अगरिया के लोकगीत
फ़ारूक शाह
गुजरात के अगरिया अर्थात् नमक पकाने वाले श्रमिक. गुजरात में नमक उत्पादन के क्षेत्रों को देखें तो कच्छ का छोटा मरुस्थल मुख्य है. इसके अतिरिक्त पूरे समुद्री पट्टे पर स्थित विभिन्न स्थानों पर नमक पकाया जाता है, यानी कि नमक की खेती होती है. कच्छ के छोटे मरुस्थल में करीब-करीब एक हजार वर्षों से नमक पकाया जाता है. अंग्रेजों से पूर्व लगभग पाँच सौ वर्षों से झाला शासक मरुस्थल में नमक उत्पादन की व्यवस्था संभालते आ रहे थे. बाद में ब्रिटिश शासन ने उस पर कबजा किया था. अगरिया श्रमिक समुदाय की काली मजदूरी और उसके हाशिए में धकेले हुए अस्तित्व की कहानी भी उतना ही पुरानी है. जिसमें पीड़ाओं की कष्टदायी करुण परम्पराएँ छिपी हुई दिखाई देती हैं.
आजादी के बाद वैयक्तिक साहस के तौर पर नमक पकाने का अधिकार मिला, इसलिए अगरिया कायदे की दृष्टि से स्वायत्त और स्वयं रोजी कमाते उत्पादक माने जाते हैं. पर शुरू से शोषण के जाल में लिपटे इस श्रमिक समुदाय की दशा आखिर तो बंधूआ मजदूर जैसी ही साबित होती है. मरुस्थल के छोर पर स्थित उनके गाँव और घरबार छोड़ मानसुन के चार महीने बाद, अक्टूबर में वे पूरे परिवार के साथ स्थलांतर करते हैं. मरुस्थल के अति विषम और विकट वातावरण में जीवन-मृत्यु का दांव खेलने के लिए निकल पड़ते हैं. अक्टूबर से अप्रैल तक आठ महीने बिताने कर्ज से नमक की काली मजदूरी शुरू करते हैं. और मौसम खत्म होने पर सौदे के अनुसार पहले से तय मूल्य पर कम दाम में व्यापारी को नमक बेचना पड़ता हैँ. कठिन क्रूर महेनत के अंत में ये अर्ध घुमंतू महनतकश लोग नखशिख दास्य, अंतहीन कर्जदारी, कुपोषण और शिक्षा से वंचित रहने की स्थिति के अलावा कुछ भी हासिल नहीं करते. व्यसन और रोग के शिकंजे में फंसकर अकाल मृत्यु के हवाले हो जाते हैं. अगरिया उत्पादक के दर्जे पर होते हुए भी कभी गरीबी से ऊठकर उभर नहीं पाएं हैं. जबकि नमक का व्यापार करने वाले लोगों के यहाँ बंगले बने हैं. यह समग्र स्थिति उद्योग के अमानवीय आयोजन और व्यापार की जटिल गुत्थियों के कारण है.
इस क्षेत्र की जमीन कमजोर है, पानी की अछत और जलसंचय के लिए बरसात पर आधार. तीन या चार वर्षों में अकाल पड़ता है. उसने इस क्षेत्र के किशान, खेतमजदूर और खेत को लाचार बना दिया है. इसलिए जाड़े का मौसम आते ही सब नमक की मजदूरी में लग जाते हैं. नमक पकाने का व्यवसाय पारिवारिक और श्रम पर आधारित है. देश में सबसे ज्यादा, 70 प्रतिशत, नमक की पैदावार गुजरात में होती है. मरुस्थल के अगरिया की संख्या भी अच्छी खासी 67,166 के करीब मिलती है. नमक के काम के साथ परोक्ष रूप से जुड़े यानी नमक की मजदूरी के साथ जुड़े अगरकर्मियों की संख्या भी 34,937 जितनी है. यह देखते हुए लगता है कि नमक का उद्योग करीब एक लाख से ज्यादा लोगों की रोजी से जुड़ा हुआ है.
अगरियाओं का यह मरुस्थलीय कार्यक्षेत्र. सौराष्ट्र और कच्छ को अलग करती खाड़ी का पानी जहाँ आगे बढ़ता रुक जाता है, वहाँ से उसकी शुरूआत होती है. राजकोट, कच्छ, सुरेन्द्रनगर, बनासकांठा और पाटण जिले की हदों से सटकर यह प्रदेश 4953 स्केवयर किलोमीटर में फैला हुआ है. उसका इस्तेमाल आज तक दोनों तरफ किनारे आमने-सामने बसे गाँवों के दर्म्यान आने-जाने के लिए होता रहा है. वर्तमान कच्छ का ‘छोटा मरुस्थल’ एक समय समुद्र का उभरकर स्थित हो गया तल ही है. सामान्यत: मरुस्थल का ख्याल ऐसा है कि वहाँ रेत के टीले होते हैं, आंधी होती है, मौसम के अचीते बदलाव होते हैं. पर यह स्थल रेत से बना हुआ नहीं है. यहाँ की जमीन काले कीचड़ की है. एकदम क्षारयुक्त सख्त मिट्टी. जगह जगह पर ऊँचे-नीचे ढालुएँ और गहरे-चौड़े गड्ढे. कहीं भी पेड़-पौधों का नामोनिशान नहीं. जो भी पेड़-पौधे उगते वो किनारे पर उगते. तैयार नमक लेने के लिए गर्मियों में यहाँ क्षारयुक्त सख्त मिट्टी की सतह पर गाड़ियाँ जोरों से दौड़ने लगती हैं.
कच्छ का यह उद्योग लगभग एक हजार वर्षों से चला आया है, और यह भी हकीकत है कि इस उद्योग ने कम से कम संशाधन एवं नई प्रक्रियाओं को अपनाया है. हाँ, कुछ बदलाव जरूर नज़र आता है. फिर भी उससे मजदूरों की स्थिति और उद्योग की स्थिति में कोई ख़ास परिवर्तन नहीं हुआ. पहले नमक बैलगाडियों में ले जाते थे, आज ट्रकों के मारफत. पहले कूएं से पानी खींचने बैलों के चरसे का इस्तेमाल होता था, अब ओईल इन्जिनइ का. बस, इतनी प्रगति हुई है.
अगर का काम बहुत ही दुष्कर है. असह्य सर्दियाँ और गर्मियाँ अगरिया की चमड़ी को संवेदनहीन बना देती है. नमक के द्रावण में काम करने से उनके पाँव लोहे जैसे सख्त हो जाते हैं, जिन्हें आग भी न जला सके. रेगिस्तान की उड़ती धूल और नमक के कण उनकी आँखों का तेज कम कर देते हैं. मलेरिया और टीबी के दर्दीओं की यहाँ कमी नहीं होती. मौसम के समय करीब करीब 5000 परिवार यहाँ पर नमक पकाने का काम संभालते हैँ. अभी तक यहाँ पर में बिजली नहीं आई है. जरूरी डाक्टरी इलाज का भी अभाव है. यहाँ पर सब कामचलाऊ होता हैं. पीने के पानी की व्यवस्था कामचलाऊ, अगर के पट्टे कामचलाऊ, झोंपड़े-छप्पर कामचलाऊ, कूई और कूएं भी कामचलाऊ.
