सितम्बर अंक के मेट्रो उजाला में प्रकाशित.पेज 69 
जलते भावों की ज्वाला

डॉ.सुनीता 

सृष्टि सृजन से वृहद फैला अनंत आकाश
झिलमिलाते तारों के अगड़ित गुच्छ में लिपटे
पुष्पक विमान पर खड़ी मन की संवेदनाएं
चाँद सरीखे शीतलता चेहरे की चमक बन  
ढूंढे खुद को नदियों की कलकल ध्वनि सुनते
बजते धुन सजाते जीवन की हरियाली
सुमधुर सदा देती हवाओं की मदमस्त अदा निराली
प्रतिध्वनित होती चलती बल खाती घडियां
घटित घटनाओं की घूँघट डारे डर जगाए
लड़ियाँ पिरोती आदमकद की अंगड़ाई
अनंत आशाओं के दीप सजाएँ खड़े
तकते बादलों के घुमड़ते झुण्ड चिढ़ाये
नरमुंड,जीवों में तलासते मीन से छटपटाये
धरा पर उगे स्नेह के फल बूंद-बूंद बिन कुम्भिलाये
अन्न के पुंज से पृथ्वी के आँचल सनेह सजे  
दुलहिन दीपोत्सव मनाये गायें राग मल्हार
मृदुल उमंग से महिमा मन की मानहु न माने
वारि-वारि गोहराते गर्जन के घने बादल
केश से उलझे-सुलझे केचुआ बन सिमटे
समुद्र के खारे खुराक से इह लीला लिपटे
सूरज की तेज किरणें करती बरजोरी
बोरी बोली मीठी बोली कोयल की कु-कु
ताउम्र तपती धरा धीरज धरे धमके
धूल-धुसरित धुंध में धन की उत्कट मय बरसे
तड़पते झूलते,झुराते होंठों की कसम खाते
खुराक लिए फिरते स्वछंद चंद मोती के धागे
ममता के छाँव से मरहूम गदेलों की बरातें
दिनरात इतिहास के खंडहरों में अवशेष तलाशें
लाशों से पड़े मनुष्यता को झकझोरे झाग उड़ाये 
भूखे उदर की पीड़ा मिटाने से लेकर
जर,जंगल,जमीन एक किये फिरते फकीर
कंचन,कामिनी,काया की अदभूत माया रही
भू-धरा उगलती हीरा,मोती,सोना और जवाहरात
मेघ के घमंड ने घनघोर घन बरसाए
घर के अंग-भंग भुवन बनाये भूरि भरी भूमि गाये
खिलौने को तड़फड़ाते बच्चे सा नैन रक्त चुवाये
ओरी से चुते लोरी में मन तृष्णा भरमाये
रूठे गले की प्यास बढ़ती जाए सिहरन बन
सावन के इन्तजार में सदियों से कजरी के गीत संजोये
बोये धान,धानी चुनर के आस आँखों में शर्माए
समस्या के आग में जलते भावों की ज्वाला
जब्त जज्बों में जबरदस्ती घुस उधम मचाये
थरथराते बदन के थाप से सिली-सिली आती हवाएं
हवनकुण्ड में होम होतीं अमूल्य क्रियाएँ
इन्हीं छोरों में युग-युगान्तर के रहस्य बड़े पड़े हैं
दरकतीं दीवारें दमन की गाथा लिखने को विवश
आकुल-व्याकुल जिह्वा के जुगत में बीते जुग  
आत्मलघता से लघुता का अहसास बढ़ते
बहते पानी के धाराओं में धीरज के धीर तलास
तल्ख़ यादों के साये में गुंजती आवाजें
टटोलते टप-टप के टाप,टापू में कहीं खोये
खुन्नस में चूर यातना के कपाट,कपोल-कल्पना निकले
समयपट्ट पर अंकित रेखाएं अतीत के द्वार दिखाए
दर्पण के मानिंद सच के मुखड़े को सांच बताएं
भविष्य हो रहे वर्तमान को रेखांकित कर चकित कर जाए
चुभन के सुर स्वर्ग-नर्क के भेद बताये
जताए जपते जन्म की युद्ध से जुड़वाए
बिजली सी कौंधती उन्मत्त भावनाएं भावीपन पैदा करें.

4 comments:

  1. बेहतरीन कविता।

    कृपया शीर्षक को title bar मे लिख कर पोस्ट किया करें तो हम जैसों को सुविधा हो जाएगी :)

    सादर

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  2. बहुत उम्दा................!!

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  3. बेहतरीन अभिव्यक्ति .....
    http://pankajkrsah.blogspot.com पे पधारें स्वागत है

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  4. पोस्ट दिल को छू गयी.......कितने खुबसूरत जज्बात डाल दिए हैं आपने..........बहुत खूब
    बेह्तरीन अभिव्यक्ति .आपका ब्लॉग देखा मैने और नमन है आपको
    और बहुत ही सुन्दर शब्दों से सजाया गया है लिखते रहिये और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.

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