'मेट्रो उजाला' के नए अंक में प्रकाशित लेख जिसे विशेष पुरस्कार के लिए चुना गया है.आप सब भी पढ़ें और लिखे पर आलोचना आमंत्रित है ...!
किसी मित्र को पढ़ने में दिक्कत लगे तो वह जूम करके पढ़ सकते हैं.




           सब कुछ भुला देना


ज़िद पर अडना बच्चे के मानिंद आसान है
मुश्किल है उसकी तरह सब कुछ भुला देना
टूट जाए खिलौना तो छलक पड़तीं हैं आँखें
पल में भुला देते हैं उनकी एहसासें
हँसतें हैं होंठ से चाँद सा रोते हैं दिलों से सूरज सरीखा
जब कोई झूठे से कह दे ए नहीं तेरी शादें
हम सोचते हैं मुस्तकबिल की जोड़ते हैं पाई-पाई
वो रौशन होते हैं इक-इक पल के लिए
पलकों के मोती छुपाये महफ़िल से निकलते हैं गुनगुनाते
ख्वाहिशों के जंगल को जमीन में दफन किये बीज से
बाजारी दुनिया में टहलते हैं बेतकल्लुफ़
गम के गुबार को उड़ा देते हैं गुब्बारे के संग
गुमसुम खुशी को खिला के घोल देते हैं गुलाबों में
रंजिशों के साजो ओ सामान को समुद्र में उछाल देते हैं
मुस्कुराते चिलमनों से चमन चहकाते निकल जाते,गगन की यात्रा करते
बेकाबू हालात को हलक से नीचे न उतरने दे विषकंठ बन
तारों के सैर करते ख़्वाबों के नीले आसमान में छपक-छैयां करते
पंक्षी के पंखों से हांथो की डोर बनाते दूर-दूर फैले बदलों को समेटे
सिकुड़ते सिलवटों के सीलन सीते काई लगे बवंडर को बटोरते
वक्त के नज़ाकत को नजरों में कैद करते फासलों को फसल करते
कलम करते पुष्पों के पुलकित पुराणों में परलोक ढूंढते
ढोते बोझ को उल्कापिंड के अग्नि में समर्पित कर स्वर्ग की राह बनाते
कड़ी मेहनत के बूते बूंदों को टक्कर देते कहते कर्म करों करुना का प्रचार नहीं
आत्मबोध से बुद्ध के समाधि तक बिचरते उपदेशों के सागर को हिलोर-हिलोरते
हुडदंग के धूल उड़ाते धवल चादरों में लिपटे उमंग के सुगंध में खो जाते
सांसों के तार पर ताल ठोकते ठिठकते ठहराव को ठेलते-ठेलते ठिकाने लगाते.


डॉ.सुनीता 
०५/०७/२००६  
(यादों के जेहन में ठहरे ज़ज़बात डायरी की पन्नों से )
http://lekhakmanch.com/?p=4320 




'लेखक मंच' में प्रकाशित रचना का लिंक,उसमें प्रकाशित एक रचना आप सब से साझा कर रही हूँ.
सादर !

अस्थायी

अख़बारों के चंद पन्नों में सिमटी जिंदगियों में
ताजेपन सा कुछ भी नहीं
रात के पड़े खाने सुबह की तरह
रोते-बिलखते मासूम चेहरे पल के मेहमाँ
गाते-गुनगुनाते मुखड़े होंठो की चुभन
एक क्षण के पश्‍चात ढल जाते हैं रात्रि सरीखे
चंद चर्चाओं के बाज़ार क्षणिक गरम, तवे से
छपाक-छपाक की भड़ास क्षण में गायब
रेत पर गिरे बूंदों के अस्तित्व के मानिंद
बरखा-बहार और मधुवन की मधुर ध्वनि
धड़कनों में शोर मचाते खलबली अभी-अभी
करवट के साथ पन्ने पलटते दृश्य और दृष्टि बदले सभी
परिवर्तित परिवेश की पुकार सुनाई देती कभी-कभी
सुमधुर योजनाओं की ललकार दिखाई देती चहुओर
न रुकने वाली वक्त की सुइयाँ टीम-टीम कर लुप्त होतीं
एक चेहरा उभरता है प्रेयसी के जुल्फों में कैद
चितवन की चंचलता चहक उठती
नयेपन का अंदाज़ पलक झपकने के साथ
बुलबुले से अस्तित्ववि‍हीन हो जाता
खबरों की दुनिया में निरंतर गहमागहमी बनी रहती
निरुउत्तर प्रजा पल्लवित पुण्य बनी हुई
लेकिन भू धरा थमने के जगह डोलती रहती
थिरकती साँसों के लय पर वायु नृत्य करते
नटते, रिझते और रिझाते रम्भाने लगते
पात्र में रखे पानी सा मटमैला और फीका बन जाते
दिखने में धवल और स्वच्छ लगते
भागते, दौड़ते कल्पना के सागर में छलांग लगाते
छलकते आँसू रंगीन चित्रों के गुजरते ही सूख जाते
चिथड़े-चिथड़े सुख की तलाश में निकल पड़ते एक और लम्‍बी यात्रा पर
नंगे, खुले और खुरदरे पैरों के निशान जह-तह बिखरे पड़े
उनकी आवाज़ाही का कोई स्थायी प्रमाण नहीं
नर-शरीर की तरह अस्थायी, क्षणभंगुर और जुगनू की तरह
यहाँ सब कुछ सिमटा हुआ है बिखरे तौर पर
ढेर में तब्दील होते मलबा सा नहीं
बल्कि सपनों के कलेजे पर बिछे फूलों के कतारों की तरह
एक-एक कतरन से तैयार वस्त्र सा सुसज्जित, आकर्षक किन्तु अस्थायी

             इधर पधारे

डॉ.सुनीता 
२९/०७/२०१२ नई दिल्ली 
रात ११:५५ 

खुद पर व्यंग करते हए.कुछ और ही कह बैठे जिसका मतलब समझने की जरुरत आन पड़ी है.

मिल जा मेरे बाप
कहाँ चले गए आप
हेर-हेर के हो गए परेशान
किस मृत्यु के चिरनिद्रा के हो गए शिकार
खाकर भंग या पीकर रम
पड़ गए कौन से दुनिया के भ्रम में
चकला घर से कदम बहक गए हैं ?
या चौबारे के चौपाल से लहक गए हैं
लम्पटता की हद है भाई !
माँगा आलू लाये गुड़
समझ न आये मंत्री-तंत्री के गुण
गलबहियां डाले फिरते हो आज
काम न काज बने हुए हैं दुश्मन अनाज
कल मारेंगे घुमाके शब्दों के चार लात
निकल जायेंगे पेट में पैठे सारे भात
चक्रव्यूह रचते खुद फंसे कुचक्र के जाल
बाले तेरे लाल के चित्त से न उतरे हाल
चौसर खेलते मियां स्वर्ग सिधारे
आप क्यों अपनी जीवन लीला ले इधर पधारे...

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