भूतपूर्व में घटित घटनाये जब याद आती हैं मन को द्रवित कर जाती हैं.मुझे भी आज एक कहानी,हिस्सा जो मेरे जीवन का सबसे अलग,जुदा पर ह्रदय से जुड़ा हुआ है.जो की अक्सर कचोटती रहती है.वह सहस ही याद आ गयी है,जिसने मेरी आँखें गीली कर दी.आज जब मैं अपने डायरी के एक-एक पन्ने पलट रही थी उसी में से एक ऐसा अतीत आँखों से टकराया कि बस माजी अपने आप वर्त्तमान हो उठा.यह पल एक किन्नर से जुड़ा हुआ है.आप सबको यह बात अजीब लग सकती है.किन्तु मेरे लिए यह आज भी किसी गंभीर पहेली से कम नहीं है.जिसका उत्तर कभी न ढूढ सकी कि आखिर यह क्यों कर है...?
यह घटना सन २००० हजार के गर्मी के दिनों की है.उस समय मैं बी.ए.के प्रथम साल में थी.परीक्षाएं चल रही थीं.घर में किसी के पास कोई विशेष काम न था.लेकिन उन दिनों मेरे घर बहुत समय के बाद एक नन्हीं कली मुस्काई थी.जिसकी किलकारी से पूरा परिवार आह्लादित और प्रफुल्लित था.मैं उसको लेकर कुछ अधिक ही भावुक थी.आज भी हूँ...
शहर का तो मुझे पता नहीं लेकिन गावों में उन दिनों और आज भी बधाइयाँ गाने के लिए हिजड़े आते हैं.उन्हें हिजड़े कहकर लोग बड़ा लुफ्त लेते हैं.उनके नाच-गाने को एक सगुन के तौर पर देखा जाता है.जिसे क्या बच्चे, क्या बूढ़े सभी अपने अंदाज में मजा लेते देखे जा सकते हैं.परन्तु उस सगुन के पीछे छिपे कशिश को कोई भांप नहीं पाता है.उनके सजे,संवारे रूप-सौंदर्य के नेपथ्य में सूनेपन की एक गहरी खाई विद्यमान है.जिसे देखने,सुनने वाले समझ नहीं पाते हैं.बल्कि आनंद उठाने वालों के नजर और नजरिये दोनों ही मजाकिया के साथ-साथ घृणा की तरह होती है.इस जाति को लोग किस तराजू में तौलते हैं.यह देखने का मेरा पहला अनुभव मेरे भतीजी के साथ जुड़ा है.जिसे मैने अपने बेहद करीब से देखा,सुना और महसूस किया.जिसकी अनुगूंज आज भी कानों में गूंजते हैं.उनके गानों के बोलों की नहीं बल्कि उनके दर्द के जो मैंने बात करके शिद्दत से महसूस की थी...
उन किन्नरों में एक सीमा नाम की किन्नर थी जो की कद-काठी से लंबी थी.वदन से छरहरी खूबसूरत काया की मल्लिका थी.नैन-नक्श कटीले थे.वह कहीं से भी मुझे एक हिजड़ा नहीं लगी.यह देखते ही मैंने अपनी भाभी से कहा की वह उनसे पूछ की यह ऐसे क्यों कर रही है.तब उन्होंने झट से कहा कुछ तो कुदरत ने नाइंसाफी की होगी वरना सौक से कोई भी समाज में उपेक्षित जीवन जीने को अभ्यस्त नहीं होता है.इतना सुनते ही मैंने अपने भाभी पर जोर दिया की कृपया इससे पूंछे की उनके साथ क्या हुआ था.उस वक्त मुझे जोर की डाट तो पड़ी लेकिन कुछ देर अनुरोध करने और शक्ल बनाने के बाद भाभी मान गयी थीं.
