दुश्मनों का डेरा


२८/०३/२०१२

जिस मंच से मित्रता की बात होती थी
उस पर अब एक शिगूफा छाया है

अभी-अभी एक फरमान आया है
जहां पर दोस्तों का मेला था

अब वहाँ पर दुश्मनों का डेरा होगा
एक से बढ़कर एक झमेला होगा

अपनत्व के नाम पर खुली छूट थी
उस पर वैट जैसा वैन लगेगा

तहरीरों के स्थान पर तस्वीरों की बात होगी
समाज को छोड़कर संविधान बनेगा

लिस्ट का अंदाज़ क्या होगा ?
मंथन का अंजाम क्या होगा ?

अचूक प्रश्न सर पर मंडराया है
बहुतों के धड़कनों को धकधकाया है

देश-दुनिया में सुगबुगाहट सुनाई है
जिसने चहुओर शोर मचाई है

अभी से एक होड़ मची है
आगे-आगे एक रणछोड़ छिड़ेगी है

सारे छलिया,ललिया बन घूमेंगे
उनके करतूतों पर कैची नाचेगी

एकता पर उठता नया सवाल है
यह मुद्दा गढता एक बवाल है

शक्ल-सूरत दम पर पकडे जायेंगे
पिंजड़े में नहीं शिकाजें में जकड़े जायेंगे

सूची ऐसी होगी कि रुची रोएगी
बाबु खेलेगा भैया गायेगा

प्रतिभा अपने मन में पछताएगी
पदार्पित अभी एक जुमला है

खुद के करतूतों से एक फकीर
कल तक बन जायेगा अमिट लकीर...!

                                  डॉ.सुनीता 


पेरू ! में बाढ़ हृदय की मार


      
          27/03/2012

कुदरती बाढ़ में बहे मानुष
कौन दोस्त कैसा दुश्मन
         किसी की कोई नहीं बची निशानी
        विनाश की वीभत्स है कहानी
खिलने से पहले खो गए
कुछ करने से पहले हार गए
         जीने से पहले मर गए
        पीने से पहले बुझ गए
जलने से पहले लुट गए
सोचने से पहले छूट गए
         जागने से पहले उठ गए
        उठाने से पहले उजड़ गए
सजल से पहले गज़ल हो गए
बचाने से पहले शून्य हो गए...

दक्षिणी अमेरिका के पेरू नामक स्थान पर बाढ़ आया है.हजारों की संख्या में फंसे लोग अपने-आपको बचाने के जदोजहद से जूझ रहे हैं.यह अपने भयावहता के हद को छू रही है.आम आदमी का जीवन इसमें ध्वस्त हो गया है.इसके कारण जाने-अनजान में ही सही तमाम लोग अपने वास्तविक अस्तित्व को खो चुके हैं.दुनिया जहान में मानव की कठोरता कुछ कम न थी,जो कुदरत ने भी अपनी मनमानी कर ली.
इस तरह की घटनाएँ-दुर्घटनाएं कहीं न कहीं अक्सर होती ही रहती हैं.इनकी निर्ममता से हृदय काँप जाता है.ऐसी घटने वाली घटनाएँ बच्चों, बड़ों, बूढों और नवजवानों के लिए समान होती हैं. इनके अंदर परिस्थति का एक ऐसा घनघोर भय घर कर जाता है,जिससे जीवन पर्यंत आसानी से उबर नहीं पाते हैं.
मन के अन्तः में बैठा डर उन्हें कभी भी सर उठाके जीने नहीं देता हैं.बुलंद हौसले और बहादुरी के साथ लड़ने के ताकत को पस्त कर देती हैं.मरीना,कैटरीना से लगायत दुनिया के कई हिस्सों में एक समयांतराल के बाद कुछ ऐसा हुआ है,जिससे वहाँ का विकास प्रभावित हुआ है.सिर्फ विकास ही नहीं बल्कि मानव भी इस कठोरता के बेरहमी का शिकार हुआ है.ऐसी निष्ठुर स्थितियां बीन बुलाए मेहमान की तरह होती हैं.जिनके आने की खुशी नहीं मनाई जाती है.
प्राकृतिक आपदाएं इंसान के सोचने-समझने और जीने के हुनर को छीन लेती हैं.प्रकृति तो एक बार में एकमुस्त दर्द दे देती है.लेकिन समाज के ताने-बाने में उसे हर पल घुट-घुट के जीने के लिए विवश किया जाता है.
सुविधा के नाम पर अपने मतलब की राजनीतिक गोटियां फिट की जाती हैं.व्यवस्था की बात करके अपने जिम्मेदारी से मुक्ति के मार्ग तलासे जाते हैं.सहयोग के स्थान पर बंदरबाट की दुकान चलाई जाती है.आश्वासन के लम्बें-लम्बें और भारी-भरकम भाषणवाजी की जाती है.वह किस हालात से गुजर रहे हैं इसकी खबर सालों-साल तक नहीं ली जाती है.लेकिन अपने मतलब का काम पड़ते ही उनको तुरुक के पत्ते की तरह प्रयोग में लाया जाता है.
यह एक ऐसा शोषण है जो यातना के सारे हदों को पार कर जाता है.यह खुली आँखों से दिख के भी नहीं दीखता है.इसे देखने के लिए एक ऐसे चाक्षु की जरुरत है,जो चोट लगे गहरे पीड़ा को ह्रदय से महसूस कर सके.वास्तविक परिस्थिति के मुताबिक फैसले ले सके.लेकिन यह सब कहने की बातें हैं.हकीकत में भले ही कुछ हो या न हो परन्तु कागज पर बिल्कुल सही किया हुआ ही नजर आता है.शायद यही कारण है कि सुविधाएँ भुक्तभोगी के पास उचित समय पर नहीं पहुँच पाती हैं.इसका खामियाजा उन मासूम लोगों को भुगतना पड़ता है जो पहले से ही नासूर लिए जी रहे होते हैं.

