भावना के तृप्ति का विराट फलक कहानी...!

मानव अपने मानसिक उलझन,परेशानी और भावना की तृप्ति का साझा अनुभवों को बाट के करता रहा हैं.यह कटु सच्चाई सृष्टि में शदियों से व्याप्त रही है.इन अनुभवों का आदान-प्रदान,घटना परिस्थिति से अभिन्न रूप में जुड़ा हुआ है. छोटी-छोटी घटनाओं को मार्मिक सम्बेदना,अनुभूति और समय विशेष से जोड़कर सहज ही समझने और अभिव्यक्त होने वाली विधा एक कथा के रूप में आकार पाती रही है.हिन्दी साहित्य में इसे कहानी के रूप में जाना-पहचाना जाता है.जैसे-जैसे समाज का दायरा बढ़ा,बदला और विस्तृत हुआ है.वैसे-वैसे ही किस्सा,कहानी और कथा का स्वरूप भी बदला है.जीवन के उतार-चढ़ाव की सजीव प्रस्तुति इसमें बड़े ही अनोखे तरीके से देखे जा सकते हैं.मानव विकास के साथ ही इसका विकास भी जुड़ा हुआ है.यदि सामानांतर दृष्टी से इसे एक दूसरे का परिपूरक कहा जाए तो कमोवेश अतिश्योंक्ति न होगी.आपसी सुख-दुःख के चित्रण का सीधा सम्बन्ध कहानी से है.
कथा लेखन का विशुद्ध मानदंड प्रकृति,सौन्दर्य,पशु-पक्षी,फूल-पौधे के अतिरिक्त सभ्यता,संस्कृति और मानवीय हरकतों से गुथित है.इतिहास को खंगाला जाए तो ज्ञात होता है कि हिन्दी के पहले संस्कृत,पाली और अपभ्रंश में भी कथाओं का प्रचुर प्रभाव रहा है.संस्कृत के वेद-वेदांगों में पौराणिक कथाओं का वरण स्पष्ट देखा जा सकता है.वहीँ पाली के लोककथाएं,जातक कथाएं अमूमन धर्म और लोकभावना से अत्यधिक उत्प्रेरित हैं.आधार स्तम्भ के रूप में 'रामायण','महाभारत',' श्रीमदभागवतगीता',और 'रामचरित्र मानस' को टटोला जा सकता है.जिसके कथा के साथ न जाने कितने लघु कथाएं संपृक्त हैं.समस्त भारत वर्ष में कहानी का शुरुआती रूप वैदिक काल से मौजूद रहा है.इसका सूत्रपात संस्कृत के अनुवादों से हुआ माना जाता है.इसमें 'बेताल-पचीसी' सर्वप्रमुख है.
उसके बाद 'चारण' तथा चारणेत्तर कवियों के 'रासों' के चरित्र काव्यों में कथातत्व की प्रधानता देखी जा सकती है.इनमें पंक्षियों के कलरव के साथ कथा के बहुरंगी सोपान के दर्शन होते हैं.इसके आलावा प्रेमाख्यानक परम्परा के अगुआ कवियों ने 'मधुमालती','चंदायन' और 'मृगावती' के रूप में एक अलग प्रेम कथा की शुरुआत देखी जा सकती है.जिसमें पंक्षियों को कुशल सन्देशवाहक के रूप में जिवंत चित्रण है.विरह और मिलन के गवाह यह अबोध पक्षी बिन बोले ही बहुत कुछ प्रेणना के बोल-बोल जाते हैं.एकदम अलग रुप में 'चौरासी वैष्णव की वार्ता' है.एक स्वप्न के वार्तालाप को किस्सा के रूप में वर्णित किया गया है.कहा जा सकता है कि कहानी के आरम्भिक दौर में धार्मिक,दैविक और संयोगात्मकता को प्रमुखता से देखा जा सकता है.
वस्तुतः हिन्दी साहित्य में कहानी का उत्थान १९वी.शताव्दी में हुआ.इस दौरान राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत विवरणात्मक शैली को सहज ही देखा जा सकता है.मनोरंजन के फलक पर नजर दौड़ाने के पश्चात् ज्ञात होता है कि सामाजिक,राजनीतिक,आर्थिक और धार्मिक आदि कहानियों में चरित्र की प्रधानता सरल रूप में देखी जा सकती है.साहित्य में साहित्य के इतिहास का विभाजन एक महत्वपूर्ण पड़ाव है.हिन्दी में कहानी के प्रारम्भ विकास और चर्चा का पूर्ण श्रेय 'द्विवेदी युग' को जाता है. सन १९०० में एक मासिक प्रत्रिका 'सरस्वती' का प्रकाशन हुआ.जो पहले कहानियां अंग्रेजी और संस्कृत के आधार पर लिखी जाती थीं.उसमें बदलाव होने लगा था. शैन:-शैन: जन साधारण के घटनाओं को आधार बनाया जाने लगा.जीवन के आप-धापी के संघर्ष को एक प्रेणना के रूप में व्याख्यायित किया जाने लगा.कपोल-कल्पना की दुनिया 'जयशंकर प्रसाद', और जासूसी वो तिलिस्म यानि 'चंद्रधर शर्मा गुलेरी' से निकल कर हकीकत के धरातल पर उतर कर यथार्थवादी 'प्रेमचंद' के रचनाओं का दौर आया.लम्बे समय तक लेखनी का यही रूप जारी रहा.परन्तु शीध्र ही कहानियों के बुनावट में विविधता उत्पन्न हुई.इस रचनात्मक हलचल से चरित्र प्रधान,वातावरण आधारित क्रिया-कलाप पर निर्भर और हास्य-व्यंग्य प्रधान कहानियों का एक नया कलेवर अवतरित हुआ.
