महिला मुद्दे और ब्लॉग

चतुर्थ भाग--

(हम अपने विचार सभी तक पहुंचाने के लिए स्वतंत्र हैं...से आगे पढ़ें )

मैं स्वयं ब्लॉग के माध्यम से अपने बचपन की एक हृदय विदारक घटना को सबके सामने लाने में सफल रही.ये मेरे गाँव की घटना थी,वहाँ करीब छब्बीस साल पहले एक गरीब परिवार की अशिक्षित,नाबालिक लड़की का बलात्कार हुआ था,जिससे वो गर्भवती हो गयी,समाज के डर से उसकी अशिक्षित माँ ने उसका गर्भ गिराने के लिए उसे पता नहीं कौन सी दवाई दी...जिससे उसकी दर्दनाक मृत्यु हो गयी.
जिस लड़की के साथ ये घटना घटी उसका नाम 'फर्गुदियाथा,जब उसकी मृत्यु हुई तब उसकी उम्र मात्र चौदह या पंद्रह वर्ष थी.
गर्मी में जब स्कूल की छुट्टिया हुआ करती थी तब मामाजी के घर गाँव जाने पर फर्गुदिया से अक्सर मेरी मुलाकात हुआ करती थी,ऐसे ही एक बार जब मैं गाँव गयी तो फर्गुदिया के साथ घटी घटना और उस घटना से हुई उसकी दर्दनाक मृत्यु के बारे में सुना तो मेरे पैरों तले जमीन खिसक गयी,उस समय मेरी भी उम्र पंद्रह,सोलह वर्ष की ही थी,तब से लेकर आज तक मैं फर्गुदिया और उसके साथ घटी घटना को बिलकुल भी नहीं भूली हूँ.
करीब दो साल पहले इस घटना को मैंने कहानी का रूप देकर अपने ब्लॉग पर पोस्ट किया,एक चमत्कारिक परिणाम सामने आया,समाज में हो रहे ऐसे घ्रणित अपराध की शिकार बच्चियों के समर्थन में ब्लॉग और इंटरनेट के माध्यम से विचार आने लगे और ऐसे घ्रणित अपराध की खुले शब्दों में भर्त्सना की गयी.
ब्लॉग के जरिये फर्गुदिया के समर्थन में आवाज़ दूर दूर तक गयी,बाद में मैंने और इंटरनेट से जुड़े मेरे मित्रों ने मिलकर जमीनी स्तर पर फर्गुदिया के लिए कविता पाठ का कार्यक्रम रखकर उसे भावभीनी श्रृद्धांजलि दी.आज फर्गुदिया की दास्तान ब्लॉग के जरिये इंटरनेट की दुनिया के बाहर के लोग भी जान रहें हैं
इसी कड़ी में सुधीश पचौरी लिखते हैं... इस नई दुनिया को संलग्नयानी इंगेज करने के लिए इंटरनेट सर्वोत्तम माध्यम है.इस दशक के अंत तक नई आर्थिकी के तहत तेजी से विकास करने वाले तीन अरब लोग ऑन लाइनआ जायेंगे.
यह तुमुल कोलाहल कलहको सघन शोर में तब्दील करते माध्यम चौकाने से ऊपर बढ़ चुके हैं.
हमारा समाज सदियों से पुरुषसत्तात्मक रहा है.महिलाओं को सारे हुकुक देने की बात होती रही है,लेकिन कहीं-न-कहीं दोमुहेपन से काम लिया जाता रहा है. घर को मंदिर का दर्जा दिया जाता है.यह भी वैसा ही मजाक है जैसे हिंदुओं में औरतों को देवी कह दासी की यंत्रणा दी जाती है.
कागजी पैरहन में एक जीवट स्त्री सच के दुनिया में आजद होकर भी कैद की जिंदगी जीने को बिवश है.
समयांतरमें अंकित विचार असमानता और भेदभाव के भावना को आवाज देती प्रतीत होती है.
“-लडकियां पत्रकारिता में आकर लड़कियां नहीं रहतीं हैं,वे पत्रकार रहतीं हैं.लड़की रहना है तो नौकरी छोड़ दो.दफ्तर की गाड़ी रात में आप लोगों को घर तक क्यों छोड़ें.जैसे बाकी लोगों को गली के मोड तक उतारती है वहीं आपको भी उतारेगी.
