'मीत'
आंसू अपने गहरे मीत हैं
तन्हाई के खूबसूरत मनप्रीत हैं
गम-खुशी में आते-जाते हैं
बीन कहे दर्द को झलकाते हैं...
अपने छत्र-छाया में सबको नहलाते हैं
बचपन के किलकारी में मदहोश बनाते हैं
जवानी में बहका के बेहोश कर इठलाते हैं
माँ की ममता से लिपट दुनिया भूलाते हैं...
गहर में गहन के साथी बन मुस्काते हैं
अतीत-वर्तमान के पहलू में इतराते हैं
दामन से उलझ उलझन को सुलझाते हैं
बाप के कंधे पर बैठ जहाँ में परचम फहराते हैं...
'बोल'
बोल कपोल के कंचन काया
ममता की है गहरी छाया
रूप-सरूप के विकट माया
चंद-छंद के अदभुत साया
राग-विराग की महिमा भारी
पंच-प्रपंच के उत्कट न्यारी
'सूरज के बहाने'
अक्सर यूहीं बैठे-बैठे उलझ जाती हूँ
कभी-कभी सोचती हूँ काश पंख होते
उड़ जाते गिन आते गगन के तारे
नाप आते आसमा के दिन-पहर
नील गगन के छाँव तले उठती तरंगे चुनती
बुनते सपने रंग-रंगीले जैसे नवरंग
उड़ जाती छोड़ धरा को छू लेती सूरज को
उसके हांथों को सहलाती और गले लगाती
ललाट चूम कर एक बचकानी सवाल पूछती
तु सदियों से तपता,जलता,कुढता क्यों है..?
मेरा दावा है वो घबराएगा फिर मुझपर चिल्लाएगा
तुमको किसने छल के बल पर तपिस सिखाई
सुनते ही झल्ला के आँखें तीखी दिखलाएगा
मुझे दो उसका अता-पता मैं उसे लपेटूंगी
वाग्जालों में उलझा के अकड निकालूंगी
तेरे टूटे-विखरे तारों को समेट के मिलवाउंगी
जो हमे डराने आयेंगे उन्हें गाने-तराने सिखाएंगे
हे दूर के वाशिंदे...अब मान भी जाओ
अपने निर्मम तेज को छोड़ शीतल बन लहरोंओ...!
डॉ.सुनीता
आंसू अपने गहरे मीत हैं
तन्हाई के खूबसूरत मनप्रीत हैं
गम-खुशी में आते-जाते हैं
बीन कहे दर्द को झलकाते हैं...
अपने छत्र-छाया में सबको नहलाते हैं
बचपन के किलकारी में मदहोश बनाते हैं
जवानी में बहका के बेहोश कर इठलाते हैं
माँ की ममता से लिपट दुनिया भूलाते हैं...
गहर में गहन के साथी बन मुस्काते हैं
अतीत-वर्तमान के पहलू में इतराते हैं
दामन से उलझ उलझन को सुलझाते हैं
बाप के कंधे पर बैठ जहाँ में परचम फहराते हैं...
'बोल'
बोल कपोल के कंचन काया
ममता की है गहरी छाया
रूप-सरूप के विकट माया
चंद-छंद के अदभुत साया
राग-विराग की महिमा भारी
पंच-प्रपंच के उत्कट न्यारी
'सूरज के बहाने'
अक्सर यूहीं बैठे-बैठे उलझ जाती हूँ
कभी-कभी सोचती हूँ काश पंख होते
उड़ जाते गिन आते गगन के तारे
नाप आते आसमा के दिन-पहर
नील गगन के छाँव तले उठती तरंगे चुनती
बुनते सपने रंग-रंगीले जैसे नवरंग
उड़ जाती छोड़ धरा को छू लेती सूरज को
उसके हांथों को सहलाती और गले लगाती
ललाट चूम कर एक बचकानी सवाल पूछती
तु सदियों से तपता,जलता,कुढता क्यों है..?
मेरा दावा है वो घबराएगा फिर मुझपर चिल्लाएगा
तुमको किसने छल के बल पर तपिस सिखाई
सुनते ही झल्ला के आँखें तीखी दिखलाएगा
मुझे दो उसका अता-पता मैं उसे लपेटूंगी
वाग्जालों में उलझा के अकड निकालूंगी
तेरे टूटे-विखरे तारों को समेट के मिलवाउंगी
जो हमे डराने आयेंगे उन्हें गाने-तराने सिखाएंगे
हे दूर के वाशिंदे...अब मान भी जाओ
अपने निर्मम तेज को छोड़ शीतल बन लहरोंओ...!
डॉ.सुनीता
बहुत दिनों बाद कुछ अच्छा पढ़ने को मिला..आप इसी तरह लिखते रहिए।
ReplyDeleteबहुत दिनों बाद कुछ अच्छा पढ़ने को मिला..आप इसी तरह लिखते रहिए।
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया।
ReplyDeleteसुनिता जी,..बहुत अच्छा लिखा आपने,बढ़िया प्रस्तुति
ReplyDeleteपहली बार आपके पोस्ट पर आया अच्छा लगा,
समर्थक बन रहा हूँ,आप भी बने मुझे हार्दिक खुशी होगी,...
WELCOME TO MY NEW POST.... बोतल का दूध...
लाज़वाब...बहूत ही उत्कृष्ट अभिव्यक्ति..आभार
ReplyDelete