जीवन के लिए अति विकट स्थितिओं में अपने अस्तित्व को बेवजह गंवाने के लिए मजबूर अगरिया मरुस्थल के छोर पर स्थित गाँवों में बसते चूंवाळिया एवं तळपदा कोली, दलित, रबारी, देवीपूजक, सिपाई, फकीर, मियाणा जैसी कई अनुसूचित जाति एवं जनजाति, घुमंतू, विमुक्त और हाशिये की जातिओं के लोगों से बना हुआ है. यहाँ का वातावरण अत्यंत ही विषम है. भूखे-प्यासे धूप और ठंड की चरम सीमाएँ झेलते ये लोग, अपने जीवन में थोड़ी सी खुशी लाने, कभी-कभी गीत गाते हैं. इन गीतों में उनकी दारुण दशा और भविष्य के अंधकार की छाया अनिवार्य रूप से दिखाई देती है.
एक गीत देखें. मजदूरी कर जब भी अगरिया घर वापस लौटता है तब सारा बदन पसीने, धूल और नमक से लथपथ हो गया होता है. अंग अंग थकन से चूर. घर आते अपने पति का अगरिया स्त्री सत्कार करती है, इसमें उसकी वंचित स्थिति तो है ही, साथ-साथ जीवन की गहरी वेदना भी व्यक्त होती है. फिर भी रूखे सूखे ही सही, रोटी के दो टुकड़े देते नमक के डले की उनके मन बहुत ही महिमा है :
सारा परताप गाम-गोढा अगरना
भवनी भांजी भीड़ रे
गांगडो वा’लो लाज्यो से
पैसानो साबू बजारे मलशे
ऊजळा थई घिरे आवो
गांगडो वा’लो लाज्यो से
पैसानो रोमाल बजारे मलशे
सोगां मेलीने घिरे आवो
गांगडो वा’लो लाज्यो से
पैसानी छतरी बजारे मलशे
सायां करी घिरे आवो
गांगडो वा’लो लाज्यो से
चमचमती मोजडी बजारे मलशे
मोजडी पे’री घिरे आवो
गांगडो वा’लो लाज्यो से
हाड मांस चामडां रणमां गया रंधाई
मारा कर्मे कायम मंडाई आंधी
( सदभाग्य कि अगर के गाँव हैं, जनम भर की तंगदस्ती दूर हो गई, हमें तो डला प्यारा लगता है... पैसे का साबुन बाजार में मिलेंगा, गोरे होकर घर आओ... पैसे का रूमाल बाजार में मिलेंगा, सर पर कलगी रचाकर घर आओ... पैसे की छतरी बाजार में मिलेंगी, छाँव करके घर आओ... चमकती जूती बाजार में मिलेंगी, जूती पहन घर आओ... हाड़-मांस-चमड़ा रेगिस्तान में जल गए, मेरे भाग्य में लिखी है सदा के लिए आंधी... )
अगरिया स्त्री की उलझन को प्रकट करता दूसरा गीत :
अगरियो अगनानी
माडी, मने अगरियाने शीद आली ?
कूइयुं गळावतो, ने टांपा तणावतो
झीला लेवडावतो दाडी
माडी, मने अगरियाने शीद आली ?
तेल रे न नाखतो, ने धूपेल न नाखतो
दांतिया भांगतो दाडी
माडी, मने अगरियाने शीद आली ?
गांजो रे पीतो, ने दारूये पीतो
इंग्लिश पीतो दाडी
माडी, मने अगरियाने शीद आली ?
सामान उतरावतो, ने सांपरां बंधावतो
सांया करावतो दाडी
माडी, मने अगरियाने शीद आली ?
पावडी रे घोंची, पोडुं रे भांगतो
दंतारो खेंचावतो दाडी
माडी, मने अगरियाने शीद आली ?
मीठुं कढावतो, ने टोपला उतरावतो
गाडियुं भरावतो दाडी
माडी, मने अगरियाने शीद आली ?
आठ आठ महिना काम कराव्युं
मीठुं पाक्युं दोढ़ गाडी
माडी, मने अगरियाने शीद आली ?
(अगरिया अज्ञानी है. माँ, मुझे अगरिया को क्यों दी ? कूइयाँ (1) खोदता हैं और टांपा (2) खींचता है, पत्थर उठाता वह तो रोज... तेल न डालता सुगंधी न डालता, तोड़ता रोज कंगियाँ... गांजा पीता है और दारू भी पीता है, ईंग्लिश पीता रोज. सामान उतारता और छप्पर बांधता, सायबान करता रोज. पावडी (3) गाड़कर पोडु (4) को तोडता, दंतारा (5) खींचता है रोज. नमक निकालता और टोकरा उतारता, गाडियाँ भरता रोज. आठ आठ महीना काम कराया और नमक पका देढ़ गाड़ी ! माँ, मुझे अगरिया को क्यों दी ?)
अगर में पति-पत्नी और बच्चे साथ काम करते हैं. इसलिए कूई छानने का काम हो, नमक की क्यारियों में पानी भरने का काम हो, या कूएं कूई में पाले बांधने का काम हो, नमक पक जाने पर टोकरे भर भर उसके ढेर लगाने का और जब ट्रक ट्रेक्टर आए तब उसमें चढ़ाने का काम - सबमें पत्नी पति जितना ही काम करती है. और इसलिए सख्त परिश्रम करके जब कर्ज का हफ्ता चुकाना होता है तब घरखर्ची के पैसे भी दारू और जुए में उड़ा देने वाले अगरिया के प्रति उसे अभाव हो जाता है.
पूरा जीवन कर्ज उतारने में खतम कर देना है. हड्डियाँ गल जाए ऐसी ठंड और रक्त जल जाए ऐसी गर्मी के बीच अस्तित्व को निचौड़ देने वाले नसीब को टाला नहीं जा सकता, यह बात अगरिया अच्छी तरह जानते हैं. इसलिए वो थकन और दु:ख को भुलाने दारू और जुगार की लत में फंस जाते है. अगरिया लोगों में दारू के व्यसन में कई परिवार बरबाद हो गए हैं. कई सारे लोग टीबी या आंत के रोग अथवा लीवर के रोगों से अकाल मृत्यु के शरण हो जाते हैं. दूषण रूप व्यसन उनके अस्तित्व का शोषण करने में कोई कमी नहीं रखते. यह बात उनके इस प्रकार के गीतों में देखी जा सकती है :
पाटडीना पादरमां दारूडानुं पीठुं
हो वणजारा...
गांठे नथी दमड़ी दारू शेनो पीशुं ?
हो वणजारा...
मारां पग केरां कडलां दारूडामां डूल्या
हो वणजारा...
गांठे नथी दमड़ी, दारू शेनो पीशुं ?
हो वणजारा...
मारी केडनो कंदोरो दारूडामां डूल्यो
हो वणजारा...
गांठे नथी दमड़ी, दारू शेनो पीशुं ?
हो वणजारा...
मारा हाथ केरी चूडली दारूडामां डूली
हो वणजारा...
पाटडीना पादरमां दारूडानुं पीठुं
हो वणजारा...