                                                                                                                                डॉ.सुनीता 

महादेवी वर्मा !! अर्पित भावना

भूले-विसरे चित्र के झरोखे से झांकती अचानक से स्मृतियों में छा गई.छायावाद के वृहत्रयी की सकुशल स्तंभ की एक बेजोड लेखिका महादेवी वर्मा जिन्होंने अपने रचनाओं से एक लहर ला दिया था.पथ से उठते भाव को सागर के उछाल लेते धाराओं से रु-ब-रु करवाया था.आज उनका जन्म दिवस है.उनकी रचनाओं को याद करते हुए पावन चरणों में चंद भाव में लिपटे शब्दों की एक माला अर्पित करती हूँ...

२६/०३/२०१२ 

मैं एक स्त्री हूँ
नारीवाद की अगुआ बनू ये ख्वाहिश रखती हूँ

अपने हृदय में पलते घावों में देश का दर्द देखती हूँ
जिधर नजर जाती है उधर ही मानवीयता शर्मशार है

स्वार्थ में अंधे व्यवस्था के नाम पर भेद-भाव गहरे हैं
पुरुष-प्रकृति का चोट अकाट्य है जिसके चुभन का इलाज नहीं है

साड़ी के आँचल में दूध की नदिया बहती है
वहाँ जीव-जंतु अपनी पूर्णता को प्राप्त करते हैं

घीसू के घिसटन में अब भी अबोध बालक अकुलाते हैं
ऊँची-ऊँची हवेलियों में दाने-दाने को तरस जाते हैं

नाक के नीचे बैठ कर शराब उड़ाई जाती है
एक रोटी के लिए बच्चे की बोटी-बोटी की जाती हैं

गिल्लू की हरकते बदस्तूर जारी हैं 
ख्यालों में ही रह गए हैं कटते जंगल भूखो मर रहे हैं

टिमटिमाती आँखों की रौशनी प्रदूषण में खो गई है
पीपल के विराट पौधे अब नदारत हैं

शिकारियों की संख्या अबाधगति से बढ़ी है
समपर्ण की बातें धुँआ-धुँआ हो चुकी हैं 

अतीत के चलचित्र में कोई देखता ही नहीं
आधुनिकता के अकूत विकास ने निगल लिया है

संस्कृतियाँ अपने होने की गवाही नहीं बन पा रही हैं
सभ्यताएं समस्याओं को सुलझाने में नाकाम हैं