जब नाचने-गाने का कार्यक्रम खत्म हो गया तब उन्होंने उन लोगों को बैठने का आग्रह किया.जिसे उन लोगों ने सहश्र ही स्वीकार कर लिया था.यदि मैं भूल न रही हूँ/गलत न होऊ तो वह तब तक घर के आँगन से बहार कदम नही ले जाती हैं.जब तक उन्हें उनके मन मुताबिक नेग नहीं मिल जाता है.हा!उनके अंदर एक चीज और देखी जा सकती है वह है व्यक्ति के पूंजी और औकात के अनुसार ही अपनी मांग रखने की उनकी एक परम्परा.इसे परम्परा इसलिए बोल रही हूँ क्योकि जो दे सकता है वह उसी से अपने उपहार स्वरूप मांग को रखती हैं या रखते है.या ऐसे कह सकते हैं की जिद पर अड् जाती हैं.
प्यार से बिठा करके उन्हें इज्जत के साथ नाश्ता-पानी खिलाया-पिलाया गया.इस बीच हँसी-ठिठोली भी चलती रही.बातो ही बातों में मैं सीमा जी के पास चिपक के बैठ गयी.उन सबकी बातें गौर से सुनने लगी.जो वह बता रही थी.उनके व्यक्तिगत अनुभव चौकाने वाली और रौंगटे खड़ी कर देने वाली थीं.
वह कहती हैं...!
मेरी शादी हुई थी.जब मैं ठीक से अपने को संभाल नहीं सकती थी.उस उम्र में किसी की हो गयी थी.या कर दी गयी थी.मुझे बताया जाता था की तुम्हारा घर-परिवार बहुत संपन्न और खुशहाल है.तुम बहुत सुखी रहोगी.सुन-सुन कर मन के किसी कोने में फक्र का एहसास होता था.जैसा की समाज में लड़की का अपना घर ससुराल ही बताया जाता है.वही सब मुझे भी सुनाया जाता था.लेकिन वास्तविकता तो यह है कि उनकी अपनी कोई जमीन ही नहीं है.बचपन में माँ-बापू के साये तले उछलते-कूदते कैसे बीत जाता है पता ही नहीं चल पाता है.जवानी पति के घर जाकर उन सबकी सेवा करके उनका प्यार,सम्मान और आत्मविश्वास पाने के ललक में कटती है. जवानी का ही दूसरा हिस्सा बच्चे पैदा करने और उनकी परवरिश में घुलते,चिंता करते निकल जाती हैं.वहीं बुढ़ापा बच्चों के झिडकी के तले घुटते-घुटते अतीत से लिपटे अपने आप से झगड़ते और मृत्यु का इन्तजार करते-करते तिल-तिल के गुजरती है.
उनका नाम दीपक था.वह एक बड़े अच्छे इंसान थे.वह सरकारी नौकरी करते थे.मेरा गांव जौनपुर में है.वहीं पास के एक गांव में मेरी शादी हुई थी.जब मैं बड़ी हो गयी.तब मेरा गवना का दिन रखा गया.उसमें मेरे पति को भी बुलाया गया था.यह गांव-दिहात की संस्कृति और एक चली आ रही परम्परा है.ससुराल में पहले दिन ही मेरे पति ने मुझे कुछ अपशब्द कहे.जिसे जहर नहीं अमृत समझकर मैं पी गयी.लेकिन कब तक छुपा सकते थे.एक न एक दिन तो राज़ से पर्दा उठाना ही था,सो आज ही क्यों न उघड जाए.काफी किच-किच और झिक-झिक के बाद अपलक रात गुजर गयी.ऐसे ही एक-एक दिन सरकता रहा.ससुराल से मायके आने-जाने के रिवायती फेरे भी लगे.इतना ही नहीं कुल आठ सालों तक हम एक दूसरे के साथ रहे.बेझिझक बीन शिकवा-शिकायत किये.
उनके अच्छाई के छावं तले कब इतने साल गुजर गए पता ही नहीं चला.
यह दिन मुझे नहीं देखना पडता अगर मेरे पति तक ही यह बात रहती.एक स्त्री की पहचान और अस्मिता उसके माँ बने बीना अधूरा है.इसी एक सवाल ने घर में बवाल कर दिया.सासु माँ के मांग के आगे मजबूर मेरे पति ने उन्हें बड़े प्यार से समझाते हुए सारी बाते बता दी.जिस नाजों-अंदाज़ में उन्होंने अपनी बात माँ से कही वह आज भी दिल के एक अन्तः में सुरक्षित है...