( पाटडी (6) की सीमा में दारू की दूकान है, हे बनजारे ! गांठ में नहीं दमड़ी, दारू कैसे पिएंगे ? मेरे पाँव के तोड़े दारू में चले गये... मेरी कमर का कंडोरा दारू में चला गया... मेरे हाथ की चूड़ियाँ दारू में चली गई... पाटडी की सीमा में दारू की दूकान है... दारू कैसे पिएंगे, हे बनजारे ?)
*
जुगटियो सरदार
जुगट कोई रमशो नैं रे
जुगट रमतां शुं शुं रे हार्यो
जुगट रमतां मशीन हार्यो
हे पंखा हुधी हार्यो, जुगट कोई रमशो नैं रे...
जुगट रमतां शुं शुं रे हार्यो ?
जुगट रमतां पावडी हार्यो
हे दंतार हुधी हार्यो, जुगट कोई रमशो नैं रे...
जुगट रमतां शुं शुं रे हार्यो ?
जुगट रमतां हप्तो ये हार्यो
हे चूकावा हुधी हार्यो, जुगट कोई रमशो नैं रे...
(जुआ तो सरदार, जुआ कोई खेलना नहीं ! जुआ खेलते क्या क्या हार गया ? जुआ खेलते मशीन (7) हार गया, पंखे तक मैं तो हारा... जुआ खेलते क्या क्या हार गया ? जुआ खेलते पावडी हार गया, दंतार तक मैं तो हारा... जुआ खेलते क्या क्या हार गया ? जुआ खेलते हफ्ता हार गया, चुकता करना भी मैं तो हारा... जुआ कोई खेलना नहीं !)
किसी समय भयानक भूकंप के कारण उभर कर जमा हुए कीचड वाला समुद्र तल अगरियाओं की भूमि है. वे खुद को ऐसी भूमि के राजा मानते हैं - 'अगरिया से रणना राजा / मेहनतमां रये ना पाछा...' ( अगरिया मरु स्थल के राजवी हैं, महेनत करने में वे पीछे नहीं रहते... ), पर यह राजा जब बाहर के - व्यवहार के जगत में जाते होगे, तब उन्हें कितने ही कदम पर पीछे खिसक जाना पड़ता होगा, हम तो कल्पना भी नहीं कर सकते. ऐसी ही कोई विपत्ति का थोड़ा-बहुत ख्याल उनके इस प्रकार के गीतों में देखने को मिलता हैं :
हुं तो खोटो रूपियो लैने रे
रेंगणा लेवा हाली, लेवा हाली
में तो रूपियो फेंइको हाटे रे
रेंगणा लैने वळी, लैने वळी
आवी आवी रे वालुडानी हाटी रे
रेंगणां ढोळी दीआं, दीआं
मारो नानो दियरियो साथे रे
रेंगणां वेणी लीधां, वेणी लीधां
आयां आयां रे सरकारी तेडां
दियरियाने हेरी लीधो, हेरी लीधो
मारां पग केरां कडलां आलुं
दियरियाने छोडी मेलो, छोडी मेलो
तारां कडलां जाशे डूली
दियरियो नैं रे छूटे, नैं रे छूटे
हुं तो खोटो रूपियो लैने रे
रेंगणां लेवा हाली, लेवा हाली
(मैं तो नकली रूपिया लेकर, बेंगन लेने चली. मैंने रुपया फेंका हाट बाजार में, बेंगन ले के लौटी... आई आई वालुडा की हाट, बेंगन गिरा दिए. मेरा छोटा देवर साथ था, बेंगन चुन लिए... आया आया सरकार का बुलावा, देवर को पकड़ लिया. मेरे पाँव के तोड़े दे दूँ, देवर को छोड़ दो... तेरे तोड़े जाएंगे डूब, देवर नहीं छूटेंगा... मैं तो नकली रुपया लेकर, बेंगन लेने चली.)
इस समुदाय में बचपन के लिए बहुत सारे प्रश्न हैं. आठ महीना उजाड़ रेगिस्तान में पलता बचपन मन को मार मार के जीता है. शिक्षा का तो प्रश्न मुँह फाड़े खड़ा ही है, साथ ही बच्चों के स्वास्थ्य और भविष्य संबंधी कई सारी बातें चिन्ता का विषय है. दुःख के तूफ़ान से घिरा, अथक श्रम से जूझता यहाँ का बचपन. उसके नसीब में खुशी कैसे हो सकती है ? इस तरह के अभाव की वेदना झेलती एक बच्ची की व्यथा प्रकट करता यह गीत प्रचलित है. जिसमें बच्ची को रेशमी रूमाल चाहिए, पर माँ अपना असामर्थ्य बताती है और रूमाल की जीद छोड़ देने के लिए बच्ची को समझाती है :
ऊगमणी धरतीनो वेपारी आव्यो
लाव्यो कांई रेशमिया रोमाल
माड़ी, मारे रोमाल लेवो
दीकरी, मेली दे रढ रोमालियानी
तुं सो गरीब घरनुं सोरुं
रोमाल तने शीनो लई आलुं...
ओयडो वेसो माड़ी, ओशरी य वेसो
वेसो माड़ी, आपणां घरनो वाडो... माड़ी, मारे...
दीकरी, घरमां नथी शेर बंटी
ने दळवा नथी घंटी... रोमाल तने...
कोठलो वेसो मा, डामचियो वेसो
माडी, वेसो ने रंगत मांची... माड़ी, मारे...
दाडी-दपाडी, ने रोज मजूरी
रोजनुं रळी रळी खावुं
दीकरी, मेली दे तुं रढ तारी... रोमाल तने...
(पूरब का ब्यापारी आया है, वह लाया है रेशमी रूमाल, माँ ! मैं तो रूमाल लूंगी... बेटी ! रूमाल की जिद्द छोड़ दे, तू गरीब घर की लड़की है, रूमाल तुझे कैसे दिलाऊँ?... कमरा बेच दो माँ, बरामदा भी बेच दो, बेच दो हमारे घर का बाड़ा, माँ ! मैं तो रूमाल लूंगी... बेटी ! घर में नहीं सेर धान, और पीसने के लिए नहीं चक्की, रूमाल तुझे कैसे दिलाऊँ ?.... कोठार बेच दो माँ ! बिस्तरे की घोड़ी बेच दो, बेच दो रंगीन मचिया, मैं तो रूमाल लूंगी... रोज की दिहाड़ी और रोज की मजदूरी, रोज का कमा कर खाना है हमें, बेटी ! छोड़ दे जिद्द रूमाल की... )
अगरिया समुदाय में बगला-बगली के संवाद का एक गीत प्रचलित है. जिसमें उनके हृदयों में बहुत गहरे दबी हुई, मुख्यधारा के जीवन में मिल जाने की आशा, अभिव्यक्त होती है :
ओल्यो दरियो दोटादोट रे
बगलो पूसे बगलड़ी
तुं च्यांचणे र्यो’तो रात रे
बगलो पूसे बगलड़ी रे
मारे गामना पटलनी भईबंधी
मारे पटलपणुं लेवुं से
बगलो पूसे बगलड़ी रे
मारे गामना मुखीनी भईबंधी
मारे मुखीपणुं लेवुं से
बगलो पूसे बगलड़ी रे
मारे गामना सरपंचनी भईबंधी
मारे सरपंचपणुं लेवुं से
बगलो पूसे बगलड़ी रे
ओल्यो दरियो दोटादोट रे
बगलो पूसे बगलड़ी
(वह समंदर दौड़ता जा रहा है, बगले से बगली पूछ रही है, तू रात कहाँ पर ठहरा था ?... मेरी गाँव के पटेल से भाईबंदी है, मुझे गाँव का पटेल होना है... मेरी गाँव के मुखिया से भाईबंदी है, मुझे गाँव का मुखिया होना है... मेरी गाँव के सरपंच से भाईबंदी है, मुझे गाँव का सरपंच होना है...)