विवरण के फलस्वरूप देखा जाए तो 'प्रेमचंद' ने जहाँ कल्पना और यथार्थ को अपना लेखकीय हथियार बनाया.वहीँ 'जयशंकर प्रसाद' ने विषय-विस्तार करके परिष्कृत शैली को परिपुष्ट करने के साथ ही कहनी में रोचकता और दार्शनिकता का परिचय पाठक से करवाया.समयांतराल के बाद कहानियों में एक सूक्ष्म उदेश्य ही देखने को रह गए.व्यक्ति के अंतरद्वन्द और प्रतीकों को एक केंद्र विन्दु के रूप में 'अज्ञेय','जैनेन्द्र', और 'इलाचंद्र जोशी' ने वर्णित किया.कहानियों में भी एक प्रगतिशीलता दिखाई देती है.जो की पूर्णतः समाजवादी यथार्थ का विराट फलक है.नवीनता के द्वयोतक के रूप में अमृतराय,भैरवप्रसाद,विष्णु प्रभाकर,रांगेय राघव,उषा देवी,प्रभाकर माचवे,और चन्द्रकिरण का नाम लिया जा सकता है.नजर दौड़ाने पर महसूस होता है कि लगभग सन १९६० में हिन्दी साहित्य में कटु यथार्थता संलिष्टता के साथ दिखाई देने लगा.इससे कथानक में त्रास उत्पन्न हो गया.किन्तु नई सम्बेदना और वस्तुस्थिति मूलरूप से कहानी को बचाती नजर आती है.हिन्दी के पहली कहनी से लेकर आज तक कहानी के कथन को लेकर ऊहा-पोह की स्थिति सदैव बनी रही है.'पंडित किशोरीलाल गोस्वामी'के प्रथम कहानी 'इंदुमती' को मौलिक कहानी का दर्जा दिया गया है.तत्पश्चात 'गोस्वामी'जी की ही 'गुलबहार', 'मास्टर भगवानदास' का 'प्लेग की चुड़ैल',रामचंद्र शुक्ल' का 'ग्यारह वर्ष का समय', पंडित गिरजादत्त वाजपेयी' का 'पंडित और पंडितानी' और 'बंग महिला' की 'दुलाईवाली' कहानिया एक -एक करके प्रकाशन में आई.इसके आलावा भी बहुत सी उंदा कहानियां लिखीं गयी और प्रकाशित हुई.
गाँव और नगर को तुलनात्मक नजरिये से परखते हुए,नई सोच और दृष्टि के मुताबिक तमाम किस्से-कहानियां लिखी गयी.इनमें वैविध्य पाया जाता है.जिस तरह से समाज की परिस्थिति बनती गयी उसी के अनूकुल कहानियां भी लिखी जाती रहीं हैं.एक तरफ चीन के आक्रमण,दूसरी तरफ से रूस के मार्क्स के विचारों की प्रभावकारिता की व्यापकता कहानियों में स्पष्ट देखी जा सकती है.
उच्च मानवतावाद के सूर ने तेजी पकड़ी.जहाँ से आदर्शवाद का नारा जोर पकड़ा.निम्नवर्ग की समस्या को बड़ी ही संजीदगी से उठाया जाने लगा.जातिवादिता के नारे बुलंद किये जाने लगे.इससे परम्परागत रीति परिवर्तन के दर्शन हुये.सामानांतर दौर में दुःख,दर्द,गरीबी,भूख हड़ताल,असुरक्षा,सेक्स और झूठे मानवीय मूल्यों का मूल्यांकन जांचती-परखती नजरिये से किया जाने लगा.अंधी दौड़ की कायल जनता के वेग को एक नये अंदाज में देखा जाने लगा.
मौजूदा कहानी का सत्य यह है कि आज के कहनी में छोटी-छोटी अनुभूतियों को बड़ा करके पाठक के समक्ष परोसा जा रहा है.क्योंकि इसने अभिव्यक्ति का रूप धर लिया है.इसमें ऐसा लगता है कि सैकड़ों कथा,घटनाये,विविध मोड़ों और क्षणों को प्रासंगिकता का स्थान देकर फैलाया गया है.अस्तित्ववादी परिवेश को आधार बनाकर ग्रामीण,आंचलिक वर्गीकरण को अमलीजामा पहनाया गया है.
जिस प्रकार से परिवार में पीढ़ियों के अन्तराल का व्यापक प्रभाव दृष्टिगत होता है ठीक वैसे ही साहित्य में दिग्दर्शित होता है.समाज से साहित्य किसी भी तरह अलग नहीं है.जो बदलव यहाँ देखे जाते हैं वही रचना में भी देखे जाते रहे हैं.यही कारण है कि आज कि कहानी पहले कि कहानी से कोसों दूर है.लेकिन इसे गलत नहीं ठहराया जा सकता है.क्योंकि बदलव ही सृजन को नये रूप-रंग से सुसज्जित करने में कारगर है. 
डॉ.सुनीता 

3 comments:

  1. आपने 'कहानी' की अनुपम कहानी प्रस्तुत की है। मेरे ख्याल से 'पुराण'तो 'क़ुरान' की तर्ज पर विदेशी शासकों ने भारतीय विद्वानों से लिखवाये थे,अतः वेद-वेदांग मे 'पौराणिक'प्रभाव की बात न समझ सका।

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  2. आपके ब्लॉग पर आकर अच्छा लगा।

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    कल 07/12/2011को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  3. badlaav hi parivartit samay ki abhivakyi hae sargarbhit lekh .

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