आज़ाद भारत के गलियारे में शिक्षा की बुनियादी हकीकत...!



हम यह कहें कि विकास के पहिये की इबारत शिक्षा के कांधे से होकर ही अपने मंजिल तक पहुंची है तो कमोवेश यह गलत न होगा.हकीकत के जमीन पर भले ही टायें-टायें फिस्स हो क्या फर्क पड़ता है.ऐसी ही स्थिति मैंने अपने प्राइमरी विद्यालय में पढ़ाने के दौरान बेहद करीब से देखा,समझा,परखा और भोगा है.देश के नौनिहालों की चौंधियाती हकीकत एक बुलबुले के मानिंद ही नजर आया.आकडे के आईने में सब कुछ चोखा ही दिखाई देता है.वास्तविकता के धरातल पर एक छलावा के अतिरिक्त कुछ भी नही है.यह स्थिति चिंताजनक तब और लगती है.जब बजट एक झटके में खत्म हो जाता है,लेकिन कब,कैसे,क्यों और किस मद में खर्च किया गया इसका थाह पाना कठिन ही नही बल्कि जलेबियों की तरह उलझा हुआ भी है.जिसका सिरा ढूढते ही नही बनता है.छुटपन के शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने प्राथमिक बजट को 68,710 करोड से बढाकर इसे अब 97,255 करोड कर दिया है.इस सबके बावजूद भी स्थिति 'ढाक के तीन पात' से आगे की नही दिखती है...
देखा-देखी या सुनी-सुनाई बात नही कर रही बल्कि इस हकीकत को झेला भी है.यहाँ अधिकांस शिक्षक बैठकर गप्पवाजी करने में बदस्तूर मशगूल रहते हैं.कुछ एक अपने कर्तव्य के प्रति इतने जागरूक रहते हैं कि उन्हें कई लोगों के हँसी का पात्र बनना पड़ता है.कुछ अपने ही साथ के लोगों कि खिल्ली उड़ाने से भी बाज नही आते हैं.बहुत से अध्यापक इतने महान हैं कि उन्हें बाटे गए कक्षा में उनके कितने विद्यार्थी हैं.वह भी ज्ञानत नही रहता है.हालाकि केवल पंजीकृत बच्चों के संदर्भ में ही कह रहे हैं.रजिस्टर की बातें तो भूल ही जाएँ.वह तो एक समुन्द्र है...यहाँ खाने के मुख और दिखाने के दांत का मामला है.यह उस जगह की विशेष व्यवस्था होती है.इस कदर की चीजों को लापरवाही का नाम दें या फिर घटाटोप नीति की दुहाई दें यह सब समझ के परे है.इसे हम किसी रूप,आकार,प्रकार और ज्ञान का नाम देकर दफ्न कर दें...यह सारी की सारी खुराफाती बातें किस ओर इशारा करती हैं...इस बात को भी परे धकेल के हम उनके मात्रा ज्ञान की बात करें तो सिर शर्म से शर्मिंदा हुए जाता है...
बच्चों के संदर्भ में एक सूत्र है जिसे "सुपबोली" के नाम से जाना जाता है अर्थात सुनना,पढ़ना,बोलना और लिखना सिखाने के लिए है परन्तु कुछ को इसका भी ज्ञान ही नही है बाकी की तो दूर की कौड़ी ही है.यही सब कुछ शहरों के सरकारी स्कूलों में भी बतौर देखा जा सकता है.
ताज्जुब का पारावार तब अधिक बढ़ जाता है कि इन स्कूलों में पिछड़ी,अनुसूचित जनजाति,अनुसूचित जाति और मुश्लिम वर्ग के ही बच्चों के नाम देखने को मिलेगे.लेकिन पढ़ाने वालों के नाम अपने आप में एक अजूबा कह सकते हैं.हर वर्ग के लोग नियुक्त किये गए हैं.किन्तु अपने वर्ग को लेकर इतने संकीर्ण हैं की भद्दे अंदाज़ में इन बच्चों को सम्बोधित करके बुलाते हैं.यह उन पढ़े-लिखे गुरूओं का हाल है जो अपने कुंठा से बाहर नही निकल पाए हैं.