प्रेमचंद की कलम जिस दौर में अंग्रेजों के लिए बारूद साबित हो रही थी, वह दौर परतंत्रता का था.
आज सोचती हूँ.मंथन करती हूँ. उस समय के हालात बदतर थे कि आज का समय बेहतर हैं.
जिस समय उन्होंने एक से बढकर एक कालजई रचना की उसका आज भी कोई विकल्प नहीं है.
ब्रितानी समय के समाज और आज के समाज में क्या अंतर है.
आम जनता तब ब्रितानी हुकूमत के शोषण की शिकार थी और आज भी है.
किसान तब भी शोषित था. आज भी है. अंतर बस इतना है तब अंग्रेज शोषण करते थे.
आज काले लोग कर रहे हैं.क्रूरता तब भी थी. आज भी है. सामाजिक तस्वीर तब भी भयावह थी.आज भी है.
प्रेमचंद अपने समय को जिस नज़रिए से देखते हैं. आज भी उसका जवाब नहीं है.
वह समय ऐसा था जब बाप का बेटे के प्रति.छोटे का बड़ों के प्रति बड़ा आदर,सम्मान
और इज्जत था.सब एक दूसरे से अदब से पेश आते थे.पुत्र, पिता के आदेश को जिद और जबरदस्ती की वजाय आशीर्वाद के रूप में ग्रहण करता था. इसका जिवंत उदाहरण 'निर्मला' का पात्र 'मंसाराम' है, जिसने पिता के संदेह भरी दृष्टी को समझने के बाद खुद को कैद सा कर लेता हैं. चिंता की अग्नि में जलकर अपनी जीवन लीला ही समाप्त कर लेता है. दूसरी तरफ 'सौतेली माँ' के जहरीले शब्द को ज्यों का त्यों छोड़ देता.
वस्तुतः शंका का अविरल प्रवाह मानव मन को हमेशा ही एक अंधी खाई की तरफ ले जाता है.लगता है आज के इंसानों ने सारे रिश्ते, नाते को ताक़ पर रख दिया है. आज के समाज में व्यक्तिवादिता,स्वार्थीपन,आतताई,लालचीपन और हत्यारे स्वभाव का अधिक उभर हुआ है.अपने ही माँ-बाप,भाई-बंधू को खुद के हाथों लोग शिकार बना रहे हैं.
चहरे पर सीकन तक नहीं आती.सवाल उठता है कि शिक्षित युवा समाजों का दौर ठीक है या वह जहाँ हम सब सारी दबी, कुचली भावनाओं से
ऊपर उठाकर एकता का हथियार लेकर लड़ाई के मैदान में डंके की चोट पर कूद पड़ते थे. हालात उस समय यातना,गुलामी की जंजीरें भी अपनों के प्रति विद्वेस पैदा नहीं कर पाती थीं.सन २०११ के जनगणना के मुताबिक हमारा शैक्षिक स्तर बढ़ा है.यह आंकड़े चाहे जो कहें लेकिन वास्तविक रूप में देखा जाये तो अधिक पढ़े-लिखे समाज से जीतनी उम्मीदें थी,धूमिल हुई हैं.युवाओं की हरकतों से गर्व कम शर्मिंदगी अधिक उठानी पड़ रही है.
प्रेमचंद की एक-एक रचना व्यवस्था पर करारी और गहरी चोट करती हैं.कहानी और उपन्यासों के पात्र विशेष के माध्यम से उन्होंने जो मिथक गढ़े हैं शायद ही किसी ने बनाये हों उनकी लेखनी की दूरदर्शिता ने ही उन्हें एक अमर कथाकार,एक कालजई रचनाकार बना दिया.इनके बनाये नींव
पर ही आधुनिक रचना का इतिहास खड़ा हुआ कहा जाये तो संभवतः गलत न होगा.इन्ही के इर्द-गिर्द समाज के ढांचे घूमते नजर आते हैं.
उन्होंने अपने समय में जिस कल्पना की कलम से जो वरद वाक्य लिख दी थी,वह आज की व्यवस्था की कलई खोलने के लिए एक अचूक हथियार है.
साहित्य महकमा इस बात से इंकार नहीं कर सकता है.आपके सारे के सारे पात्र रंग बदलते,फरेब करते,मक्कारियों से भरे
समाज से ऊपर ऊठकर पेट की भूख मिटाने की जुगत करते ही नजर आए हैं.
