नई किरण फूटनेवाली है...! केकरा से कहीं...

                 'सदियों से सताई'
यह जो लहर आई है.मन-उमंग में तरंग मचाई है,                 
मिलकर साथ हाथ बाटाओ ऐसी शोर सुनाई है.
                                  गफलत का दौर छटनेवाला है,सच्ची आजादी ने पुकारा है,
                                  चलो कदम बढ़ाओ दुनिया के नुमाइंदों ने ललकारा है.
जनता जाग उठी है,चट्टानों से टकराने की ठानी है,
अब दूर हटो हम अपने-अपने कानून की झंडा टागेंगे.
                                  हम भी कुछ बोलेंगे,सब सुनेगे,आमजन ने ऐसा माना है,
                                  धोखा खाई जनता इस बार न ठगी जा सकेगी ऐसा पहचाना है.
मंडल-कमंडल ने फ़रमाया,सुनो-हमने ऐसा एक नियम बनाया है,
भोली,अंधी जनता ने,अब आँख-कान खोलकर सबको झुठलाया है.
                                  बौखलाए आलाकमान चुप्पी साधे,झंझट से मुह चुराया है,
                                  बचना आसान नहीं क्योकि सदियों से सताई जनता ने दौडाया है.


                 'केकरा से कहीं'
टूट गईल सपना,रुठ गईल निदिया
बुझ गईल अगिया केकरा से कहीं
खेलत रहली गुडिया-गुड्डा,बन गईल दुल्हनिया
दम टुटल-छूटल हमार केकरा से कहीं
माई-बाबु के दुवारा,भईया के अंगना
सुन हो गईल हमारा बीना
बेकल जियरा के हाल केकरा से कहीं
दादी से सुनत रहली किस्सा तमाम
आके ससुरा में घुटल विचार
दर्द के पीड़ा केकरा से कहीं
संघे के सहेलिया,घुमत रहलीं बन के बहेलिया
बट गईल उनकर दीदार
बहें अंसुआ के धार केकरा से कहीं
गांव के खेतवा,दुआर के बाग़-बगिचवा के
खेल होलपतरिया के टीस रह-रह गुने
दिलवा में उठे हुंक केकरा से कहीं
खेलत-कुदत बुनत रहली दुनिया के रीति-नीति
पढब-लिखब बनब हकीम बनली फकीर
इकर चुभन केकरा से कहीं
सुन्दर सेजिया के नाम ठगी गईल जिनगी हमार
बिहसल जियरा के हाल
हाय केकरा से कहीं..
                   'साजिस'                  
निकले थे जिंदगी के लालसा में
मौत से वास्ता पड़ा
निर्मम व्यवस्था के नाम भेंट चढ़ी
धन-लोलुपता ने रौंदा
आशा थी उड़ने की
तमन्ना थी जीने की
पहचान न थी की तोहफे में मिलेगी
यह निष्ठुर सौगात
एक टक निहारते रहे दरो-दीवार
चीखती-चिल्लाती जनता वेवश रही
हुक्क्मरानों ने सियासत के विसात पर
विश्वाश को नोचते रहे
आस को राजनीतिक साजिस के
वेदी पर आहुति दे दी
लहूलुहान भावना चीत्कार उठी
बचा न सकें अपने-अपने अपनों को
समय के क्रूर हाथों ने निढाल कर वेहाल कर दिया.
                                         डॉ.सुनीता










 










 



 















                          

8 comments:

  1. बहुत ही बढ़िया लोगो के भावों को शब्दों में उकेरा है..

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  2. तीनों कवितायें सार्थक बातों को समेटे हुये हैं। यदि समय मिले तो इस लिंक को देखने का कष्ट करें-http://krantiswar.blogspot.com/2011/11/blog-post_30.html

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  3. तीनों कविताएं एक से बढ़ कर एक हैं।

    सादर

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  4. माथुर जी..!
    रचना पर सर्वाधिकार तो पाठक का ही होता है.
    बच्चन जी लिखते हैं कि-"कविता जब कवि के लेखनी से निकल गयी तो
    उसका अपना अस्तित्व हो जाता है और पाठक से अपना सम्बन्ध स्थापित
    करने के लिए उसे किसी समालोचक,व्याख्याता,यहाँ तक कि स्वंय कवि का भी मुहताज नहीं होना चाहिए." शुभकामनाओं के साथ...

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  5. प्रथम बार नई पुरानी हलचल से आपके ब्लॉग पर आना हुआ.
    मन प्रसन्न हो गया आपकी सुन्दर भावपूर्ण रचना पढकर.अनुपम प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत आभार आपका

    मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है,सुनीता जी.

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  6. आपका सतरह वां फालोअर बनकर मुझे खुशी हो रही है.
    मेरे ब्लॉग की आप भी फालोअर बने तो मेरी खुशी दुगनी हो जायेगी.

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  7. सार्थक रचनाएं....
    सादर बधाई...

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  8. सुनीता जी राउर भोजपुरी पा पकड सांचो बहुत बरियार बा

    राउर एह रचना के फेसबुक पा शेअर करत बानी आ उमेद बा की आगहु भोजपुरी मे अईसन रचना पढे के मिली

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