वह बोले माँ!"सीमा एक पूर्ण नारी नहीं है.लेकिन वह मेरी अर्धांग्नी है.मेरे जीते जी मेरी साया है.उसे कोई कुछ कहे यह मेरा अपमान है.आप समझ रही हैं न.इसे नियति का लेखा मानकर इस कटु किन्तु कडुवी सच्चाई को कबूल कर लीजिए.शायद यह मेरे नसीब का ही कोई कर्ज है.जिसे आज मुझे फ़र्ज़ के तौर पर निभाना है."
उस दिन के बाद माँ की निगाह बदल गयी.मेरे तरफ इस तरह से देखती थी जैसे मैं कोई बहुत बड़ी अपराधी हूँ.
जो भी हो पति का सहारा घर में सुकून से रहने का संबल देता है.यही मेरे साथ भी हो रहा था.
किसी काम से जब उन्हें बाहार जाना होता था तब वह सबको बड़े प्यार से बोल के जाते थे कि मेरे न रहने यानि की अनुपस्थिति में सीमा का ख्याल रखा जाये.ऐसा होता भी था.परन्तु भाग्य का लिखा टाला नहीं जा सकता है.इस बार उनके बाहार जाने पर वह हुआ जिसकी कल्पना मैंने कभी नहीं किया था.वो हुआ जो क्रुर नियति ने निर्धारित कर रखी थी.मुझे घर में किन्नरों को बुला कर उनके हाथ में सौप दिया गया.मैं ख़ामोशी के शिवा कोई प्रतिरोध या कोई सवाल-जबाब जैसा कुछ न कर सकीं.क्योकि माँ ने विविध तरीके से मुझे डाटा,फटकारा और लताड़ा कि किसी की खुशी को मातम में बदलने का मुझे कोई हक वो अधिकार नही है.उनके इन शब्दबाणों से ह्रदय छलनी हो गया.दिल-दिमांग में हलचल मच गया.सच में एक नेक इंसान के साथ मैं ठीक नही कर रही हूँ.
मुझे अपने स्वार्थी होने का एहसास काटने को दौडी.ऐसे ही कुछ एक कठोर,कडुवी और हकीकत से पूर्ण वक्तव्यों ने मोह की दिशा ही बदल दी.
घर से बेघर होने के बाद मैं टूट-टूट करके फुट-फुट रोई थी.लेकिन उस चीत्कार को सुनने वाला कोई न था.परन्तु जैसे ही मेरे पति घर आये उन्होंने मुझे पुकारा.किसी के पास कोई जबाब न था.यह बात मेरी माँ ने मुझे खुद बताई.वह भी खूब रोई थीं,हम दोनों माँ-बेटी जी भर रोये थे.शायद यह आखिरी मुलाकात थी.अगले जमन का पता नहीं.मुझे मेरी वही माँ-बापू फिर मिले यही कामना है.जो कर्तव्य यह हिजडा के दाग ने न निभाने दिया वह हो सकता है.अगले जन्म में कर सकूँ.यह हृदय की सुभेक्षा है.
मुझे हेरते-हेरते मेरे पति आये थे.लेकिन मैंने ही उनसे मिलने से इंकार कर दिया था.क्योकि एक माँ के ममता से वादा किया था जिसे तोड़ न सकी.अब उनके जीवन में क्या चल रहा है,या हो रहा है.मुझे कुछ मालूम नहीं है.बस दिल से बरबस यह दुआ जरुर निकलती है कि वह जहाँ रहे सदा खुशहाल ही रहें.ऐसे इंसान धरती जहान में बहुत ही कम हैं.ये सब बताते हुए उनके (सीमा)आँखों से आंसू गिर रहे थे.
वह लोग अपना नेग लेकर चली गयी.जाते-जाते पूरा माहौल गमगीन कर गयी थीं.जो हँसी-ठिठोली थी वह अब हर एक के होंठो पर सवाल छोड़ गयी थी.जिसका जबाब देना मानव के बूते की बात न थी.कुदरत ने हर एक जीव को समाज में अपना एक मुकाम दिया हैं.उनका अपना एक अस्तित्व है.लेकिन इस मानवीय रूप में उपेक्षित,कुंठित,निरादृत और तिरष्कृत प्रजाति को लोग किस-किस निगाह से देखते हैं...?
