नहीं पता लेकिन याद करके मुझे बहुत ही दुःख और क्रोध भी बहुत आता है,कि काश वो मिल जाये(पेन वो चोर)..पर ऐसा कभी नहीं हुआ यादें बस यादें हैं..

श्रद्धांजलि: डूब गया 'राग दरबारी' का 'सूरज'


"जीवन के अगडित पग चिन्हों पर चल कर 
मैं भी तो थक जाता हूँ.
                            मन चिंतित,तन व्यथित हो जाता है
                             मैं अब सोना चाहता हूँ.
अंगड़ाई लेती मौसम कुछ हौले से कहती है  
मैं कुछ सुस्ताना चाहता हूँ.

                             रंज नहीं हे!प्रिय,जीवन बहती धारा है
                             मैं इससे यूहीं दूरी बनाना चाहता हूँ.

आये कोई नई किरण भूमि तल पर 
मैं ये जगह उसे समर्पित करना चाहता हूँ. 
                            
                                नैन हठीले थक गये पंथ निहारती 
                               मैं बस इस उलझन को सुलझाना चाहता हूँ.."

मै 'सूनी घाटी का सूरज' 
'अज्ञातवास'का वासी,'पहला पड़ाव'का नायक
                                   हमने चखा हर 'आदमी का जहर' 
                                   अंतत:'सीमाएं टूटती हैं'
                                                             देखो अब मैं चला 'यहाँ से वहां'...!  

                                                                                                                        डॉ. सुनीता

'श्रीलाल शुक्ल' जी के व्यथित और प्रफुल्लित मन के भावना को व्यक्त करने की एक छोटी सी कोशिश है...!

नोट:यह चंद लाइने मैंने सृजककार के लिए १९/१०/२०११ को लिखी थी,
जिसे मैंने प्रसिद्ध आलोचक 'श्री वीरेन्द्र यादव जी' के पास मेल किया था.
परन्तु उस समय वह सुनने के स्थित में नहीं थे.
इस उम्मीद के साथ मैंने इसे सहेजे रखा था कि शायद वो एक दिन सुन सकेंगे,
लेकिन अब वो दिन नहीं आएंगे लिहाज़ा इसे सार्वजनिक तौर पर पोस्ट कर रही हूँ...
 Virendra Yadav
  • (धन्यवाद,सुनीता जी.आपकी भावनाओं के साथ मैं शामिल हूं.अफसोस कि श्रीलालजी अभी इस स्थिति में नहीं हैं कि वे इसे सुन सकें.धन्यवाद.19/10/2011)

कोरे कागज पर मां की रोटी का किस्सा


कोरे मन के 'कोरे कागज' पे किस्सा तमाम लिखा. 
दिन लिखा,रात लिखी,भींगे बारिश का हाल लिखा. 
रूठी बेटी,माँ की रोटी,पिता का प्यार लिखा.
भाई-बहन के नोक-झोंक को बहरहाल लिखा. 
देश-विदेश के अच्छे-बुरे कर्मों का विस्तार लिखा. 
मिटटी-चिठ्ठी की बातें दर्द,खुसबू को आम लिखा. 
गिरते-उठते मूल्यों का हिसाब-किताब बरहाम लिखा. 
नीति,रीति,राजनीति,कूटनीति का बयान लिखा. 
धोती-कुर्ता छोड़,पतलून-पैंट के फटेहाल लिखा. 
घूँघट-घुंघरू,बिंदी छूटे,हिप्प-हाप्प के रूप-सरूप लिखा...

डॉ सुनीता 
17.11.2011

चित्रकार का 'शब्‍द चित्र'


