इधर और उधर के बीच



संपादकीय से...!
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प्रेम भारद्वाज !
 
तुम्हारा लेबनान एक राजनैतिक गुत्थी है, जिसको सुलझाने में सारा संसार लगा है। ऐसी हुकूमत है जिसमें बेहिसाब अमीर भरे हुए हैं। लेकिन मेरा लेबनान नाम है एक दूरदर्शी चिंतन, धधकती भावनाओं का। एक जुनून और उस युवक का जो पहाड़ की तरह सीना ताने खड़ा है।
 
उनकी आँखों में सपना आज तब भी तैर रहा है जब बाजार की खौलती कड़ाही में सपने सुविधाओं की पकौड़ी बनकर प्लेट में सजे हैं। जमाने का रुख मोड़ने का माद्दा, लड़ने का किसी यो(ा सरीखा जज्बा और जोश। जबकि वह उम्र के अंतिम पड़ाव पर हैं-अपनी कई असाध्य बीमारियों के साथ। मगर महपफूज है सच कहने का दुर्लभ साहस। वे खरी-खरी कहते हैं। मगर कबीर नहीं। भीतर उबलता गुस्सा है मगर परशुराम, दुर्वासा नहीं। बहुत कम लिखकर ज्यादा नाम कमाया है लेकिन गुलेरी नहीं। उसकी नाल एक छोटे शहर में गड़ी है। लेकिन बड़े शहर में महंत उनको हाशिए पर नहीं धकेल पाये। मंदिर में किसी बेजान मूर्ति के आगे उन्होंने हाथ नहीं जोड़े, किसी मस्जिद या जिंदा हस्तियों के दरगाह में सिजदा नहीं किया। अब उन्हें कोई नास्तिक या कापिफर कहे तो अपनी बला से। परवाह नहीं। 'देवता' नाराज हो जाए तो भी कोई गम नहीं। वह 'भक्त' नहीं है, किसी देवता या संप्रदाय के। सत्ता नहीं चाहिए। साम्राज्य की कोई आकांक्षा नहीं। लेकिन लड़ाई जारी है-उन तमाम चीज के प्रति ललकार जो मनुष्य और समाज विरोधी है। वह ऐसा शख्स है जो अपने पात्राों के बीच छुपकर साहित्य की दिशा को मोड़ देता है। वह आयोजन करता है। लेकिन मंच पर नहीं दिखाई देता। नेपथ्य का नायक है वह। चिराग रोशन कर खुद अंधेरे में गड़प। वह न देवता है-न दानव। एक अदद इंसान-अपनी सामर्थ्य और सीमा के साथ। खूबियों और खामियों को कंधे पर लादे वह किसी 'जोगी' का भरम पैदा करता है। उसके दोस्त तक दावा नहीं कर पाते कि जिस शख्स के साथ वे पिछले कई दशकों से रहते आए हैं आखिर में है क्या? दुश्मन भी उसे पूरी तरह से नहीं जान पाते। ऐसे में हमारी क्या बिसात कि उन्हें जाने-समझे? सुनते है वे जिद्दी हैं, बेचैन और गुस्सैल भी। मगर संवेदना-सरोकार के सारथी। क्यों न इन्हीं 'टूल्स' के सहारे उसके व्यक्तित्व और कृतित्व के अभेद किले में सेंधमारी कर, भीतर दाखिल हो, यह देखने की कोशिश की जाए कि वहाँ आखिर है क्या? क्या बला है यह 'शख्स' जिसे लोग ज्ञानरंजन कहते हैं और जो पिछले ४० सालों से जबलपुर जैसे छोटे शहर में चिमटा गाड़कर धुनी रमाए बैठे हैं। पता नहीं किसी उद्भट विद्वान ने यह लिखा है या नहीं कि बहुत गंभीर बातें कई बार हल्के ढंग से भी कही जानी चाहिए। इसे कई लोगों ने अपनाया है। कबीर, भवानी प्रसाद मिश्र से लेकर अदम गोंडवी तक इसी तरह हल्के ढंग से गंभीर बातें कहते रहे हैं। चार्ली चैपलिन इसके लोकप्रिय उदाहरण हैं। ज्ञानरंजन की एक खासियत उनका