२३ फरवरी,२०१२,नई दिल्ली.
जमीन ऊसर हो या उर्वरक उसमें पौधों को उगते-खिलते देखा है,लेकिन बीना जमीन के पौधों को उगते-बढ़ते हुए पहली बार देख रही हूँ.बाज़ार से उसे खरीद कर लायी थी खाने के लिए लेकिन एक दिन देखा उसमें से अंकुर निकल रहे हैं.मेरा दिल उसे उगते हुए देखकर अधिक प्रफुल्लित होने लगा. जो पौधे सिर्फ खेतों में सुख बदते थे,वे आज घर-आँगन से उठकर लोगों के बेड रूम में पनपने लगे हैं.जहाँ पर किसी प्रकार की सुविधा नहीं है.वहाँ पर भी बीन खाद-पानी के लहलहा रहे हैं.उन्हें दर्द सिर्फ इस बात की है कि इंसानों के मन को आह्लादित कर रहे हैं.अपने को कष्ट देकर सबके होंठों के मुस्कान बने हुए हैं.देखने वालों के लिए प्रशंसा के पात्र भर हैं.दर्शक दीर्घा में बैठकर तालियों की गूंज का लुफ्त उठा रहे हैं.लेकिन उनके अंदर क्या टूट-फुट और मचल रहा है,इसका एहसास किसी को नहीं है.उर्जा के स्रोत,धूप के लिए तरस रहे हैं.कहाँ खुले आसमानों में अलमस्त गगन के नीचे पलक पावडे बिछाए रहने वाले पुष्प आज अपने अतीत को टटोल रहे हैं.पूरी तरह से मौन धारण किये हुए.जैसे कोई योगी अपने को साध रहा हो.कोई मठाधीश अपने मठ की गरिमा की दुहाई देकर उसे बचाए रखने के लिए हर बुराई को अपने तप के भ्रमजाल में उलझा के सुलझाने में प्रयत्नशील हो.वह स्वयं को सान्तवना दे रहे हैं.हृदय को भुलावा देकर संतोष बनाये हुए हैं.उनके विद्रोह और विरोध को कोई नहीं पहचानने वाला है.जीवन की चाह क्या है..? उसे सिने में दबाए हुए हैं.देश-दुनिया के परिस्थितियों के थपेड़े में जीवट बने हुए हैं.बिल्कुल देवदारु की तरह जड़वत खड़े हैं.ऊँचे-ऊँचे शिखरों को छूती उनकी नन्हीं-नन्हीं जटाए शिव के जटाधर जैसे लग रहे हैं.उनकी पंखुडियां गंगा के निर्मल धार को सदियों से अपने में समोए हुए हैं.ताकि कभी भूख-प्यास के तड़प के करण दम न तोड़ना पड़े.अनंत काल से गिले-शिकवे से परे दिल में तसल्ली का गुबार दबाए हुए हैं.
'देखन में छोटा लगे घाव करें गंभीर' की मुद्रा में चोट पर चोट किये जा रहे हैं.बड़ी से बड़ी आंधी-तूफान में भी उनका आत्मविश्वास देखने लायक होता है.अपने स्थान से एक इंच भी नहीं डिगते हैं.तबाही के हजारों मंजर आँखों के सामने से यूँ गुजर जाते हैं जैसे पत्तों में कुछ सरसराहट सी हुई हो.ऐसा प्रतीत होता है कि एक दिन जरुर आएगा जब हम भी आंदोलन पर उतर आयेगें और लोगों को झकझोर के हिला देंगे.उन्हें जता देंगे कि बहुत हो चूका है,सौंदर्य का प्रदर्शन और दिखावे का ढोंग इससे अब हम उब चुके हैं.हम भी कुछ मुकाम रखते हैं.अपने अस्तित्व के पहचान की शाख ऐसे ही नही खोने देंगे.फूलों की लहराती डालियाँ दिलों पर राज़ करती हैं.गुलाब,अमलतास,टेसू,कनैल,गेंदा,चांदनी से लगायत तमाम पुष्पों की अकड़ बरक़रार है.अपने सुगंध के दम पर इंसानों को अपने बस में किये हुए हैं.लेकिन याद रखो हमारी तुलना में तुम कमतर हो क्योंकि हम उंची हवेलियों से लेके झोपड़ी तक अपनी गहरी पैठ बनाये हुए हैं.गरीब का निवाला नमक के साथ हम ही नजर आते हैं.टाटा-बिरला के घरों के आलीशान पार्टियों की सबसे बड़ी शोभा हम ही हैं.ये कभी भी मत बिसराना कि राजकुमार कह देने से तुम कुंवर नहीं हो जाओगे और ना ही किसी के गोंद में चढ़ जाने से पुत्र बन इठलाने के योग्य हो जाओगे.यह बनने के लिए अपनी एक हैसियत रखनी होती है.जो तुम्हारे पास नहीं है.हाँ ! ये बात दीगर है कि इसकी जानकारी तुमको नहीं हो पाई है.यह मुझे पता है, नहीं तो तुम मुझसे टकराने की गलती कभी न करते.अंगवस्त्रों के बगैर कवच के तृष्णा में उलझे भ्रम का शिकार हो गए हो.अब देखो न मुझे मुँह लगाने वाला भी पसंद करता है.जो ऐसा नही करता है.वह भी अतिथि सत्कार में कमी न रह जाए इस हेतु पुरजोर कोशिश में लग ही जाता है.लेकिन उसे भी मेरे हठधर्मिता का अच्छे से पता चल ही जाता है.'द्रोपदी' के चिर के मानिंद खींचते-खींचते उब जाते हैं.उघाड़ते-उघाड़ते उसके खुद के शरीर शिथिल हो जाते है.परन्तु वह अंग-भंग नही कर पाते हैं.थक हार कर अपने पलकों के चिलमन को गिरा लेते हैं.डबडबाई आँखों से एक टक निहारे जाते हैं कि बोलो! भला अब क्या करें.? अंतर इतना ही है कि यहाँ बंसीबजईया का बरदहस्त हासिल नहीं है,जो लज्जा पट को बढ़ाये जा रहा है.वह छलिया मेरे किसी विपदा में काम नही आया है.यह आरोप उस पर सदैव लगेगा.
