'शब्द' हैं 'शब्दों' का क्या !



जहाँ में आके,
सबको पाके,क्या सोचें हम,
क्या करें वो ..?
किसी को राह बतलाएं.
मंजिल के लिए उकसायें 
या फिर उसे दबाएँ
कर्म के सहारे. 
जीवन पथ पर 
आगे बढ़ाना सिखलाएँ,
पर वो नहीं मानता 
न ही समझाता है.
वो...
विमुख हो गया है इन्सान
अपने कर्म से धर्म से 
नहीं मानता,कर्म के मर्म को
मनमाना ही करता. 
जूनून है उसको 
हड़पने की 
सनक है हथियाने की 
रार ठाने बैठा है 
सब कुछ अपने में
समाहित करने को 
सरियाने को वो...
इसको,उसको,सबको,
तैयार है बरगलाने को  को
इसीलिए व्याकुल है 
बेचैन है हर वक़्त हर व्यक्ति 
चाहता है अपनों को,अपने कौम को,
लूटना खसोटना,हथियाना
क्योंकि..
हम..!
सारी दुनिया  
हैं लालची
उसमे कूट-कूट के 
भरा है 
स्वार्थ,दिखावा,सेवा,
संस्कार,प्यार और सम्मान
उसमें है संपृक्त 
काम,मोह,माया,
एश्वर्य,सत्ता,झूठी मर्यादा 
और संप्रभुता की 
जहाँ-जहाँ जाता वो..
मूल्याकन में अपने को कम पाता 
औरों के अपेक्षा 
निन्यान बे के फेर ने 
सिखलाये
जोड़-तोड़ 
और गला घोट निति 
इसमे लीन मानव ने 
कर दिया दरकिनार 
मानवता को 
सम्बेदना और अखंडता को
भागम-भाग में शामिल 
छोड़ दिया नैतिकता 
पकड़ रह भौतिकता 
विस्मृत कर दिया 
वो..
कैसे आया है 
धरती पर क्यों,किसलिए
पाया है..
तन 
ऐसे कैसे यहाँ आया है
जिसने उसको भेजा 
किसने उसको यहाँ बुलाया 
सुभेक्षा 
अंतर्गत रहने को 
मानवीयता फ़ैलाने को 
पर  वो ...
उसे धिक्कारता 
करता उसका तिरस्कार 
वह पहुचना चाहता है
वहां,जहाँ कोई नहीं पंहुचा 
उस चरम,चाँद पर 
है घटाटोप अँधेरा 
रोके खड़ी है राह
भौतिकता से पहले 
नैतिकता के साथ
ले जाती है अपने पास,
वहां अपने साथ
जहाँ शून्य हो जाता है व्यक्ति 
रह जाती हैं यादें,सपने
कर्तव्य मध्य में 
एक संकल्प,विकल्प के साथ 
हम नहीं करेंगे 
भक्षण,गौ,मानव और काला धन
पालन करेंगे 
आदर्श,निर्देश का 
जो अवनीय,अनिकेत,अवमूल्य 
झलकती है 
हमीं बनेंगे 
सर्वश्रेठ..
अखंडता का विस्तार 
होगी धरणी सुचितामय
जिससे आयेगी अविरल धारा
स्नेह,सम्मान,संस्कृति और संपूर्णता
सभ्यता की..
कोई न होगा  
नंगा,भूखा  
अनपढ़,गवार  
सबके घर आएगी  
श्रदा,विश्वास 
यश अपार..
अभी करना है 
हमें कितना इन्तजार
कोई बतलाये क्या हो पायेगा 
ऐसा संसार में....???????
                              ..सुनीता...
                      (चोर की तलाश...)
नोट-- यह कविता मैंने अपने कक्षा ६(१९९४) में पढने के दौरान स्कूल में हुई प्रतियोगिता में एक प्रतिभागी के रूप में लिखा था इस पर मुझे पुरस्कार भी (गुरु राम किशोर शर्मा 'बेहद' के हाथों)मिला था.एक चांदी का पेन जो एक बार इलाहाबाद यात्रा के समय चोरी हो गयी,जिसने चुराई वो कितना ऊचा उठा मुझे नहीं पता लेकिन याद करके मुझे बहुत ही दुःख और क्रोध भी बहुत आता है,कि काश वो मिल जाये(पेन वो चोर)..पर ऐसा कभी नहीं हुआ यादें बस यादें हैं..

1 comment:

  1. ye lekh padhkar bahut dukh hua ki aapki itani kimati chiz chori ho gayi.kavita kafi achchi ban padi hai...sabdo me aur kasawat rakhiye..tnx

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