दरख्तों के साये से डर लगता है
चिमनी सी ऊँची मीनारों से तकते
अस्मा के आगे-आगे बारात ले निकलते
ऐसे में परछाई पकड़ने की जीद है
छाये से छिलके बने जिस्म
जादुई जंगम से झुलसे हुए
चीड़ चारु से मिली चाँदनी
तारों से लिपटे मधु रागनी
छेड़ हृदय के बीन मतवाली
काली घटा से घिरते बादल
जुगनू सी मँडराती किरणे
संदली संध्या सूर सुनाये
सृजन सम्भव सार्थक बनाये
सौम्य सुधा सुगंध न सुलभ
पतझड़ पात हिलोरे लेते
पवित्र हवा के नैन पट खोले
द्विगुडित दिगम्बर दृष्टि सृष्टि डोले
कलरव कुंज के मुंज मधुर धुन
अबिरल बहत नीर निधि लूटे
लाला लट कलि कोविद कुल
कलियन कनक कान शोभे
कुंडल कुंचित कुपित कराल
व्याल बिष अमृत धारा में घोले.
०९/०४/२०१२
डॉ. सुनीता
बहुत ही बढ़िया!
ReplyDeleteसादर
atisundar.
ReplyDeleteसुंदर शब्द एवं भाव संयोजन...................
ReplyDeleteसुंदर शब्द एवं भाव संयोजन...................
ReplyDeleteबहुत सुन्दर!!
ReplyDeleteबेहद गहरे अर्थों को समेटती खूबसूरत और संवेदनशील रचना. आभार.
ReplyDeleteबहुत खूब
ReplyDeleteसुन्दर रचना,बेहतरीन भाव पुर्ण प्रस्तुति,.....
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अच्छी रचना . पर पहली पंक्ति -दरख्तों के साये से डर लगता है ठीक है क्या ? क्योंकि अब दरख्तों को आदमी से डर लगता है ...
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति !
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