अभी तक इनके उत्थान के लिए कोई ठोस प्रयास क्यों नहीं किये गए ?यह बिन्दुं सोचने,चिंतन-मनन करने और अवलोकन करने का हैं.देर से ही सही इस पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए.विज्ञानं के इतने खोज-बीन शोध के बावजूद यह प्रसंग अनुत्तरित क्यों है...?
हम अपने शिक्षित होने का दावा करते हैं.लेकिन अपने सुशिक्षित होने का कोई प्रमाण भी देते हैं.उनको स्कूल में सबके साथ पढ़ने-लिखने और सर उठा के जीने का हुनर दिया जाना चाहिए.इस संदर्भ में पुरजोर आवाज़ बुलंद करने का दौर कब आएगा..?उस दिन से लेकर आज तक मैं उधेड़-बुन में उलझी हुई हूँ.कोई रास्ता नही सुझता की क्या करें...?इस विराट सवाल के सामने सारे विवेक-बुद्धि धरे के धरे रह जाते हैं......
डॉ.सुनीता
यह घटना सन २००० हजार के गर्मी के दिनों की है.उस समय मैं बी.ए.के प्रथम साल में थी.परीक्षाएं चल रही थीं.घर में किसी के पास कोई विशेष काम न था.लेकिन उन दिनों मेरे घर बहुत समय के बाद एक नन्हीं कली मुस्काई थी.जिसकी किलकारी से पूरा परिवार आह्लादित और प्रफुल्लित था.मैं उसको लेकर कुछ अधिक ही भावुक थी.आज भी हूँ...
शहर का तो मुझे पता नहीं लेकिन गावों में उन दिनों और आज भी बधाइयाँ गाने के लिए हिजड़े आते हैं.उन्हें हिजड़े कहकर लोग बड़ा लुफ्त लेते हैं.उनके नाच-गाने को एक सगुन के तौर पर देखा जाता है.जिसे क्या बच्चे, क्या बूढ़े सभी अपने अंदाज में मजा लेते देखे जा सकते हैं.परन्तु उस सगुन के पीछे छिपे कशिश को कोई भांप नहीं पाता है.उनके सजे,संवारे रूप-सौंदर्य के नेपथ्य में सूनेपन की एक गहरी खाई विद्यमान है.जिसे देखने,सुनने वाले समझ नहीं पाते हैं.बल्कि आनंद उठाने वालों के नजर और नजरिये दोनों ही मजाकिया के साथ-साथ घृणा की तरह होती है.इस जाति को लोग किस तराजू में तौलते हैं.यह देखने का मेरा पहला अनुभव मेरे भतीजी के साथ जुड़ा है.जिसे मैने अपने बेहद करीब से देखा,सुना और महसूस किया.जिसकी अनुगूंज आज भी कानों में गूंजते हैं.उनके गानों के बोलों की नहीं बल्कि उनके दर्द के जो मैंने बात करके शिद्दत से महसूस की थी...
उन किन्नरों में एक सीमा नाम की किन्नर थी जो की कद-काठी से लंबी थी.वदन से छरहरी खूबसूरत काया की मल्लिका थी.नैन-नक्श कटीले थे.वह कहीं से भी मुझे एक हिजड़ा नहीं लगी.यह देखते ही मैंने अपनी भाभी से कहा की वह उनसे पूछ की यह ऐसे क्यों कर रही है.तब उन्होंने झट से कहा कुछ तो कुदरत ने नाइंसाफी की होगी वरना सौक से कोई भी समाज में उपेक्षित जीवन जीने को अभ्यस्त नहीं होता है.इतना सुनते ही मैंने अपने भाभी पर जोर दिया की कृपया इससे पूंछे की उनके साथ क्या हुआ था.उस वक्त मुझे जोर की डाट तो पड़ी लेकिन कुछ देर अनुरोध करने और शक्ल बनाने के बाद भाभी मान गयी थीं.