किस-किस की उलाहना दें
आपके पदचिन्हों की निशानियाँ धुंधली पड़ रही हैं

सजते आँचल उधड़ के नीले आसमान में उड़ रहे हैं
नंगे वदन से दुनिया नंगई पर उतर आई है 

कास यादों की परछाइयों से मुस्कुराती आ जातीं 
एक बार अपने अपलक नैनों से निरेख जातीं 

सब कुछ धुंध के धमक में खो सा गया है
स्मृतियों से तकती आहटें उलझन बन रही हैं

चार स्ताम्भें बिम्बों के लक्षणा में नहीं दिखतीं 
छंदों के बंद ऐसे खुल गए हैं जैसे डोर से पतंग 

मतंग मानव मदमस्त है रसों के भाव विभत्स हो गए हैं 
नर भक्षण करते-करते आदिम युग में लौट रहे हैं   

                             डॉ.सुनीता 

पगली पवन



२० मार्च २०१२/११.१६ 


सरसराती हवा सनसना रही है
वदन से लिपट के यह जता रही है


अठखेली करके जुगनू से गले मिल रही है
बढ़ती दूरियों को मिटाने के जुगत लगा रही है

शाम सुहानी से बरजोरी कर गुनगुना रही है
उसके पहलू में बैठ के सपने सजा रही है
 
सुबह के रानी से शिकवा करती रिझा रही है
मेरे राहों में न आ दुश्मनों सा गिला कर रही है

पांव में सिहरन पैदा कर मुस्कुरा रही है
नाजों-अंदाज़ से अपनी अदा दिखा रही है

आँखों में शरारत भर के चिढ़ा रही है 
धूल से सनी धरा को अपनी सौतन बता रही है

अनगिनत खेल दिखा-दिखा के ललचा रही है
बहरुपिए के रंग को अपने दामन में छुपा रही है

अपने आज़ादी के दिन को रंगीन बना रही है
उछल-कुद करती चारों दिशाओं में घुम रही है
  
जीने के हुनर को हर पल सिखा रही है
कतरा-कतरा मिला है सहेजने की जुगत लगा रही है

चाँद-तारों से गठबंधन करके इठला रही है
इक-इक को अपने अदृश्य अंगुली पर नचा रही है 

मन-मौजी बन फिरती पगली पवन को झला रही है
उसके संग-संग बौराई बावली बनी फिर रही है

अपने मदमस्त अदाओं से फिज़ा महका रही है 
जीवन के पथ पर आते बाधाओं से जूझना सिखा रही है 
  
                                     


                                                               डॉ.सुनीता 

मैं व्यवस्था हूँ


मैं व्यवस्था हूँ
निर्जीव होकर सबसे सजीव सा रु-ब-रु होता हूँ
रोज़ सुबह से शाम तक कोसा जाता हूँ
धकियाया जाता हूँ फिर पास बिठा के सहलाया भी जाता हूँ

मैं व्यवस्था हूँ 
अपने सूरज का कुछ पता नहीं है 
अँधेरे से कोई गिला नहीं है 
लेकिन अपनों से प्यार-फटकार पाता हूँ 

मैं व्यवस्था हूँ
सीना तान के चलता हूँ
बौराए हांथी के मानिंद दौड़ता हूँ
जेब में जब तक पैसे की भरमार है
इज्जत,सोहरत से लबरेज,मालामाल हूँ


मैं व्यवस्था हूँ 
करोड़ों के आँखों की उम्मीद हूँ 
सबके सपनों की उड़ान हूँ 
भागती-दौड़ती जीवन की पहचान हूँ 
अपने हाँथों में जब तक कमान हैं...!!!

डॉ.सुनीता

स्त्री एक रूप अनेक


एक साहसी स्त्री 
परिस्थितियों से लेती है लोहा 
कठिनाइयों को देती है मात 
चट्टानों से टकराती है दिन-रात 
दुश्मनों से दो-दो हाथ करती बेख़ौफ़ 
समय के हर थपेड़ों में रहती है मुस्तैद
उड़ाने भरती है जमी से अस्मा तक रोज़
मिटटी से खेलती है,खाती है हवा के झोंके
सिकन तक नहीं आने देती है माथे पर.