आठ आठ महीना अथक महेनत के बाद जब नमक तैयार हो जाता है तब उसे गाड़ियों में लादते वक्त मजदूरी काम करने वाले अगरिया, श्रम में उत्साह लाने, गीत गाते हैं. ऐसा एक गीत देखें :
रणना कांठे लीलुड़ी लीमडी रे
लीमड़ीनां लीलां-पीळां पांद रे
जीवणजी ठाकोर, धीमी रे हांको तमारी गाडियुं
रणना कांठे लीलुड़ी लीमड़ी रे...
सो-सो मजूर वीराने सामटा
टोपलिया करे दोडादोड रे
जीवणजी ठाकोर, धीमी रे हांको तमारी गाडियुं
रणना कांठे लीलुड़ी लीमड़ी रे...
द्हाडो रे ऊयगो, ने द्हाडो आथम्यो
मजूर तो जुवे तमारी वाट रे
जीवणजी ठाकोर, हाजरी रे वेळाए वे'ला आवजो
रणना कांठे लीलुड़ी लीमड़ी रे...
शेठ रे जीवणभाई तमने वीनवुं
सरखी पूरजो अमारी हाजरी
जीवणजी ठाकोर, हाजरी रे वेळाए वे'ला आवजो
रणना कांठे लीलुड़ी लीमड़ी रे...
(रेगिस्तान के छोर पर नीम का हरा पेड़ आया हुआ है, नीम के हरे और पीले पत्ते, जीवणजी ठाकोर (8) ! धीरे से चलाओ आपकी गाड़ियां... सौ सौ मजदूर भैया को मिले हैं एकसाथ, टोपलिया (9) करते दौड़धूप, जीवणजी ठाकोर ! धीरे से चलाओ आपकी गाड़ियां... दिन उगते और दिन ढलते हैं, मजदूर तो तकते रहते आपकी राह, जीवणजी ठाकोर ! हाजरी के वक्त जल्दी से आ जाना... शेठ जीवणभाई, आपको बिनती हम करते हैं, ठीक से लेना हमारी हाजरी, जीवणजी ठाकोर ! हाजरी के वक्त जल्दी से आ जाना...)
मजदूरी चुकाने वाले कारकुन जैसे लोगों पर आधारित, नमक के मजदूरों की विवशता का एक चित्र इस गीत में प्रतिबिंबित होता है.
जगत को स्वादिष्ट भोजन देने के लिए, बिना किसी सुख की अपेक्षा के, बहुत ही क्रूर तरह से अपने अस्तित्व को नष्ट कर देने वाले इन अगरियाओं को पागल मानें कि गुलामी की अदृश्य बेड़ियों से बंधे कैदी ? पर, हँसी-मजाक के समय में अगरिया स्त्रियाँ तो इसे पागलपन मानकर ही गीत गाती हैं :
रणमां कूइयुं गाळता रे
घेलडिया रे अगरिया
पाटामां पगली पाडता रे
घेलडिया रे अगरिया
कूईमां टांपा खींचता रे
घेलडिया रे अगरिया
पाटे दंतारो खींचता रे
घेलडिया रे अगरिया
पाटामां पाळा वाळता रे
घेलडिया रे अगरिया
पारेवे हंदेहो मोकलावता रे
घेलडिया रे अगरिया
हो घेला रे अगरिया...
(मरुस्थल में कूइयाँ खोदते, पागल अगरिया... पट्टे (10) में पगली (11) दबाते, पागल अगरिया... कूई में टांपा खींचते, पागल अगरिया... पट्टे पर दंतारा खींचते, पागल अगरिया... पट्टे में पाला (12) खड़े करते, पागल अगरिया... पंछी के साथ संदेश भेजते, पागल अगरिया)
कदम कदम पर, जीवन को बचाए रखने के लिए शोषण आश्रित व्यवस्था में मानव सर्जित और कुदरत सर्जित विषमताओं से जूझते इन मनुष्यों को, एकदम नजदीक से देखें तो हमें हमारे मनुष्य होने के प्रति प्रश्न हो जाए ऐसा सम्भव है, और ऐसा भी सवाल हमारे सामने आ सकता है कि जिनका नमक खाया है उनको हम वफादार रहे हैं क्या ?
अगरिया से मुलाकात और बातचीत के लिए गुजरात के लोकविद्याविद् और इतिहासविद् अरविंद आचार्य (वढवाण, गुजरात) निमित्त बने. और गीत प्राप्त करने में अरविंद आचार्य तथा अंबूभाई पटेल का सहयोग रहा है. इन दोनों स्नेहीजनों तथा खाराघोडा (ता. पाटडी, जि. सुरेन्द्रनगर, गुज.) के अगरिया मित्रों से ये गीत मिले हैं. इस पूरे आकलन के लिए सभी का हार्दिक ऋणस्वीकार.
_________________________________
* सन्दर्भ नोट :
(1) नमक के लिए नमकीन पानी (ब्राइन) पाने 60 से 80 फूट गहरा खड्डा खोदा जाता है उसे कूई कहते हैं, अब डंकी भी करते हैं (2) अगर के आसपास पत्थर का पाला करते हैं, उसे रस्सी से बांधकर जो आधार रखा जाता है उसे ‘टांपा’ कहा जाता है (3) फावड़ा (4) करकच नमक (5) पाँचा (6) सुरेन्द्रनगर जिले का, मरुस्थल के किनारे का तालुका (7) पानी खींचने का डीज़ल इन्जिन (8) व्यक्तिनाम (9) टोपला [तसले] उठाने वाले मजदूर (10) नमक पकाने चौकस लम्बाई-चौड़ाई 40 X 40 का पाल बांधा हुआ विस्तार ‘पाटा’ (पट्टा), एक से ज्यादा पट्टों को अगर कहते हैं (11) पट्टे की जमीन या सतह समथल और मजबूत करने के लिए पाँव के दबाव से की जाती क्रिया (१२) अगर के आसपास रक्षा के लिए पत्थर के पाले किये जाते हैं.
सन्दर्भ पुस्तक :
* Salt : Tecnology and Manufacture by Kapilram H. Vakil,
Pub. Dhrangadhra State (Gujarat). 1924.
* मीठा उद्योग : समस्याओ अने उकेल (रिपोर्ट) - अरविन्द आचार्य
* खारापाटना मायाळुं मानवी : मीठा उद्योगना भावि विकासनी रूपरेखा - अरविन्द आचार्य,
प्रका. राजेश आचार्य, वढवाण शहेर (गुजरात). 1984.