जब नाचने-गाने का कार्यक्रम खत्म हो गया तब उन्होंने उन लोगों को बैठने का आग्रह किया.जिसे उन लोगों ने सहश्र ही स्वीकार कर लिया था.यदि मैं भूल न रही हूँ/गलत न होऊ तो वह तब तक घर के आँगन से बहार कदम नही ले जाती हैं.जब तक उन्हें उनके मन मुताबिक नेग नहीं मिल जाता है.हा!उनके अंदर एक चीज और देखी जा सकती है वह है व्यक्ति के पूंजी और औकात के अनुसार ही अपनी मांग रखने की उनकी एक परम्परा.इसे परम्परा इसलिए बोल रही हूँ क्योकि जो दे सकता है वह उसी से अपने उपहार स्वरूप मांग को रखती हैं या रखते है.या ऐसे कह सकते हैं की जिद पर अड् जाती हैं.
प्यार से बिठा करके उन्हें इज्जत के साथ नाश्ता-पानी खिलाया-पिलाया गया.इस बीच हँसी-ठिठोली भी चलती रही.बातो ही बातों में मैं सीमा जी के पास चिपक के बैठ गयी.उन सबकी बातें गौर से सुनने लगी.जो वह बता रही थी.उनके व्यक्तिगत अनुभव चौकाने वाली और रौंगटे खड़ी कर देने वाली थीं.
वह कहती हैं...!
मेरी शादी हुई थी.जब मैं ठीक से अपने को संभाल नहीं सकती थी.उस उम्र में किसी की हो गयी थी.या कर दी गयी थी.मुझे बताया जाता था की तुम्हारा घर-परिवार बहुत संपन्न और खुशहाल है.तुम बहुत सुखी रहोगी.सुन-सुन कर मन के किसी कोने में फक्र का एहसास होता था.जैसा की समाज में लड़की का अपना घर ससुराल ही बताया जाता है.वही सब मुझे भी सुनाया जाता था.लेकिन वास्तविकता तो यह है कि उनकी अपनी कोई जमीन ही नहीं है.बचपन में माँ-बापू के साये तले उछलते-कूदते कैसे बीत जाता है पता ही नहीं चल पाता है.जवानी पति के घर जाकर उन सबकी सेवा करके उनका प्यार,सम्मान और आत्मविश्वास पाने के ललक में कटती है. जवानी का ही दूसरा हिस्सा बच्चे पैदा करने और उनकी परवरिश में घुलते,चिंता करते निकल जाती हैं.वहीं बुढ़ापा बच्चों के झिडकी के तले घुटते-घुटते अतीत से लिपटे अपने आप से झगड़ते और मृत्यु का इन्तजार करते-करते तिल-तिल के गुजरती है.
उनका नाम दीपक था.वह एक बड़े अच्छे इंसान थे.वह सरकारी नौकरी करते थे.मेरा गांव जौनपुर में है.वहीं पास के एक गांव में मेरी शादी हुई थी.जब मैं बड़ी हो गयी.तब मेरा गवना का दिन रखा गया.उसमें मेरे पति को भी बुलाया गया था.यह गांव-दिहात की संस्कृति और एक चली आ रही परम्परा है.ससुराल में पहले दिन ही मेरे पति ने मुझे कुछ अपशब्द कहे.जिसे जहर नहीं अमृत समझकर मैं पी गयी.लेकिन कब तक छुपा सकते थे.एक न एक दिन तो राज़ से पर्दा उठाना ही था,सो आज ही क्यों न उघड जाए.काफी किच-किच और झिक-झिक के बाद अपलक रात गुजर गयी.ऐसे ही एक-एक दिन सरकता रहा.ससुराल से मायके आने-जाने के रिवायती फेरे भी लगे.इतना ही नहीं कुल आठ सालों तक हम एक दूसरे के साथ रहे.बेझिझक बीन शिकवा-शिकायत किये.
उनके अच्छाई के छावं तले कब इतने साल गुजर गए पता ही नहीं चला.