आक्रोश है। यह आक्रोश उनकी कहानियों के पात्राों में भी दिखाई देता है। इन पंक्तियों के लिखते-लिखते सहसा सत्तर दशक के एंग्रीयंगमैन अमिताभ याद आ जाते हैं। कुछ समानताएँ तो बहुत सी असमानताएँ हैं दोनों दिग्गजों में। पिफल्म को हेय मानने वाले कुछ शु(तावादियों के लिए यह तुलना असहज लग सकती है। लेकिन किसी चीज को अलग बड़े कैनवास में देखने में बुराई क्या है? मुझे इस तुलना के लिए मापफ किया जाए, अगर किया जा सकता है तो। वह आंदोलनों के उभरने का दौर था। सत्ता-व्यवस्था के प्रति जनता में नाराजगी थी। दोनों ने ही उस नाराजगी को अपने ढंग से अभिव्यक्त किया। सुधीश पचौरी ने तो केवल स्टारडम के चलते नामवर सिंह को हिन्दी साहित्य का अमिताभ बच्चन कह डाला। मगर ज्ञानरंजन ज्यादा करीब मालूम होते हैं अमिताभ के। बचकानी अंदाज में कहा जाए तो इस प्रकार। दोनों के पिता कवि थे। छायावादी या छायावादोत्तर। दोनों का संबंध इलाहाबाद से। दोनों ने संद्घर्ष के दिनों में ही प्रेम किया और प्रेमिका से विवाह भी। लेकिन जो रेखांकित करने योग्य समानता है वह इनके पात्राों के भीतर का आक्रोश। जमाने से नाराजगी। जो मौजूदा दौर में गलत हो रहा है उसका प्रतिकार। पफर्क यह है कि एंग्रीयंगमैन अमिताभ बच्चन की पिफल्मों के पात्रा के सामने शत्राु का चेहरा सापफ था। ऐसे में उसके लिए मारना और लड़ना आसान था। ज्ञानरंजन के पात्राों के सामने शत्राु का चेहरा स्पष्ट नहीं है। शत्राु एक वर्ग में तब्दील हो गया है-शत्राु वर्ग। एक अदना सा आदमी लड़े तो कैसे और किससे? वह एक शीश महल है जहाँ चारों तरपफ लगे शीशों में शत्राु दिखाई दे रहे हैं।घ्प्रतिबिंबों का माया जाल। कौन असली है, कौन नकली। समझना मुश्किल। असली शत्राु कहाँ छिपा है? इसे पता लगाने को नायक बेचैन है। वह पत्थर तो उछालता है मगर शत्राु चालाक है। उसने खुद को छिपा लिया है। वैसे भी पिफल्म और जीवन में बड़ा पफर्क होता है। एक और बात ध्यान देने वाली है कि अमिताभ अपनी शुरुआती पिफल्मों में एंग्रीयंगमैन बनकर नहीं आये। दस पिफल्मों के बाद उनकी यह छवि बनी। ज्ञानरंजन की भी प्रारंभिक कहानियों में आक्रोश, नपफरत और द्घृणा नहीं है। वह बाद में आया जो 'द्घंटा' 'बहिर्गमन' में दिखाई दिया। लेकिन असल जीवन में अमिताभ एंग्रीमैन नहीं। अलबत्ता एक चतुर व्यक्ति हैं। लेकिन ज्ञानरंजन जो लेखन में हैं, वही जीवन में भी। उतना ही बेचैन, नाराज। आक्रोश से भरे। खरी-खरी कहने वाले। जमाने से दो-दो हाथ करते हुए। ज्ञानरंजन की कहानियों का नायक पिफल्मों की तरह हीरोशिप लिए नहीं है। काव्यशास्त्रा पर खरा उतरने वाला धीरोदत्त नायक भी नहीं। तमाम कहानियों में एक ही व्यक्ति के भिन्न भिन्न रूप हैं-अलग-अलग स्थितियों, हालातों, संबंधों में। ज्ञानरंजन के पात्रा हमारे भीतर कल भी थे, आज भी हैं। भविष्य में भी रहेंगे। उसी तरह बेचैन। आक्रोश से लबरेज। छटपटाहट से भरे। मिसपिफट। नायकत्व विहीन। वे