●
फ़ारूक शाह
गुजरात के अगरिया अर्थात् नमक पकाने वाले श्रमिक. गुजरात में नमक उत्पादन के क्षेत्रों को देखें तो कच्छ का छोटा मरुस्थल मुख्य है. इसके अतिरिक्त पूरे समुद्री पट्टे पर स्थित विभिन्न स्थानों पर नमक पकाया जाता है, यानी कि नमक की खेती होती है. कच्छ के छोटे मरुस्थल में करीब-करीब एक हजार वर्षों से नमक पकाया जाता है. अंग्रेजों से पूर्व लगभग पाँच सौ वर्षों से झाला शासक मरुस्थल में नमक उत्पादन की व्यवस्था संभालते आ रहे थे. बाद में ब्रिटिश शासन ने उस पर कबजा किया था. अगरिया श्रमिक समुदाय की काली मजदूरी और उसके हाशिए में धकेले हुए अस्तित्व की कहानी भी उतना ही पुरानी है. जिसमें पीड़ाओं की कष्टदायी करुण परम्पराएँ छिपी हुई दिखाई देती हैं.
आजादी के बाद वैयक्तिक साहस के तौर पर नमक पकाने का अधिकार मिला, इसलिए अगरिया कायदे की दृष्टि से स्वायत्त और स्वयं रोजी कमाते उत्पादक माने जाते हैं. पर शुरू से शोषण के जाल में लिपटे इस श्रमिक समुदाय की दशा आखिर तो बंधूआ मजदूर जैसी ही साबित होती है. मरुस्थल के छोर पर स्थित उनके गाँव और घरबार छोड़ मानसुन के चार महीने बाद, अक्टूबर में वे पूरे परिवार के साथ स्थलांतर करते हैं. मरुस्थल के अति विषम और विकट वातावरण में जीवन-मृत्यु का दांव खेलने के लिए निकल पड़ते हैं. अक्टूबर से अप्रैल तक आठ महीने बिताने कर्ज से नमक की काली मजदूरी शुरू करते हैं. और मौसम खत्म होने पर सौदे के अनुसार पहले से तय मूल्य पर कम दाम में व्यापारी को नमक बेचना पड़ता हैँ. कठिन क्रूर महेनत के अंत में ये अर्ध घुमंतू महनतकश लोग नखशिख दास्य, अंतहीन कर्जदारी, कुपोषण और शिक्षा से वंचित रहने की स्थिति के अलावा कुछ भी हासिल नहीं करते. व्यसन और रोग के शिकंजे में फंसकर अकाल मृत्यु के हवाले हो जाते हैं. अगरिया उत्पादक के दर्जे पर होते हुए भी कभी गरीबी से ऊठकर उभर नहीं पाएं हैं. जबकि नमक का व्यापार करने वाले लोगों के यहाँ बंगले बने हैं. यह समग्र स्थिति उद्योग के अमानवीय आयोजन और व्यापार की जटिल गुत्थियों के कारण है.
इस क्षेत्र की जमीन कमजोर है, पानी की अछत और जलसंचय के लिए बरसात पर आधार. तीन या चार वर्षों में अकाल पड़ता है. उसने इस क्षेत्र के किशान, खेतमजदूर और खेत को लाचार बना दिया है. इसलिए जाड़े का मौसम आते ही सब नमक की मजदूरी में लग जाते हैं. नमक पकाने का व्यवसाय पारिवारिक और श्रम पर आधारित है. देश में सबसे ज्यादा, 70 प्रतिशत, नमक की पैदावार गुजरात में होती है. मरुस्थल के अगरिया की संख्या भी अच्छी खासी 67,166 के करीब मिलती है. नमक के काम के साथ परोक्ष रूप से जुड़े यानी नमक की मजदूरी के साथ जुड़े अगरकर्मियों की संख्या भी 34,937 जितनी है. यह देखते हुए लगता है कि नमक का उद्योग करीब एक लाख से ज्यादा लोगों की रोजी से जुड़ा हुआ है.
अगरियाओं का यह मरुस्थलीय कार्यक्षेत्र. सौराष्ट्र और कच्छ को अलग करती खाड़ी का पानी जहाँ आगे बढ़ता रुक जाता है, वहाँ से उसकी शुरूआत होती है. राजकोट, कच्छ, सुरेन्द्रनगर, बनासकांठा और पाटण जिले की हदों से सटकर यह प्रदेश 4953 स्केवयर किलोमीटर में फैला हुआ है. उसका इस्तेमाल आज तक दोनों तरफ किनारे आमने-सामने बसे गाँवों के दर्म्यान आने-जाने के लिए होता रहा है. वर्तमान कच्छ का ‘छोटा मरुस्थल’ एक समय समुद्र का उभरकर स्थित हो गया तल ही है. सामान्यत: मरुस्थल का ख्याल ऐसा है कि वहाँ रेत के टीले होते हैं, आंधी होती है, मौसम के अचीते बदलाव होते हैं. पर यह स्थल रेत से बना हुआ नहीं है. यहाँ की जमीन काले कीचड़ की है. एकदम क्षारयुक्त सख्त मिट्टी. जगह जगह पर ऊँचे-नीचे ढालुएँ और गहरे-चौड़े गड्ढे. कहीं भी पेड़-पौधों का नामोनिशान नहीं. जो भी पेड़-पौधे उगते वो किनारे पर उगते. तैयार नमक लेने के लिए गर्मियों में यहाँ क्षारयुक्त सख्त मिट्टी की सतह पर गाड़ियाँ जोरों से दौड़ने लगती हैं.
कच्छ का यह उद्योग लगभग एक हजार वर्षों से चला आया है, और यह भी हकीकत है कि इस उद्योग ने कम से कम संशाधन एवं नई प्रक्रियाओं को अपनाया है. हाँ, कुछ बदलाव जरूर नज़र आता है. फिर भी उससे मजदूरों की स्थिति और उद्योग की स्थिति में कोई ख़ास परिवर्तन नहीं हुआ. पहले नमक बैलगाडियों में ले जाते थे, आज ट्रकों के मारफत. पहले कूएं से पानी खींचने बैलों के चरसे का इस्तेमाल होता था, अब ओईल इन्जिनइ का. बस, इतनी प्रगति हुई है.
अगर का काम बहुत ही दुष्कर है. असह्य सर्दियाँ और गर्मियाँ अगरिया की चमड़ी को संवेदनहीन बना देती है. नमक के द्रावण में काम करने से उनके पाँव लोहे जैसे सख्त हो जाते हैं, जिन्हें आग भी न जला सके. रेगिस्तान की उड़ती धूल और नमक के कण उनकी आँखों का तेज कम कर देते हैं. मलेरिया और टीबी के दर्दीओं की यहाँ कमी नहीं होती. मौसम के समय करीब करीब 5000 परिवार यहाँ पर नमक पकाने का काम संभालते हैँ. अभी तक यहाँ पर में बिजली नहीं आई है. जरूरी डाक्टरी इलाज का भी अभाव है. यहाँ पर सब कामचलाऊ होता हैं. पीने के पानी की व्यवस्था कामचलाऊ, अगर के पट्टे कामचलाऊ, झोंपड़े-छप्पर कामचलाऊ, कूई और कूएं भी कामचलाऊ.
