"जीवन के अगडित पग चिन्हों पर चल कर
मैं भी तो थक जाता हूँ.
मन चिंतित,तन व्यथित हो जाता है
मैं अब सोना चाहता हूँ.
अंगड़ाई लेती मौसम कुछ हौले से कहती है
मैं कुछ सुस्ताना चाहता हूँ.
रंज नहीं हे!प्रिय,जीवन बहती धारा है
मैं इससे यूहीं दूरी बनाना चाहता हूँ.
आये कोई नई किरण भूमि तल पर
मैं ये जगह उसे समर्पित करना चाहता हूँ.
नैन हठीले थक गये पंथ निहारती
मैं बस इस उलझन को सुलझाना चाहता हूँ.."
मै 'सूनी घाटी का सूरज'
'अज्ञातवास'का वासी,'पहला पड़ाव'का नायक
हमने चखा हर 'आदमी का जहर'
अंतत:'सीमाएं टूटती हैं'
देखो अब मैं चला 'यहाँ से वहां'...!
डॉ. सुनीता
'श्रीलाल शुक्ल' जी के व्यथित और प्रफुल्लित मन के भावना को व्यक्त करने की एक छोटी सी कोशिश है...!
नोट:यह चंद लाइने मैंने सृजककार के लिए १९/१०/२०११ को लिखी थी,
जिसे मैंने प्रसिद्ध आलोचक 'श्री वीरेन्द्र यादव जी' के पास मेल किया था.
परन्तु उस समय वह सुनने के स्थित में नहीं थे.
इस उम्मीद के साथ मैंने इसे सहेजे रखा था कि शायद वो एक दिन सुन सकेंगे,
लेकिन अब वो दिन नहीं आएंगे लिहाज़ा इसे सार्वजनिक तौर पर पोस्ट कर रही हूँ...
Virendra Yadav
- (धन्यवाद,सुनीता जी.आपकी भावनाओं के साथ मैं शामिल हूं.अफसोस कि श्रीलालजी अभी इस स्थिति में नहीं हैं कि वे इसे सुन सकें.धन्यवाद.19/10/2011)
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