अपने समय के सांचों को न कल तोड़ पा रहे थे, न आज तोड़ पा रहे हैं। रास्ता उनको न कल मिल पा रहा था। न आज मिल पा रहा है। यही यथार्थ है। हर जमाने का सच। बाकी आप विकास के काल्पनिक रथ पर सवार होकर कुछ भी बोल दीजिए। चलिए देखते हैं ऐसा क्या है ज्ञानरंजन की कहानियों में जिसने उनको अपने दौर में अग्रणी तो बनाया ही, आज भी उनकी प्रासंगिकता बनी हुई है। उनकी कहानियों का प्राणतत्व क्या है? बानगी के तौर पर उनकी कुछ चर्चित कहानियों को ही लिया जाए। 'संबंध' दो भाइयों की कहानी है-बीच में है माँ। ये भाई 'राम और श्याम' की जोड़ी नहीं है। न ही 'भाई हो तो ऐसा' वाली ठाठे मारती भावुकता। न ही 'दीवार' सरीखी-'मेरे पास मां है' जैसी रुमानियत। यहाँ यथार्थ की वह सख्त चट्टान है जिससे टकराकर भावुकता दम तोड़ देती है। याद कीजिए प्रेमचंद की 'कपफन' कहानी। भावुकता की छाती पर क्रूर सच्चाई की गड़ी कील। उसकी अगली कड़ी कह सकते हैं 'संबंध' कहानी को। नायक की हालात और मानसिकता इन शब्दों में बयान होती है-''मैं अपने भाई के बारे में यह सोचने के लिए मजबूर हो गया हूँ। उस बेचारे को मर ही जाना चाहिए... वह आत्महत्या कर ले और एक बहुत ही द्घिसटती हुए निर्मम समस्या का अंत हो जाए... अगर वह मर गया तो सब कुछ कितना ढीला और सुखद हो जाएगा... मुमकिन है आज मुझे अमानवीय और क्रूर समझ रहे हों तो यह भी मुमकिन है कि मैं आपको मूर्ख समझूं' निश्चित तौर पर यह एक भयावह स्थिति है। मगर है तो हमारे समय समाज की स्थिति। भाई के मर जाने की कल्पना करने की मजबूरी। संबंध, मौत और मजबूरी। इस त्रिाकोण का एक चौथा कोण भी है। वह है हमारे सत्ता-व्यवस्था का कोण। ऐसी व्यवस्था क्यों है कि एक बेचारगी से दबे व्यक्ति के लिए आत्महत्या ही एक मात्रा विकल्प बचता है। यह आत्महत्या एक हिंसा में तब्दील हो जाती है। सत्ता-व्यवस्था द्वारा जारी हत्या। विदर्भ में किसानों की आत्महत्या को इसी संदर्भ में देखे जाने की जरूरत है-वहाँ लाखों किसानों की आत्महत्या असल में सत्ता-व्यवस्था द्वारा जारी हत्या ही है। मतलब सापफ है पचास साल बाद भी हालात बदले नहीं हैं। यानी अब भी किसी समस्या का अंतिम समाधान है आत्महत्या। अपनी एक बेहद छोटी कहानी 'आत्महत्या' में ज्ञानरंजन इसे ज्यादा स्पष्ट करते हैं-'उसे अनुभव हुआ कि उसका दुख भयंकर है और द्घनीभूत होता जा रहा है। इस संसार में उसका कोई नहीं है और उसे मर जाना चाहिए क्योंकि वह बुरी तरह असपफल हो गया है... भ्रम और टूट गया है... उसका मर जाना ठीक है क्योंकि कोई उसे इस संसार का अत्यधिक पीड़ित व्यक्ति मानने के लिए तैयार नहीं होता। सब उसकी उपेक्षा करते हैं।' अगर किसी लोकतांत्रिाक देश में कोई व्यक्ति ऐसा सोचता है तो क्या उस देश और समाज को धिक्कार नहीं है? लेकिन धिक्कार नहीं है क्योंकि समाज की सोच इस प्रकार की बनती जा रही है-'जुड़ोगे तो भोगोगे। लोगों को पहचानने में अपना वक्त व्यर्थ जाया न करो।' केवल अपना काम करो। यानी सेल्पफ सेंटर्ड बनना। स्वार्थी होना इस समय समाज का चलन है। 