यह दिन मुझे नहीं देखना पडता अगर मेरे पति तक ही यह बात रहती.एक स्त्री की पहचान और अस्मिता उसके माँ बने बीना अधूरा है.इसी एक सवाल ने घर में बवाल कर दिया.सासु माँ के मांग के आगे मजबूर मेरे पति ने उन्हें बड़े प्यार से समझाते हुए सारी बाते बता दी.जिस नाजों-अंदाज़ में उन्होंने अपनी बात माँ से कही वह आज भी दिल के एक अन्तः में सुरक्षित है...
वह बोले माँ!"सीमा एक पूर्ण नारी नहीं है.लेकिन वह मेरी अर्धांग्नी है.मेरे जीते जी मेरी साया है.उसे कोई कुछ कहे यह मेरा अपमान है.आप समझ रही हैं न.इसे नियति का लेखा मानकर इस कटु किन्तु कडुवी सच्चाई को कबूल कर लीजिए.शायद यह मेरे नसीब का ही कोई कर्ज है.जिसे आज मुझे फ़र्ज़ के तौर पर निभाना है."
उस दिन के बाद माँ की निगाह बदल गयी.मेरे तरफ इस तरह से देखती थी जैसे मैं कोई बहुत बड़ी अपराधी हूँ.
जो भी हो पति का सहारा घर में सुकून से रहने का संबल देता है.यही मेरे साथ भी हो रहा था.
किसी काम से जब उन्हें बाहार जाना होता था तब वह सबको बड़े प्यार से बोल के जाते थे कि मेरे न रहने यानि की अनुपस्थिति में सीमा का ख्याल रखा जाये.ऐसा होता भी था.परन्तु भाग्य का लिखा टाला नहीं जा सकता है.इस बार उनके बाहार जाने पर वह हुआ जिसकी कल्पना मैंने कभी नहीं किया था.वो हुआ जो क्रुर नियति ने निर्धारित कर रखी थी.मुझे घर में किन्नरों को बुला कर उनके हाथ में सौप दिया गया.मैं ख़ामोशी के शिवा कोई प्रतिरोध या कोई सवाल-जबाब जैसा कुछ न कर सकीं.क्योकि माँ ने विविध तरीके से मुझे डाटा,फटकारा और लताड़ा कि किसी की खुशी को मातम में बदलने का मुझे कोई हक वो अधिकार नही है.उनके इन शब्दबाणों से ह्रदय छलनी हो गया.दिल-दिमांग में हलचल मच गया.सच में एक नेक इंसान के साथ मैं ठीक नही कर रही हूँ.
मुझे अपने स्वार्थी होने का एहसास काटने को दौडी.ऐसे ही कुछ एक कठोर,कडुवी और हकीकत से पूर्ण वक्तव्यों ने मोह की दिशा ही बदल दी.
घर से बेघर होने के बाद मैं टूट-टूट करके फुट-फुट रोई थी.लेकिन उस चीत्कार को सुनने वाला कोई न था.परन्तु जैसे ही मेरे पति घर आये उन्होंने मुझे पुकारा.किसी के पास कोई जबाब न था.यह बात मेरी माँ ने मुझे खुद बताई.वह भी खूब रोई थीं,हम दोनों माँ-बेटी जी भर रोये थे.शायद यह आखिरी मुलाकात थी.अगले जमन का पता नहीं.मुझे मेरी वही माँ-बापू फिर मिले यही कामना है.जो कर्तव्य यह हिजडा के दाग ने न निभाने दिया वह हो सकता है.अगले जन्म में कर सकूँ.यह हृदय की सुभेक्षा है.
मुझे हेरते-हेरते मेरे पति आये थे.लेकिन मैंने ही उनसे मिलने से इंकार कर दिया था.क्योकि एक माँ के ममता से वादा किया था जिसे तोड़ न सकी.अब उनके जीवन में क्या चल रहा है,या हो रहा है.मुझे कुछ मालूम नहीं है.बस दिल से बरबस यह दुआ जरुर निकलती है कि वह जहाँ रहे सदा खुशहाल ही रहें.ऐसे इंसान धरती जहान में बहुत ही कम हैं.ये सब बताते हुए उनके (सीमा)आँखों से आंसू गिर रहे थे.
