'भागो मत,बदल डालो'
डॉ.सुनीता
10 अप्रैल,2011,नई दिल्ली.
वे कर्मकांडी और पोंगापंडित नहीं थे.यदि होते तो देश में उनके नाम पर भी गढ़ और मठ चल रहे होते.इन गढों और मठों के संचालक अपनी दुकान चलाने के लिए छाती पीट-पीट कर उनको याद कर रहे होते.
उनके महिमा के गुणगान में कोई कसर न छोड़ते.अफ़सोस की राहुल सांस्कृत्यायन ऐसे न थे.जो वह थे,पोंगापंथियों के लिए एक किरकिरी थे.
भारत की नयी पीढ़ी के लिए एक मार्गदर्शक हैं,लेकिन इन्टरनेट, फेसबुकिया की पीढ़ी शकीरा,मैडोना,गागा,ब्रिटनी स्पीयर्स को बखूबी याद रखते हैं.लेकिन इस घुम्मकड़पन के जनक और प्रगतिशील चेतना के नायक राहुल सांस्कृत्यायन,उनकी चेतना के किसी हिस्से में नहीं हैं.
यह एक बड़ा संकट है.यह इस देश और नई पीढ़ी के लिए खतरे का संकेत है.
राहुल सांस्कृत्यायन को कौन नहीं जनता है.वह आजीवन यायावर और घुमक्कड़ बने रहे.पाली और संस्कृत सहित दर्जनों भाषाओं के जानकार थे.
ताजिंदगी ‘हुंकार’ भरते रहे.कभी किसानों के पक्ष में लड़े तो कभी मजदूरों के पक्ष में तन के खड़े रहे.
‘हुंकार’ के सम्पादक के रूप में अपनी अहम भूमिका अदा किये.उन दिनों इसमें एक विज्ञापन छपता था.‘गुंडों से डरिये’.यह काम करने से इंकार कर दिया क्योंकि इसमें गाँधी को बंडी पहने आग लगाते हुए दिखाया जाता गया था.एक समर्पित देशभक्त के लिए यह असहनीय था.क्योंकि उनके लिए गुंडा कौन लोग थे,अंग्रेज ही थे.
इस पत्रिका के मालिक सहजानंद जी थे.उन्हें ऐसा छापने के लिए मोटी रकम मिलती थी.उन्हें भला ऐसा करने से क्या एतराज होता.परन्तु राहुल ने साफ मना कर दिया.
ऐसे व्यक्तित्व के धनी आज के पत्रकारिता और मीडिया में दूर-दूर तक कोई नहीं है.मौजूदा मीडिया में हुंकार भरने वालों की अकाल सी पड़ गई है.रीढ़हीन और चाटुकार पत्रकारों की जमात अधिक फलफूल रही है.सुख-सुविधा के लिए वे रेंगने के लिए भी तैयार बैठे हैं.
मालिक ही मुकम्मल खबरों पर नजर गडाये रहते हैं.
वे एक दार्शनिक भी थे और चिन्तक भी.दूरदर्शिता उन्हें घुमक्कड़ीपन और संघर्षों की जमीन से मिली थी.उनके लिए कोई देश पराया नहीं था. खोज और सृजन की भूख ने उन्हें हमेशा देश-दुनिया में घूमने के लिए प्रोत्साहित किया.
वे घूमे,लिखे और खूब लिखे.कभी ‘बोल्गा से गंगा’ की यात्रा किये.कभी ‘साम्यवाद ही क्यों’की जरुरत पर बल दिए.’अथातो घुम्मकड़ जिज्ञासा’ को संजीवनी सरीखा संचित किया.
कभी भारत से भूटान गए.कभी रूस से श्रीलंका.कभी अकेले आये कभी खच्चर के पीठ पर ज्ञान लाद कर लाये.
संसार के वे लोग,जो उनमें दिलचस्पी रखते थे,उनकी रचनाओं के माध्यम से दुनिया को जाना-समझा और कल्पना किया.कलम से निकले शब्दों से देश-दुनिया से रु-ब-रु हुए.
राहुल ने कहा है---
“मेरी समझ में दुनिया की सर्वश्रेष्ठ वस्तु है घुमक्कड़ी है. घुमक्कड़ से बढ़कर व्यक्ति और समाज का कोई हितकारी नहीं हो सकता.दुनिया दुख में हो चाहे सुख में, सभी समय यदि सहारा पाती है तो घुमक्कड़ों की ही ओर से.प्राकृतिक आदिम मनुष्य परम घुमक्कड़ था.आधुनिक काल में घुमक्कड़ों के काम की बात कहने की आवश्यकता है, क्योंकि लोगों ने घुमक्कड़ों की कृतियों को चुरा के उन्हें गला फाड़–फाड़कर अपने नाम से प्रकाशित किया.
जिससे दुनिया जानने लगी कि वस्तुतः तेली के ‘कोल्हू के बैल ही दुनिया में सब कुछ करते हैं.
आधुनिक विज्ञान में चार्ल्स डारविन का स्थान बहुत ऊँचा है.उसने प्राणियों की उत्पत्ति और मानव–वंश के विकास पर ही अद्वितीय खोज नहीं की, बल्कि कहना चाहिए कि सभी विज्ञानों को डारविन के प्रकाश में दिशा बदलनी पड़ी.लेकिन, क्या डारविन अपने महान आविष्कारों को कर सकता था, यदि उसने घुमक्कड़ी का व्रत न लिया होता.
