सूखी पंखुड़ियाँ

कहानी- सूखी पंखुड़ियाँ
लेखक- अमरनाथ अमर (दूरदर्शन केन्द्र में कार्यक्रम अधिकारी )


हाल-फ़िलहाल में कई सारी कहानियाँ पढ़ी हूँ, साथ ही समीक्षा भी लिखी हूँ. कल भी अचानक से एक कहानी हाथ लगी. पढ़ना शुरू की, कब अंत हुआ एहसास ही न हुआ. कहानी इतनी सहज, सधी हुई भाषा-शैली में थी कि पूछिए मत..कलेवर में जीवन के कच्चे-पक्के अनुभव बड़े ही बारीकी से समाहित हैं. वक्त किसी के लिए नहीं ठहरता है. हम भले ही वक्त के लिए जीवन के प्लेटफार्म पर सदियों खड़े रहें...परिवर्तन की गति तेज होती है...विनाश की घड़ी दबे पाँव दस्तक देती है...और अपने साथ सब कुछ धड़ल्ले से बहा ले जाती है... मनोवैज्ञानिकता की बारीक़ चित्रण-चिंतन समुचित कहानी के कलेवर में सहज ही रचा-बसा है. यह मन:मंथन इस कहानी की जान है.
जब जीवन में हरियाली, बसंत,  सावन,  झूला,  झरने,  झील,  खुश्बू,  तमाम तरह की रंगीनियाँ मौजूद हों तो हम चीजों को अनदेखा करते हुए कभी-कभी किसी के भावना का खून कर देते हैं तो कभी-कभी खुद का दामन बचाते-बचाते सामने वाले को लहुलुहान कर देते हैं तो कभी-कभी उस जख्म से निकलते खून को खुद के अंग से बहता महसूस करते हैं...जब ऐसा होता तब तक समय का पहिया तेजी से आगे बढ़ चूका होता है या फिर मौके हाथ से रेत की मानिंद फिसल चुके होते हैं...हमें अचरज होता है और हम खुद से उलझते हुए सवाल कर बैठते हैं कि ऐसा भी होता है कि जीवन के उत्कर्ष में चोर दरवाजे से प्रवेश करते पावस,  पठार,  रेगिस्तान और सिक्तता को भाँप ही नहीं पाते हैं...
पूरी कहानी एक ही घटना-क्रम से आगे बढ़ती है...लेकिन साथ में जो नन्हें-नन्हें पड़ाव आते हैं वो समाज में व्याप्त अनेकानेक त्रासदियों/ बीमारियों / और भौंडेपन को सहजता से उजागर करते ही एक प्रेम कहानी के स्थान पर यथार्थ से टकराते हुए... हकीकत के आईना का धुल झाड़ते हुए...बीच-बीच में आए झाड़-झंखाड को बुहारते हुए, बेहद पठनीय/ सहज/ प्रवाहमय/ ओजपूर्ण/ और ताप-तपन से सराबोर कर देती है...कहीं-कहीं दिल्ली के बैठकबाजियों की कलई खोलती चुटीले व्यंग्य का विधान रचती मालूम पड़ती है तो कहीं-कहीं स्त्री अस्तित्व के सूक्ष्म सवाल को संवेदना के धरातल पर लाकर छोड़ती देती है...