वह लोग अपना नेग लेकर चली गयी.जाते-जाते पूरा माहौल गमगीन कर गयी थीं.जो हँसी-ठिठोली थी वह अब हर एक के होंठो पर सवाल छोड़ गयी थी.जिसका जबाब देना मानव के बूते की बात न थी.कुदरत ने हर एक जीव को समाज में अपना एक मुकाम दिया हैं.उनका अपना एक अस्तित्व है.लेकिन इस मानवीय रूप में उपेक्षित,कुंठित,निरादृत और तिरष्कृत प्रजाति को लोग किस-किस निगाह से देखते हैं...?
अभी तक इनके उत्थान के लिए कोई ठोस प्रयास क्यों नहीं किये गए ?यह बिन्दुं सोचने,चिंतन-मनन करने और अवलोकन करने का हैं.देर से ही सही इस पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए.विज्ञानं के इतने खोज-बीन शोध के बावजूद यह प्रसंग अनुत्तरित क्यों है...?
हम अपने शिक्षित होने का दावा करते हैं.लेकिन अपने सुशिक्षित होने का कोई प्रमाण भी देते हैं.उनको स्कूल में सबके साथ पढ़ने-लिखने और सर उठा के जीने का हुनर दिया जाना चाहिए.इस संदर्भ में पुरजोर आवाज़ बुलंद करने का दौर कब आएगा..?उस दिन से लेकर आज तक मैं उधेड़-बुन में उलझी हुई हूँ.कोई रास्ता नही सुझता की क्या करें...?इस विराट सवाल के सामने सारे विवेक-बुद्धि धरे के धरे रह जाते हैं......
डॉ.सुनीता
निश्चित तौर पर यह लोग भी समाज का हिस्सा हैं और हमे इनके बारे मे भी सोचना चाहिए।
ReplyDeleteइस सत्य घटना (मैं कहानी नहीं कहूँगा )ने मन को बुरी तरह झकझोर दिया।
सादर
आप ने उन के दर्द को महसूस किया और लिखा, ये लेख पढ़ कर जब भी किसी किन्नर से सामना होगा तो सोच में कुछ परिवर्तन स्वभाविक है......समाज के इस पक्ष पर भी रौशनी डालने के लिए आप बधाई की पात्र है ....पहली बार आप के ब्लॉग पर आना हुआ, पोस्ट पढ़ कर आना सार्थक भी हुआ.....
ReplyDeleteबहुत मर्मस्पर्शी प्रस्तुति...दिल को छू गयी.
ReplyDeleteसमाज के एक उपेक्षित वर्ग की व्यथा को प्रस्तुत करती मर्मस्पर्शी रचना ......
ReplyDeleteदर्द ...मर्मस्पर्शी और सत्य
ReplyDeleteआप सबका ह्रदय से धन्यवाद...!उनके जीवन को पढ़ने और महसूस करने के लिए...
ReplyDeleteयह कोई कल्पना नही है.सीमा जी के मुख से बयां किया गया सच है.जिसे आप सब से साझा किया.इतना ही नहीं उन्होंने पढाई भी की थी.इंटर के बाद ससुराल चली गयी.वहाँ जाने के बाद पढना बंद हो गया था.
क्योकि लड़की के जिंदगी का आधा फैसला माँ-बापू करते हैं बाकि के ससुराल और पति के द्वारा लिया जाता है...अधिकांश गावों में कम से कम ऐसा ही है..
अभी भी मुझे एक टीस है की कास मैं दुबारा उनसे मिल पाती..देखते हैं भविष्य में ऐसा हो पाता है...
Sunita ji.meri nazar m har kinnar is tarah ki madad ka haqdar bhi nahi hota jaise k sima.thik usi tarah jaise ek achchha bhala aadmi apni ghalat aadto k karan zindagi doobhar kar leta hai aur dusra apni paristhitiyon s.main sima ko dusri category m pata hoon.agar kabhi meri zarurat aapke dwara bhavishya m aise logo k liye koi kaam m, to zarur yaad kijiyega. Shayad kuchh kaam aa sakun.