                                     एक दबंग स्त्री 
                                     पलंग पर लेटे-लेटे 
                                     संचालन करती है 
                                     सत्ता,संस्था और परिवार का 
                                     हिम्मत नहीं कोई सेंध लगाये 
                                     अटूट किले को भेद पाए 
                                     अमित परछाइयों से सब भयभीत हैं 
                                     बच्चे,बूढ़े और जवान.

एक उम्रजदा स्त्री 
विस्तार से उठती है 
घुटनों को पकड़े
दर्द से कराहते हुए 
गुदड़ी के सिलवटों से परे 
पैर जमीन पर बढ़ाती है 
औचक आह निकल पड़ती है 
चारपाई पर सहस ढेर हो जाती है.

                                   एक तुनक स्त्री 
                                  चीखते-चिल्लाते प्रवेश करती है 
                                  मानो अस्मा सर पर उठाये फिरती है  
                                  देहरी से आगे घर के दहलीज पर
                                  दनदनाते हुए कदम रखती है 
                                  सूरज के रौशनी से होड़ लगाती है 
                                  फरमाईसों पर फरमाईसें सुनाती है 
                                  मखमली सोफे पर अधलेटी हो जाती है.

एक मेहनती स्त्री 
गोबर का खांची लिये
फावड़े काँधे पर टांगे
पगडंडियों के सहारे 
बढ़ती है आगे 
खेतों में करती है कोडाई
लहलहाते फसलों को देख 
नेत्र में आ जाते है रोशनाई
काले नजरों से बचाने हेतु 
धोख बांध प्रफुल्लित होती है.

                           एक मासूम स्त्री 
                           भविष्य की सम्पूर्ण नारी   
                           चहंकती फिरती है घर-आँगन में 
                           हुनकती है माँ के आँचल में 
                           जीद पर अड् के करती है मनमानी 
                           अपने आगे-पीछे नाचती है सबको 
                           भोलेपन में करती है तमाम हरकतें
                           किये-कराये पर करती है वेबाक टिप्पणी 
                           कोई भी झुठला नही पाता उसके नादानी को.


                                                                            डॉ.सुनीता 

रंग- उमंग के तरंग बड़े...!

रंग- उमंग के तरंग बड़े लेके आई होली 
ममता के आँचल से भर लो अपनी-अपनी झोली 
कोई न बचने पाए सब हो जाएँ होली-होली 
मधुमास आया है भंग का रंग रग-रग में छाया है
मदमस्त गलियों से हर टोली ने गीत गुनगुनाया है.



गली-कुचों में बजते ढोल-नगाड़े तन-मन को खींचे 
घर के किसी कोने में बैठी गोरी दिल मसोसे रूठे-रूठे 
स्नेह से दूर आज पड़े सारे गुलाल फीके-फीके
रोटी के वोटी करके भाग बड़े-बड़े तोड़े,अपने हिस्से छोड़े 
कैसी होली,किसकी होली महंगाई,कमर तोड़ बोले है. 

खनकते कंगन,ढलकते आंसू अपनी धुन में खोये 
कोई हँसे,कोई रोये कौन किस गम के दामन से दबे
पतझड़ के झुरमुट से झांकते पुरातन पल जागे 
यादों के पट खोले देहरी से तुनक-तुनक के झांके 
वैरी से बने प्रतिपल अपने जीवन के ताने-बाने
विते हुए वादों के दिनों को ढुलमुल ढलकती बातें.



धरती से अम्बर तक फैले अलबेले रंगों के धागे 
बंधे खींचे चले जाते हैं ऐसे जैसे किरणों के रेशे 
सेम्बल के फुल बने जीवन के उलझे तागे 
सीकन के गांठों को खोले ऐसे जैसे गोरी के घूँघट 
मसल दिए अरमानों के मधुर लड़ियों के झांगे
उड़ गए पपीहे ऐसे जैसे भांप बने पानी के बूंदें. 