जीवन के लिए अति विकट स्थितिओं में अपने अस्तित्व को बेवजह गंवाने के लिए मजबूर अगरिया मरुस्थल के छोर पर स्थित गाँवों में बसते चूंवाळिया एवं तळपदा कोली, दलित, रबारी, देवीपूजक, सिपाई, फकीर, मियाणा जैसी कई अनुसूचित जाति एवं जनजाति, घुमंतू, विमुक्त और हाशिये की जातिओं के लोगों से बना हुआ है. यहाँ का वातावरण अत्यंत ही विषम है. भूखे-प्यासे धूप और ठंड की चरम सीमाएँ झेलते ये लोग, अपने जीवन में थोड़ी सी खुशी लाने, कभी-कभी गीत गाते हैं. इन गीतों में उनकी दारुण दशा और भविष्य के अंधकार की छाया अनिवार्य रूप से दिखाई देती है.
एक गीत देखें. मजदूरी कर जब भी अगरिया घर वापस लौटता है तब सारा बदन पसीने, धूल और नमक से लथपथ हो गया होता है. अंग अंग थकन से चूर. घर आते अपने पति का अगरिया स्त्री सत्कार करती है, इसमें उसकी वंचित स्थिति तो है ही, साथ-साथ जीवन की गहरी वेदना भी व्यक्त होती है. फिर भी रूखे सूखे ही सही, रोटी के दो टुकड़े देते नमक के डले की उनके मन बहुत ही महिमा है :
सारा परताप गाम-गोढा अगरना
भवनी भांजी भीड़ रे
गांगडो वा’लो लाज्यो से
पैसानो साबू बजारे मलशे
ऊजळा थई घिरे आवो
गांगडो वा’लो लाज्यो से
पैसानो रोमाल बजारे मलशे
सोगां मेलीने घिरे आवो
गांगडो वा’लो लाज्यो से
पैसानी छतरी बजारे मलशे
सायां करी घिरे आवो
गांगडो वा’लो लाज्यो से
चमचमती मोजडी बजारे मलशे
मोजडी पे’री घिरे आवो
गांगडो वा’लो लाज्यो से
हाड मांस चामडां रणमां गया रंधाई
मारा कर्मे कायम मंडाई आंधी
( सदभाग्य कि अगर के गाँव हैं, जनम भर की तंगदस्ती दूर हो गई, हमें तो डला प्यारा लगता है... पैसे का साबुन बाजार में मिलेंगा, गोरे होकर घर आओ... पैसे का रूमाल बाजार में मिलेंगा, सर पर कलगी रचाकर घर आओ... पैसे की छतरी बाजार में मिलेंगी, छाँव करके घर आओ... चमकती जूती बाजार में मिलेंगी, जूती पहन घर आओ... हाड़-मांस-चमड़ा रेगिस्तान में जल गए, मेरे भाग्य में लिखी है सदा के लिए आंधी... )
अगरिया स्त्री की उलझन को प्रकट करता दूसरा गीत :
अगरियो अगनानी
माडी, मने अगरियाने शीद आली ?
कूइयुं गळावतो, ने टांपा तणावतो
झीला लेवडावतो दाडी
माडी, मने अगरियाने शीद आली ?
तेल रे न नाखतो, ने धूपेल न नाखतो
दांतिया भांगतो दाडी
माडी, मने अगरियाने शीद आली ?
गांजो रे पीतो, ने दारूये पीतो
इंग्लिश पीतो दाडी
माडी, मने अगरियाने शीद आली ?
सामान उतरावतो, ने सांपरां बंधावतो
सांया करावतो दाडी
माडी, मने अगरियाने शीद आली ?
पावडी रे घोंची, पोडुं रे भांगतो
दंतारो खेंचावतो दाडी
माडी, मने अगरियाने शीद आली ?
मीठुं कढावतो, ने टोपला उतरावतो
गाडियुं भरावतो दाडी
माडी, मने अगरियाने शीद आली ?
आठ आठ महिना काम कराव्युं
मीठुं पाक्युं दोढ़ गाडी
माडी, मने अगरियाने शीद आली ?
(अगरिया अज्ञानी है. माँ, मुझे अगरिया को क्यों दी ? कूइयाँ (1) खोदता हैं और टांपा (2) खींचता है, पत्थर उठाता वह तो रोज... तेल न डालता सुगंधी न डालता, तोड़ता रोज कंगियाँ... गांजा पीता है और दारू भी पीता है, ईंग्लिश पीता रोज. सामान उतारता और छप्पर बांधता, सायबान करता रोज. पावडी (3) गाड़कर पोडु (4) को तोडता, दंतारा (5) खींचता है रोज. नमक निकालता और टोकरा उतारता, गाडियाँ भरता रोज. आठ आठ महीना काम कराया और नमक पका देढ़ गाड़ी ! माँ, मुझे अगरिया को क्यों दी ?)
अगर में पति-पत्नी और बच्चे साथ काम करते हैं. इसलिए कूई छानने का काम हो, नमक की क्यारियों में पानी भरने का काम हो, या कूएं कूई में पाले बांधने का काम हो, नमक पक जाने पर टोकरे भर भर उसके ढेर लगाने का और जब ट्रक ट्रेक्टर आए तब उसमें चढ़ाने का काम - सबमें पत्नी पति जितना ही काम करती है. और इसलिए सख्त परिश्रम करके जब कर्ज का हफ्ता चुकाना होता है तब घरखर्ची के पैसे भी दारू और जुए में उड़ा देने वाले अगरिया के प्रति उसे अभाव हो जाता है.
पूरा जीवन कर्ज उतारने में खतम कर देना है. हड्डियाँ गल जाए ऐसी ठंड और रक्त जल जाए ऐसी गर्मी के बीच अस्तित्व को निचौड़ देने वाले नसीब को टाला नहीं जा सकता, यह बात अगरिया अच्छी तरह जानते हैं. इसलिए वो थकन और दु:ख को भुलाने दारू और जुगार की लत में फंस जाते है. अगरिया लोगों में दारू के व्यसन में कई परिवार बरबाद हो गए हैं. कई सारे लोग टीबी या आंत के रोग अथवा लीवर के रोगों से अकाल मृत्यु के शरण हो जाते हैं. दूषण रूप व्यसन उनके अस्तित्व का शोषण करने में कोई कमी नहीं रखते. यह बात उनके इस प्रकार के गीतों में देखी जा सकती है :
पाटडीना पादरमां दारूडानुं पीठुं
हो वणजारा...
गांठे नथी दमड़ी दारू शेनो पीशुं ?
हो वणजारा...
मारां पग केरां कडलां दारूडामां डूल्या
हो वणजारा...
गांठे नथी दमड़ी, दारू शेनो पीशुं ?
हो वणजारा...
मारी केडनो कंदोरो दारूडामां डूल्यो
हो वणजारा...
गांठे नथी दमड़ी, दारू शेनो पीशुं ?
हो वणजारा...
मारा हाथ केरी चूडली दारूडामां डूली
हो वणजारा...
पाटडीना पादरमां दारूडानुं पीठुं
हो वणजारा...