पापी पेट के कारण इस जगह को अपनाये हुए हैं.यहाँ मिलने वाले मुँह मांगी सुविधा के भुक्तभोगी बनने के लालसा ने उन्हें टिकाये हुए है.एक सहयोगी शिक्षक थे जो उच्च वर्ग से आते हैं.उनका सपना एक पी सी एस अधिकारी बनने का था,लेकिन मजबूरी में यहाँ आ गए.'वह बड़े ताव के साथ कहते हैं कि जब मैं अपने गांव-घर जाता हूँ तो लोगों से यह बताने में शर्म आती है कि मैं कहाँ पढाता हूँ' आप सब अंदाज़ा लगा सकते हैं की इस मानसिकता से ग्रसित व्यक्ति उन बच्चों के साथ क्या-क्या कर सकता है...      
बच्चों के शिक्षा में सिर्फ लड़कों की बात करें तो भी यह बात बेहद अफ़सोसजनक,दुखद और भौच्चक कर देने वाली ही लगती है.इन्हें रजिस्टर में सौ फीसदी उपस्थित देखा जा सकता है.किन्तु मौजूदा स्थान पर शून्य से आगे कोई अंक नजर नही आएगा.भाषा गत समझ की बात बड़ी दूर है इनको ठीक-ठीक अपना नाम भी लेने नही आता है.परन्तु परीक्षा में अंक अनुमान से कही बढ़कर मिलते हैं.इस कारण उनको कुछ अधिक मगजमारी नही करनी पड़ती है.इस सुविधा ने भी उनका बेडा ही गर्क किया है...
लड़कियों के नजरिये से देखें तो यह अनुपात एक संताप की तरह लगते हैं.वह घर से भले ही समय से हाजिरी के लिए मौजूद हों किन्तु उन्हें बाद में घरों में काम करने के लिए भेज दिया जाता है.अगर कोई ढीठ है तो उसे डंडे के जोर पर भेज के ही दम लिया जाता है.इतना ही नही उन्हें स्कूलों में बन रहे भोजन में एक सहयोगी के तौर पर भी देखा जा सकता है.यदि इसे एक सकरात्मक नजरिये से देखा जाये तो ठीक ही है.उनके गार्जियन को भी इस बात की कुछ खास चिंता नही है.'यह तो बहुत बढियां है.कम से कम कुछ न कुछ सीख तो रही हैं.ससुराल में किसी प्रकार की शिकायत तो न होगी.भविष्य के स्त्री के गुण तो आ ही जायेंगे'.यह उन माता-पिता के विचार हैं जिन्हें अपने बच्ची के ज्ञान से कही अधिक महत्वपूर्ण उनके एक सुघड महिला होने की फ़िक्र ज्यदा हलकान किये हुए है...ऐसी स्थिति में हम किस मुहीम के झंडे को बुलंद किये फिर रहे हैं.
आज के उपभोक्तावादी और भूमंडलीकरण के दौर में लाखों-करोड़ों के दिलों में बैठी अन्धकारता की कालिख भी नही धूल पाई है.फिर जागरूकता की धूप किस राह से अपनी जगह बनाएगी.आखिर आर्थिक बदलाव की लहर किस दरवाजे से पहुंचेगी...
एक लड़की ही भविष्य में एक परिवार की नीव रखती है.इसका हमकदम साथी एक बच्चा ही तो बनता है.यही से एक कुटुंब जन्म लेता है.एक समाज का निर्माण होता है.एक पारिवारिक संस्था का आगाज़ होता है.इसके आगे से एक नए भारत के ईमारत की परिकल्पना साकार रूप लेती देखी जा सकती है.किन्तु इन सब असमानताओं.अभावों,उपेक्षाओं और तिरस्कारों के मध्य में कुछ भी कहना ठीक प्रतीत नही होता है.इन सब के बीच रोजी-रोटी के लाले की खाई अभी तक पट नही पाई है.असमानता के रास्ते बढती व्यवस्थाएं एक  धोखा ही तो हैं... 