घनघोर घटा,घूँघटपट हौले-हौले खोले आए 
धरा पर सबको इठला-इठला के अपने में अटकाए 
निकलो चलो घर से बाहर मानष-मानष को मिलवाएं 
उनके भावों को जगा के ऐसे जैसे सूरज-धरती से लिपटाये
मिटटी पर फैले ओंस के झिलमिलाते जुगनुओं को रंगीन बनाये 
हर जन के घर-आँगन को फूलों के रंगों से सजाएँ 
ऐसे जैसे टेसू,बेला के फूलों से बगिया गमक-गमक जाए.
                                           

                        
                                   डॉ.सुनीता

झनकते-झांकते पायलिया ...!

अतीत के आइने में जब-जब ताकती हूँ
धुंधली-धुंधली लकीर दिखाई देती है
पानी पर बने बुलबुले जैसे बनते-सवरते हुए 
करीब और करीब जाते ही उड़ जाते हैं पंक्षी के मानिंद
महसूस करके दिल सहम जाता है 
ये जुगनू थे या परछाई एक द्वंद छिड़ जाता है 
मस्तिष्क के कोरों से टकराती यादें पुकार उठती हैं
हर्फ़-ब-हर्फ़ आँखों में एक चलचित्र चलता है.  


कभी जब एक नन्हीं कली थी
दुवाओं,अदाओं,के साथ लाड़-प्यार में पली थी
उठते-बैठते सबके लबों पर एक नाम था
उसकी अपनी एक अलग पहचान थी
देहरी के आर-पार गुडिया बन फिरती थी
चौखट के कोने से घर-आँगन में चहंकती थी
अनमोल पलों में इसकी नींव माँ ने रखी थी.

पैरों में घुंघरू बरबस सजते थे 
अपने रुनुक-झुनुक में सबको बांधे रखते थे 
लरकाइयां के यादों में झनकते-झांकते पायलिया 
मैं इसे भूली नहीं हूँ माँ ! अब तक गूंजते हैं कानों में 
जब तुम अपने चूडियों के खनक से विरोध करती थीं  
पैरों में बजते पाजेब को हथियार समझती थीं  
दादी के कटीले शहतीरों से भरी बातों को 
गले में लटकते निशानी से उलाहना देती थीं. 

बड़ी होके दुनिया के झमेलों में खो गयी हूँ
ज़माने के दस्तूरों में अजब उलझ गयी हूँ
मकड़ी के जाले सरीखें चक्करों में फस गयी हूँ
निकलने के उधेड़-बुन में और उलझ गयी हूँ
मायावी दुनिया के बाज़ार में वेकिमत बीक गयी हूँ
बोली लगी करोड़ों की एक चुटकी में सब गिरवी रख दी हूँ
यहाँ तक...
आज़ादी,स्वभिमान,सम्मान और ममता का मान
तुझसा बनने के लालच में तुझमें ही समा गयी हूँ...
               
क्रमश:
                                                      डॉ.सुनीता 

अकलों,पलकों में छुपा ले

पनाह मांगती हूँ
माँ तेरी गोंद में 
तेरी कोंख में 
तेरी जिंदगी में 
आँखों के कोर में नहीं पलकों के छाँव में
जैसे खिलते हैं फुल खुले असमान में 

सुनना चाहती हूँ लोरी तेरे लबों से 
तेरे सूखते होंठों से 
कंपकंपाते जिस्मों से
 लिपटना चाहती हूँ धडकनों से 
दिखावटी नहीं सुकून की तलास है
 उम्मीद से कहीं बढ़कर मान-अभिमान है
उस तरह नहीं जैसे पिता की मार है
इस तरह जैसे ओस की बूंदें खामोश हैं


तेरी बाँहों में झुलना चाहती हूँ
जिंदगी से मिलना है 
तुझमें खो के तुझसा बनाना है 
मैं देख रही हूँ 
तू सहमी है 
मेरे आने के खबर से घबराई हुई है 
हलचल मच रही है हृदय के कमरे में 
यहाँ बतकही छिड़ी है वंशज की 
उसे झिटक दो माँ 
मुझे नज़रों मे छुपा लो 
तेरी हर कुरबत को झेलेंगे 
वैसे नहीं जैसे एक पुत्र बोलके करता है
ऐसे जैसे चाँद-चकोरे से मिलता है
यादों में महसूस करके सिसकता 

                              क्रमश:
   डॉ.सुनीता

लोकप्रिय पोस्ट्स