( पाटडी (6) की सीमा में दारू की दूकान है, हे बनजारे ! गांठ में नहीं दमड़ी, दारू कैसे पिएंगे ? मेरे पाँव के तोड़े दारू में चले गये... मेरी कमर का कंडोरा दारू में चला गया... मेरे हाथ की चूड़ियाँ दारू में चली गई... पाटडी की सीमा में दारू की दूकान है... दारू कैसे पिएंगे, हे बनजारे ?)
*
जुगटियो सरदार
जुगट कोई रमशो नैं रे
जुगट रमतां शुं शुं रे हार्यो
जुगट रमतां मशीन हार्यो
हे पंखा हुधी हार्यो, जुगट कोई रमशो नैं रे...
जुगट रमतां शुं शुं रे हार्यो ?
जुगट रमतां पावडी हार्यो
हे दंतार हुधी हार्यो, जुगट कोई रमशो नैं रे...
जुगट रमतां शुं शुं रे हार्यो ?
जुगट रमतां हप्तो ये हार्यो
हे चूकावा हुधी हार्यो, जुगट कोई रमशो नैं रे...
(जुआ तो सरदार, जुआ कोई खेलना नहीं ! जुआ खेलते क्या क्या हार गया ? जुआ खेलते मशीन (7) हार गया, पंखे तक मैं तो हारा... जुआ खेलते क्या क्या हार गया ? जुआ खेलते पावडी हार गया, दंतार तक मैं तो हारा... जुआ खेलते क्या क्या हार गया ? जुआ खेलते हफ्ता हार गया, चुकता करना भी मैं तो हारा... जुआ कोई खेलना नहीं !)
किसी समय भयानक भूकंप के कारण उभर कर जमा हुए कीचड वाला समुद्र तल अगरियाओं की भूमि है. वे खुद को ऐसी भूमि के राजा मानते हैं - 'अगरिया से रणना राजा / मेहनतमां रये ना पाछा...' ( अगरिया मरु स्थल के राजवी हैं, महेनत करने में वे पीछे नहीं रहते... ), पर यह राजा जब बाहर के - व्यवहार के जगत में जाते होगे, तब उन्हें कितने ही कदम पर पीछे खिसक जाना पड़ता होगा, हम तो कल्पना भी नहीं कर सकते. ऐसी ही कोई विपत्ति का थोड़ा-बहुत ख्याल उनके इस प्रकार के गीतों में देखने को मिलता हैं :
हुं तो खोटो रूपियो लैने रे
रेंगणा लेवा हाली, लेवा हाली
में तो रूपियो फेंइको हाटे रे
रेंगणा लैने वळी, लैने वळी
आवी आवी रे वालुडानी हाटी रे
रेंगणां ढोळी दीआं, दीआं
मारो नानो दियरियो साथे रे
रेंगणां वेणी लीधां, वेणी लीधां
आयां आयां रे सरकारी तेडां
दियरियाने हेरी लीधो, हेरी लीधो
मारां पग केरां कडलां आलुं
दियरियाने छोडी मेलो, छोडी मेलो
तारां कडलां जाशे डूली
दियरियो नैं रे छूटे, नैं रे छूटे
हुं तो खोटो रूपियो लैने रे
रेंगणां लेवा हाली, लेवा हाली
(मैं तो नकली रूपिया लेकर, बेंगन लेने चली. मैंने रुपया फेंका हाट बाजार में, बेंगन ले के लौटी... आई आई वालुडा की हाट, बेंगन गिरा दिए. मेरा छोटा देवर साथ था, बेंगन चुन लिए... आया आया सरकार का बुलावा, देवर को पकड़ लिया. मेरे पाँव के तोड़े दे दूँ, देवर को छोड़ दो... तेरे तोड़े जाएंगे डूब, देवर नहीं छूटेंगा... मैं तो नकली रुपया लेकर, बेंगन लेने चली.)
इस समुदाय में बचपन के लिए बहुत सारे प्रश्न हैं. आठ महीना उजाड़ रेगिस्तान में पलता बचपन मन को मार मार के जीता है. शिक्षा का तो प्रश्न मुँह फाड़े खड़ा ही है, साथ ही बच्चों के स्वास्थ्य और भविष्य संबंधी कई सारी बातें चिन्ता का विषय है. दुःख के तूफ़ान से घिरा, अथक श्रम से जूझता यहाँ का बचपन. उसके नसीब में खुशी कैसे हो सकती है ? इस तरह के अभाव की वेदना झेलती एक बच्ची की व्यथा प्रकट करता यह गीत प्रचलित है. जिसमें बच्ची को रेशमी रूमाल चाहिए, पर माँ अपना असामर्थ्य बताती है और रूमाल की जीद छोड़ देने के लिए बच्ची को समझाती है :
ऊगमणी धरतीनो वेपारी आव्यो
लाव्यो कांई रेशमिया रोमाल
माड़ी, मारे रोमाल लेवो
दीकरी, मेली दे रढ रोमालियानी
तुं सो गरीब घरनुं सोरुं
रोमाल तने शीनो लई आलुं...
ओयडो वेसो माड़ी, ओशरी य वेसो
वेसो माड़ी, आपणां घरनो वाडो... माड़ी, मारे...
दीकरी, घरमां नथी शेर बंटी
ने दळवा नथी घंटी... रोमाल तने...
कोठलो वेसो मा, डामचियो वेसो
माडी, वेसो ने रंगत मांची... माड़ी, मारे...
दाडी-दपाडी, ने रोज मजूरी
रोजनुं रळी रळी खावुं
दीकरी, मेली दे तुं रढ तारी... रोमाल तने...
(पूरब का ब्यापारी आया है, वह लाया है रेशमी रूमाल, माँ ! मैं तो रूमाल लूंगी... बेटी ! रूमाल की जिद्द छोड़ दे, तू गरीब घर की लड़की है, रूमाल तुझे कैसे दिलाऊँ?... कमरा बेच दो माँ, बरामदा भी बेच दो, बेच दो हमारे घर का बाड़ा, माँ ! मैं तो रूमाल लूंगी... बेटी ! घर में नहीं सेर धान, और पीसने के लिए नहीं चक्की, रूमाल तुझे कैसे दिलाऊँ ?.... कोठार बेच दो माँ ! बिस्तरे की घोड़ी बेच दो, बेच दो रंगीन मचिया, मैं तो रूमाल लूंगी... रोज की दिहाड़ी और रोज की मजदूरी, रोज का कमा कर खाना है हमें, बेटी ! छोड़ दे जिद्द रूमाल की... )
अगरिया समुदाय में बगला-बगली के संवाद का एक गीत प्रचलित है. जिसमें उनके हृदयों में बहुत गहरे दबी हुई, मुख्यधारा के जीवन में मिल जाने की आशा, अभिव्यक्त होती है :
ओल्यो दरियो दोटादोट रे
बगलो पूसे बगलड़ी
तुं च्यांचणे र्यो’तो रात रे
बगलो पूसे बगलड़ी रे
मारे गामना पटलनी भईबंधी
मारे पटलपणुं लेवुं से
बगलो पूसे बगलड़ी रे
मारे गामना मुखीनी भईबंधी
मारे मुखीपणुं लेवुं से
बगलो पूसे बगलड़ी रे
मारे गामना सरपंचनी भईबंधी
मारे सरपंचपणुं लेवुं से
बगलो पूसे बगलड़ी रे
ओल्यो दरियो दोटादोट रे
बगलो पूसे बगलड़ी
(वह समंदर दौड़ता जा रहा है, बगले से बगली पूछ रही है, तू रात कहाँ पर ठहरा था ?... मेरी गाँव के पटेल से भाईबंदी है, मुझे गाँव का पटेल होना है... मेरी गाँव के मुखिया से भाईबंदी है, मुझे गाँव का मुखिया होना है... मेरी गाँव के सरपंच से भाईबंदी है, मुझे गाँव का सरपंच होना है...)
