1-रेखाओं-रंगों का अदभूत चितेरा हूँ
मिट्टी से उठा आसमा का सितारा हूँ.
जिवंत हो उठी तस्वीरें
इन्द्रधनुषी रंगों में बोल उठी तकदीरें.
आड़े-तिरछे लकीरों में छिपी कहानी
अनोखे अंदाज की ए हैं सारी निशानी.
बेजुबान को जुबां मिली अतिवारी
बेहद कौतुक,भेष अति न्यारी.
चरमपंथ से भ्रमपंथ के शिकार हुए
आहूत,अवकुंठित,अबिलम्ब दीवार हुए.
कट्टरता की भेंट चढ़ी पारखी कला
ऐसे कब तक अन्याय झेले कोई भला.
सांस रोक दी सजा नहीं हुई
कुछ फासले बने इब्तदा नहीं हुई.
सरमाया रहा जब तक दौलते जहाँ में रहा
अलविदा कह दिया गिला जहाँ से न रहा.
हर दिन हर रूप में सजती रहीं लकीरें
घूमता रहा दुनिया में यह फकीर.
नंगे पैर की नुमाइंदगी वर्दास्त न हुआ लोगों से
कत्ले-आम फतवा सुना दिया कुछ शोहदों ने.
फाकापरस्ती में गुजारता रहा हँसते-हँसते
दिन रैन मौत मंडराता रहा हाफते-हाफते.
आदाओं का दीवाना कलाओं पर फ़िदा
कद्दावर कलाकार रहा है 'मक़बूल फ़िदा'.
दीन-हीन से परे सोचता रहा है
किया वही जो वक़्त से मौका मिलता रहा है.
मुल्क मुस्सलम छोड़ा पर मुकाम न बदला
जूनून-ए-रेखाओं का संग न बदला.
खैरियत न पूछ सके इतना दूर निकल गया
मौजू-ए-देश से बेनूर निकल गया.
जादूई कला का जादू सर चढ़ बोलता रहा
चमचमाती तलवारों की मूठ से खुद ही लड़ता रहा.
2-कलाकार सो गया,कला सो गई
तक़दीर बदली तस्वीर बादल गई.
तंत्र बदले तख़्त ताज़ बदल गये
शब्दों से रेखाओं का स्वरुप बादल गये.
क़त्ल की रात आई तल्खी साथ लाई
दो ग़ज ज़मी में काले पानी की सजा पाई.
काटे चित्र काट के क़तर ले गई क़तर के
जमीन ज़ख्म जोड़ के ओहदे अपनी छोड़ के.
मीनाकारी के रूप में 'मीनाक्षी' मिली
वह तोड़ती पत्थर की 'गजगामिनी' बनी.
कला का मुक़द्दस शहंशाह
विचित्र चितेरा फिरता मारा-मारा.
रेखाओं में जीवन की अभिलाषा
रोमांचक एहसास जगाती.
मन हुलसाती मधुर चांदनी लुटाती
अगडित प्रतिबिम्ब दिखाती.
अनुप्राणित सिंचित करतीं
'पिकासो' की अर्जित,सृजित कृति.
उत्कृष्ट,उत्सर्जित आधुनिकता लाई
बहस-मुबाहस की राह बनाई.
धरती माँ के रंग-रूट बदले,बिगाड़े
ऐसे ले लिए खतरे,बजे अनमोल नगाड़े.
जाति,धर्म,भेद कुल से ऊपर 'रामायण' की श्रृंखला बनाई
कठ्मुल्लावाद को धता बता ऐसी कुची चलाई.
आये नया कलेवर ऐसा चक्र चलाया
ओढें रेखा पहने रंग वो ढंग बनाया.
आई अंधी दौड़ कला हो गई बेडौल
आतताई बन गये हातिमताई लेके ढोल.
कला के कल्पवृक्ष से विकराल पट उभरा
गगन में शोहरत की अनुगूँज चहूओर बिखरा.
आया एक अंधड़ उड़ा ले गया झरोखा
टूटा बंधन विखरा यह आशियाना.
अपने छूटे,सपने टूटे
आहें-आहटें दिनरैन चैन लूटे.
धरती का कोना-कोना बोले
'मक़बूल' का कला कबूलें.
महदूद,अपराजेय,प्रतिमान,प्रतिष्ठित हुआ
कला में हलचल छाई,अब वह अविकल्पित हुआ.
डॉ.सुनीता
नोट-यह रचना मैंने फेसबुक के एक मित्र के बार-बार अनुरोध पर लिखा था.
उन्हे इसे किसी पत्रिका में सुप्रसिद्ध चित्रकार 'मक़बूल' जी के जन्मदिन के उपलक्ष में श्रद्धांजलि के फलस्वरूप छापना था.
यह उस समय लिखा था जब 'मक़बूल' जी अपनी कूची समेट दुनिया छोड़ चुके थे.
मैंने उन्हें मेल (20/07/2011) किया था,उन्होंने इसे छापा की नहीं वह जानकारी मुझे नहीं है.
हां ! आज इसे मैं सार्वजानिक तौर पे पोस्ट कर रही हूँ...
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