सफ़र,एक सूरत,चंचल मन बन...!

                         सफ़र

मैं अकेली इस डगर में 
          जिन्दगी के इस सफ़र में 
ठोकरों से वास्ता है 
           भीड़ के इस शहर में 
गम वो आंसू हैं मेरे फ़साने 
           वक्त के इस लहर में 
जीवन के स्वप्न-चित्र
           आधे-अधूरे रह गए 
दृष्टि पथ के मध्य में 
           हम!सिर्फ तन्हा रह गए 
अब शिकवा ना है मुझे 
            इन तन्हाइयों के शहर में 
कर्तव्य के वेदी पर 
           जख्म झलकते हैं 
अब!बस दर्द उभरते हैं 
           खिल्लत की राहों से 
जिल्लत की आहों से 
           केवल मर्द गुजरते हैं
सागर के लहरों में 
           निशा के नजरों में 
एक गीत उभरते हैं 
           सिने में दर्द उबलते हैं 
सिर्फ मौसम बदलते हैं
           जब देखा जीवन के रंग में  
एक नवल रूप संवारते हैं
           फिर आगे एक राह निकलती है...!
'मर्द-मतलब बहादुर से है'
नोट-यह रचना मैंने अपने एक दोस्त के जीवन में आये तूफानों को देखकर यकायक लिखा था.
उसे दिया भी फिर दुबारा मुलाकात नही हुई...
                    
                          'एक सूरत'

ये देखो चीथड़ों में लिपटी एक मूरत है
             दिल से रोती होठो से हंसती एक सूरत है
गर्व से फूलती गम से धसती है 
             हँसते-हँसते गाती हैं चलते-चलते ठहर जाती है.
यह सबकी जरुरत है ममता की एक झोली है 
             खाली दामन देखती नही सिर्फ कर्म पर ठनती है.
बनती-संवरती पर पल में ही सब छोड़ दौड़ती है
             करुणा की सागर बन मोती सी बरसती है
कभी-कभी पतीत-पावनी बन लहराती है 
              उसके दमपर दुनिया में जाने कितने मुस्काते हैं 
आवभगत की मांग नही जीवन भर की प्यासी है 
              मधु सी मीठी बोली मिश्री की डली एक कली है
कब छा जाये यह एक अबूझ पहेली है 
              अपना सब सुध-बुध भूल दूसरों में खो जाती है 
एक आवाज पर भौरा बन मंडराती है
              उसे न तन की चिंता न मन की परवाह है
दिन-रैन वेचैन हो भागी-भागी फिरती है 
             अपना घर-आँगन नही पर दरवाजे की शोभा है 
वह गरीब की एक बेटी दो रोटी की भूखी है 
               इसी वास्ते बड़ी भोली ईमानदारी की पुडिया है
बीन शिकवा दौड लगाती है जीवन को बिताए जाती है...

                           'चंचल मन बन'
बिखरती किरणों को 
         सुबह के सूरज को 
झुक-झुक करते सभी सलाम 
         उसके तवज्जों में छिपी एक शैलाब 
ओंसों के बूंदों में रहती तल्लीन 
         मन की शोख चंचलता लिए घुमती 
उमगों के तराने पिए इठलाती 
         मद्धम-मद्धम चलती रात की बदली 
सुबह होने तक मिलती-जुलती 
         राही बन अम्बर के गली नज़रों से 
सूरज को पल-पल ललचाती 
         सपने आशा के दीप बन बहलाते 
होते शाम उम्मीद को समेटती 
          सच रात-दिन की छटा निराली 
मन में अगले जीवन की प्यास जगाती...!
                                        डॉ.सुनीता 
   

  

9 comments:

  1. तीनों ही कविताएं बहुत अच्छी लगीं।


    सादर

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  2. तीनों ही रचनाएं बहुत सुन्दर है...

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  3. teeno rachnayein bahut sunder..........

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  4. bahut hi sudar teenon rachnayen

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  5. कल 20/01/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  6. सुन्दर...सभी अच्छी लगीं ...

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  7. प्रेरक,प्रभावशाली और सुंदर रचना|

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