महिला,मुद्दे और ब्लॉग
डॉ. सुनीता
नोट-यह एक शोधपत्र है.जो ‘विकास और मुद्दे’ नामक पुस्तक में छपी है.
आज से इसे मैं अपने ब्लॉग पर टुकड़े-टुकड़े करके पोस्ट कर रही हूँ.
आज से इसे मैं अपने ब्लॉग पर टुकड़े-टुकड़े करके पोस्ट कर रही हूँ.
प्रथम भाग
साड़ी पहनो
लड़की बनो
वीवी बनो
वे कहते हैं
पढ़ाई करने
वाली बनो
बाबर्ची बनो
झगड़ालू बनो
नौकरों के प्रति
उपयुक्त बनो,
आह
हिस्सा बनो
सांचों में
ढालने वाले चीखे
(कमला दास : डी ओल्ड प्ले हाउस )
समाज चाहे
जिस दौर का रहा हो स्त्री से इसी तरह के अपेक्षाएं रखता रहा है.जिसे उसे मानना ही
पड़ता है.राजी-खुशी या फिर मन को मसोस के ही क्योंकर न उसे स्वीकारना ही पड़ता
है.
आज २१ वी.
सदी में जी रहे लोगों की दकियानुसी सोच में बहुत फर्क नहीं आया है.घर-परिवार के इज्जत,मान,सम्मान और
परम्परा के रखवाली की जिम्मेदारी इनके ही कंधे पर टिकी है.युगों-युगों से भूख-गरीबी
के निवारण और मुक्ति के लिए एक बेटी ही क्यों बेची जाती है.?
यह अक्षुण
प्रश्न अपने स्थान पर कायम है.जबकि इनके उद्धार के नाम पर बहुत सारी दुकाने फल-फुल
रही हैं.
समय-समय पर
समाज-सुधारकों ने इसका वीणा उठाया है.इसी को ध्यान में रखते हुए १८५७ के दौर में ‘बाल-प्रबोधनी’ और ‘स्त्री-प्रबोधनी’ जैसी पत्रिकाओं के माध्यम से एक सतत प्रयास किया गया था.
१८८२ में ‘सीमंतनी उपदेश’ नामक एक किताब के द्वारा स्त्री के दर्द को लोगों के बीच पहुचाने
का जरिया बनाया गया था.जिसे धर्मवीर भारती ने प्रकाशित करवाया.इसकी ३०० प्रतियाँ
लोगों में बांटी गयी थी.७-८ मार्च १९९१ में ‘प्रगतिशील महिला मंच’ का निर्माण किया गया.इसी साल के आखिर में ‘आधी जमीन’ नाम की त्रैमासिक पत्रिका की शुरुआत की गयी.इस के सहयोग से
देश के तीन राज्यों में एक-एक पत्रिका का शुभारंभ किया गया.बंगाल में ‘प्रतिविधान’, असम में ‘जोनाकी बाट’ और तमिल में ‘सूर्योदया’ के साथ देश में एक व्यापक बदलाव की मुहीम छेड़ी थीं.
१९९४ में
अलग-अलग देश से आई हुई महिलाओं के सहयोग से दिल्ली में ‘अखिल भारतीय महिला एसोसियेशन (ऐपवा)की नींव रखी गयी.
दुनिया के
चेहरे का रंग रोज नए कलेवर से सुसज्जित होते दिखाई देते हैं.पत्रकारिता के दुनिया
में नित्य नए बदलाव की एक सघन लहर आती है.जहाँ से परिवर्तन की एक नयी किरण फुट
पड़ती है.परिवर्तन के प्राकृतिक गुण इसके अभिन्न अंग हैं.आज के अत्याधुनिक माध्यमों
से सामाजिक सरोकार को अभिव्यक्ति का एक मारक मंच मिला है.जिसके माध्यम से हर आम
व्यक्ति खास तौर से जुडकर आत्मतोष प्राप्त कर पा रहा है.
स्त्री के
संदर्भ में प्राकृतिक गुणों की दुहाई हमेशा ही दी जाती रही हैं. “प्राकृतिक अनिवार्यता के तहत स्त्री की परिभाषा देह है
जिसका प्रकृतिक उद्देश्य मातृत्व है.देह का उपभोक्तावाद,सौंदर्य का औद्योगीकरण,मातृत्व का कर्मकांड,यौन शुचिता,सती और वैधव्य महोत्सव जैसी अन्य अनेक मुल्यान्वित प्रथाएँ
मात्र ऐतिहासिक गढंत है.”
समाज में
व्याप्त बुराइयों पर गहरे कटाक्ष के प्रतिपक्षयी रूप निरंतर देख सकते हैं.मुख्य
रूप से भ्रष्टाचार,अशिक्षा,असमानता और महिलाओं से जुड़े मुद्दे सर्वाधिक देखने को मिलते
हैं.
घर के चार
दिवारी के अंदर शोषण के गीत रचने वाले भी न्यू मीडिया के अंगनाई में राग भैरवी की
तान छेड़ते नजर आते हैं.न्यू मीडिया के आ जाने से एक नए तरह के सक्रियता को देखा जा
सकता है.इसके रंग-रूप,स्वरुप और
चेहरे बहुरंगी हैं.
