भूले-विसरे चित्र के झरोखे से झांकती अचानक से स्मृतियों में छा गई.छायावाद के वृहत्रयी की सकुशल स्तंभ की एक बेजोड लेखिका महादेवी वर्मा जिन्होंने अपने रचनाओं से एक लहर ला दिया था.पथ से उठते भाव को सागर के उछाल लेते धाराओं से रु-ब-रु करवाया था.आज उनका जन्म दिवस है.उनकी रचनाओं को याद करते हुए पावन चरणों में चंद भाव में लिपटे शब्दों की एक माला अर्पित करती हूँ...
२६/०३/२०१२
मैं एक स्त्री हूँ
नारीवाद की अगुआ बनू ये ख्वाहिश रखती हूँ
अपने हृदय में पलते घावों में देश का दर्द देखती हूँ
जिधर नजर जाती है उधर ही मानवीयता शर्मशार है
स्वार्थ में अंधे व्यवस्था के नाम पर भेद-भाव गहरे हैं
पुरुष-प्रकृति का चोट अकाट्य है जिसके चुभन का इलाज नहीं है
साड़ी के आँचल में दूध की नदिया बहती है
वहाँ जीव-जंतु अपनी पूर्णता को प्राप्त करते हैं
घीसू के घिसटन में अब भी अबोध बालक अकुलाते हैं
ऊँची-ऊँची हवेलियों में दाने-दाने को तरस जाते हैं
नाक के नीचे बैठ कर शराब उड़ाई जाती है
एक रोटी के लिए बच्चे की बोटी-बोटी की जाती हैं
गिल्लू की हरकते बदस्तूर जारी हैं
ख्यालों में ही रह गए हैं कटते जंगल भूखो मर रहे हैं
टिमटिमाती आँखों की रौशनी प्रदूषण में खो गई है
पीपल के विराट पौधे अब नदारत हैं
शिकारियों की संख्या अबाधगति से बढ़ी है
समपर्ण की बातें धुँआ-धुँआ हो चुकी हैं
अतीत के चलचित्र में कोई देखता ही नहीं
आधुनिकता के अकूत विकास ने निगल लिया है
संस्कृतियाँ अपने होने की गवाही नहीं बन पा रही हैं
सभ्यताएं समस्याओं को सुलझाने में नाकाम हैं
किस-किस की उलाहना दें
आपके पदचिन्हों की निशानियाँ धुंधली पड़ रही हैं
सजते आँचल उधड़ के नीले आसमान में उड़ रहे हैं
नंगे वदन से दुनिया नंगई पर उतर आई है
कास यादों की परछाइयों से मुस्कुराती आ जातीं
एक बार अपने अपलक नैनों से निरेख जातीं
सब कुछ धुंध के धमक में खो सा गया है
स्मृतियों से तकती आहटें उलझन बन रही हैं
चार स्ताम्भें बिम्बों के लक्षणा में नहीं दिखतीं
छंदों के बंद ऐसे खुल गए हैं जैसे डोर से पतंग
मतंग मानव मदमस्त है रसों के भाव विभत्स हो गए हैं
नर भक्षण करते-करते आदिम युग में लौट रहे हैं
डॉ.सुनीता
bahut badhia likha hai mahadevi ji ko naman.
ReplyDeleteवाह बहुत ही अच्छे शब्द दिये हैं आपने अपनी भावनाओं को।
ReplyDeleteसादर
सुनीता जी बेहतरीन प्रस्तुति .........सुन्दर भाव .......
ReplyDeleteकास यादों की परछाइयों से मुस्कुराती आ जातीं
एक बार अपने अपलक नैनों से निरेख जातीं
सब कुछ धुंध के धमक में खो सा गया है
स्मृतियों से तकती आहटें उलझन बन रही हैं
चार स्ताम्भें बिम्बों के लक्षणा में नहीं दिखतीं
छंदों के बंद ऐसे खुल गए हैं जैसे डोर से पतंग
मतंग मानव मदमस्त है रसों के भाव विभत्स हो गए हैं
नर भक्षण करते-करते आदिम युग में लौट रहे हैं
कास यादों की परछाइयों से मुस्कुराती आ जातीं
ReplyDeleteएक बार अपने अपलक नैनों से निरेख जातीं
सुन्दर भाव...
अरे हमारा कमेन्ट कहाँ गया.....
ReplyDelete:-(
सुनीता जी फिर से दाद कबूल करें...सुन्दर रचना के लिए...
महादेवी जी को श्रद्धा सुमन.
बहुत सुंदर सुनीता जी ...... इन भावो संग आपने सच्ची श्रद्धांजलि दी है छायावाद के स्तंभ की महान लेखिका महादेवी वर्मा जी को
ReplyDeletewww.merachintan.blogspot.com
bahut sundar shradhanjali sunita ji
ReplyDeleteshandar post sarthak bhav ,sachhi shrddhanjali.
ReplyDeleteA good effort, keep it up !
ReplyDeleteबहुत सुंदर भाव ,सच्ची श्रद्धांजलि
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