जिनके मासूम कंधे अपने किताबों के ढेर रूपी बस्ता को ठीक से नही उठा सकते हैं.उन्हें ही फावड़े के साथ कठोर से कठोर जमीन पर जोर-आजमाइस करते सहज ही देख सकते हैं.लेकिन स्लेट पर एक आडी-तिरछी रेखा खिचने में बुक्का फाड़ के रोने लगते हैं.यह सब परिस्थिति की देन है या हमारी ही कोशिश में वो पैनापन नही है...यह सब एक वातनुकूलित कमरे में बैठकर महसूस करना और समझना मुश्किल है.
देश की महिलाओं को शिक्षा और शिक्षित करने का प्रयास हमेशा से ही होता रहा है.सन १९९१ में यूनिसेफ की सहायता से ''विहार शिक्षा परियोजना' के माध्यम से ग्रामीण महिलाओं को शिक्षित करने पर विशेष जोर दिया जाने का प्रयास किया गया.इसके अतिरिक्त बहुत सी नई-नई योजनाओं को भी क्रियान्वित करने का भरसक कोशिशे की गयी.इन सब के लिए नौवी योजना में परिव्यय रुपये ३५ करोड का था.जो की दसवी योजना में यह १०० करोड का कर दिया गया था.इसे २००२-२००३ से २००७-२००८ तक के लिए एक सुनिश्चित अवधि तक के लिए निर्धारित कर दिया गया.यह कार्यक्रम देश के दस राज्यों के साठ जिलों में लगभग ९००० से ज्यादा गांवों में चलाया जा रहा है.देश भर में भारी संख्या में अशिक्षित महिलाओं को देखते हुए.यह एक उम्मीद की किरण सरीखा है.इतना ही नहीं सरकार द्वारा 'महिला मंडल'के नाम से एक अन्य योजना भी चलाई जा रही है.इसके माध्यम से ग्रामीण स्त्रियों को शिशु पालन,पर्यावरण,स्वास्थ्य,कानून,शिक्षा और पौढ शिक्षा के क्षेत्र की विस्तार से जानकारी दी जाती है.उन्हें कृषि तथा स्वरोजगार से सम्बंधित कार्यों के सम्बन्ध में शिक्षण-प्रशिक्षण देनी की भी व्यवस्था प्राय: देखने.सुनने को मिलती रही है.इसके लिए 'कृषि विकास योजना' की शुरुआत की गयी.इतना ही नही नौवी पंचवर्षीय योजना में स्त्रियों के जागरूकता के लिए श्रीमती दुर्गाबाई देशमुख समिति,स्त्री शिक्षा तथा शिक्षा आयोग और जनार्दन समिति बनाई गयी.सार्वभौमिक विस्तार के नजरिये से यह सब महत्वपूर्ण जान पड़ते हैं.किन्तु हकीकत के मरुभूमि पर वैसे ही हैं जैसे तपते बालू पर एक बूंद पानी का कोई अता-पता नही लग पाता है...
सामाजिक जागृति के लिए एक महिला वर्ग का जागरूक,शिक्षित और समझदार होना बेहद जरुरी है.लेकिन जिस सीमा तक होना चाहिए वो अभी तक सिर्फ एक ख्याली पुलाव ही लगता है.मुझे तो लगता है की यह तयशुदा बात है कि दरवाजों का खुलना हर हाल में होगा.वरना वह दीवार के मानिंद स्थिर,जड़ और कठोर हो जाएँगी.ऐसे में वह दिन दूर नहीं जब उन सब दीवारों को ढहा दिया जायेगा. 
                              क्या कर नहीं सकती अगर शिक्षित हों नारियां                                
                              रण-रंग राज्य सुधर्म रक्षा कर चूँकि सुकुमारियाँ                                
                              भागेगी हमसे सदा,दूर-दूर सारी बुराइयां                                
                              पाती स्त्रियां आदर जहाँ,बनाती है वहीं सीढियाँ...
