दौरों का दौर


चुनावी भीड़ में जोश सबाब पर है 
देखना अब क्या जबाब मिलता है 
आस्तीन के मुठ से निकलते वोट 
हृदय को चिरते हुए घाव भूले नही हैं.. 

              कल तक तुम एक हठी राजा थे 
              हम आज प्रजा के सच्चे स्वामी हैं 
              बन्दुक के नोक पर लोगे अपना हक 
              जोर है बाजुओं में रोक के जताना है.. 

वक्त के सिला पर सब सुरक्षित है 
दिल के चोट को मरहम की तलास है 
आये हैं,मदाड़ी बनके,उन्हें झुठलाना है 
दर्पण से,खुद के चेहरे का नकाब हटाना है..

              सियासत के खुनी रंग को मिटाना है 
              अतीत के झुरमुट से चंद लम्हें चुराना है 
              उनके साये में भविष्य नया बनाना है 
              कोई रोक न पायेगा ऐसा तीर चलाना है..

अपने अधिकारों के दम पर 
जीवन की दिशा घुमानी है  
बहुत बन चुके फरियादी
अब हक के बुलंदी की परचम फहरानी है..

             दूर हटो ये लालच के पहरुओं 
             हमें खुद को आजमाना है 
             रो-रो के सिसक-सिसक के नही
             हँसते-गाते काटों में फूलों की राह बनानी है.. 

झूठे वादों के झूले चुके हिंडोले 
छल के मग पर बहुत चल चूक 
खुद के बूते अपनों को मुकाम दिलाना है 
कंधे-से कंधे मिलाके हर बोझ उठानी है..
                               डॉ.सुनीता 

15 comments:

  1. अपने अधिकारों के दम पर
    जीवन की दिशा घुमानी है
    बहुत बन चुके फरियादी
    अब हक के बुलंदी की परचम फहरानी है..

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  2. सुंदर अभिव्यक्ति ,भावपूर्ण बहुत अच्छी रचना

    MY NEW POST...मेरे छोटे से आँगन में...

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  3. झूठे वादों के झूले चुके हिंडोले
    छल के मग पर बहुत चल चूक
    खुद के बूते अपनों को मुकाम दिलाना है
    कंधे-से कंधे मिलाके हर बोझ उठानी है..

    bahut hi sundar abhivykti Suneeta ji ....behad sundar sankalpon ka sankalan padhane ko mila...Nishchay hi aisi rachaye samaj ko jaguk karke rashtr ko mahan banati hain ....sadar abhar.

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  4. अपने अधिकारों के दम पर
    जीवन की दिशा घुमानी है
    बहुत बन चुके फरियादी
    अब हक के बुलंदी की परचम फहरानी है..

    बहुत सही लिखा है आपने।

    सादर

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  5. shandar joshily post hae aabhr|

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  6. दूर हटो ये लालच के पहरुओं
    हमें खुद को आजमाना है
    रो-रो के सिसक-सिसक के नही
    हँसते-गाते काटों में फूलों की राह बनानी है..

    बहुत अच्छी और ओज से भरपूर प्रस्तुति..

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  7. सामयिक रचना ...

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  8. बहुत ही बढि़या।

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  9. सुन्दर
    सार्थक अभिव्क्ति....

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  10. झूठे वादों के झूले चुके हिंडोले
    छल के मग पर बहुत चल चूक
    खुद के बूते अपनों को मुकाम दिलाना है
    कंधे-से कंधे मिलाके हर बोझ उठानी है..
    बहुत खूबसूरत और सार्थक रचना |

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    1. सुन्दर और सर्थक रचना |

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  11. बेहतरीन सुंदर सार्थक रचना, बहुत अच्छी प्रस्तुति,

    MY NEW POST ...कामयाबी...

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  12. मैं सच कहूँगी मगर फिर भी हार जाउंगी ....
    वो झूठ बोलेगा और लाजवाब कर देगा .....
    मित्रों विचारों की दुनिया में पुरुष की स्थापना व्यक्ति के रूप में हुवी ,और हम स्त्रियों की वस्तु के रूप में
    हम उनके सन्दर्भों से परिभाषित होती रहीं वो व्यक्ति हम वस्तु ,
    वो तर्क हम भावना
    वो ज्ञानी हम अज्ञानी वो पंडित हम अबोध ....यही कारण होगा पुरुषों द्वारा निर्मित संस्थाएं फिर चाहे वो संसद हो,...
    चाहे नौकरशाही चाहे पुलिस उन्होंने हमे व्यक्ति के स्तर पर महत्व देने से इंकार कर दिया जरुरत सोच में परिवर्तन लाने की है
    आपको अचम्भा होगा महादेवी वर्मा भी जूझ रही थीं इन्ही बिभिन्नाताओं से तभी तो मै नीर भरी दुःख की बदली लिखने वाली ने लिखा
    "जब ज्वाला से प्राण तपेंगे
    तभी मुक्ति के स्वप्न ढलेंगे
    उसको छूकर मृत साँसे भी ,होंगी चिंगारी की माला
    मस्तक देकर आज खरीदेंगे ,हम ज्वाला " आह ......

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  13. I am the woman
    Who holds up the sky
    The rainbow runs through my eyes
    The sun makes a path to my womb
    My thought are in the shape of clouds but,
    My words are yet to come
    अज्ञात ...
    सुधा जी !

    तमाम शिक्षा के बावजूद स्त्री समाज को लेकर मानसिक विकृति ज्यों की त्यों बरकार है क्योंकि हमारे सोचने का दायरा और समझने का तरीका दिल-दीमाग से ही होके गुजरता है...
    सादर..!

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