रंग कई दर्द एक...!!!


आया है हमारे हिस्से
(हाशिए के धरातल से कुछ कविताएं)
बिना बाड़ का खेत
                                       (गुजराती कविता)                                                                                                               
                              लक्ष्मण परमार
अनुवाद : पारुल सिंह  
भाई, 
मेरा देश 
मतलब बिना बाड़ का खेत
 उसकी चारों ओर  घास बनकर ऊगते हैँ 
पक्षों के वचन अब तो रिश्वत 
और सिफारिशों की झंखाड़ फूट पड़ी है 
भ्रष्टाचार की बालियों पर सिफारिश के दाने पक गये हैं
बिजूका चूपचाप देखा करता है 
वह भी चोर बन गया है 
क्या ? 
उस गांधी की प्रतिमा की तरह स्तब्ध बनकर खड़ा है 
वह उस पर उड़ते हैं
शोषण के पक्षी 
मेरे बैल के मुँह 
पर मुसीका बँधा है 
अब कटाई का समय  गया है
चल भाई चल 
मेहनतकशों को जोतकर काट देते हैं...

स्थिरता
(पंजाबी कविता)
सिमरजीत सिमी
अनुवाद : फारूक शाह

यूं उदास न हो
एरे मन के मीत !
ढह जाएगी
ये जात-पांत की दीवारें
उखड जाएगी जड़ से

तू खुश हो कि हमें
हटाना है मंजिल के रास्तों से
काँटों को
मिटाना है जीवन के पन्नों से
कुप्रथाओं को

वो सब करना
आया है हमारे हिस्से
फिर यह उदासी क्यों ?
हमें उदासी नहीं
जरूरत है स्थिरता की

किसान
(कन्नड कविता)
महादेवी कणवी

युगों युगों की
शृंखलाओं से बंधा हुआ
कर्ज़ की बेड़ियों से जकड़ा हुआ
मौत के मुँह में पड़ता
मालिक को पालकर मरता
देश का प्राण
यह किसान...

जली हुई भावनाओं में
सूखी हुई इच्छाओं में
मरे हुए सपनों में
मरघट बना हुआ
कौर के लिए तरसता
दूसरों के पेट भरने वाला
देश का प्राण
यह किसान...

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(* कवयित्री द्वारा अनूदित )
अपनी मिट्टी
(मलयालम कविता)
के. के. एस. दास
अनुवाद : गीता एन. पी.


नरक की छाती फाड़कर
एक चिनगारी – कंटीले पौधे के फूल
फेंक देता हूँ
अपने बपौती धर्मशास्त्रों के सर पर
पीढ़ियों के सीमा–पत्थरों को तोड़
पितृभूमि के ह्रदय में
मैं जन्म लेता हूँ
आर्य भारत के भी पार
अनार्य गोत्रजों का अहुरा मकान –

उस मिट्टी पर खड़ा हूँ
जहां से आदिम गोत्रजों का
घरौंदा छीना गया था

मुस्कराती खोपड़ियों
बोलती हड्डियों के साथ
सह गोत्रजों के कारागार की और
भाग जाता हूँ मैं
चोट चोटों को चूमती हैं
जंजीरों के दागों का बसन्त
‘पाण’1 के पुराने गीतों में
खेतों के पुले 2 गीतों में
महरों की कहावतों में
समूह नर्तन करता है

कालकूट पी जिन्होंने काल को जीता है
उनकी कविता बिजली की है
एक ही जनता
एक ही राष्ट्र
एक ही राष्ट्रीयता
जातिहीन जातियाँ
वेदहीन मानवों !
अनात्म समर्पित मृत्यु
स्वतंत्रता का संस्कार है

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1.  केरल की गायक जाति – धुनिया
2.  एक अनुसूचित जाति


चुप हो जा
(उर्दू कविता)
शकील क़ादरी


चुप हो जा, तू चुप हो जा, तू चुप हो जा !
तू लाल है किसका ? चुप हो जा, तू चुप हो जा !

