'अपने-सपने के दिन,सब खो गया...'!


              'उलझन'
गम से मेरा गहरा रिश्ता है
           आंसू इसकी परवाज़ है.
दर्द मेरा हमदम है
           वक्त ही जबाब है.
घुटन मेरा घाव है
           सहन इसका इलाज है.
चुभन मेरा दीद है
            जेहन इसका ईद है.
कोई आएगा ये उम्मीद है
            सब बदल जायेगा,ठीक है.
सपने मेरे आँख है
            अपने मेरे पास हैं.
यही इक एहसास है
            जीवन जिससे आसान है.
माटी का भी इक मोल है
           सब कुछ यहाँ अनमोल है.
अधूरी आस,इक प्यास है
           जाने किसकी,क्यों तलास है.?
खुद से ही इक सवाल है.
           दूर-दूर तक क्यों न कोई ढाल है.?
         
                    'कुछ..!सब खो गया'

क्या मिल गया,सब खो गया,
             इक के खातिर कुछ हो गया.
सबकी नज़रों में ढह गया
             पाप-पुन्य के मध्य उलझ गया.
किसकी सुने जो खो गया
             उसकी कहे जो सब छोड़ दिया.
किसे सही ठहराउन बोल जिया
             उसे बुलाउन जो भाग गया.
झूठे दम पर कदम बढ़ाया
             सच पर मुखडा मोड गया.
या फिर चीखूँ,चिल्लाउन
             शिकवा-गीला से परे कैसे तन गया.
गर्दन झुकी,मर्दन बचा गया
              संस्कारी सोच पर पर्दा पड गया.
किस-किस के चक्कर में जाने
               अजब-गजब घनचक्कर में फंस गया.
               
                    'अपने-सपने के दिन'
           
साहस मेरी जननी है
        विद्या मेरी सजनी है.
ज्ञान मेरा गहना है
         उज्जवल मेरा कहना है.
शब्द मेरे साथी हैं
         अभिव्यक्ति मेरे बाराती हैं.
लेखनी मेरी ताकत है
         पाठक मेरे आलोचक हैं.
समालोचक मेरे परवान हैं.
         जिसके दम पर निश्चित उड़ान है.
चलने में भले असमर्थ हूँ
          दौड़ने में सदा समर्थ हूँ.
मन की उर्जा से ओजस्वित हूँ.
          तन से अदभूत प्रफुल्लित हूँ.
साथ न आये,न कोई बैठे मीत
          अपनेपन का मैं एक मनमीत हूँ.    
मैन अपने अकेलेपन की सहेली हूँ
           चढते-उतरते दिनों की पहेली हूँ.
सुनने से बड़े कतराएँ
          बच्चे ठेंगा दिखलायें.
फिर भी मैं मुस्काती हूँ
           नदिया,पवन के संग गाती हूँ.
प्रकृति पर इठलाती हूँ.
           खुद से इतराती हूँ.
कैसे-कसे लोग हैं मिले
            सोच-सोच के मदमाती हूँ.
आओ-बैठो सुनो मुझे
            ऐसे उन्हें रिझाती हूँ.
भोली पंक्षी,चंचल मैना
            भाग-भाग मेरे पास आती हैं.
जीवन से ऐसा कुछ नाता है
            लोगों से एक सच्चा वादा है.
खाओ-पीओ मौज उड़ाओ
            लेकिन किसी को मत रुलाओ.
         
                                                    डॉ.सुनीता



7 comments:

  1. गर्दन झुकी,मर्दन बचा गया
    संस्कारी सोच पर पर्दा पड गया.
    किस-किस के चक्कर में जाने
    अजब-गजब घनचक्कर में फंस गया.

    बहुत ही बढ़िया।

    सादर

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  2. सुनीता जी..!
    आपकी रचनाये अक्सर अच्छी होती है.जिनमें मानवीय भाव सहज ही दिख पड़ते हैं.
    तीनों कविताओं में एक आत्मविश्वास भरी अभिव्यक्ति की अनुगूंज गुंजित है.जो कि सरल,सहज और सटीक शब्दों के माध्यम से बेहतर तरीके से समय के नब्ज़ पर एक मीठी किन्तु सही चोट की ध्वनि,प्रतिध्वनित सी प्रतीत हो रही हैं.उलझने इंसान को कभी भी चैन की साँस नहीं लेने देती हैं.इसी मनह स्थिति में इंसान जाने-अनजाने में कुछ ऐसा कदम उठा लेता है इसकी टीस उसे दिन में बेचैन रातों में चैन नहीं लेने देती हैं.
    आशान्वित जीवन की कल्पना,सपने और लक्ष्य सभी बुनते हैं.लेकिन खरा उतरना और साकार करना दोनों ही कठिन है.फिर भी उसको देखना कोई भी नहीं छोड़ता है.छोड़ना भी नहीं चाहिए क्योकि वही एक चीज़ है जो व्यक्ति को व्यक्ति बनाये रखती है.रंग-विरंगी परछाइयों से ही जीवन का सबेरा जुडा हुआ है.अतिसुन्दर,बेहतर और मार्मिक रचनाएँ है.सब-के-सब एक से बढकर एक हैं.

    बधाई
    सादर सतीश...

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  3. खाओ-पीओ मौज उड़ाओ
    लेकिन किसी को मत रुलाओ.
    Most educative.

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  4. jeevan ke bahut kareeb sabhi rachnaayen saral sulabh aur rochak hain..yahi achcha jeene ka andaaj hai.

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  5. बहुत ही अच्छी.... जबरदस्त अभिवयक्ति....

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  6. जीवन से ऐसा कुछ नाता है
    लोगों से एक सच्चा वादा है.
    खाओ-पीओ मौज उड़ाओ
    लेकिन किसी को मत रुलाओ.

    ....बहुत सुंदर प्रस्तुति...

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  7. बहुत सुन्दर....

    "गर्दन झुकी,मर्दन बचा गया
    संस्कारी सोच पर पर्दा पड गया.
    किस-किस के चक्कर में जाने
    अजब-गजब घनचक्कर में फंस गया"

    घनचक्कर था तभी तो फंसा..... !

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