'यात्राा' कहानी मृत्यु को एक अलग नजरिये से देखने- समझने की कोशिश मालूम पड़ती है। 'संबंध' कहानी की तरह इस कहानी का नायक अपनी माँ की मृत्यु की खबर से विचलित नहीं होता? उनकी मनःस्थिति सामान्य बनी रहती। संवेदना और यथार्थ का द्वंद्व। पनाह मांगती है भावुकता। सिर उठाती हकीकत। इन कहानी पर कुछ लोगों को दोस्तोवयस्की का प्रभाव या कामू की कहानी 'आउटसाइडर' की याद दिलाती है। लेकिन यह असल में बदल रहे भारतीय समाज का एक ऐसा आईना है जिसमें आज भी कोई व्यक्ति खुद का चेहरा देख सकता है-उसके भीतर कितनी संवेदना और कितना पाखंड। जड़ों से दूर जाने। लालसाओं के अनंत आकाश में उड़ने की आकांक्षा साठ-सत्तर के दशक में कम थी, इन दिनों वह खूब परवान चढ़ रही है। 'बर्हिगमन', जड़ों से कटने और महत्वाकांक्षाओं, सुविधाओं के रेगिस्तान में भटकने की कहानी है। जमीन से दूर होने की कथा। गाँव से कस्बे। कस्बे से महानगर। महानगर से विदेश। और उसके बाद... पता नहीं, इसे वे लोग बेहतर ढंग से बता सकते हैं जो इस तरह की छलांगें मारते हैं... इस बदलाव का जवाब इसके लेखक ज्ञानरंजन कतई नहीं दे सकते क्योंकि वे भी इलाहाबाद से जबलपुर आए तो यहीं होकर रह गए। राजधानी दिल्ली या बगल का शहर नागपुर का आकर्षण भी उन्हें टस से मस नहीं कर सका। 'द्घंटा' 'पिता' और 'पफेंस के इधर और उधर' आज के दौर में ज्यादा प्रासंगिक है और ये खुद ज्ञानरंजन के व्यक्तित्व के बेहद करीब हैं। 'द्घंटा' में 'मैं' कुंदन सरकार का बिस्तर-चादर यानी द्घंटा होते हुए भी पेट्रोला में द्घुसपैठ को नकार कर विद्रोह का साहस दिखा रहा है-'मैं' कुंदन सरकार का द्घंटा हो जाने की वजह से दुखी था। मैं अपने को पफुसला रहा था, बेवकूपफ बना रहा था। मैंने निर्णय किया कि जल्दी ही निकाला जाए न उगला जाए वाली स्थिति को तमाम कर देना है।'' कथा नायक में कुछ गैरत बची थी जो वह सहूलियतों-सुविधाओं को छोड़ देता है। आज के जमाने में सुविधाओं के लिए हर कोई द्घंटा बनने को तत्पर है। गली नुक्कड़ों-चौराहों पर खड़े लोगों का हुजूम जैसे आवाजें दे रहा है-'आओ हमें अपना द्घंटा बना लो।' बिकने-बिकाने के इस बाजारू दौर में 'द्घंटा' बनना प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया है। सियासत और साहित्य तो इसका सबसे सटीक उदाहरण है जहाँ अक्सर शिखर की सीढ़ियाँ द्घंटा बनकर ही तय की जाती हैं। 'पफेंस के इधर और उधर' और 'पिता' में कंट्रास्ट है। 'पफेंस के इधर और उधर' बदल रहे जमाने की त्राासदी है। जमाना बदल रहा है। बहुत तेजी के साथ। उधर बड़े और छद्म लोग इधर छोटे और सच्चे लोग। उधर इंडिया। इधर भारत। उधर महंत। इधर संत। उधर सुविधा। इधर संद्घर्ष। संवेदना। उधर दिल्ली। इधर जबलपुर। 