सूरदास,होरी,माधव,घीसू, महकू आज भी हसिए पे खड़े होकर भूख मिटाने की लड़ाई लड़ रहे हैं,हम अब विकसित देश बनने की लाइन में सबसे पहले खड़े होने की दावा करते हैं लेकिन गरीब, अभाव और भूख की तादात बताती है की हम कहाँ हैं.आज देश में गरीबों की कुल संख्या २९.१०% है. सुधारने के बाद ४८.००% अभी भी मौजूद है.जबकि आर्थिक विकास दर बढ़ी है जो पहले ५.३% थी आज वह ८.५% हो गयी है.
इन सबके बावजूद उपेक्षित लोगों की अपनी जमीन कहाँ है? जिसके नीचे बैठकर कम से कम नामक प्याज के साथ रोटी तो सुकून से खाते..?
गाँव में दबा इन्सान आज भी साहूकारों, ठेकेदारों और अब बैंकों का कर्जदार है,होरी कब आजाद होगा सवाल अब भी अनुतरित है.
'रंगभूमि' का सूरदास बेहद यथार्थवादी नजर आता है.आज उसी की जरुरत है.क्योंकि होरी की तरह वह खामोस नहीं रहता,बल्कि साहस के साथ आवाज को बुलंद करता है.देखा जाये तो आज का किसान भी उतना साहसी नही है जितना सूरदास था.गाड़ियों के पीछे भीख मांगने वाला.उसे जैसे ही पता चलता है कि उसकी जमीन में मिल बनने वाला है.तन के खड़ा हो जाता है. आज के किसानों की तरह नहीं की सरकार के आगे घुटने टेक दें.
छतीसगढ़, उड़ीसा,सिगुर, नंदीग्राम से लगायत किसानों की अपेक्षा दिल्ली एनसीआर के किसानों में कोई दम ख़म नही दिखता ..?
'कफन' के घीसू, माधव की संख्या तेजी से बढ़ी है जो कफ़न के पैसे से अय्यासी का समान जुटाते हैं.अंतर बस इतना है की उस समय संवेदनशीलता पर दरिद्रता का राज़ था आज उसकी जगह सवार्थ और निष्ठुरता ने ले लिया है.मेलों का दौर बीत चुका है. उसकी जगह माल ने ले लिया है. जहाँ झोले भर पैसे में भी हम कुछ नहीं कर पा रहे हैं, कुछ नहीं खरीद सकते हैं.हामिद का जमाना लद गया.'बड़े घर की बेटी' की संख्या तेजी से बढ़ी है,बड़प्पन और विनम्रता का स्थान अभिमान और दिखावा ने ले लिया है.'मंत्र' के डॉ.साहब आज मोटी रकम की भाषा ही समझाते हैं,कोई मरे तो मरे उनकी बाला से..!
'गबन' का जंगलराज बड़ी दरियादिली से जारी है.शब्द बदल कर घोटाला हो गया.'सवा सेर गेहूं' के तंत्र का महाजाल अब भी मौजूद है.'ठाकुर के कुएं' की ठसक और ठेस निरंतर जारी है.'नमक का दरोगा' खुद ही लूटखोर, जालसाज और चोर हो गया है.'शतरंज के खिलाड़ी' अपनी इतिहास बना रहे हैं,मुल्क लुटता है लूटे हमारी बला से..! हलकू 'पूस की रात' में आस की चादर ओढ़े सर्द रातों में भी उम्मीद का दामन नही छोड़ा है.आभाव और दरिद्रता इन्सान के अन्दर के भेद-भाव को मिटा देता है.
प्रेमचंद का समय और अब का समय एक दम अलग है.उनके समय में देश, अंग्रेजों का गुलाम था. अब देसी काले लोगों के गुलामी का शिकार है.तब अंग्रेजों को भगाने की लड़ाई लड़ी गयी.आज विदेसी कंपनियों को बुलाने की लड़ाई लड़ी जा रही है.
सवाल उठता है क्या सरकारी उत्सव से होरी का जीवन बदलेगा या नहीं...?
आश्चर्य की बात तो यह है की प्रेमचंद के नाती-पोते और ख़ानदान के द्वारा निकली जा रही पत्रिका 'लमही' से प्रेमचंद और उनके पात्र धीरे-धीरे गायब हो रहे हैं.