समाज से निरक्षरता रूपी कोढ़ को समूल नष्ट करने के लिए केंद्र सरकार ने १९८६ में 'साक्षरता मिशन' के अंतर्गत कुछ कार्यों की शुरुआत की थी.जिसके तहत प्रत्येक जनपद में इसे लागू करने का युद्ध स्तर पर काम शुरू किये गए.इसे ही २००३ आते-आते 'सर्वशिक्षा अभियान' के तौर पर प्राइमरी स्कूल को बढ़ावा देने के लिए अचूक हथियार के रूप में प्रयोग किया जाने लगा.जिसमें बच्चियों के शिक्षा को निःशुल्क किया गया है.इस कारण से उनके संख्या में इजाफा हुआ.यह इजाफा भी एक संदेह को जन्म देती है.परन्तु सोचने वाली बात है की आकडे जूटा लेने से उनको शिक्षित भी किया जा सकता है...? सन २००५ में मुलायम सरकार ने राज्य स्तर पर लड़कियों के शिक्षा के लिए २० हजार का अनुदान देने की घोषणा की थी.यह सुविधा किन-किन घरों तक पहुँच पाए इसकी भी पड़ताल की जानी चाहिए थी...
सरकारी फरमान की बनी योजनाये वेशबब चमकीली होती हैं.जबकि दूर-दराज़ स्थानों तक अपनी पकड़ बना पाती हैं..?वही नक्सल प्रभावित जगहों तक जाने में तमाम लोगों की रूहें कांपती हैं.वहाँ तक जाते-जाते इन योजनाओं की चिंदी-चिंदी हो जाती है.जिनका नामोनिशान ढूढना घोर मेहनत-मशक्कत का काम है.यही सब कागज पर सुनहरे अक्षरों में चमचमाती हुई आँखें चौंधिया देती हैं.
जिन्हें तन ढकने के जुगाड की कुब्बत नही है वह भी बुनियादी हकीकत के उतने ही हकदार हैं.आमिरी के साये तले पलती गरीबी के प्रति जिम्मेदारी किसकी है...? 
यह एक लम्बें मंथन का बिंदु है जिसे यूहीं टाल देना कत्तई उचित न होगा... 
जिन-जिन योजनाओं-परियोजनाओं को सिने पर हाँथ रखकर और मूछों पर ताव देकर डंके के जोर पर सुनाते नही अघाते हैं दरअसल में वे सब एक हवा-हवाई ही सावित होते हैं...
आज़ाद भारत के गलियार में झाकने पर एक सुन्दर,सजीव और सपना साफ़-साफ़ नजर आते हैं.जबकि पहुँचने पर रेत के शिवा हाथ कुछ नही लगता है.धूल भी नही...
सच के आईने में तश्वीरे मटमैली हैं इन्हें झाड-पोछ कर अपनी-अपनी हिस्सेदारी निभानी ही होगी.यह दिन कब आएगा...
बनवासी का जीवन जी रहे लोग मुख्यधारा के लोगों के बीच अपनी मौजूदगी दर्ज करा पाएंगे...
शिक्षा के साथ उनके रुदिवादी विचारों से मुक्ति का सबेरा आ पायेगा...
पीढ़ियों-दर-पीढ़ियों चली आ रही उनकी नियति बदलने का हिस्सा ये व्यवस्थाएं बन पाएंगी...  
सवालों के घेरे में बैठकर यह सब एक मुश्किल लगता है.लेकिन बेशक इंसान ही सब कुछ करता है.हमें उम्मीद की एक किरण अपने गिरेबा में जलानी ही होगी...

पूरे देशवासियों को २६ तारीख की अग्रिम हार्दिक शुभकामनाएं...!!!

                                                                                           डॉ.सुनीता     

1 comment:

  1. "सवालों के घेरे में बैठकर यह सब एक मुश्किल लगता है.लेकिन बेशक इंसान ही सब कुछ करता है.हमें उम्मीद की एक किरण अपने गिरेबा में जलानी ही होगी..."

    बिलकुल सच कहा आपने।
    बहुत ही अच्छा आलेख।


    सादर

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