हम पुरातन
संचार के कंधे पर सवार होकर न्यू माध्यम के रंगीन चौखट पार करके अपनी एक पैठ और
पहचान बना रहे हैं.इसमें स्त्री-पुरुष की समान सहभागिता देखी जा सकती है.जब हम नए
संसाधनों की बात करते हैं.उसमें सोशल मीडिया,न्यू मीडिया और ब्लॉग का नाम जुबा पर सबसे पहले आता है.इन
नए साधनों ने घर बैठे व्यक्ति को भी एक अभिव्यक्ति का स्वतंत्र मंच दिया है.किसी
भेदभाव के भावना से
रहित.
जब हम ब्लॉग
की बात करते हैं तो सबसे पहले ध्यान इस बात पर जाता है कि इसकी उत्पत्ति का
केन्द्र और मुद्दा क्या रहा है?इस संदर्भ में कुछ तथ्य खुलकर सामने आते हैं.देखा
जाए तो ब्लॉग शब्द के शुरुआत की कहानी बेहद रोचकता लिए हुए है.
“इस शब्द को 1999 में
पीटर मरहेल्ज नाम के शख्स ने ईजाद किया था. सबसे पहले जोर्न बर्जर ने 17 दिसंबर 1997 में
वेबलॉग शब्द का इस्तेमाल किया था.इसी को पीटर मरहेल्ज ने मजाक-मजाक में मई-1999 को अपने ब्लॉग ‘पीटरमी डॉट कॉम’ की साइड बार में ‘वी ब्लॉग’ कर
दिया. बाद में ‘वी’ को भी हटा दिया और 1999 में ‘ब्लॉग’ शब्द
आया.हिंदी ब्लोगिंग की शुरुआत 02 मार्च 2003 को हुई थी और हिंदी का पहला अधिकृत ब्लॉग होने का सौभाग्य
प्राप्त है ‘नौ दो
ग्यारह’ को.”
इस तरह से
पत्रकारिता के इतिहास में ब्लॉग का प्रवेश एक नए युग और तेवर की तरह हुआ है.इसे
आये हुए बहुत दिन नहीं हुए हैं.लेकिन लोगों के मध्य इसकी एक अलग ही पहचान बन गयी
है.हर किसी के जुबान पर इसके चर्चे सुनने को मिल जाते हैं.इसके प्रारम्भिक दौर में
लोगों की भूमिका अहम रही है.
“'ब्लॉग' वेब-लॉग का संक्षिप्त रूप है,जो अमरीका में '1997' के
दौरान इंटरनेट में प्रचलन में आया.प्रारंभ में कुछ ऑनलाइन जर्नल्स के लॉग प्रकाशित
किए गए थे, जिसमें जालघर के भिन्न क्षेत्रों में प्रकाशित समाचार,जानकारी इत्यादि लिंक होते थे,तथा लॉग लिखने वालों की संक्षिप्त टिप्पणियाँ भी उनमें होती
थीं.इन्हें ही ब्लॉग कहा जाने लगा.”
ब्लॉग लिखने
वाले जाहिर है,ब्लोगर
कहलाने लगे.प्राय: एक ही विषय से सम्बन्धित यह संकलन ब्लॉग तेजी से लोकप्रिय होता
गया.ब्लॉग का सूचनाओं और आकडों से गहरा जुडाव था.
शुरू के दिनों
में इसके खास भाषा की जानकारी होना बेहद जरुरी था. लेकिन प्रबुद्ध लोगों के कुशल
प्रयास के माध्यम से इस खास से भी सबको मुक्ति मिल गयी.
ब्लॉग के
ताकत और लोकप्रियता को देखते हुए भाषा से सम्बन्धित समस्यायों को हल कर दिया गया
जिससे यह सर्वसुलभ हो सका.आज पल में देखते ही देखते '1997-98' के
महज़ दर्जन भर ब्लॉग की संख्या बढ़कर दस लाख से अधिक का आँकड़ा पार
कर गयी है.इस उपलब्धि में मात्र चार साल ही लगे हैं...
अगले भाग की प्रतीक्षा करें...
बहुत अच्छा लिखा है दीदी !
ReplyDeleteसादर
आह
ReplyDeleteहिस्सा बनो
सांचों में ढालने वाले चीखे
यही होता आया है...हो भी रहा है....
आगे का पता नहीं.....
.....एक सकारात्मक कदम....!!
ब्लॉग लिखना,अपनी भावनाओं को व्यक्त कर सुगमता से दूसरों तक पहुचाना,और स्वय लेखन.सम्पादन,
ReplyDeleteप्रकाशन करना,,,,,,
MY RECENT POST...:चाय....
बहुत अच्छा और सच्चा लिखा है......
ReplyDeleteअगले भाग की प्रतीक्षा में...
अनु
बहुत सही लिखा है आपने , बहुत कुछ जानने को मिला
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