कथनी और करनी में फर्क की खाई कभी नहीं पट पाई है.आज बहुत मात्रा में महिलाएं शिक्षित हो गयी हैं.अपने बलबूते काम भी कर रही हैं.अपने दमखम से सबको चकित भी करती रही हैं,लेकिन उनके प्रति शोषण की निगाह में कोई भी विशेष बदलाव न के बराबर ही रहा है.भ्रूण हत्या,बलत्कार,अत्याचार,घरेलू हिंसा और ऐसे ही न जाने कितने अनवरत शोषण निरंतर चल रहे हैं.आधुनिक संसाधनों के विकास से भी रुढ़िवादी और बजबजाती मानसिकता में कोई बदलाव नहीं आया है.ऊपरी स्तर पर यह बदलाव निचले स्तर पर ज्यादा विकृत रूप में दिखाई देता है.
बेटे-बेटी के नाम पर हत्याएं रोज़ हो रही हैं.एक दुधमुहे बच्चे का कत्ल दीवार से सर लड़ा कर मारने जैसे प्रयत्न उत्तरोउत्तर जारी है.राजधानी से लेकर आविवासी इलाके तक इसका कोढ़ मौजूद है.इस तरह के सवाल प्राचीन पत्रकारिता से लेकर आधुनिक मीडिया और अब सोशल मीडिया में प्रमुखता से उठ रही हैं.इस संदर्भ में रमाशंकर यादव 'विद्रोही' जी की कविता सहज ही आकर्षित करती है.
इतिहास में वह पहली औरत कौन थी,
जिसे सबसे पहले जलाया गया,
मैं नहीं जानता,
लेकिन जो भी रही होगी,
मेरी माँ रही होगी.
लेकिन मेरी चिंता यह है कि
भविष्य में वह आखिरी औरत कौन होगी,
जिसे अंत में जलाया जाएगा,
मैं नहीं जनता,
लेकिन जो भी होगी 
मेरी बेटी होगी,
और मैं ये नहीं होने दूंगा.
यह नहीं होने देने की पुरजोर आवाज उठती तो हैं लेकिन किसी खोह में जाके दब सी जातीं हैं.जब कहीं कोई सुगबुगाहट होती है तो उसकी भी एक सीमा और क्षमता होती है उसी परिधि के इर्द-गिर्द चक्कर काटतीं निगाहें शून्य में शिखर की तलास करती भटकती रहती हैं .यह प्रयास अनवरत चला आ रहा है.
ब्लॉग को लेकर लोगों के अपने नजरिये हैं.इसे कोई सृजन के खतरे के तौर पर देख रहा है तो कोई इसे वास्तविक मंच के रूप में इस्तमाल कर रहा है.पत्रकार समाज के लोग इसे भड़ास और छपास के दृष्टि से परख रहे हैं.प्रत्येक व्यक्ति के अंदर एक गुबार बहुत समय से दबे हुए अंदाज़ में पल रहा है.
असलम सीबा फहमी के मुताबिक आज के दौर में मीडिया एक जरुरी जरिया है अवाम तक पहुँचने का.आज के समाज का इसके बिना काम नहीं चल सकता है.
इनके बातों में सच्चाई है हम इस बात को सहज ही इनकार नहीं कर सकते हैं.सच यह भी है की आज के मौजूदा दौर में चीजों के देखने-परखने के नजरिये पूरी तरह से पूंजीवाद के गिरफ्त में है.
उदारीकरण के दौर में रियल स्टेट,शिक्षण संस्थान और औद्योगिक संस्थान बड़े विज्ञापनदाताओं के रूप में उभरे हैं.इनके गलत कामों और कानून उल्लंघन को शायद ही किसी अखबार में जगह मिलती है.
राजेंद्र यादव ने हंस, 'जुलाई 2004' के संपादकीय में बड़े ही मज़ेदार तरीक़े सेचुटकियाँ लेते हुएहिंदी साहित्य संसार के प्राय: सभी नए-पुराने समकालीन लेखकों/कवियों के बारे में टिप्पणियाँ की है कि किस प्रकार लोग अपनी छपास की पीड़ा को तमाम तरह के हथकंडों से कम करने की नाकाम कोशिशों में लगे रहते हैं। वे आगे कहते हैं कि दिल्ली जैसी जगह से ही हंस जैसी कम से कम '10 पत्रिकाएँनिकलनी चाहिए। ज़ाहिर हैलेखकों-लेखिकाओं की लंबी कतारें हैं और उन्हें अपनी अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का कोई माध्यम ही नहीं मिल रहा है। ऐसे में जालघर के व्यक्तिगत वेब पृष्ठ और ब्लॉग के अलावा दूसरा बढ़िया रास्ता और कोई नहीं हैं। ब्लॉग के फ़ायदों की सूची यों तो लंबी हैपर कुछ मुख्य बातें ये हैं 