'तुमको मुबारक हो महल अटारी, हमको प्यारी है हमारी गलियां' वाला अंदाज। उधर मशीन। इधर दिल। ये अब आपको तय करना है आप पफेंस के इधर रहना पसंद करते हैं या उधर। दो परंपराएँ भारत में बहुत पुरानी है। एक राणाप्रताप की, दूसरा मानसिंह की। राणाप्रताप को संद्घर्ष करना पड़ा-द्घास की रोटियां तक खानी पड़ी। मानसिंह ने वक्त की नजाकत को समझते हुए सत्ता से समझौता कर लिया। संद्घर्ष का रास्ता हमेशा ही कठिन रहा है-आत्मद्घाती, पागलपन भरा। कबीर, द्घनानंद, निराला, उग्र, भुवनेश्वर इसी राह के राही हैं जिन्हें पागल तक समझा गया? आज उन्हें पफूल चढ़ाए जा रहे हैं यह दूसरी बात है, लेकिन बेरहम सच्चाई यह है कि अपने जीवन काल में उन्हें स्वीकृति नहीं मिली। अब बात लेखन नहीं, लेखक की। अपनी कहानियों के पात्राों, विचारों, शब्दों के बीच झांकते ज्ञानरंजन केवल नाम भर नहीं है। एक समुच्चय है कई भावों, चरित्राों और विचारों का। सबसे पहली बात तो यह कि अपनी कहानियों के पात्रा 'मैं' और 'वह' से बहुत अलग नहीं है। वे नेमिचंद जैन के अनुसार 'ज्ञान की कहानियों का संसार बड़ा ही डरावना है।' खुद ज्ञानरंजन की दुनिया बहुत संवेदनशील और सरोकार से भरी है जो एक नए ढंग की संद्घर्षशील सुंदरता को रचती थी। आरंभ में उन पर बेटनीक आंदोलन का प्रभाव रहा होगा। लेकिन अपनी राह उन्होंने खुद बनाई। सबसे पहले यह बात सापफ हो जानी चाहिए कि उनके व्यक्तित्व के प्रमुख अवयव क्या हैं? मेरी तंग समझ के मुताबिक, सच्चाई, विरोध, संवेदना, प्रेम, सरोकार और आक्रोश वे तत्व हैं जिनके रसायन से उनका वजूना बना है। लीक तोड़कर चलने वाले लेखक उनके प्रिय रहे। लिहाजा उन्होंने भी लीक को तोड़ा। लेखन और संपादन में। वार्गसां का कथन हम गति के भ्रम में स्थिर बिंदुओं को ही याद करते हैं। ज्ञानरंजन किसी भ्रम में नहीं रहे। कोई मुगालता नहीं पाला। आठ नंबर प्लेटपफार्म बनना ही मंजूर किया। जो दूर होता है। जहाँ मामूली लोगों के लिए उपेक्षित गाड़ियां आती हैं। वहाँ का यात्राी भी मामूली, गरीब और हाशिये के। ऐसा नहीं वे छलांग लगाकर प्लेटपफार्म आठ से पहले नंबर तक नहीं जा सकते थे। पुल से गुजरकर वहाँ पहुँचने का रास्ता भी उन्हें मालूम था। मगर बात वही है-'उधौ, मन माने की बात।' वे अपनी ही कहानी 'बहिर्गमन' का नायक नहीं होना चाहते थे जो लालसाओं के जाल में पफंस गया। वे एक बार रोजी-रोटी की तलाश में इलाहाबाद से जबलपुर आए तो यही जम गए। रम गए। ध्रुव शुक्ल के शब्दों में 'इसी शहर में नाल गड़ी है मेरी। उन्हें 'पावर' की प्रतीक दिल्ली ने कभी आकर्षित नहीं किया। उन लोगों की परंपरा में रहे जिन्होंने अपना शहर-नगर नहीं छोड़ा। तुलसी ने काशी। गालिब ने दिल्ली। केदारनाथ अग्रवाल ने बांदा। बिस्मिल्ला खान ने बनारस। जार्ज सेपफ़रिस ने नोबल पुरस्कार पाने के बाद आमंत्राणों के बावजूद एथेंस नहीं छोड़ा। ज्ञानरंजन ने भी जबलपुर नहीं छोड़ा। 