शायद तुम भूल रहे हो तुम्हारा प्रयोग पत्थर के बने देवताओं के माथे की शोभा है.जिसे मानवों ने अपने भुलावे के लिए रच/बना रखा है.छल के बल पर दुनिया को अँगुलियों पर नचा रहे विद्वान,पुरोहितों की रखैल हो.उनका जब मन करता है जीवित लोगों के सर पर ताज की तरह सजा देते हैं.खीज आते ही पैरों से रौंद कर नामोनिशान ही मिटा देते हैं.अपने खुद के पहचान के लिए मारे-मारे फिरते हैं.सच तो ये है कि तुम्हे तुम्हारी औकात दिखाते हैं.प्राणियों की दुनिया में हर चीज मतलब के अवसर पर पूजे जाते हैं.वरना लतिया के धकियाये जाते हैं.
बंद अँधेरे कमरों में कृत्रिम रौशनी के उजालों ने सांसों में बदबू भर दिया है.तिस पर सज-धज के आती-जाती नारियों के बनाव श्रृंगार के प्रसाधनों के खुशबुओं ने जीना हराम कर दिया है.विज्ञान के अंधाधुंध अनुसंधानों ने लोगों से प्राकृतिक दूरियां बढ़ा दी हैं.ऐसे माहौल में अब हमारा भी दम घुटने लगा है.किसी अपराध के बगैर कैद किये गए हैं.'बैरम खा' की तरह 'अकबर' के सिपहसलार और राजगद्दी का नुमाइंदा/सहयोगी बनने के बाद भी सर कलम किये जाने की दहसत में जी रहे हैं.किसी सूचना का संदेसा दिए बीन ही हमे काले पानी की सजा से रु-ब-रु कराया जा रहा है.यह किसी भी तौर पर न्यायोचित्त नहीं कहा जा सकता है.जो दिन दहाड़े खून-खराब करते हैं.वे खुले इंसानी सांड की तरह सम्पूर्ण विश्व में बिचरण कर रहे हैं.जबकि हमने एक तिनका भी नहीं छुआ है.उसके बावजूद सजा काट रहे हैं.इस घुटन से आज़ादी का दौर कब आएगा.यही सोच-सोच के माथे पर बल पड़ गए हैं.हृदय कल्पना के सागर में गोते लगा रहा है.काश! अटल,इरादों के पक्के,अपने घुन के स्वामी 'परशुराम' के फरसे के आगे आ जाते तो बेहतर था.कम से कम 'त्रिशंकु' की तरह धरती और आकाश के मध्य में लटके हुए जीवन तो न गुजारनी पड़ती.इस चुभन भरी कंटक से तो सहज ही बच जाते.रोज-रोज कतरा-कतरा मरने से लाख गुना अच्छा है कि एक दिन काम तमाम हो जाये.वह दिन जल्द ही आने वाला है.अति का अंत सुनिश्चित है.जिसे कोई नही टाल सकता है.नियति के क्रुर हांथों में सब कुछ सुरक्षित है.'सावित्री' सरीखा जीगर रखने वाले ही 'सत्यवान' को बचा सकते हैं.बने बनाये झूठे, लूले, लंगड़े, बहरे, काने, कुबड़े कानून के नीयम को चुनौती दे सकते हैं.वरना व्यवस्था के जकड़े सलाखों में बाकी सब तो भरभरा के ढेर ही हो जायेगे.