आग के शोले बात बताते है सच्ची
परियों वाले देश सिधारी है अम्मी
कौन सुनाए तुझको लोरी, चुप हो जा... सो... जा...

बाबा तेरे पूरा हफ़्ता जागे थे
लेकिन अब वो गहेरी नींद में सोए हैं
सोए हैं वो नींद में गहेरी, चुप हो जा, सो... जा...

हाथ में उनके महेंदी रची और ना हल्दी
वक़्त से पहले बहनों ने भी रुख्सत ली
देख डगर है सूनी सूनी, चुप हो जा, सो... जा...

कल तू जवाँ होकर सब बीती बातें जाने
तेरे बिछड़े भाई कहीं तुझको मिल जाए
रात भी है आँसू में डूबी, चुप हो जा, सो... जा...

डूबा सूरज अगले दिन फिर निकलेगा
चंदा मामा सामने तेरे हंस देगा
थोड़ी रात रही है बाक़ी, चुप हो जा, सो... जा...

चुप हो जा, तू चुप हो जा, तू चुप हो जा !
तू लाल है किसका ? चुप हो जा, तू चुप हो जा !

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(* फसादात में सभी रिश्तेदार गँवा बैठने वाले बच्चे के लिये लोरी )
बुधिया के नाम 
    (गुजराती कविता ) 
    किसन सोसा 
   
अनुवाद :  फारूक शाह

बुधिया 1 दौड़ रहा है 
आधी चड्ढ़ी पहने 
फटे हुए तलुओं के साथ 
ज़िन्दगी की लम्बी... काली... सड़क पर... 
ठंड धूप बरसात में 
शहरों कस्बों 
गांवों गलियों में 
धीरे धीरे कटता हुआ 
'
चन्द्रनहींरोटी तक पहुंचनेपहुँचने के लिए 
रोज की आपाधापी से भरी 
लगातार दौड़ 
बुधिया दौड़ रहा है 
बहुत पीछे छूट जाते हैं 
स्कूल 
   
खेलकूद 
    
फूल... 
पंसुलियों के पिंजरे में हांफता 
तड़फड़ाता रेत कंकर में 
बीडी बनाते हुए 
कप-रकाबी धोते हुए
हमाली करते हुए
स्टेशन… बाज़ार… रेगिस्तान में भटकते हुए  
तिखारे तिखारे सुलगताबिखरताछिलता... 
ज़िन्दगी की शिवाकाशी में 
बुधिया दौड़ रहा है 

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1.     उड़िसा में  चारपाँच साल के बच्चे बुधिया ने 60 ने कि.मिकी
मैरेथोन दौड़ में विक्रम स्थापित किया. – एक समाचार. 

 

इको फ्रेंडली हस्तनिर्मित कागज बेचती लड़कियाँ
(हिन्दी कविता)
रंजना जायसवाल

कपड़ों की बेकार कतरनों से बना है
बिलकुल प्रदूषण-मुक्त
और सस्ता भी है यह कागज, मैडम !


बहुत मेहनत से बनाती हैं
हमारी गरीब माएं इसे
यह हमारी दाल-रोटी है
लुग्गा-कपड़ा है, मैडम !
इस पर लिखेगा आपका बच्चा
पढ़-लिखकर बड़ा आदमी बनेगा
हम तो पढ़-लिख नहीं पाए, मैडम !

मुँह अँधेरे ही निकलना पड़ता है बोरा लेकर
बदबूदार कचरे के ढेर से चुनने
कपड़ों की चिन्दियाँ
गिड़गिड़ाना पड़ता है कंजूस दर्जियों के आगे
सहना पड़ता है कईयों के अश्लील ईशारे
इन्हीं सब में निकल जाता है पूरा दिन

घर पर झाडू-पोंछा,बर्तन-भांडी
पकाना-खिलाना भी तो करना पड़ता है, मैडम !
कब जाएँ स्कूल
कैसे बनें ‘भारत की बेटी’ ?
पढ़ाई जरूरी है समझती हैं हम भी
पर रोटी से भी क्या ज्यादा जरूरी है, मैडम ?



·     रचनाओं के लिए सौजन्य : फारूक शाह

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