'मोको कहाँ सिकरी से काम' वाले भाव के साथ। ज्ञान के जेहन में खुद उनके पिता हैं -रामनाथ सुमन। कहीं न कहीं उनसे प्रेरित होकर ही 'पिता' कहानी लिखी। दशकों बाद किरदार बदला। अब वे उस पिता के किरदार में खुद हैं। उसी तरह से मूल्यों की रक्षा के लिए जिद्दी। अड़ियल। ज्ञानरंजन 'कबाड़खाना' लिखते हैं। उनका द्घर भी रद्दी चौराहे के निकट है। आस-पास है भी कबाड़खाने जैसा माहौल। वे मानते भी हैं रचना प्रक्रिया एक भूमिगत कबाड़खाना है। बेटे ने शहर के बीचों-बीच आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित फ्रलैट लिया।घ्आग्रह भी किया 'पिता जी अब आप इसमें रहिये।' मगर नहीं, हैं तो वे पिता ही। आठ नंबर प्लेटपफार्म वाले। जीवन की असुविधाओं को ठेंगा दिखाते हुए। अपने मूल्यों से चिपके। ज्ञानरंजन उन लोगों में हैं जो सपफलता से ज्यादा सार्थकता में यकीन करते हैं। असपफल होते लोग ही बराबर शिखर की तरपफ जाते हैं। सपफलता मारकर सुला देती है। लंपट, अवधूत, बौड़म और लगभग अपराधी समझे जाने वाले लोगों ने ही दुर्लभ रचनाएँ की। जां जेने जैसे दंडित व्यक्ति को ज्यां पाल सार्त्रा ने संत कहा था। जेल में रहने वाले कई कैदियों से ज्ञानरंजन का संपर्क रहा। पत्रा व्यवहार भी। कबीर ने आह्‌वान किया था-'जो द्घर जारो आपनो चले हमारे साथ।' द्घनानंद ने शर्त रख दी-'कविता द्घनानंद की न पढ़ौ, पहचान नहीं एहि खेत की जू'। ज्ञानरंजन हिदायत देते हैं-'कहानी-कविता की दुनिया में वे ही प्रवेश करे जो दूर तक एक धूमिल जिंदगी जीने का हौसला रखते हैं। इस कठिन यात्राा में चमक आएगी और जाएगी। ...यह दुनिया हमारे सपनों के लिए मन मापिफक नहीं है। इसलिए अबरद में रहने के लिए रचनाकार अभिशप्त है।' 'पहल' ज्ञानरंजन के व्यक्तित्व का ही एक अहम हिस्सा है। दूसरी पारी में अपनी रचनाशीलता को इस पत्रिाका के जरिये ही अभिव्यक्ति किया। खुद न लिख दूसरों से लिखवाया। साबित कर दिया कि एक लद्घु पत्रिाका भी आंदोलन का शक्ल अख्तियार कर सकती है। झूठे समय में सबसे कठिन होता है सच कहना। ज्ञानरंजन मानते हैं, 'बिना मुखौटे के कोई सच्चाई प्रकाशित करना कठिन है।' लेकिन वे खुद मुखौटे से दूर रहे। अलबत्ता कई चेहरों से मुखौटों को हटाने का काम जरूर किया। इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा उन्हें। लेकिन इसकी चिंता नहीं। बचपन से लेकर अब तक जो भी लिखा सच लिखा-बेबाक लिखा। किसी कुंदन सरकार का द्घंटा नहीं बने। अपने पैट्रोला में ही जमे रहे-अपने लोगों, अपनी दुनिया के बीच। लेकिन आखिरकार ज्ञानरंजन हैं तो मनुष्य ही-न देवता, न पफरिश्ता। खूबियों-खामियों के बीच तनी रस्सी पर संतुलन बनाने की कोशिश में थरथराते। कभी दायें झुकते, कभी बायें। सवाल 'झुकने' का नहीं। असल चिंता खुद को 'गिरने' से बचाने की है। ज्ञान गिरे तो नहीं। लेकिन संतुलन बनाने के क्रम में उनके दायें-बायें होने से उनके कई मित्रा खपफा हुए। दोस्ताने टूटे। याराने छूटे। ये सब क्योंकर हुआ? ऐसा तो नहीं कि सारी गलतियां दूसरों में ही रही हो-ज्ञानरंजन में न हो-ये