'मेट्रो उजाला' के अक्तूबर माह अंक में छपी एक अभिव्यक्ति पृष्ठ संख्या ६५...!
सुनों गौर से पौधे कुछ कहते हैं
आँखों में एक दुनिया बसाए
मासूम बच्चे से मचलते
खिलौनों से खेलने को तरसते हैं
नील गगन के नीचे निरछ्ल विचरते
बचपन-जवानी के चक्करों से दूर
चिमनियों से जलते-बुझते हैं
दर्द के दरख्त जह-तह फैले पड़े
काफिलों ने लुट लिया जमी
जुबा से खामोश गाय से सिसकते हैं.
शर्म से शर्मीले दुल्हन जैसे बैठे
तन-मन मसोसे ममता को तरसते
तड़पते आँखों से रक्त रिसते रहते
रहम के लिए हरवक्त निगाहें आसमा पर गड़ाए
रश्म अदा करते मनुष्यता से खुन्नस खाए घूमते
गुबार का अम्बार लिए किसी जासूस के तलाश में भटकते
जह-तह आशियाना बनाए अस्तित्व की अबूझ लड़ाई लड़ते हैं.
कर्म के बोझ से बोझिल बदन बहकते
बार-बार व्यथा-कथा को मौन में ही कुछ कहते
मुक्त हृदय से मुक्ति का मार्ग दिखाते
मर्म से गहरे जुड़े दर्द को दफ्न किये
दवा के आस में तारों जड़े नीले रंग को कोसते
पीले चमकीले रौशनी से पल-प्रतिपल नहाये
जीवन को जीते,जीत के यत्न में प्रत्यनशील
मुरझाए डालियों के डंठलों से डंक मारते सर्फ सरीखे लगते हैं.
डॉ.सुनीता
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर,नई दिल्ली
जीवन को जीते,जीत के यत्न में प्रत्यनशील
ReplyDeleteमुरझाए डालियों के डंठलों से डंक मारते सर्फ सरीखे लगते हैं.
सच मे पौधे बहुत कुछ कहते हैं।
सादर
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteहाँ कर्तब्य को खूब समझते हैं दुनिया को
ReplyDeleteपनाह देते है ....
हम अपनी सुबिधा की खातिर पाद-ह्रदय
निकाल लेते है ...
बहुत ही शुन्दर वर्णन किया है आप ने .......
बेहद संवेदनशील मन से निकली संवेदनशील कविता ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर......
ReplyDeleteमुझे तो लगता है मेरे बाग के पौधे बहुत कुछ कहते भी हैं और मेरी सुनते भी हैं.....
अनु
जीवन को जीते,जीत के यत्न में प्रत्यनशील
ReplyDeleteमुरझाए डालियों के डंठलों से डंक मारते सर्फ सरीखे लगते हैं.
सुंदर अभिव्यक्ति
RECECNT POST: हम देख न सके,,,
Deleteबहुत सुन्दर .......
ReplyDeleteसुंदर भाव। पढ़कर मन त्रिप्त हो गया कभी मेरे ब्लौग http://www.kuldeepkikavita.blogspot.com पर भीआना अच्छा लगेगा। ये संगीत किस परकार ब्लौग पर लगाया जाता है मुझे भी बताना।
ReplyDeleteपौधे बहुत कुछ सिखाते हैं ..... बहुत खूबसूरती से लिखा है ॥
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना..
ReplyDeleteअति सुंदर...
:-)
सच कहा ..पौधे तो जीवन का आधार हैं
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