अतीत के आइने में जब-जब ताकती हूँ
धुंधली-धुंधली लकीर दिखाई देती है
पानी पर बने बुलबुले जैसे बनते-सवरते हुए
करीब और करीब जाते ही उड़ जाते हैं पंक्षी के मानिंद
महसूस करके दिल सहम जाता है
ये जुगनू थे या परछाई एक द्वंद छिड़ जाता है
मस्तिष्क के कोरों से टकराती यादें पुकार उठती हैं
हर्फ़-ब-हर्फ़ आँखों में एक चलचित्र चलता है.
कभी जब एक नन्हीं कली थी
दुवाओं,अदाओं,के साथ लाड़-प्यार में पली थी
उठते-बैठते सबके लबों पर एक नाम था
उसकी अपनी एक अलग पहचान थी
देहरी के आर-पार गुडिया बन फिरती थी
चौखट के कोने से घर-आँगन में चहंकती थी
अनमोल पलों में इसकी नींव माँ ने रखी थी.
पैरों में घुंघरू बरबस सजते थे
अपने रुनुक-झुनुक में सबको बांधे रखते थे
लरकाइयां के यादों में झनकते-झांकते पायलिया
मैं इसे भूली नहीं हूँ माँ ! अब तक गूंजते हैं कानों में
जब तुम अपने चूडियों के खनक से विरोध करती थीं
पैरों में बजते पाजेब को हथियार समझती थीं
दादी के कटीले शहतीरों से भरी बातों को
गले में लटकते निशानी से उलाहना देती थीं.
बड़ी होके दुनिया के झमेलों में खो गयी हूँ
ज़माने के दस्तूरों में अजब उलझ गयी हूँ
मकड़ी के जाले सरीखें चक्करों में फस गयी हूँ
निकलने के उधेड़-बुन में और उलझ गयी हूँ
मायावी दुनिया के बाज़ार में वेकिमत बीक गयी हूँ
बोली लगी करोड़ों की एक चुटकी में सब गिरवी रख दी हूँ
यहाँ तक...
आज़ादी,स्वभिमान,सम्मान और ममता का मान
तुझसा बनने के लालच में तुझमें ही समा गयी हूँ...
क्रमश:
डॉ.सुनीता
धुंधली-धुंधली लकीर दिखाई देती है
पानी पर बने बुलबुले जैसे बनते-सवरते हुए
करीब और करीब जाते ही उड़ जाते हैं पंक्षी के मानिंद
महसूस करके दिल सहम जाता है
ये जुगनू थे या परछाई एक द्वंद छिड़ जाता है
मस्तिष्क के कोरों से टकराती यादें पुकार उठती हैं
हर्फ़-ब-हर्फ़ आँखों में एक चलचित्र चलता है.
कभी जब एक नन्हीं कली थी
दुवाओं,अदाओं,के साथ लाड़-प्यार में पली थी
उठते-बैठते सबके लबों पर एक नाम था
उसकी अपनी एक अलग पहचान थी
देहरी के आर-पार गुडिया बन फिरती थी
चौखट के कोने से घर-आँगन में चहंकती थी
अनमोल पलों में इसकी नींव माँ ने रखी थी.
पैरों में घुंघरू बरबस सजते थे
अपने रुनुक-झुनुक में सबको बांधे रखते थे
लरकाइयां के यादों में झनकते-झांकते पायलिया
मैं इसे भूली नहीं हूँ माँ ! अब तक गूंजते हैं कानों में
जब तुम अपने चूडियों के खनक से विरोध करती थीं
पैरों में बजते पाजेब को हथियार समझती थीं
दादी के कटीले शहतीरों से भरी बातों को
गले में लटकते निशानी से उलाहना देती थीं.
बड़ी होके दुनिया के झमेलों में खो गयी हूँ
ज़माने के दस्तूरों में अजब उलझ गयी हूँ
मकड़ी के जाले सरीखें चक्करों में फस गयी हूँ
निकलने के उधेड़-बुन में और उलझ गयी हूँ
मायावी दुनिया के बाज़ार में वेकिमत बीक गयी हूँ
बोली लगी करोड़ों की एक चुटकी में सब गिरवी रख दी हूँ
यहाँ तक...
आज़ादी,स्वभिमान,सम्मान और ममता का मान
तुझसा बनने के लालच में तुझमें ही समा गयी हूँ...
क्रमश:
डॉ.सुनीता
Excellent post dr sunita ji
ReplyDeletei am read complitly.....and after reading i agree with u
gud wishes to u holi festival
from Sanjay bhaskar
जिन्दगी के यथार्थ को बताती सार्थक अभिवयक्ति....
ReplyDeleteबहुत बढ़िया भाव सार्थक अभिव्यक्ति,बेहतरीन रचना,...सुनीता जी बधाई
ReplyDeleteNEW POST...फिर से आई होली...
NEW POST फुहार...डिस्को रंग...
bahut badhaia prastuti..................thanks...............
ReplyDeleteबहुत सुंदर
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ReplyDelete~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~
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♥ होली ऐसी खेलिए, प्रेम पाए विस्तार ! ♥
♥ मरुथल मन में बह उठे… मृदु शीतल जल-धार !! ♥
आपको सपरिवार
होली की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
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