संभव नहीं। व्यावहारिक तौर तो कतई नहीं। क्या इस सवाल पर विचार नहीं होना चाहिए कि कमला प्रसाद, नामवर सिंह, आग्नेय या कई दूसरे प्रमुख लोगों से ज्ञानरंजन से दूर क्यों हो गए? साहित्य-प्रतिपक्ष की भूमिका में सार्थक हो सकता है। अगर लेखक युग-सत्य के साथ तीव्रता से मुठभेड़ नहीं करता तो वह मार्मिक सार्थक साहित्य का सृजन नहीं कर सकता। ज्ञानरंजन भी ताउम्र प्रतिपक्ष की ही भूमिका का निर्वहन करते रहे हैं। कहानियों के जरिये यही काम किया, पिफर 'पहल' माध्यम बना। बीच में तीन साल का एक लंबा अंतराल था। अब ज्ञानरंजन पिफर से 'पहल' निकालने जा रहे हैं इस अद्घोषित एलान के साथ 'चूका नहीं हूँ मैं।' यह अंक ज्ञानरंजन पर अंक निकालने की योजना जब मैंने और अपूर्व जोशी ने बनायी तो दो कठिनाइयां थी, पहला-ज्ञानरंजन को इसके लिए तैयार करना, दूसरा उन पर लिखवाना। पहली कठिनाई कापफी जद्दोजहद के बाद दूर हुई। बहुत कहने-सुनने पर वे माने। और जब माने तो दो हिदायतें दी- नंबर एक यह कि 'भारी भरकम विशेषांक निकालने की जरूरत नहीं है, एक दो लेख रस्म अदायगी के तौर पर दे देना।' हमने यह बात नहीं मानी। दूसरी हिदायत-'देखो प्रेम, इस बात का ख्याल रखना कि यह अभिनंदन ग्रंथ नहीं बनने पाये। जिसे जैसा लगे लिखे और तुम उसे निःसंकोच छापना' उनके इस बड़प्पन ने हमारा हौसला बढ़ाया। इस विशेषांक के कुछ लेख ज्ञान मार्गियों को नागवार लग सकता है। खासकर ज्ञानरंजन के परम मित्रा आग्नेय का लेख। खगेन्द्र ठाकुर की बातें। ज्ञानरंजन के दौर के कथाकारों के इस अंक में न लिखने के अपने-अपने कारण थे। लिहाजा उनके पुराने लेख दिए जा रहे हैं क्योंकि उससे ज्ञानरंजन के व्यक्तित्व पर रोशनी पड़ती है। दूसरे कई िदग्गज आलोचक भी न जाने किन समीकरणों के चलते नहीं लिख पाए। बहुत से लेखकगण ऐसे भी हैं जिन्होंने वादा तो किया था लिखने का, मगर ज्ञानरंजन पर लिखना सबके बूते की बात कहाँ है? बहरहाल, यह अंक जैसा भी बन पड़ा है, वह आपके हाथों में है। इसके लिए उन तमाम अग्रजों और मित्राों को श्रेय जाता है जिन्होंने इसे तैयार करने में मदद की। खासकर राजेन्द्र दानी, भारत भारद्वाज, उद्भ्रांत, राजेन्द्र चंद्रकांत राय, भालचंद्र जोशी, गुंजन कुमार, पंकज शर्मा ने कापफी साथ दिया। अंकित ांसिस ने तो मेरे संपादकीय सहयोगी की तरह मदद की। अंक समय पर निकले इसके वास्ते मान सिंह टनवाल ने भी जी जान लगाया। इस विशेषांक के साथ आपकी अदालत में पेश होते हुए आपके पफैसले का इंतजार रहेगा।

1 comment:

  1. बहुत अद्भुत अहसास...सुन्दर प्रस्तुति .पोस्ट दिल को छू गयी.......कितने खुबसूरत जज्बात डाल दिए हैं आपने..........बहुत खूब,बेह्तरीन अभिव्यक्ति .आपका ब्लॉग देखा मैने और नमन है आपको और बहुत ही सुन्दर शब्दों से सजाया गया है लिखते रहिये और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.

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