ब्लॉग प्राय: व्यक्तिगत उपयोग हेतु हर एक को मुफ़्त में उपलब्ध है।
ब्लॉग के द्वारा आप किसी भी विषय मेंविश्व की किसी भी (समर्थित) भाषा में अपने विचार प्रकट कर सकते हैंजो जालघर में लोगों के पढ़ने हेतु हमेशा उपलब्ध रहेगा। उदाहरण के लिएयदि आप कहानियाँ लिखते हैंतो एक ब्लॉग कहानियों का प्रारंभ करिएउसमें अपनी कहानियाँ नियमित प्रकाशित करिएबिना किसी झंझट केबिना किसी संपादकीय सहमति या उसकी कैंची के और अगर लोगों को आपकी कहानियों में कुछ तत्व और पठनीयता नज़र आएगीतो वे आपकी ब्लॉग साइट के मुरीद हो जाएँगे और हो सकता है कि आपके ब्लॉग को एंड्रयू सुलिवान के ब्लॉग से भी ज़्यादा पाठक मिल जाएँ।
आपके ब्लॉग पर पाठकों की त्वरित टिप्पणियाँ भी मिलती है जो आपके ब्लॉग की धार को और भी पैना करने में सहायक हो सकती है।
ब्लॉग का उपयोग कंपनियाँ अपनी उत्पादकता बढ़ानेनए विचारों तथा नए आइड़ियाज़ प्राप्त करने में भी कर रही हैंजहाँ कर्मचारी अपने विचारों का आदान-प्रदान बिना किसी झिझक के साथ कर सकते हैं।
अंततः यह कहना सर्वोतम रहेगा.समाज में ढांचागत बदलाव उत्तरोंउत्तर होता रहा है.परिवर्तन का ही नतीजा है जब एक स्त्री अपने बलबूते पर अपनी पहचान बना रही है.उसके संघर्ष निरर्थक नहीं गए हैं.बल्कि अनवरत ही चल रहे हैं.उनको याद रखने के तौर-तरीके भले ही बदल गए हैं.विजय नारायण साही की पंक्तियाँ वह सब कुछ बयां कर रही हैं जो मन के सागर में हिलोरे लेते भाव कहना चाहते हैं.
तुम हमारा जिक्र इतिहास में नहीं पाओगे
क्योंकि हमने अपने को इतिहास के विरुद्ध दे दिया है
छूटी हुई जगह दिखे जहाँ-जहाँ
या दबी हुई चीख का अह्सास हो
समझना हम वहीँ मौजूद हैं
सिसकियों के मध्य मजबूती से जमे पैर किसी धुंधले अंधड से उखड़ने वाले नहीं है.मृत्यु शैय्या से भी जी उठने की जिजीविषा जब तलक रूह में बाकी है इतिहास के सुरम्य कोनों में हम अपने विरुद्ध होते साजिस को नाकाम करने में सदैव सफल रहेंगे.यह अटूट विश्वास का धागा आत्मविश्वास के लौह इरादों से आया है.क्रांति के स्वर जब तक वादियों में गूंजेंगे हम युहीं जियेंगे.जूझते,लड़ते, झगड़ते और अपने हक के लिए संघर्ष करते हुए.अपनी छाप बनाए रखेंगे.    

नोट--
इस शोध पत्र में उन लोगों के विचार को प्राथमिकता दी गयी है जो आज के नए माध्यमों से सीधे तौर पर जुड़े हुए हैं.
इसके अतिरिक्त इंटरनेट और कुछ पत्र-पत्रिकाओं से भी विषय के सम्बन्धित बिंदु को लिया गया है.



4 comments:

  1. एक वैचारिक आलेख

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  2. इंटरनेट के माध्‍यम से सामाजिक समस्‍याओं को समझने और उसे दूर करने में सफलता मिल सके तो यह हमारी बहुत बडी उपलब्धि होगी !!

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  3. सुन्दर विचारणीय प्रस्तुति आपके ब्लॉग पर म्यूजिक तो बेहद शानदार है काफी देर तक सुनती रही
    pankh hote to ud aati re ...........vaah vaah

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