1-रेखाओं-रंगों का अदभूत चितेरा हूँ
मिट्टी से उठा आसमा का सितारा हूँ.
                   जिवंत हो उठी तस्वीरें
                   इन्द्रधनुषी रंगों में बोल उठी तकदीरें.
आड़े-तिरछे लकीरों में छिपी कहानी
अनोखे अंदाज की ए हैं सारी निशानी. 
                    बेजुबान को जुबां मिली अतिवारी 
                    बेहद कौतुक,भेष अति न्यारी. 
चरमपंथ से भ्रमपंथ के शिकार हुए 
आहूत,अवकुंठित,अबिलम्ब दीवार हुए.
                     कट्टरता की भेंट चढ़ी पारखी कला
                     ऐसे कब तक अन्याय झेले कोई भला. 
सांस रोक दी सजा नहीं हुई 
कुछ फासले बने इब्तदा नहीं हुई. 
                     सरमाया रहा जब तक दौलते जहाँ में रहा 
                     अलविदा कह दिया गिला जहाँ से न रहा. 
हर दिन हर रूप में सजती रहीं लकीरें 
घूमता रहा दुनिया में यह फकीर. 
                      नंगे पैर की नुमाइंदगी वर्दास्त न हुआ लोगों से 
                      कत्ले-आम फतवा सुना दिया कुछ शोहदों ने. 
फाकापरस्ती में गुजारता रहा हँसते-हँसते
दिन रैन मौत मंडराता रहा हाफते-हाफते.
                       आदाओं का दीवाना कलाओं पर फ़िदा 
                       कद्दावर कलाकार रहा है 'मक़बूल फ़िदा'.
दीन-हीन से परे सोचता रहा है 
किया वही जो वक़्त से मौका मिलता रहा है. 
                        मुल्क मुस्सलम छोड़ा पर मुकाम न बदला 
                        जूनून-ए-रेखाओं का संग न बदला.
खैरियत न पूछ सके इतना दूर निकल गया 
मौजू-ए-देश से बेनूर निकल गया.
                        जादूई कला का जादू सर चढ़ बोलता रहा 
                        चमचमाती तलवारों की मूठ से खुद ही लड़ता रहा.
2-कलाकार सो गया,कला सो गई 
तक़दीर बदली तस्वीर बादल गई. 
                         तंत्र बदले तख़्त ताज़ बदल गये 
                         शब्दों से रेखाओं का स्वरुप बादल गये. 
क़त्ल की रात आई तल्खी साथ लाई
दो ग़ज ज़मी में काले पानी की सजा पाई.
                          काटे चित्र काट के क़तर ले गई क़तर के 
                          जमीन ज़ख्म जोड़ के ओहदे अपनी छोड़ के. 
मीनाकारी के रूप में 'मीनाक्षी' मिली
वह तोड़ती पत्थर की 'गजगामिनी' बनी. 
                           कला का मुक़द्दस शहंशाह 
                           विचित्र चितेरा फिरता मारा-मारा. 
रेखाओं में जीवन की अभिलाषा 
रोमांचक एहसास जगाती.
                            मन हुलसाती मधुर चांदनी लुटाती 
                            अगडित प्रतिबिम्ब दिखाती. 
अनुप्राणित सिंचित करतीं 
'पिकासो' की अर्जित,सृजित कृति. 
                             उत्कृष्ट,उत्सर्जित आधुनिकता लाई 
                             बहस-मुबाहस की राह बनाई.
धरती माँ के रंग-रूट बदले,बिगाड़े
ऐसे ले लिए खतरे,बजे अनमोल नगाड़े.
                              जाति,धर्म,भेद कुल से ऊपर 'रामायण' की श्रृंखला बनाई 
                              कठ्मुल्लावाद को धता बता ऐसी कुची चलाई. 
आये नया कलेवर ऐसा चक्र चलाया 
ओढें रेखा पहने रंग वो ढंग बनाया.
                              आई अंधी दौड़ कला हो गई बेडौल 
                              आतताई बन गये हातिमताई लेके ढोल. 
कला के कल्पवृक्ष से विकराल पट उभरा 
गगन में शोहरत की अनुगूँज चहूओर बिखरा. 
                              आया एक अंधड़ उड़ा ले गया झरोखा 
                              टूटा बंधन विखरा यह आशियाना. 
अपने छूटे,सपने टूटे 
आहें-आहटें दिनरैन चैन लूटे. 
                              धरती का कोना-कोना बोले 
                              'मक़बूल' का कला कबूलें.
महदूद,अपराजेय,प्रतिमान,प्रतिष्ठित हुआ 
कला में हलचल छाई,अब वह अविकल्पित हुआ.
                                         डॉ.सुनीता
 नोट-यह रचना मैंने फेसबुक के एक मित्र के बार-बार अनुरोध पर लिखा था.
उन्हे इसे किसी पत्रिका में सुप्रसिद्ध चित्रकार 'मक़बूल' जी के जन्मदिन के उपलक्ष में श्रद्धांजलि के फलस्वरूप छापना था.
यह उस समय लिखा था जब 'मक़बूल' जी अपनी कूची समेट दुनिया छोड़ चुके थे.
मैंने उन्हें मेल (20/07/2011) किया था,उन्होंने इसे छापा की नहीं वह जानकारी मुझे नहीं है.
हां ! आज इसे मैं सार्वजानिक तौर पे पोस्ट कर रही हूँ...

लोकप्रिय पोस्ट्स