युगों-युगों के तपे-ताप से तपाये हुए सूरज के किरणों से निकलते प्रकाश से अपने को प्रकाशित करके दिखा देंगे.हमारे गुलामी के दिन लद गए हैं.अब हम स्वछन्द आस्मां के नीचे आज़ाद परिंदे के मानिंद मखमली बिस्तर के पास किसी को नहीं फटकने देंगे.तिनका-तिनका जोड़ के सजाये घरौंदे में पंक्षी किसी को नहीं आने देते है.भूधरा पर पड़े ओस की बूंदों से किसी को नही खेलने देंगे.उस पर हमारा सर्वाधिकार है.जिसे किसी और का नही होने देंगे.जो हमसे टकराएगा उसे हम अपने हरियाली से मरहूम कर ही देंगे.अविकल जीवन के संघर्षों ने हमें यही सिखाया है.इंसान के रूप में बुद्धिहीन लोगों की फ़ौज कतारबद्ध है.जिनके पंक्तियों को छिन्न-भिन्न करना है.वरना ये हमें अपने पैरों के तले यूहीं रौंदते रहेंगे.हमारी चीखें इनके आलीशान मकानों तक नही पहुँच पाती है.कान के पर्दों पर आधुनिक संसाधनों का बेतरतीब कब्ज़ा है.जिनके आगोश में बैठे ये अठखेलियों में मदमस्त हैं.दूर गगन के परिन्दें इनके कैद में तड़फड़ा रहे हैं.लेकिन उनकी निगाह में इनकी तकलीफ नहीं चढ़ती है.बोतल के नशे में धुत्त उन्हें सब कुछ बहुरंगी,खुशहाल और खुबसूरत ही दिख पड़ रहा है.मानवीकरण की दुनिया दिनों-दिन विलुप्त हो रही है.कमोवेश उसके कगार पर खड़ी है.
अफसोस होता है दरिंदगी को देखकर.'कबीरा खड़ा बाज़ार में,मांगे सबकी खैर' की बातें दूर-दूर तक नजर दौड़ाने पर दिखाई नहीं देती हैं.जब हम विकास के मुद्दे की बात करते हैं.यह सब एक छलावा लगता है.जबकि सभी जन अपने में मशगूल दुनिया को ठीक से चलाये जाने के भुलावे में जी रहे हैं.इनको अभी अच्छे से आभास नहीं है कि हमारी भूमिका कितनी महत्वपूर्ण है.शुद्ध, स्वच्छ और शीतलता मेरे से ही बरक़रार है.कुछ पोंगापंथी हमें ताप्सी मानकर परहेज करते हैं.घृणा के आँखों से तिरष्कार करते हैं.अपने मन के अंदर बैठे पाप को शब्दों से धो के खुद को पवित्र बताते हैं.जबकि बमुश्किल एक कदम दुरुस्त रखते हैं.उन्हें बुधि-विवेक मुफ्त में मिल गया है.इसलिए शेखी बघारते हैं.ज्ञान के घमंड में चूर हर किसी का अपमान करते हैं.यह भूल जाते हैं कि सृष्टि पर मौजूद कीड़े-मकोड़े से लगायत पेड़-पौधों और पुष्पों का अपना एक अस्तित्व है.उनकी अपनी एक सत्ता है.जिस झुठलाया नहीं जा सकता है.जहाँ काम 'सुई' का है वहाँ 'तलवार' का कोई औचित्य भले न हो,किन्तु तलवार के स्थान पर सुई का भी कोई मतलब नहीं है.ठीक वैसे ही हर चीज, वस्तु, प्राणी का अपना एक इतिहास और भूगोल है.जिसे हम नकार नहीं सकते हैं.
डॉ.सुनीता
एक नई तरह की पोस्ट पढने को मिली ,शुक्रिया आप का
ReplyDeleteमुझे अफसोस होता है ये दरिंदगी को देखकर.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया,अच्छी प्रस्तुति,.....
MY NEW POST...आज के नेता...
एक बेहद गंभीर और अलग हट कर आलेख।
ReplyDeleteसादर
सार्थक और सामयिक, आभार.
Deleteकृपया मेरे ब्लॉग" meri kavitayen" की नवीनतम पोस्ट पर पधार कर अपनी अमूल्य राय प्रदान करें, आभारी होऊंगा.
आपके भावों का अंकुर जिस रूप में निकल रहा है उसे ध्यान में रखते हुए मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि आप बेहद ही संवेदनशील हैं, मेरा ही तरह । आपकी प्रस्तुति अच्छी लगी । मेरे पोस्ट पर आपका बेसब्री से इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।
ReplyDeletesundar ankur aur bishleshan .BADHAYI MADAM.
ReplyDeleteहर चीज, वस्तु, प्राणी का अपना एक इतिहास और भूगोल है.जिसे हम नकार नहीं सकते हैं...bahut badhiya lekh...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सुनीता जी
ReplyDeleteअखित कहते है न की कलम चलनी चाहिए शव्द अपने आप निकलते है ........अद्भुत प्रस्तुति
नए मूड की पोस्ट पढ़ कर अच्छा लग रहा है.
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति,सार्थक रचना के लिए बधाई,...
ReplyDeleteMY NEW POST ...काव्यान्जलि ...होली में...
NEW POST ...फुहार....: फागुन लहराया...