'किस्सा एक रोटी-बेटी का...!

ससुरी एक बात बता तेरी हिम्मत कैसे हुई मेरे चीजों को हाथ लगाने की हूँ.? एक नम्बर की जाहिल,गंवार,बेहया,कर्मजली,फूहड़,नामुराद बेहूदा कहीं की किसी चीज़ की तमीज़ नहीं है.यह किसी चलचित्र का सम्भाषण नहीं है.बल्कि रोजमर्रा के जीवन की कडुवी,कटु और सच्ची तस्वीर/चेहरा है.इतना ही नहीं लोगों के अंदर जड़ जमाती वेबुनियादी बातें अभिन्न अंग बनती जा रही हैं.शिक्षित समाज होने की बात आये दिन सुनने-पढने को मिलती ही रहती हैं.फिर भी इन शब्दों की आवाजाही(प्रयोग) में कोई कमी नजर नही आती है.
आज के बाद तू यहाँ नजर आई तो तेरी खैरियत नहीं है.धमकी देने के तरीके आज भी वैसे ही हैं.जो कभी(तोहरा के अगिला बार देखली त नीक न होई) गांव-गिरावं के अनपढ़ लोगों के मिथक के रूप में जानी जाती थी.आज वह हर सब लोगों के मुँह की शोभा हैं.
अनगिनत शब्दों की माला से नवाजे जाने के बाद भी यहीं खड़ी है.बाह री माया की मूरत कलेजे पर घात नही लगती है.किस मिटटी की बनी है.जो हारती ही नहीं जब देखो तन के खड़ी हो जाती है.जिसके दम पर जीतती है उसके खातिर भी हार नहीं मानती है.इसे स्त्री की ताकत कहते हैं.कउने मुहूर्त में तोरा के बनावल गयल हउअ..?
बजबजाती मानसिकता से ग्रसित लोग यही कल्पना करते हैं की एक स्त्री अपने ममता के आगे हार मान जाती है.सम्भवत सच्चाई भी यही है.किन्तु निर्णय ले ले की विरोध करके रहेगी तो फिर कोई डिगा भी नहीं सकता है. अक्सर यह उक्ति बार-बार हरबार सुनाई/बताई जाती है कि एक नारी ही नारी की दुश्मन है इस बात से पूर्णतः  इनकार नहीं किया जा सकता है .एक ही व्यक्ति के अनेकों रूप हैं.वह स्त्री हो या पुरुष दोनों ही अपने-अपने मांद में बहरुपिए हैं.इसे भी झुठलाया नहीं जा सकता है.प्रकृति ने जितने स्वरूप दिए हैं,उतने ही भिन्न-भिन्न भूमिका भी दी है.उसी के इर्द-गिर्द मानवीय स्वभाव नाचता रहता है.इसी भावना के हिंडोले में झूलने वाले भ्रम में जीते हैं.इसकी परिणिति यातना के स्तर पर जाकर नारकीय स्थिति तक पहुँच जाती है.   
एक 'जननी' को एक माँ ही तडपाती है.अंतर केवल समय का होता है.जब कोई अपने दौर से गुजर जाता है तो वह उसे भूल जाता है.वह भूल जाती है या भूलने का नाटक करती है.ठीक से कहा नहीं जा सकता है.इसी कारण से भावना पर कठोरता की चादर चढ़ जाती है.जिसे नोच फेकने के लिए एक मजबूत इरादे से भरपूर आदमी की दरकार होती है.इस चंडीय विचारधारा से जी तोड़ मुतभेड के सामने टिक सके.बस उस दौर से लोहा लेने की कुब्बत,जूनून और इच्छा हो तो हर किसी को शर्तिया हराया जा सकेगा.वरना सदियों से घुन की तरह मन-मष्तिष्क पर विराजमान आडम्बरों.पाखंडों,नीतियों,कुरीतियों और अपसंस्कृतियों को समूल नष्ट करना संभव न होगा.
सास-बहु के रूप में स्त्री का चेहरा कितना क्रुर,भयावह और डरावना लगता है.माँ,बहन,बेटी और सहेली के साथ एक अलग ही रिश्ता परवान चढ़ता है.जबकि ननद,जेठानी,देवरानी और पत्नी की भूमिका में कलह,द्वेष,क्रोध,दाजा-हिस्सी और दिखावटीपन अपने पूर्ण सबाब पर होता है.कुलमिलाकर स्त्री का समाज में बहुत तरह के किरदार बनाए गए है.पुरुषों के भी अनेकानेक गिरगिटी रूप भी यूहीं मौजूद है.जिसे प्रकृति ने रचा है.इंसान ने उसे नीयम,कानून,व्यवस्था,प्रथा,धर्म-जाति और वर्ग के हिसाब से पृथक-पृथक किया है.उसी के अनुरूप कार्य को अंजाम देने के लिए दबाब बनाते हैं.इसी से समाज में वर्ग भिन्नता की एक न पटने वाली खाई नज़र आती है.