आठ आठ महीना अथक महेनत के बाद जब नमक तैयार हो जाता है तब उसे गाड़ियों में लादते वक्त मजदूरी काम करने वाले अगरिया, श्रम में उत्साह लाने, गीत गाते हैं. ऐसा एक गीत देखें :
रणना कांठे लीलुड़ी लीमडी रे
लीमड़ीनां लीलां-पीळां पांद रे
जीवणजी ठाकोर, धीमी रे हांको तमारी गाडियुं
रणना कांठे लीलुड़ी लीमड़ी रे...
सो-सो मजूर वीराने सामटा
टोपलिया करे दोडादोड रे
जीवणजी ठाकोर, धीमी रे हांको तमारी गाडियुं
रणना कांठे लीलुड़ी लीमड़ी रे...
द्हाडो रे ऊयगो, ने द्हाडो आथम्यो
मजूर तो जुवे तमारी वाट रे
जीवणजी ठाकोर, हाजरी रे वेळाए वे'ला आवजो
रणना कांठे लीलुड़ी लीमड़ी रे...
शेठ रे जीवणभाई तमने वीनवुं
सरखी पूरजो अमारी हाजरी
जीवणजी ठाकोर, हाजरी रे वेळाए वे'ला आवजो
रणना कांठे लीलुड़ी लीमड़ी रे...
(रेगिस्तान के छोर पर नीम का हरा पेड़ आया हुआ है, नीम के हरे और पीले पत्ते, जीवणजी ठाकोर (8) ! धीरे से चलाओ आपकी गाड़ियां... सौ सौ मजदूर भैया को मिले हैं एकसाथ, टोपलिया (9) करते दौड़धूप, जीवणजी ठाकोर ! धीरे से चलाओ आपकी गाड़ियां... दिन उगते और दिन ढलते हैं, मजदूर तो तकते रहते आपकी राह, जीवणजी ठाकोर ! हाजरी के वक्त जल्दी से आ जाना... शेठ जीवणभाई, आपको बिनती हम करते हैं, ठीक से लेना हमारी हाजरी, जीवणजी ठाकोर ! हाजरी के वक्त जल्दी से आ जाना...)
मजदूरी चुकाने वाले कारकुन जैसे लोगों पर आधारित, नमक के मजदूरों की विवशता का एक चित्र इस गीत में प्रतिबिंबित होता है.
जगत को स्वादिष्ट भोजन देने के लिए, बिना किसी सुख की अपेक्षा के, बहुत ही क्रूर तरह से अपने अस्तित्व को नष्ट कर देने वाले इन अगरियाओं को पागल मानें कि गुलामी की अदृश्य बेड़ियों से बंधे कैदी ? पर, हँसी-मजाक के समय में अगरिया स्त्रियाँ तो इसे पागलपन मानकर ही गीत गाती हैं :
रणमां कूइयुं गाळता रे
घेलडिया रे अगरिया
पाटामां पगली पाडता रे
घेलडिया रे अगरिया
कूईमां टांपा खींचता रे
घेलडिया रे अगरिया
पाटे दंतारो खींचता रे
घेलडिया रे अगरिया
पाटामां पाळा वाळता रे
घेलडिया रे अगरिया
पारेवे हंदेहो मोकलावता रे
घेलडिया रे अगरिया
हो घेला रे अगरिया...
(मरुस्थल में कूइयाँ खोदते, पागल अगरिया... पट्टे (10) में पगली (11) दबाते, पागल अगरिया... कूई में टांपा खींचते, पागल अगरिया... पट्टे पर दंतारा खींचते, पागल अगरिया... पट्टे में पाला (12) खड़े करते, पागल अगरिया... पंछी के साथ संदेश भेजते, पागल अगरिया)
कदम कदम पर, जीवन को बचाए रखने के लिए शोषण आश्रित व्यवस्था में मानव सर्जित और कुदरत सर्जित विषमताओं से जूझते इन मनुष्यों को, एकदम नजदीक से देखें तो हमें हमारे मनुष्य होने के प्रति प्रश्न हो जाए ऐसा सम्भव है, और ऐसा भी सवाल हमारे सामने आ सकता है कि जिनका नमक खाया है उनको हम वफादार रहे हैं क्या ?
अगरिया से मुलाकात और बातचीत के लिए गुजरात के लोकविद्याविद् और इतिहासविद् अरविंद आचार्य (वढवाण, गुजरात) निमित्त बने. और गीत प्राप्त करने में अरविंद आचार्य तथा अंबूभाई पटेल का सहयोग रहा है. इन दोनों स्नेहीजनों तथा खाराघोडा (ता. पाटडी, जि. सुरेन्द्रनगर, गुज.) के अगरिया मित्रों से ये गीत मिले हैं. इस पूरे आकलन के लिए सभी का हार्दिक ऋणस्वीकार.
_________________________________
* सन्दर्भ नोट :
(1) नमक के लिए नमकीन पानी (ब्राइन) पाने 60 से 80 फूट गहरा खड्डा खोदा जाता है उसे कूई कहते हैं, अब डंकी भी करते हैं (2) अगर के आसपास पत्थर का पाला करते हैं, उसे रस्सी से बांधकर जो आधार रखा जाता है उसे ‘टांपा’ कहा जाता है (3) फावड़ा (4) करकच नमक (5) पाँचा (6) सुरेन्द्रनगर जिले का, मरुस्थल के किनारे का तालुका (7) पानी खींचने का डीज़ल इन्जिन (8) व्यक्तिनाम (9) टोपला [तसले] उठाने वाले मजदूर (10) नमक पकाने चौकस लम्बाई-चौड़ाई 40 X 40 का पाल बांधा हुआ विस्तार ‘पाटा’ (पट्टा), एक से ज्यादा पट्टों को अगर कहते हैं (11) पट्टे की जमीन या सतह समथल और मजबूत करने के लिए पाँव के दबाव से की जाती क्रिया (१२) अगर के आसपास रक्षा के लिए पत्थर के पाले किये जाते हैं.
सन्दर्भ पुस्तक :
* Salt : Tecnology and Manufacture by Kapilram H. Vakil,
Pub. Dhrangadhra State (Gujarat). 1924.
* मीठा उद्योग : समस्याओ अने उकेल (रिपोर्ट) - अरविन्द आचार्य
* खारापाटना मायाळुं मानवी : मीठा उद्योगना भावि विकासनी रूपरेखा - अरविन्द आचार्य,
प्रका. राजेश आचार्य, वढवाण शहेर (गुजरात). 1984.
●