डॉ.सुनीता
सहायक प्रोफ़ेसर,नयी दिल्ली
15/11/2012
स्त्री देह के अनंत आकाश में
हलचल मचाते तड़पते सपने
भ्रमर करते मानव रूपी भौरे
उलझे-उलझे से उलझन बन उलझाते
भ्रम के बादलों को चीरता एक तन्हा चाँद
घुप्प अन्धेरें में घूमते अस्तित्व तलाश में तारें
भ्रमण को निकले इन तितलियों पर
मंडराते.इतराते.इठलाते इकलौते सवाल
सृजन के सांध्य बेला में गुनते हुए
गगन पर छाये पुष्प पुंज में ढले ये ठलुवे
गुथमगुथ्था किये देह के दर्दिले रेसों में
हौले से पीड़ा के अध्याय लिखते लहू
छलना-ललना के रूप रंग दिखाते
दस्तक देते नन्हे समय भूगोल
प्रत्यक्ष प्रतिकार के शब्द से अनजान
धरा के गोलाई धारण किये शरीर
एक नये आकार-प्रकार लेते जीव से
मचलते रूह में पले ख़्वाब पल-पल देखे
हासिये पर पड़े रोयें रोते-रोते एक रुख लेते
वक्त से पहले रुखसत होते हुए आगे-आगे
चल पड़े उपेक्षा के कटीले व्यंग भरे बाण समेटे
अंधी भूख की अनचाहे उत्कट लालसा
लघु रूप संवारें लक्ष्य भेदते छुवन के आकर्षण
नैनों के कठोर,कुरूप पिपासा को लक्षित कर
निगाह गड़ाए गेहुआं स्वरूप को कनखी से निहारते
टटोलते रक्त मज्जा के बिछुरे रिश्ते
दरकती आहें अरमानों के जठराग्नि में जले
जब-जब देखें देह के अंतर में बाहर भेडिये दिखे
(अधूरी)
आपका इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (17-11-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
ReplyDeleteसूचनार्थ!
बहुत सही लिखा आपने ..........
ReplyDeleteसुन्दर रचना.
ReplyDeleteसटीक और बेहतरीन रचना..
ReplyDeleteनयी पुरानी हलचल और चर्चा मंच दोनों का हृदय से आभार...!
ReplyDeleteसादर...!
सटीक रचना."जब-जब देखें देह के अंतर में बाहर भेडिये दिखे
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