पेरू ! में बाढ़ हृदय की मार


      
          27/03/2012

कुदरती बाढ़ में बहे मानुष
कौन दोस्त कैसा दुश्मन
         किसी की कोई नहीं बची निशानी
        विनाश की वीभत्स है कहानी
खिलने से पहले खो गए
कुछ करने से पहले हार गए
         जीने से पहले मर गए
        पीने से पहले बुझ गए
जलने से पहले लुट गए
सोचने से पहले छूट गए
         जागने से पहले उठ गए
        उठाने से पहले उजड़ गए
सजल से पहले गज़ल हो गए
बचाने से पहले शून्य हो गए...

दक्षिणी अमेरिका के पेरू नामक स्थान पर बाढ़ आया है.हजारों की संख्या में फंसे लोग अपने-आपको बचाने के जदोजहद से जूझ रहे हैं.यह अपने भयावहता के हद को छू रही है.आम आदमी का जीवन इसमें ध्वस्त हो गया है.इसके कारण जाने-अनजान में ही सही तमाम लोग अपने वास्तविक अस्तित्व को खो चुके हैं.दुनिया जहान में मानव की कठोरता कुछ कम न थी,जो कुदरत ने भी अपनी मनमानी कर ली.
इस तरह की घटनाएँ-दुर्घटनाएं कहीं न कहीं अक्सर होती ही रहती हैं.इनकी निर्ममता से हृदय काँप जाता है.ऐसी घटने वाली घटनाएँ बच्चों, बड़ों, बूढों और नवजवानों के लिए समान होती हैं. इनके अंदर परिस्थति का एक ऐसा घनघोर भय घर कर जाता है,जिससे जीवन पर्यंत आसानी से उबर नहीं पाते हैं.
मन के अन्तः में बैठा डर उन्हें कभी भी सर उठाके जीने नहीं देता हैं.बुलंद हौसले और बहादुरी के साथ लड़ने के ताकत को पस्त कर देती हैं.मरीना,कैटरीना से लगायत दुनिया के कई हिस्सों में एक समयांतराल के बाद कुछ ऐसा हुआ है,जिससे वहाँ का विकास प्रभावित हुआ है.सिर्फ विकास ही नहीं बल्कि मानव भी इस कठोरता के बेरहमी का शिकार हुआ है.ऐसी निष्ठुर स्थितियां बीन बुलाए मेहमान की तरह होती हैं.जिनके आने की खुशी नहीं मनाई जाती है.
प्राकृतिक आपदाएं इंसान के सोचने-समझने और जीने के हुनर को छीन लेती हैं.प्रकृति तो एक बार में एकमुस्त दर्द दे देती है.लेकिन समाज के ताने-बाने में उसे हर पल घुट-घुट के जीने के लिए विवश किया जाता है.
सुविधा के नाम पर अपने मतलब की राजनीतिक गोटियां फिट की जाती हैं.व्यवस्था की बात करके अपने जिम्मेदारी से मुक्ति के मार्ग तलासे जाते हैं.सहयोग के स्थान पर बंदरबाट की दुकान चलाई जाती है.आश्वासन के लम्बें-लम्बें और भारी-भरकम भाषणवाजी की जाती है.वह किस हालात से गुजर रहे हैं इसकी खबर सालों-साल तक नहीं ली जाती है.लेकिन अपने मतलब का काम पड़ते ही उनको तुरुक के पत्ते की तरह प्रयोग में लाया जाता है.
यह एक ऐसा शोषण है जो यातना के सारे हदों को पार कर जाता है.यह खुली आँखों से दिख के भी नहीं दीखता है.इसे देखने के लिए एक ऐसे चाक्षु की जरुरत है,जो चोट लगे गहरे पीड़ा को ह्रदय से महसूस कर सके.वास्तविक परिस्थिति के मुताबिक फैसले ले सके.लेकिन यह सब कहने की बातें हैं.हकीकत में भले ही कुछ हो या न हो परन्तु कागज पर बिल्कुल सही किया हुआ ही नजर आता है.शायद यही कारण है कि सुविधाएँ भुक्तभोगी के पास उचित समय पर नहीं पहुँच पाती हैं.इसका खामियाजा उन मासूम लोगों को भुगतना पड़ता है जो पहले से ही नासूर लिए जी रहे होते हैं.

                                                                                                                                डॉ.सुनीता 

5 comments:

  1. सजल से पहले गज़ल हो गए
    बचाने से पहले शून्य हो गए...

    सार्थक पोस्ट.....उत्कृष्ट लेखन...
    शुक्रिया.

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  2. हे भगवान! बड़े दुःख का समाचार हैं!

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  3. prakrtik aapdayen sab bhed bhaav mitakar apna kaam karke chali jaati hain aur hum dekhte rah jaate hain.bahut achchaai se bayaan kiya hai shabdon me dhaal kar.

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  4. बहुत सुंदर सार्थक रचना,बेहतरीन अभिव्यक्ति,

    MY RESENT POST...काव्यान्जलि ...: तुम्हारा चेहरा,

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  5. khubsurat, sahi dhang se paribhashit lekhan..

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