Deleteआपको लोहड़ी हार्दिक शुभ कामनाएँ।
ReplyDelete---------------------------------------------------------------
कल 13/01/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
इस सत्य घटना ने मन को झकझोर कर रख दिया है ..समाज में इनको भी एक आम इंसान की तरह ही समझना चाहिए ..
ReplyDeletebahut hi marmik aur hriday sparshi satya...
ReplyDeleteWelcome to मिश्री की डली ज़िंदगी हो चली
बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती हुई एक कडवी सच्चाई ...
ReplyDeletekabhi kabhi prakrati sare adhikar apne hath me le leti hai .... pata nahi qu samaj inhe swikar nahi kar pata ...mai samaj hone ke baad bhi nirutar hu...iske liye mafi chahta hu !!
ReplyDeleteआप ने बहुत ही अच्छे तरीके से हाशिए पर रखे समाज के दर्द को बयां किया
ReplyDeleteबहुत ही मार्मिक और चिन्तन करने योग्य बात आपने सबके सामने रखी है । बधाई । सस्नेह
ReplyDeleteआपने बहुत अच्छी बात लिखी है, उन्हें हमारे समाज में बराबरी से स्कूल जाने,आगे बढ्ने का मौका मिलना चाहिए। पता नहीं हमारा समाज इतना भयावह क्यों हो जाता है, खासतौर पर असहायों के प्रति, स्त्रियॉं के प्रति। स्त्रियाँ सबसे अधिक उपेक्षित और गंभीर परिस्थितियों में रहने को मजबूर हैं। हमारा पुरुष प्रधान और पढ़ा लिखा किन्तु अशिक्षित समाज जाने कब बदलेगा, कब हम एक अच्छे समाज को देख पाएंगे पता नहीं-----------
ReplyDeleteआपने बहुत अच्छी बात लिखी है, उन्हें हमारे समाज में बराबरी से स्कूल जाने,आगे बढ्ने का मौका मिलना चाहिए। पता नहीं हमारा समाज इतना भयावह क्यों हो जाता है, खासतौर पर असहायों के प्रति, स्त्रियॉं के प्रति। स्त्रियाँ सबसे अधिक उपेक्षित और गंभीर परिस्थितियों में रहने को मजबूर हैं। हमारा पुरुष प्रधान और पढ़ा लिखा किन्तु अशिक्षित समाज जाने कब बदलेगा, कब हम एक अच्छे समाज को देख पाएंगे पता नहीं-----------
ReplyDeleteएक लेख इस विषय पर कभी लिखा था, शायद पसंद आये ….
ReplyDeletehttp://satish-saxena.blogspot.in/2010/03/blog-post_25.html
पढ़कर एक विचित्र एहसास से भर गई मेरी रूह!
ReplyDeleteश्रेयान्तिका केलर
ye Bhut hi achi Bat kahi h apne samaj mai sudhar ke liye ye ek pahal h.
ReplyDeleteस्त्रियों की तरह शर्मीला लड़का ,लड़कियों जैसे चाल ढाल मे ढलते ढलते किन्नर ही बन गया.मै तो किन्नर थी अब स्त्री बन कर ऐसे ही संघर्षपूर्ण व्यतिक्रम मे अपने वजूद को संभाल रही हूँ।दबंगों ने
ReplyDeleteमेरी सेक्सुएलिटी का मज़ाक उड़ाने की कोशिश की थी। मेरे साथ बलात्कार भी करने की कोशिश की।मगर
मै शक्तिरूपी दुर्गा की तरह उभरी और उन्हें धूल चटा दी,मै युवतियों को जूडो कराटे और आत्मरक्षा के गुर सिखाती हूँ
बहुत खूब सबीहा
ReplyDeleteLogo ko ab samjhana chahia jaisa bhgwan ne banaia hai aisa except karna chaia ab to science ne bhoot traki kar li hai sab kuch ho saketa hai aaj kal to lareke jan bhooj kar kinner ban raha hain because they want to enjoy their life in that way
ReplyDeleteDil ko. Jhikor ke rakh diya
ReplyDeleteYahi ghatna meri life me hui hai