आश्चर्य और अफसोस तो इस बात का है कि एक ही देश में 'बिरादरी' और 'मरजाद' के नाम पर अलग-अलग पारम्परिक मान्यताओं का प्रचलन है.जिसका पालन न करने की एक वीभत्स सजा है.चार मुख्य धर्मों के आड़ में न जाने कितने उपजातियां निहित है.जिनके बारे में ठीक-ठीक अनुमान लगाना आसान/मुमकिन नहीं है.एक चीज़ और है जो बहुत कचोटती है की सारे बेकार,अनर्गल,बेमतलब और अंधी व्यवस्था मध्य वर्ग के लिए बने हैं.हुक्का-पानी और मरजाद के नाम पर कुछ भी न करने की एक दहसत देखी जा सकती है.इस पैबंद के नाम पर ही मानों उनके खून सुखकर नाड़ीयां बंद होने को हो जाती है.जबकि उच्च और निम्न वर्ग जब चाहे जैसे चाहे अपने को रखा सकता है.पैसे वालों की तूती बोलती है.निम्न लोगों की लम्पटता ध्यान आकर्षण से दूर रखती है.
मानवीय उपलब्धि चाँद के मुहाने तक पहुच गयी है,लेकिन रोटी-बेटी का किस्सा अब भी हिचकोले ही खा रही है.बेटी के नाम पर आज भी कईयों के घरों में मातम सा छा जाता है.वहीं रोटी की जद्दो-जहद और जंग आम-अवाम की उत्तरोंउत्तर जारी है.हम आज भौगोलिक,मंडलीय,जलवायु समृधि के कागज़ी विकास के कई-कई(शिक्षा,व्यवस्था,माहौल )सोपान क्रास करने के दावे के बावजूद हत्या,लुट,पाप,अत्याचार,भ्रष्टाचार और शोषण की मंदगति से पार नहीं हो पाए हैं.
कमोवेश चंद उदाहरणों को छोड़कर उंच-नीच की भावना अब भी इंसान के गले में मोती की तरह शोभायमान है.दिखावटी तौर पर मुख से मिश्री की सुगंध जैसे बोल फूटते हैं,लेकिन वही दूसरे क्षण शराब के बदबूदार बोतल के साथ-साथ नज़र आते हैं.ऐसे अवस्था में फलांग लगाने का सपना बुनना बुरा तो नहीं है.वह कागज के ही पोटली में क्यों न हो.कुछ तो है जिसे दिखाकर अपने हिस्से के पाप पर पर्दा गिरा सकते हैं.कुछ ऐसी ही स्थिति इन दिनों के माहौल में देखने को मिल रही है...!
हजार से लाख,करोड और अब अरब के पायदान पर जाने के बाद भी हमारे पास कोई ठोस,मजबूत और अडिग यंत्र नहीं है जिससे समूचे समाज का कायापलट कर सकें.!बल्कि अपने-अपने उललू सीधा करने के नाम पर निरंतर नैतिक मन को मतभेद में तब्दील किया जाता रहा है.जहाँ शाम की सोंधी खुशबू के साथ लोगों के दिन की शुरुआत होती थी आज सेंट छिडकने के बाद भी बदबू अपने स्थान पर अंगद के पैर के मानिंद टिका रहता है.
सभा,मंचों और बैठकों में बड़ी-बड़ी लछेदार बातें करने वाले लोग अपने-अपने गिरेवांन (घरों)में एक लोमड़ी हैं.किसी की इज्जत करना तो दूर सम्मान करना भी गवारा नहीं करते हैं.जूते-चप्पलों से ऊपर की सोच पर अभिमान का जबरदस्त पहरा है.इसे पिघलाना कठिन है.शंकर की जाटा से एक बार गंगा माँ निकल सकती है.परन्तु इंसान(स्त्री-पुरुष) के अंदर बैठा अहंकार का दानव दावानल मचाने से बाज नहीं आएगा.जिसकी निर्ममता से सम्पूर्ण समाज दोराहे पर खड़ा नजर आता है.
जो भी हो समानता,एकता,विकास के झूठे,दिखावटी और बनावटी सहारे से ही सही देश की छवि बदली तो है.उम्मीद का साथ न छोडने में ही सूरज की सही किरण नजर आएगी.वरना लालच के घटाटोप में सब कुछ गुम हो जायेगा.आँखों देखा,कानों सुना का भी पता नहीं चलेगा कि कब सब कुछ गायब हो गया...!
                                                                                                          डॉ.सुनीता  
    

1 comment:

  1. आपके विचारों से सहमत हूँ।

    सादर

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