आदमी की घुमक्कड़ी ने बहुत बार खून की नदियाँ बहायी है, इसमें संदेह नहीं, और घुमक्कड़ों से हम हरगिज नहीं चाहेंगे,कि वे खून के रास्ते को पकड़ें.किन्तु घुमक्कड़ों के काफिले न आते-जाते तो सुस्त मानव जातियाँ सो जातीं और पशु से ऊपर नहीं उठ पाती.
अमेरिका अधिकतर निर्जन सा पड़ा था.एशिया के कूपमंडूक घुमक्कड़ धर्म की महिमा भूल गए,इसलिए उन्होंने अमेरिका पर अपना झंडी नहीं गाड़ी.दो शताब्दियों पहले तक आस्ट्रेलिया खाली पड़ा था.चीन, भारत को सभ्यता का बड़ा गर्व है,लेकिन इनको इतनी अक्ल नहीं आयी कि जाकर वहाँ अपना झंडा गाड़ आते.”
वह एक बहुभाषाविद थे.उन्होंने बीसवीं सदी में यात्रा की इमारत खड़ी की.इसके माध्यम से साहित्य को एक नयी विधा मिली जिसका श्रेय इन्हें ही जाता है.उन्हें यात्रा साहित्य का पितामह भी कहा जाता है.
जन्म हुआ तो केदारनाथ पाण्डेय थे.उनका जन्म आजमगढ़ के पंदहा गांव में ९ अप्रैल,१८९३ में हुआ था.
विद्रोह की ज्वाला बचपन से ही उनके हदृय में पलती रही.इसी कारण घर छोड़कर साधू बन गए.जब साधू हुए तो रामोदर नाम से जाने गए.वे घुमक्कडी लत से मजबूर थे.एक जगह टिकना उनके स्वभाव में ही नहीं था.
१९३० में बौद्ध धर्म अपनाकर राहुल बन गए.इसी नाम से चर्चित हुए.रहे और हैं.
उनका बाल विवाह हुआ था.बड़े हुए.इसका खुलकर विरोध किये.पहली पत्नी को छोड़कर दिए.
१९३७ में रूस में संस्कृत के अध्यापक बने.लेनिनग्राद स्कूल में पढ़ाये.
रूस में ही एलेना से दूसरी शादी की.
कहा जाता है,वे छत्तीस भाषाओँ के मर्मज्ञ थे.बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे.बहुलतावाद की अपेक्षा विविधता के परिचायक थे.विश्ववाद के समर्थक थे.
आज दुनिया इंटरनेट के माध्यम से ग्लोबल होने का दंभ भरती है.बीन यात्रा किये ही स्थान की व्याख्या करती है.लेकिन उन्होंने अपने ग्यारह नम्बर के गाड़ी से ही कई देशों के भ्रमण किये.
इस दौरान दुनिया में फैले तमाम धरोहरों का साक्षात् दर्शन किये.फिर अपने संस्मरण के माध्यम से लोगों को भी कराये.
इनके अकूत प्रतिभा का प्रमाण पटना ग्रन्थ संग्रहालय में आज भी संचित,सुरक्षित और सहेजी मिलेगी.इनके मुताबिक घुम्मकड़ी मुक्ति और क्षितिज विस्तार का अदभुत मंच है.वह कहते हैं
“कमर बाँध लो भावी घुमक्कडों,संसार तुम्हारे स्वागत के लिए बेकरार है.”
अपने हृदय के अंतर्विरोध से सदैव जूझते रहे,ज्ञान के तलाश में आजीवन भटकते रहे.विभिन्न धर्मों को समय-समय पर अपनाते रहे.जैन धर्म,बौद्ध धर्म,पुनर्जन्म,मार्क्सवाद से लगायत सत्तालोलुपता पर कटाक्ष भी किया. उसमें सन्निहित खामियों पर बेबाक टिप्पणी करके सर पर मुसीबत को गाहे-बगाहे दावत भी देते रहे.
उनके विरोध का अंदाज यायावरी होता था.अपने इस प्रवृति से लाचार कहीं भी कभी न ठहर सके.
१९३२ में यात्राओं का जो सिलसिला शुरू हुआ,वह मरते दम तक निरंतर जारी रहा.१९४० में जेल की हवा खाते हुए भी कलम की धार बनाये रहे.उनके स्मृतियों को याद करते हुए.
सैर कर दुनिया की गाफिल ,ज़िंदगानी फिर कहाँ
ReplyDeleteजिंदगी गर कुछ रही तो,नौजवानी फिर कहां।
राहुल जी का यही मूलमंत्र था।
बहुत सटीक आपकी यह पोस्ट बेहद अच्छी लगी।
सादर
नमन
ReplyDeleteबहुत सटीक पोस्ट
ReplyDeleteबेहतरीन सार्थक सटीक पोस्ट,..बहुत सुंदर,लाजबाब प्रस्तुति,....
ReplyDeleteRECENT POST...काव्यान्जलि ...: यदि मै तुमसे कहूँ.....
बहुत ही सार्थक व सटीक लेखन ...
ReplyDeleteachhi post ke liye abhar sunita ji
ReplyDeleteबेहतरीन सार्थक सटीक पोस्ट,..बहुत सुंदर,लाजबाब प्रस्तुति,....
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