सबसे ख़ास बात यह है कि कहानी का शीर्षक (सूखी पंखुड़ियाँ) जितनी बार कहानी में आता है उतनी बार नए जीवन- व्याख्या को जाहिर करता है. सूखते जीवन/ समाप्त होती संवेदना/ गायब होते रिश्तों के मिठास/ मानवीयता/ इंसानियत/ सरोकार/ सहृदयता और निर्जनता के मध्य सज्जनता को बेनकाब करती हुई कई सारे सवाल मंथन को मस्तिष्क में उड़ेल देती है... बहुतेरे भावबोध को व्यक्त करते हुए बिषय-बिंदु पर ठहरने/ ठिठकने और सोचने को मजबूर करती प्रतीत होती हैं... “उसमें जो गुलाब की सूखी पंखुड़ियाँ थीं, उसका क्या अर्थ है ?... फिर भाविका कहती है- आखिर गुलाब की इन पंखुड़ियों में ऐसा क्या था, जिसे देख मैं इतना उद्विग्न हो उठी... उलझती हुई अपने-आप से बतियाती है- आखिर गुलाब की इन सूखी पंखुड़ियों ,में ऐसा क्या था, जिसे मैं स्वीकार नहीं कर पाई ? बहुत सरे अर्थ के साथ ये सूखी पंखुड़ियाँ...” ऐसे ही बार-बार आकार मन को विचलित और भावना से भर देने वाले सूखे पंखुड़ी आँखों में पानी, हृदय में मंथन और जुबान पर सवाल छोड़ जाते हैं.
जीवन के चक्की में पिसते हुए अपने लिए किसी के पास वक्त कहाँ है लेकिन जरा ठहर कर देखें/ पीछे मुड़कर देखें तो बहुत कुछ है जिस पर हमारी निगाह नहीं जाती है, बाद में हाथ मलते हैं या जख्म को नासूर की तरह पालते हैं. दर्द और कसक के अनछुए पहलुओं को सहलाते हुए बड़ी ही चतुराई से व्यक्ति के नब्ज को पकड़ती हुई आगे बढ़ती है...
कहानी का सबसे रोचक और चिंतनीय पक्ष है बीच-बीच में सूत्रधार की तरह कविता के कहन/ गहन/ बुनाई/ रचाई और विस्तार की बातें ध्यान खींचती हैं. “...कविताओं के अर्थ को समझना कठिन न था, लेकिन गुलाब की इन सूखी पंखुड़ियों को समझने में मैं असमर्थ थी. और फिर कविता के अर्थ को आत्मसात करने वाली मैं इन सूखी पंखुड़ियों के अर्थ को स्वीकार करने में स्वयं को असमर्थ पा रही थी” नायिका की यही असमर्थता ही कहानी को सार्थकता की ओर उन्मुख करती चली जाती है. आभास होता है कि लेखक कह नहीं रहा है बल्कि नायक/नायिका जबरन कहलवाने को विवश कर रहे हैं... लगता है जैसे कविता किसी घायल प्रेम-प्रेमिका की नहीं बल्कि कविता के बिम्ब/प्रतीक और उपमान की बात की जा रही है...कहानी पढ़ते हुए कभी निर्मल वर्मा के ‘परिन्दें’ की लतिका दस्तक देती है तो कभी प्रसाद की ‘मधुलिका’ या ‘रत्ना’ छम से पास आती हैं... तो कभी चूडियाँ खनकाती धर्मवीर की घायल / उपेक्षित नायिका मानस पटल में काली छाया की तरह उभरती है या मँडराते बादलों के मध्य दमकती/ तडकती दामिनी की भांति लपलपाती भाल लिए खुद सुभद्रा आ रही हैं या फिर महादेवी...एक नए कलेवर धारण किये बढ़ी चली आ रही हों... “इस कविता के अर्थ को, भाव को मैंने न जाने कितनी तरह से, किस-किस दृष्टि से और किस-किस अभिव्यक्ति से देखा..” कभी-कभी संत्रास की चरम सीमा महसूस होती है..सब होता है लेकिन बड़े मीठे अंदाज में होता है...कहानी एक बार भी टूटती हुई नहीं लगती है फिर भी कभी-कभी अंदर तक विचलित कर जाती है कि कास कुछ और भी होता...
मौजूदा कहानी कलेवर के मुताबिक कहानी बेहद ही प्रभावशाली लगी. कहीं एक कथनीयता को छोड़कर सब कुछ बेहद जीवंत /सटीक और सामयिक बन पड़ा है...
कहानी की एक और सफलता है स्थानीय भाषा का कुभाषा में परिवर्तित होने से आने वाली दिक्कते जाहिर हुई है लेखक लिखता है कि- “किस तरह लोग दिल्ली में हिंदी और उर्दू को विकृत कर देते हैं. नमस्कार को नमश्कार बोलते हैं. ग़ज़ल को गजल बोलने में कोई झिझक नहीं. सागर को साग़र बोल देंगे...” इतना ही नहीं हिंदी साहित्य के दिगज्ज भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराये हुए हैं. अपने ही मूल रचना के साथ अज्ञेय से लेकर अमृता प्रीतम/ हजारीप्रसाद/ साथ ही और बहुतेरे अनाम से सूक्ष्म अभिव्यक्ति के तहत मौजूद हैं. साहित्यिक विधाएं अपने स्वरूप में साक्षत हो आतीं है.यह कहानी जब हाथ लगी थी तभी एक लाइन पढ़ने के बाद की मेरी प्रतिक्रिया थी कि- “खंडहर बता रहा है कि ईमारत बुलंद रही होगी” अब अनुमान लगा लीजिए की कहानी का भविष्य/ईमारत और लेखक की ईमानदार सृजनशीलता समानांतर चलती है. आहत मार्मिकता की अनूठी कहानी है. “..हवा का कोई झोंका आए और उड़ा ले जाए गुलाब की इन सूखी पंखुड़ियों को और दे जाए ढेर सारी भावनाओं और स्नेह के साथ एक बार फिर इनकी जगह किसी किताब के पन्नों के बीच ताज़ा गुलाब की लाल-लाल पंखुड़ियाँ और नीचे लिखा एक नाम- ‘उत्कर्ष’ ” यही कोमल इच्छा हर उस मानवीय प्राणी के सदिच्छा जैसी है जिसे हर कोई किसी न किसी रूप-स्वरूप और उपक्रम में हासिल करना ही चाहते हैं...


डॉ.सुनीता
सहायक प्रोफ़ेसर,नई दिल्ली






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