लिप्सा में लिप्त अन्यायी मन

     देहरी पर दस्तक देती शाम की सुरमई यादें,अतीत के चिलमन से झांकती बातें हृदय को बांध देती हैं.जब भी झरोखों के पार देखा मन में हलचल बार-बार मची फिर भी मन नही मना उसी को निरखता रहा.काश ये न किया होता,वो न घटा होता तमाम ऐसी बातें बरबस ख्यालों में बसे बैठे हैं.जिनकी छाँव में मन हल्का हो जाता है.लेकिन कभी-कभार उसी के आगोश में समा के दिन-दुनिया से बेखबर भी हो जाता है.परन्तु एक आध बार उसके सुगबुगाहट से व्यथित भी हो जाता है.किसी के लिए ये यादें अनमोल हैं तो किसी के लिए दर्द,जख्म,टीस,तडप, झडप और कसक है.जिसके नाम से ही रूह थर्रा उठता है.फिर भी हम जाने-अनजाने उसी के पास मंडराते रहते हैं.
     इन्ही सपनों के जहान से अपना भी गहरा रिश्ता है.खोज-खबर से परे बेखबर लोगों की पड़ताल आदत सी बन हुई है.हर दिन,हर रात सबके लिए अलग-अलग माहौल ले के आती है.कोई गाता-गुनगुनाता है,कोई सपनों के पंख लगा के उड़ जाना चाहता है,कुछ लोग अपने में ही खोये जहाँ से उठ जाना चाहते हैं.वहीं कुछ इतिहास का हिस्सा बनकर इतराना चाहते हैं.झुग्गी-झोपडियों में दिन बसर करने वालों के आँखों में भी चमक होती है उजाले के साथ गुम हो जाती है.खिड़कियों से झांकता उजाला हकीकत से रु-ब-रु कराता है.जैसे ही सच्चाई से वास्ता पड़ता है.भरभरा के सारे ख़्वाब धरासाही हो जाते हैं.छुटपन में मैंने देखा था एक बच्चे को बिलखते हुए.उसकी चीख आज भी कानों के परदे से चिपके पड़े हैं.जानते हैं क्यों,क्योंकि उसे किसी और ने नही बल्कि अपने ने ही छला था.उसे एक दरिंदे बहेलिये के हांथो बेच दिया था.परिस्थितयां इंसान से सब कुछ करवा लेती है.हम न चाहते हुए भी गुनहगार बन जातें हैं.ऐसा ही उसके साथ भी हुआ.एक बाप ने अपने बाकी के औलादों के भविष्य को सुनहरा बनाने के लिए उसे बेदी पर चढा दिया था.सिला बना के पूजने की लिए दुनिया के बाज़ार में तन्हा छोड़ दिया.दया पात्र बनते-बनते जाने कब वो सब दरिंदा बन बैठे...
     यह घटना सन १९९४ बे की है.परम्परागत सोच से कैद लोग फैसला भी उसी के माकूल लेते हैं.क्षितिज पर दर्ज हलफनामे को नही मानते हैं.वह सिर्फ वह सुनते हैं जो सदियों से चली आ रही रीतियाँ हैं.उसके पार जाके झांकने की जरुरत नही समझते हैं.इन्ही खुम्चों से दो-दो हाँथ करते हुए,कोनों से टकराते हुए,उन लोगों ने भी अपने दिल के टुकड़े को भेंट चढा दी.आस्था के नाम पर कई बार बलि होते न जाने कितनों को हमने अपने निगाहों से देखा है.हृदय को बेधती,चीरती और टटोलती आवाजें आज भी दिन के उजाले में भी डरा जाती हैं. लकलकाती जेठ की दुपहरी में उसके कोमल बाजुओं को थामे हुए.अपने साथ ले जाते हुए.एक पिता की नामाकुल तश्वीर उभरती है.वह एक मजबूर पिता नही है,बल्कि लिप्सा में लिप्त एक अन्यायी है.जो अपने ही हांथों से अपने आसियाने में आग लगाये हुए है.'वह उसे यह बोलकर ले गए की हम तुम्हें सर्कस दिखायेंगे'.
बचपन तो खेल-खिलौने में ही मगन रहता है.उसे दुनिया के शातिर चालबाजियों से क्या लेना देना है.उसके नज़र में पिता सिर्फ पिता है.शायद सभी के लिए घर के लोग अपने सगे और अज़ीज़ होते हैं.सच तो यह है कि उसने कोई तमाशा देखा की नही,बल्कि एक हिस्सा जरुर बना दी गयी.वो तो पता नही...लेकिन खुद जब लौटे तो गांव में एक तमाशाई बन चुके थे.उनके पद्चाप से पहले ही उनकी करनी पहुँच गयी थी.उस चंचल तितली को उन्होंने अब के वाराणसी तब के बनारस में औने-पौने नहीं बल्कि कोरे-कोरे दामों में बेचा था.जिसके बूते अपनी दो माले की मकान खड़ी की.बेटे को जी भर पढाया.उसे काबिल बनाया.लेकिन इस काबिल न बना सके की बुढ़ापे में उनकी ऊँगली थाम सके.
     जिसको अपना मांस और खून का मज्जा पीला कर पाला-पोसा था उसे अपने से अलग करते हुए उनका मन एक बार भी नही थिरका होगा यह सवाल आज भी दिल-दिमांग में कौंधता है...??? उठते-गिरते ज़जबातों के परदे से लहराती यादें अब भी ऑंखें नम कर जातीं हैं.शायद उनके दिल के किसी कोने में महफूज चंदा आज भी उन्हें रातों को तडपती होगी.इसमें जरा भी शक नही है...नून-रोटी से आगे की लालसा और लालच ने सीधे-सादे पिता को एक कस्साई बना के समाज में रख दिया.इसका दोस् किसे के सर मढ़ा जाये.ईश्वर के या इंसान के खुद के बनाये हुए मकडजाल को ठहराया जाये.पूजा,श्रद्धा,आस्था और धर्म के आड़ में कितने कुकर्मों को सरे शाम अंजाम दिए जाते रहे हैं.उस पर आपत्ति के एक भी कुलाचे नही चलते हैं.
     पूँजीवादी मनोवृति ने मानव के सोचने की क्षमता को कैद कर लिया है.इसी के शिकार होकर उन्होंने भी एक घिनौना फैसला ले ही लिया.उपभोक्ता मन ने एक बार भी नही धिक्करा की ,हे ! प्राणी क्या करने जा रहे हो...?
हम पूजा के नाम पर काम तमाम करते हैं.एक बार भी नही झिझकते हैं.फिर अच्छे कर्मों को लेकर इतना भयभीत क्यों रहते हैं.ईश्वर के बनाये नीयम को अपने बुद्धि की दम पर धता बताते हैं.
       मानव कि बलिहारी हो....
जय भोले भंडारी...
                           डॉ.सुनीता 

3 comments:

  1. isee bhranti se to bahar nikalana hae

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  2. एक दम सटीक बात कही है आपने।
    पूंजीवादी मनोवृत्ति से पार पाने का सही रास्ता धर्म के सही रूप को समझना ही है जो हम समझना नहीं चाहते।

    सादर

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  3. बहुत अच्छी प्रस्तुति, सुंदर सटीक रचना.....
    शिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनायें!

    MY NEW POST ...सम्बोधन...

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